ओशो : - " जब भी तुम्हारे मन में कामवासना उठे तो उसमें उतरो। धीरे- धीरे
तुम्हारी राह साफ हो जाएगी। जब भी तुम्हें लगे कि कामवासना तुम्हें पकड़
रही है, तब डरो मत शांत होकर बैठ जाओ। जोर से श्वास को बाहर फेंको-
उच्छवास। भीतर मत लो श्वास को क्योंकि जैसे ही तुम भीतर गहरी श्वास को
लोगे, भीतर जाती श्वास काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ धकाती है।
जब तुम्हें कामवासना
पकड़े, तब बाहर फेंको श्वास को। नाभि को भीतर खींचो, पेट को भीतर लो और
श्वास को फेंको...जितनी फेंक सको फेंको। धीरे-धीरे अभ्यास होने पर तुम
संपूर्ण रूप से श्वास को बाहर फेंकने में सफल हो जाओगे।
जब सारी
श्वास बाहर फिंक जाती है, तो तुम्हारा पेट और नाभि शून्य हो जाते हैं। और
जहाँ कहीं शून्य हो जाता है, वहाँ आसपास की ऊर्जा शून्य की तरफ प्रवाहित
होने लगती है।
शून्य खींचता है, क्योंकि प्रकृति शून्य को
बर्दाश्त नहीं करती, शून्य को भरती है। तुम्हारी नाभि के पास शून्य हो जाए,
तो मूलाधार से ऊर्जा तत्क्षण नाभि की तरफ उठ जाती है। और तुम्हें बड़ा रस
मिलेगा- जब तुम पहली दफा अनुभव करोगे कि एक गहन ऊर्जा बाण की तरह आकर नाभि
में उठ गई। तुम पाओगे, सारा तन एक गहन स्वास्थ्य से भर गया। एक ताजगी! यह
ताजगी वैसी ही होगी, ठीक वैसा ही अनुभव होगा ताजगी का, जैसा संभोग के बाद
उदासी का होता है। जैसे ऊर्जा के स्खलन के बाद एक शिथिलता पकड़ लेती है।
संभोग के बाद जैसे विषाद का अनुभव होगा वैसे ही अगर ऊर्जा नाभि की तरफ उठ
जाए, तो तुम्हें हर्ष का अनुभव होगा। एक प्रपुल्लता घेर लेगी। ऊर्जा का
रूपांतरण शुरू हुआ। तुम ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा सौमनस्यपूर्ण, ज्यादा
उत्फुल्ल, सक्रिय, अनथके, विश्रामपूर्ण मालूम पड़ोगे। जैसे गहरी नींद के
बाद उठे हो। ताजगी आ गई। "
~ ओशो, तंत्र सूत्र, साभार : ओशो इंटरनेशनल फाऊंडेशन
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