*** मिलन और मिलन में भेद है ***
प्रश्न:
जब हम होते तब तू नहीं,
अब तू ही है मैं नाहीं।
तो फिर मिलन कहां हुआ? कैसा हुआ? और किससे किसका हुआ?
मिलन और मिलन में भेद है। दो कंकड़ों को पास रख दो; बिलकुल पास रख दो--सटाकर पास रख दो। तो एक तरह का मिलन हुआ। दोनों अभी अलग-अलग हैं; सिर्फ परिधि छूती है। बाहर का जरा-सा हिस्सा छूता है। भीतर दोनों अलग-अलग हैं मिलकर भी टूटे हैं। दो तो अभी दो हैं, तो मिले कहां?
फिर पानी की दो बूंदों को पास ले आओ। सुबह जाओ; घास के पत्तों पर जमी हुई ओस की बूंदों को पास ले आओ। पास आती बूंदें--पास आई--आई, जब तब बिलकुल पास न आई, तब तक दो हैं। जैसे ही पास आ गई, एक हो गई।
एक यह भी मिलन है। यहां अद्वैत हो गया। दो दो न रहे। यही वास्तविक मिलन है; क्योंकि दो कंकड़ पास आकर भी कहां पास थे? एक दूसरे के प्राण में नहीं डूबे थे। एक दूसरे के केंद्र से मिले नहीं थे। बाहर-बाहर परिधि-परिधि मिली थी। ये जो दो बूंद ओस की आकर पास खो गई, ये जो शबनम की दो बूंदें एक दूसरे में लीन हो गई, अब पहचानना भी मुश्किल है कि कौन-कौन है। अब तुम उन्हें दुबारा न कर सकोगे--पुराने ढंग से--कि यह पुरानी नंबर एक, यह नंबर दो। अब तो मेल हो गया।
परमात्मा दूसरे ढंग का मिलन है। जैसे दो ओस की बूंदें मिलती--ऐसा। इस संसार का प्रेम दो कंकड़ जैसा प्रेम है। जैसे पति-पत्नी मिलते, मित्र मिलते। ये सब दो कंकड़ करीब आते--बस; बहुत करीब आ जाते, तो भी दूर बने रहते, अलग बने रहते, थलग बने रहते।
परमात्मा ऐसे है, जैसे बूंद सागर में उतरती है। लीन हो गई। सच है; इसलिए संतों ने कहा है कि जब तक मैं हूं, तब तक तू नहीं। और जब तू होता है, तो मैं नहीं होता। एक ही बचता है।
कबीर ने कहा है: प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाय। ये दो जहां नहीं समाते, उस गली में ही समा जाने का नाम भक्ति है। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।
इसलिए तुम्हारा पूछना--कि तो फिर मिलन कहां हुआ, एक अर्थ में ठीक है। अगर तुम पहले मिलन का हिसाब रखते हो, तो दूसरा मिलन मिलन नहीं। अगर तुम दूसरे को मिलन कहते हो, तो पहला मिलन मिलन नहीं। तुम समझ लो; तुम्हें जो कहना हो। शब्दों में कुछ सार नहीं है।
कैसा हुआ? किसका हुआ? कहां हुआ?
तुम मिलन शब्द के ये दो अर्थ खयाल में ले लो। दो कंकड़ों का मिलन; अगर तुम उनको मिलन मानते हो, तो फिर परमात्मा से मिलन को मिलन नहीं कहना चाहिए। अगर तुम कहते हो, मिलन की वही परिभाषा है--और किसी ढंग का मिलन स्वीकार नहीं होगा, तो फिर परमात्मा और भक्त का मिलन मिलन नहीं कहा जा सकता; लीनता कहो; विसर्जन कहो; नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता।
अगर तुम कहते हो कि दूसरा मिलन ही वास्तविक मिलन है, क्योंकि पहले मिलन में तो मिल हुआ कहां! दो तो दो ही बने रहे। पास आ गये; मिलन कहां हुआ? अगर दूसरे का मिलन कहते हो, तो भी चलेगा। तो फिर पहले को मिलन मत कहो; संग-साथ कहो--मिलन मत कहो। संबंध कहो--मिलन मत कहो।
मगर भाषा में अब तक दोना प्रयोग होते रहे हैं। मिलन के दोनों अर्थ हैं: तक संबंध का--और एक विसर्जन का।
भाषा पर मत अटकना; शब्दों पर मत अटकना; सार को ग्रहण करना।
जहां भी भाषा बाधा बने, वहां स्मरण रखना। जहां शब्द बहुत अतिशय हो जाए, वहां खयाल रखना।
Book - Kan Thore Kankar Ghane
Chapter # 2
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः दिनांक १२ मई, १९७७
प्रश्न:
जब हम होते तब तू नहीं,
अब तू ही है मैं नाहीं।
तो फिर मिलन कहां हुआ? कैसा हुआ? और किससे किसका हुआ?
मिलन और मिलन में भेद है। दो कंकड़ों को पास रख दो; बिलकुल पास रख दो--सटाकर पास रख दो। तो एक तरह का मिलन हुआ। दोनों अभी अलग-अलग हैं; सिर्फ परिधि छूती है। बाहर का जरा-सा हिस्सा छूता है। भीतर दोनों अलग-अलग हैं मिलकर भी टूटे हैं। दो तो अभी दो हैं, तो मिले कहां?
फिर पानी की दो बूंदों को पास ले आओ। सुबह जाओ; घास के पत्तों पर जमी हुई ओस की बूंदों को पास ले आओ। पास आती बूंदें--पास आई--आई, जब तब बिलकुल पास न आई, तब तक दो हैं। जैसे ही पास आ गई, एक हो गई।
एक यह भी मिलन है। यहां अद्वैत हो गया। दो दो न रहे। यही वास्तविक मिलन है; क्योंकि दो कंकड़ पास आकर भी कहां पास थे? एक दूसरे के प्राण में नहीं डूबे थे। एक दूसरे के केंद्र से मिले नहीं थे। बाहर-बाहर परिधि-परिधि मिली थी। ये जो दो बूंद ओस की आकर पास खो गई, ये जो शबनम की दो बूंदें एक दूसरे में लीन हो गई, अब पहचानना भी मुश्किल है कि कौन-कौन है। अब तुम उन्हें दुबारा न कर सकोगे--पुराने ढंग से--कि यह पुरानी नंबर एक, यह नंबर दो। अब तो मेल हो गया।
परमात्मा दूसरे ढंग का मिलन है। जैसे दो ओस की बूंदें मिलती--ऐसा। इस संसार का प्रेम दो कंकड़ जैसा प्रेम है। जैसे पति-पत्नी मिलते, मित्र मिलते। ये सब दो कंकड़ करीब आते--बस; बहुत करीब आ जाते, तो भी दूर बने रहते, अलग बने रहते, थलग बने रहते।
परमात्मा ऐसे है, जैसे बूंद सागर में उतरती है। लीन हो गई। सच है; इसलिए संतों ने कहा है कि जब तक मैं हूं, तब तक तू नहीं। और जब तू होता है, तो मैं नहीं होता। एक ही बचता है।
कबीर ने कहा है: प्रेम गली अति सांकरी, तामे दो न समाय। ये दो जहां नहीं समाते, उस गली में ही समा जाने का नाम भक्ति है। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।
इसलिए तुम्हारा पूछना--कि तो फिर मिलन कहां हुआ, एक अर्थ में ठीक है। अगर तुम पहले मिलन का हिसाब रखते हो, तो दूसरा मिलन मिलन नहीं। अगर तुम दूसरे को मिलन कहते हो, तो पहला मिलन मिलन नहीं। तुम समझ लो; तुम्हें जो कहना हो। शब्दों में कुछ सार नहीं है।
कैसा हुआ? किसका हुआ? कहां हुआ?
तुम मिलन शब्द के ये दो अर्थ खयाल में ले लो। दो कंकड़ों का मिलन; अगर तुम उनको मिलन मानते हो, तो फिर परमात्मा से मिलन को मिलन नहीं कहना चाहिए। अगर तुम कहते हो, मिलन की वही परिभाषा है--और किसी ढंग का मिलन स्वीकार नहीं होगा, तो फिर परमात्मा और भक्त का मिलन मिलन नहीं कहा जा सकता; लीनता कहो; विसर्जन कहो; नाम से कुछ फर्क नहीं पड़ता।
अगर तुम कहते हो कि दूसरा मिलन ही वास्तविक मिलन है, क्योंकि पहले मिलन में तो मिल हुआ कहां! दो तो दो ही बने रहे। पास आ गये; मिलन कहां हुआ? अगर दूसरे का मिलन कहते हो, तो भी चलेगा। तो फिर पहले को मिलन मत कहो; संग-साथ कहो--मिलन मत कहो। संबंध कहो--मिलन मत कहो।
मगर भाषा में अब तक दोना प्रयोग होते रहे हैं। मिलन के दोनों अर्थ हैं: तक संबंध का--और एक विसर्जन का।
भाषा पर मत अटकना; शब्दों पर मत अटकना; सार को ग्रहण करना।
जहां भी भाषा बाधा बने, वहां स्मरण रखना। जहां शब्द बहुत अतिशय हो जाए, वहां खयाल रखना।
Book - Kan Thore Kankar Ghane
Chapter # 2
श्री रजनीश आश्रम, पूना, प्रातः दिनांक १२ मई, १९७७
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