" प्रिय प्रेम कृष्ण,
प्रेम । संन्यास की सुगंध को संसार तक पहुंचाना है।
धर्मों के कारागृहों ने संन्यास के फूल को भी विशाल दीवारों की ओट में कर लिया है।
इसलिए अब सन्यासी को कहना है कि मैं किसी धर्म का नहीं हूं, क्योंकि समस्त धर्म ही मेरे है।
संन्यास को संसार से तोड़कर भी बड़ी भूल हो गई है।
संसार से टूटा हुआ संन्यास रक्तहीन हो जाता है।
और संन्यास से टूटा हुआ संसार प्राणहीन ।
इसलिए दोनों के बीच पुन: सेतु निर्मित करने है।
संन्यास को रक्त देना है, और संसार को आत्मा देनी है।
संन्यास को संसार में लाना है।
अभय और असंग।
संसार में और फिर भी बाहर।
भीड़ में और फिर भी अकेला।
और संसार को भी संन्यास में ले जाना है।
अभय और असंग।
संसार में और फिर भी पलायन में नहीं।
संन्यास में और फिर भी संसार में।
तब भी वह स्वर्ग-सेतु निर्मित होगा जो कि दृश्य को अदृष्य से और आकार से निराकार से जोड़ देता है।
लगो इस महत कार्य में।
बनों मजदूर इस सेतु के निर्माण में। "
~ रजनीश के प्रणाम
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