धर्म
एक काव्य है- महाकाव्य- जो दो हृदयों की धडकन के बीच जब जुगलबंदी हो जाती
है, तब घटता है। जब दो व्यक्ति- एक जागा हुआ और एक सोया हुआ- एक लय में
आबद्ध हो जाते हैं, उस लय में, उस सुर-ताल में, उस सरगम में धर्म छिपा है।
धर्म सत्संग की अनुभूति है।
चांद-सूरज दीये दो घड़ी के लिए
रोज आते रहे और जाते रहे
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
मुख तुम्हारा अंधेरी डगर की शमा
रात बढती गई तो हुआ चंद्रमा
याद तुमको किया, रोज हमने जहां
आंधियों में वहीं छा गई पूर्णिमा
बादलों की झड़ी में जली फुलझड़ी,
बिजलियों में कमल मुस्कुराते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
बीन तुम प्रीति की झनझनाती हुई
तुम हवा मेघ की सनसनाती हुई
हम हवा की लहर प्यार की राह पर
दर्द की रागिनी गुनगुनाती हुई
दूर तुमने किया, दर्द इतना दिया,
हम जहां भी रहे गुनगुनाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
तुम अछूती जवानी, अमर प्यार हम
तुम बिना राख की आग, अंगार हम
साथ रहते हुए हम अलग हो गए
तुम पहुंच से परे और संसार हम
तुम गगन से दीए जगमगाते रहे,
हम धरा से दीए झिलमिलाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
व्योम के तीर उस पार तुम रह गए
सिंधु के तीर इस पार हम रह गए
बीच में बस गई एक दुनिया नई
सृष्टि बहने लगी और हम बह गए
तुम खड़े तीर पर तोड़ते हो लहर,
हम लहर पर लहर झनझनाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
इस तुम्हारे-हमारे विरह ने, पिया
मजहबों के चलन को जनम दे दिया
मस्जिदें रास्ते पर खड़ी हो गईं
मंदिरों ने हमारा धरम ले लिया
मूर्तियों को दीये हम दिखाते रहे,
और धूनी तुम्हारी रमाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
फिर तुम्हें ढुंढने चित्रकारी चली
ज्ञान, भाषा, कला की सवारी चली
पर तुम्हारा पता आज तक न चला
तो धरम लड़ गए, चांदमारी चली
जो दया-धरम सब को सिखाते रहे,
दुसरों पर वही तिलमिलाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
धर्म प्रेम की पराकाष्ठा है, प्रेम का आत्यंतिक अनुभव। जैसे दो प्रेमी मिलते हैं, और तत्क्षण उनकी आंखों में दीये जल जाते हैं! बुझी-बुझी थीं आंखें अभी-अभी; राख-राख जमी थी अंगारों पर। झड़ गई राख, आंखों में दिए जल गए।
-ओशो
मृत्योर्मा अमृतं गमय
(Disc.# 04)
चांद-सूरज दीये दो घड़ी के लिए
रोज आते रहे और जाते रहे
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
मुख तुम्हारा अंधेरी डगर की शमा
रात बढती गई तो हुआ चंद्रमा
याद तुमको किया, रोज हमने जहां
आंधियों में वहीं छा गई पूर्णिमा
बादलों की झड़ी में जली फुलझड़ी,
बिजलियों में कमल मुस्कुराते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
बीन तुम प्रीति की झनझनाती हुई
तुम हवा मेघ की सनसनाती हुई
हम हवा की लहर प्यार की राह पर
दर्द की रागिनी गुनगुनाती हुई
दूर तुमने किया, दर्द इतना दिया,
हम जहां भी रहे गुनगुनाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
तुम अछूती जवानी, अमर प्यार हम
तुम बिना राख की आग, अंगार हम
साथ रहते हुए हम अलग हो गए
तुम पहुंच से परे और संसार हम
तुम गगन से दीए जगमगाते रहे,
हम धरा से दीए झिलमिलाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
व्योम के तीर उस पार तुम रह गए
सिंधु के तीर इस पार हम रह गए
बीच में बस गई एक दुनिया नई
सृष्टि बहने लगी और हम बह गए
तुम खड़े तीर पर तोड़ते हो लहर,
हम लहर पर लहर झनझनाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
इस तुम्हारे-हमारे विरह ने, पिया
मजहबों के चलन को जनम दे दिया
मस्जिदें रास्ते पर खड़ी हो गईं
मंदिरों ने हमारा धरम ले लिया
मूर्तियों को दीये हम दिखाते रहे,
और धूनी तुम्हारी रमाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
फिर तुम्हें ढुंढने चित्रकारी चली
ज्ञान, भाषा, कला की सवारी चली
पर तुम्हारा पता आज तक न चला
तो धरम लड़ गए, चांदमारी चली
जो दया-धरम सब को सिखाते रहे,
दुसरों पर वही तिलमिलाते रहे।
दो तुम्हारे नयन, दो हमारे नयन,
चार दीपक सदा जगमगाते रहे।
धर्म प्रेम की पराकाष्ठा है, प्रेम का आत्यंतिक अनुभव। जैसे दो प्रेमी मिलते हैं, और तत्क्षण उनकी आंखों में दीये जल जाते हैं! बुझी-बुझी थीं आंखें अभी-अभी; राख-राख जमी थी अंगारों पर। झड़ गई राख, आंखों में दिए जल गए।
-ओशो
मृत्योर्मा अमृतं गमय
(Disc.# 04)
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