Wednesday, January 16, 2013

मैत्री और शत्रुता –

वैर-भाव में जीनेवाला सदा भय में जीता है, फिअर में जीता है | जो मैत्री चाहते है, मैत्री को उपलब्ध होते है वे अभय को उपलब्ध होते है, फिअरलेस हो जाते है | क्योंकि फिर मिटने-मिटाने का सवाल ही न रहा | वे खुद ही मिट गए हैं, अब उन्हें कोई मिटाएगा कैसा ?
वैर का अर्थ है मैं सब से ज्यादा मूल्यवान हूं | सारा जगत मिट जाए लेकिन मेरी रक्षा जरुरी है | मैं हूं केंद्र जगत का | वैर-भाव तक आधार है, मैं हूं केंद्र जगत का | वैर-भाव इगोसेन्ट्रिक है | वह अहं-केंद्रित है | मैं हूं जगत का केंद्र | सारा जगत चलता है मेरे लिए | सारा जगत मिट जायें, लेकिन मैं बचूं |
मैत्री का केंद्र मैं नहीं हूं, सर्व है | मैं मिट जाऊं, सब बचे | मैं खो जाऊं, सब रहे | मैत्री है मंगल की कामना – कामना ही नहीं, सक्रिय जीवन भी | उठूं, बैठूं, चलूं और मेरा उठाना, बैठना, चलाना, मेरा श्वास लेना भी सर्व-मंगल के लिए समर्पित हो जाए ; तो मनुष्य परमात्मा के दुसरे द्वार में प्रवेश पाता है |
अहंकार से भरा हुआ आदमी प्रेम कर ही नहीं सकता, क्योंकि प्रेम में किसी को निकटता देनी पड़ती है | इतनी निकटता देनी पड़ती है कि वह जितने हम निकट में है, उतने ही निकट में वह भी हो जाता है | इसलिए अहंकार प्रेम से भागता है और डरता है | क्योंकि प्रेम का मतलब है कि दूसरे को इतने निकट ले आना जहां कि खतरा हो सकता है, जहां कि कोई हमें मिटा सकता है |
जितना अहंकार प्रबल होगा उतना ही सारा जगत शत्रू मालुम पड़ने लगता है | जितना व्यकित विनम्र होगा उतना ही जगत के प्रति मैत्री की धाराएं बहने लगती है | मैत्री है निरहंकारिता, इगोलेसनेस | मैत्री तभी जन्मेगी और सक्रीय होगी जब भीतर यह ‘मैं’ का भ्रम टूट जाये | हम तो इस ‘मैं’ के भ्रम को ही मजबूत करते चले जाते है, तो डर लगता है कोई तोड़ न दे | तो उतनी ही हम दीवाल खड़ी करते हैं, उतना ही दुसरे को दूर करते हैं, निकट नहीं आने देते हैं |
और आश्चर्य यह है कि जिस अहंकार, जिस ‘मैं’ को बचाने की कोशिश हम जिंदगी भर करते हैं, वास्ताविकता में यह ‘मैं’ क्या है ? यह एक सपना है, एक सुडो-रियलिटी, एक फिक्शन, एक सपना, एक झूठ, एक कल्पना, एक कविता | यह ‘मैं’ है कहां जिस को हम बचाने चले है | यह है कहां ? इस की सच्चाई क्या है, इस का अर्थ कितना है ? हम सच में अलग है इस विराट जगत से | इस जीवन से हमारी कोई भिन्नता है ?
एक क्षण को भी हम अलग नहीं है, विराट के हिस्से है | सागर में लहरें नांच रही हैं | हर लहर को खयाल हो सकता है कि ‘मैं’ हूं, लेकिन हम जो किनारे पर खड़े देख रहे हैं वे हसेंगे | और कहेंगे पागल, लहर तू कहां है, सागर है, तू नहीं है | तू तो सिर्फ हवा के एक झोके में उठ आयी हुई एक रूपाकृति, हवा के झोके में उठ आया एक रूप, एक फॉर्म, हवा के झोके में पैदा हो गया एक नाम | नाम, रूप – इस से जादा तू क्या है ?
लहर एक नाम है, हवा के झोकें में उठ गयी एक आकृति है | झोका निकल जाएगा, आकृति गिर जाएगी | सागर पहले भी था, बीच में भी था, पीछे भी होगा | कभी आपने सोचा, सागर बिना लहरों के हो सकता है, लेकिन कभी आपने लहर देखी बिना सागर के ? लहर बिना सागर के हो ही नहीं सकती, सागर बिना लहर के हो सकता है | इस लिए सागर है सत्य, लहर है सपना | लहर का अपना कोई अस्तित्व नहीं है |
यह जीवन हमारे बिना था | यह जीवन हमारे बिना होगा, लेकिन हम इस जीवन के बिना हो सकते है ? यह पूछ लेना जरुरी है, इसे बहुत गहराई में अपने से पूछ लेना जरुरी है | मैं नहीं था और जीवन था | और चांद निकलता था और चांदनी बरसती थी, और सूरज उगता था और पक्षी गीत गाते थे, और वृक्ष उगते थे और फूल लगते थे, और आकाश में तारे आते थे और बादल आते थे | सब चलता था, उस से जीवन रत्तीभर भी कम नहीं था | मैं नहीं रहूंगा कल, जीवन रत्तीभर भी कम नहीं हो जाएगा, जीवन रहेगा | लहर नहीं होगी, सागर फिर भी होगा | लेकिन क्या मैं यह सोच सकता हूं कि सूरज न हो, चांद न हो, तारे न हों, वृक्ष न हों, पक्षी न हों, पक्षी न हों ? यह जो जीवन का विस्तीर्ण फैलाव है, वह न हो और मैं हो जाऊं ? लेकिन मेरे बिना तो जीवन था और कल फिर होगा | इस से क्या मतलब होता है ?
इस का मतलब होता है, मैं लहर से जादा नहीं | जीवन है सागर | मैं उठता हूं एक रूप, एक आकृति और गिर जाता हूं और जीवन सदा है – सदा है, सदा था, सदा होगा | जीवन है सत्य, मैं हूं एक सपना | आया और गया, हवा की एक लहर | लेकिन इस तरह लहर को हम सब कुछ मान लेते हैं और जब सब मान लेते हैं तो इसे बचाने के लिए आतूर हो जाते हैं और भयभीत हो जाते हैं कि कोई मिटा न दे | जो है ही नहीं, उस को कोई कैसे मिटाएगा ? जो होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन जो है ही नहीं उसे कोई कैसे मिटा सकेगा ? ‘मैं’ हूं ही नहीं, मिटाने का सवाल कहां है ? मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, मैं हूं नहीं |
यह जिस दिन जितनी गहरी प्रतीति होती है कि मैं हूं नहीं, उतने ही जीवन में शत्रुता गिर जाती है, क्योंकि फिर कोई मिटानेवाला न रहा, कोई मिटने की संभावना न रही, कुछ मिटाया नहीं जा सकता | और मैंने कहा कि मैं हूं नहीं तो मिटाया क्या जा सकेगा ? और मैंने कहा कि अगर मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन और थोड़ी गहराई समझ की बढेगी तो पता चलेगा कि जो है उसे तो मिटाया कैसे जा सकता है | जो है वह है, उसे कैसे मिटाया जा सकेगा ?
एक रेत के छोटे से कण को भी तो मिटाया नहीं जा सकता है | जो है, जो एक्झिस्टेन्स है, जो अस्तित्व है उसे कैसे मिटाया जा सकता है | जो नहीं है उसे मिटाया जा सकता है, जो है उसे नहीं मिटाया जा सकता है | जो दोनों के बीच में है केवल सपना है, वही बनाता है और मिटाता है | जो न है और नहीं है |
यह बहुत गहरे में स्पष्ट होना चाहिए – यह प्रतीति, यह साक्षात कि मैं हूं कहां, मेरा होना क्या है ? और जिस दिन यह स्पष्ट हो जाएगा कि मैं नहीं हूं, उस दिन कैसी शत्रुता, कैसा वैर ? उस दिन कौन है जो शत्रु है, कौन है जो बुरा है, कौन है जिस से मैं भयभीत हो जाऊं, कौन है जिस से मैं डरूं, कौन है जिस से मैं बचूं ? कौन सा है तूफान जिस के खिलाफ मुझे खड़े हो जाना है ?
नहीं, नहीं, मैं ही हूं | अगर ‘मैं’ नहीं हूं तो फिर जो कुछ है वह सब मैं ही हूं | तूफान भी मैं ही हूं – वह जो मिटाने चला आ रहा है वह भी मैं ही हूं |
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ओशो की पोंगरी – सुरेश, सांगली, महाराष्ट्र, भारतवर्ष
१६ जनवरी. २०१३, ६:२१:०२ पूर्वाह्न (सुबह हो गयी )

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