Wednesday, January 23, 2013

उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं - ओशो....

आचार्य श्री, आपने कहा कि यदि कोई भी क्रिया पूरी, टोटल हो तो ऊर्जा खोयी नहीं जाती। कृपया बताइए कि टोटल एक्शन का आप क्या अर्थ लेते हैं? और यह भी बतायें कि संभोग की प्रक्रिया में टोटल यानी पूर्ण होने का क्या अर्थ है? क्या उसमें ऊर्जा के क्षय न होने का अर्थ है?

कर्म पूर्ण हो, कृत्य पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती। कोई भी कर्म पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती है। जब मैंने ऐसा कहा तो मेरा अर्थ है कि कृत्य अधूरा तब होता है जब हम अपने भीतर खंडित और विभाजित और कांफ्लिक्ट में होते हैं। जब मैं अपने भीतर ही टूटा हुआ होता हूं तो कृत्य अधूरा होता है।

समझें कि आप मुझे मिले और मैंने आपको गले लगा लिया। अगर इस गले लगाते वक्त मेरे मन का एक खंड कह रहा है कि यह क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है, मत करो। और एक खंड कह रहा है कि करूंगा, बहुत ठीक है। तो मेरे भीतर मैं दो हिस्से में बंटा हूं और लड़ रहा हूं। आधे हिस्से से मैं गले लगाऊंगा और आधे हिस्से से गले से दूर हटने की कोशिश में लगा रहूंगा। मैं एक ही साथ दो विरोधी काम कर रहा हूं। इन विरोधी कामों में मेरे भीतर की मनस-ऊर्जा क्षीण होगी। लेकिन अगर मैंने पूरे ही हृदय से किसी को गले लगा लिया है और उस गले लगाने में मेरे हृदय में कहीं भी कोई विरोधी स्वर नहीं है तो ऊर्जा के नष्ट होने का कोई भी कारण नहीं है। बल्कि यह पूर्ण आलिंगन मुझे और भी ऊर्जा से भर जाएगा, मुझे और भी आनंद से भर जाएगा।

शक्ति क्षीण होती है कांफ्लिक्ट में, इनर कांफ्लिक्ट में। भीतरी अंतर्द्वंद्व शक्ति के क्षीण होने का आधार है। कितना ही अच्छा काम कर रहे हों, अगर भीतर विरोध है तो शक्ति क्षीण होगी ही, क्योंकि आप अपने भीतर ही लड़ रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे मैं एक मकान बनाऊं। एक हाथ से ईंट रखूं और दूसरे से उतारता चला जाऊं, तो शक्ति तो नष्ट होगी और मकान कभी बनेगा नहीं।

हम सब स्व-विरोधी खंडों में बंटे हैं। हम जो भी कर रहे हैं उसके बाहर भी, हमारे विरोध में कोई चीज खड़ी है। अगर हम किसी को प्रेम कर रहे हैं तो उसे घृणा भी कर रहे हैं। अगर हम किसी से मित्रता बना रहे हैं तो शत्रुता भी बना रहे हैं। अगर किसी के पैर छू रहे हैं तो दूसरे कोने से उसके अनादर का इंतजाम भी कर रहे हैं। हम पूरे समय दोहरे काम कर रहे हैं। इसलिए प्रत्येक आदमी धीरे-धीरे दिवालिया हो जाता है, उसके भीतर की शक्ति बैंक्रप्ट हो जाती है। वह खुद ही अपने से लड़ कर मर जाता है।

देखें अपनी तरफ, भीतर देखें तो आपके खयाल में बात आ जाएगी। जब भी कोई काम कर रहे हैं, यदि आप पूरे उसमें हैं तो आप सदा ही और भी ताजे, और भी शक्तिशाली होकर उस काम से बाहर आएंगे। और अगर आप अधूरे उस काम में हैं तो आप थक कर चकनाचूर होकर, टूटकर बाहर आएंगे।

इसलिए जो लोग भी किसी काम को पूरा कर पाते हैं--जैसे चित्रकार है, अगर वह अपने चित्र को रंगने में, बनाने में, पूरा लग जाता है, तो कभी भी थकता नहीं है। वह पूरे का पूरा और भी आनंदित, और भी रिफ्रेस्ड, और भी ताजा होकर वापस लौट आता है। लेकिन इसी चित्रकार को आप नौकरी पर रख लें और कहें कि हम रुपए देंगे, और चित्र बनाओ, तब वह थक कर लौट आता है। क्योंकि उसका पूरा मन उस चित्र के साथ खड़ा नहीं हो पाता। जैसे ही हमारे मन का कोई हिस्सा हमारे विरोध में हो जाता है, तो हमारी शक्ति क्षीण होती है।

जब मैंने कहा, टोटल एक्ट, तो किसी एक काम के लिए नहीं, सारे कामों के लिए, जो भी आप कर रहे हैं। अगर भोजन करने जैसा या स्नान करने जैसा साधारण काम कर रहे हैं तो भी पूरा करें। स्नान करते वक्त स्नान करना ही अकेला कृत्य हो, न तो मन कुछ और सोचे, न मन कुछ और करे। आप पूरे के पूरे स्नान ही कर लें। तो शरीर ही स्नान नहीं करेगा, आत्मा भी स्नान कर जायेगी। आप स्नान के बाहर पाएंगे कि आप कुछ लेकर लौटे हैं।

लेकिन नहीं, स्नान आप कर रहे हैं और हो सकता है पैर आपके अब तक सड़क पर पहुंच गए हों और मन आपका अब तक दफ्तर में पहुंच गया हो और आप भागे हुए हैं। स्नान का कोई रस नहीं, कोई आनंद नहीं। वह स्नान भी एक टूटा हुआ कृत्य है। कहीं पानी डाला है और भागे। इस भागने में आप शक्ति को खो रहे हैं। और ऐसा प्रतिपल हो रहा है, चौबीस घंटे यही हो रहा है। बिस्तर पर सोए हैं लेकिन सोए नहीं हैं, क्योंकि सोने का एक्ट पूरा होगा तभी सुबह विश्राम होगा। सो रहे हैं, सपने देख रहे हैं। सो रहे हैं, सोच रहे हैं। सो रहे हैं, करवट बदल रहे हैं। हजार विचार हैं, हजार काम हैं। आज दिन में क्या किया, वह भी साथ है, कल सुबह क्या करना है, वह भी साथ है। तब सुबह आप और भी थककर, चकनाचूर होकर बिस्तर से उठते हैं। नींद भी आपकी विश्राम न दे पाएगी, क्योंकि नींद में भी आप पूरे नहीं हो पाते कि सो ही जायें, नींद में भी अधूरे ही होते हैं।

इसलिए नींद उखड़ती जा रही है, नींद कम होती जा रही है। सारी दुनिया में बड़े से बड़े सवालों में एक यह भी है कि नींद का क्या होगा? नींद खत्म होती जा रही है। नींद खत्म होगी, क्योंकि नींद कहती है कि पूरे सोओ तो ही सो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे हम टूटे हुए हैं, और जब सब कामों में टूटे हुए हैं तो नींद में इकट्ठे कैसे हो सकते हैं? रात तो हमारे दिन भर का जोड़ है। जैसे हम दिन भर रहे हैं वैसे ही हम रात नींद में भी होंगे। और ध्यान रहे जैसे हम रात नींद में होंगे कल का दिन भी उसी आधार पर फैलेगा और विकसित होगा। फिर जिंदगी पूरी टूट जाती है। न तो हम ठीक से जी पाते हैं, जीते वक्त भी हजार तरह के रोग हैं।
एक मित्र को मेरे पास अभी लाया गया है। उनको जो लोग लाए थे उन्होंने कहा कि ये पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके हैं। मैंने कहा, बड़े गजब के आदमी हैं, प्रयास भी अधूरा करते हैं, ऐसा मालूम होता है। पांच बार! और जो आदमी पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुका है वह पूरा जी रहा होगा, यह तो माना ही नहीं जा सकता। अगर पूरे ही जी रहे हों तो मरने की क्या जरूरत आ गई? पूरा जीएगा भी नहीं, पूरा मरेगा भी नहीं। पांच बार प्रयास कर चुके हैं!
मैंने उनसे कहा कि अब तो शर्म खाओ, अब प्रयास मत करो। पांच बार काफी है!
लेकिन पांच बार कोई आदमी आत्महत्या करके नहीं कर पाया और बच गया, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि एक हिस्सा उसका बचने की कोशिश में लगा ही रहा होगा। उसने कोशिश भी की होगी, बचने का इंतजाम भी किया होगा, नहीं तो कोई किसी को मरने से रोक सकता है? मरने में भी आनेस्टी नहीं है, उसमें भी ईमानदारी नहीं है, तब फिर जीने में ईमानदारी कैसे होगी! जब मरने तक में ईमानदारी नहीं है तो यह जीना पूरा का पूरा डिसआनेस्टी, बेईमानी होगा ही।

जब मैंने उस मित्र को कहा कि शर्म आनी चाहिए, पांच बार मर कर तो मर ही जाना चाहिए था। एक ही बार में मर जाना चाहिए था। अब उनको लाया गया कि वह छठवीं बार मरने का प्रयास कर रहे हैं। तो मैंने उनसे कहा कि और अब नाहक बदनामी होगी, अब मत प्रयास करो। वे बहुत चौंके, क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं उनको समझाऊंगा कि आत्महत्या मत करो। और उन्होंने कहा, आप आदमी कैसे हैं? मुझे जिसके पास भी ले जाया गया उन्होंने मुझे समझाया है कि यह बहुत बुरा काम है। मैंने कहा, मैं नहीं कहता बुरा काम है, मैं कहता हूं, अधूरा करना बहुत बुरी बात है। करना है, पूरा करो। वह आदमी मेरी तरफ थोड़ी देर देखता रहा। फिर बोला, आत्महत्या करनी तो नहीं है, जीना तो मैं भी चाहता हूं, लेकिन अपनी शर्तों के साथ जीना चाहता हूं। अगर मेरी शर्त नहीं मानी गई तो मैं मर जाऊंगा।

न तो यह आदमी मरना चाहता है, क्योंकि यह मरना भी शर्तों के साथ चाहता है, और न यह आदमी जीना चाहता है, क्योंकि जीना भी शर्तों के साथ चाहता है। यह आदमी जीयेगा भी तो मरा हुआ जीयेगा, और मरेगा भी किसी दिन तो जीने की आकांक्षा से तड़फता हुआ मरेगा। यह आदमी न जी पाएगा, न मर पाएगा। इसकी जिंदगी में मौत प्रवेश कर गई, इसकी मौत में जिंदगी प्रवेश कर जायेगी। यह आदमी विक्षिप्त हो गया है।

हम सब इसी तरह के आदमी हैं। हम सब में बहुत फर्क नहीं है। हम सब ऐसा ही कर रहे हैं। जिसको हम प्रेम करते हैं उसको भी प्रेम नहीं करते। सांझ प्रेम करते हैं, सुबह तलाक देने का विचार करते हैं मन में। फिर दोपहर पश्चात्ताप करते हैं, सांझ क्षमा मांगते हैं, सुबह फिर तलाक देने का विचार करते हैं।

मैं एक घर में ठहरा था। उस घर में पति-पत्नी अपने तलाक की एप्लीकेशन बिलकुल तैयार ही रखे हुए हैं, सिर्फ दस्तखत करने की बात है। देखी है मैंने अपनी आंख से। पति ने मुझे बताया कि कई दफा ऐसी हालत हो जाती है कि बस दस्तखत कर दूं। वे तो पूरी तैयारी रखे हुए हैं। मैंने कहा कि इसमें कोई हर्जा नहीं है कि दस्तखत कर दो, लेकिन इसको तैयार रखे हो, यह बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जिस पत्नी के लिए तलाक देने की एप्लीकेशन तैयार हो, उस पत्नी को पत्नी कहने का कोई अर्थ है? कोई अर्थ नहीं है। लेकिन पत्नी जारी है। यह एप्लीकेशन तो सात साल से तैयार रखी हुई है, वे कहने लगे। यह कोई नई बात नहीं है।

इस आधे-आधे जीने के संघर्ष को मैं कहता हूं, ऊर्जा का स्खलन है। यह शक्ति का गंवाना है। इस तरह जिंदगी में हम कभी कुछ भी नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात समझाऊं।

मैंने सुना है एक समुराई सरदार, जापान में एक सम्राट, जो बहुत तेजस्वी तलवार चलानेवाला समुराई सरदार है। उसके मुकाबले जापान में कोई आदमी नहीं है जो इतनी अच्छी तरह तलवार चला सके। उसकी कुशलता की कीर्ति दूर-दूर तक जापान के बाहर भी पहुंच गई। लेकिन एक दिन उसे पता चला कि उसका पहरेदार उसकी पत्नी के प्रेम में पड़ गया है। उसने उन दोनों को पकड़ लिया। लेकिन समुराई सरदार था! उसने कहा कि मन तो मेरा करता है कि तेरी गर्दन काट दूं। लेकिन नहीं, तूने भी प्रेम किया है मेरी पत्नी को, इसलिए उचित यही होगा कि एक तलवार तू ले ले और एक मैं ले लूं। हम दोनों युद्ध में उतर जायें। जो बच जाये वही मालिक हो। उस पहरेदार ने कहा कि मालिक आप ऐसे ही मेरी गर्दन काट दें तो अच्छा है, यह खेल आप क्यों करते हैं? गर्दन मेरी ही कटेगी। क्योंकि मैं तो तलवार पकड़ना भी नहीं जानता, और आप जैसा तलवार चलानेवाला आदमी शायद पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। तो आप तलवार से लड़ने का मुझे जो मौका दे रहे हैं, नाहक मखौल और मजाक क्यों करते हैं? तलवार से मेरी गर्दन ऐसे ही काट दें। तलवार से गरदन तो मेरी ही कटेगी, क्योंकि मैं तो तलवार चलाना नहीं जानता। लेकिन उस समुराई सरदार ने कहा कि यह मेरी इज्जत के खिलाफ होगा कि कभी यह कहा जाये कि मैंने बिना तुझे मौका दिए तेरी गर्दन काट दी। तलवार संभाल और मैदान में उतर।

कोई रास्ता न था। वह गरीब बेचारा डरता हुआ तलवार हाथ में लेकर मैदान में उतरा। गांव इकट्ठा हो गया। खबर फैल गई। सारे लोग जानते हैं कि वह गरीब आदमी मर जाएगा। क्योंकि इस सरदार से तो एक हाथ भी बचाना मुश्किल है। वह इतना कुशल कारीगर है, वह इतना कुशल तलवारबाज है।

लेकिन हालत उलटी हो गई। हालत यह हुई कि जब उस पहरेदार ने तलवार चलानी शुरू की तो उस सरदार के छक्के छूट गए। छक्के इसलिए छूट गए कि वह तलवार बिलकुल बेढंगी चला रहा था। उसको चलाना आता ही नहीं था। उससे बचाव मुश्किल मालूम पड़ा, और वह इतनी पूर्णता से तलवार चला रहा था...क्योंकि उसके जीवन-मरण का सवाल था। सरदार के लिए तो एक खेल का मामला था। वह जानता था अभी काट देंगे, परंतु पहरेदार के लिए जीवन-मृत्यु का सवाल था। तलवार और वह पहरेदार एक ही हो गया। सरदार ने घुटने टेक दिए और कहा कि मुझे माफ कर दे। लेकिन तू यह कर क्या रहा है?

बामुश्किल उसको रोका जा सका। उसके सामने एक दरख्त था। उसको उसने तलवार से काट डाला, वह इतना एक हो गया। राजा तो हट गया, घुटने टेक दिए, लेकिन उसमें जो ऊर्जा जाग गई थी, उसने जब तक दरख्त नहीं काट डाला तब तक ऊर्जा रुकी नहीं। बामुश्किल उसे रोका जा सका। जब उससे पूछा गया कि यह तुझे हो क्या गया? तुझमें कहां से यह शक्ति आ गई?

तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि जब मरना ही है तो पूरी तलवार चलाकर ही मर जाना चाहिए। जब मरना ही पक्का है और अब जीने का कोई उपाय नहीं है, तो मैं पहली दफा जिंदगी में इंटीग्रेटेड हो गया। पहली दफा इकट्ठा हो गया। मैंने कहा, अब कोई सवाल नहीं है। मौत सामने खड़ी है। और एक मौका है कि जो भी मैं कर सकता हूं, कर डालूं। तो मुझे न आगे का खयाल रहा, न पीछे का खयाल रहा, न मुझे पत्नी का, राजा का खयाल रहा, न अपनी प्रेयसी का खयाल रहा। फिर तो धीरे-धीरे मुझे यह भी पता नहीं रहा कि मेरा हाथ कहां खत्म होता है और तलवार कहां शुरू होती है! और जब लोग चिल्लाने लगे कि रुको, रुको! तो मुझे सुनाई नहीं पड़ता था कि कौन चिल्ला रहा है? किसको रोक रहे हैं?

यह आदमी टोटल हो गया। उस सम्राट ने कहा, आज मुझे पहली दफा पता चला कि सबसे बड़ी कुशलता टोटल एक्शन है। मैंने बड़ी कुशलता पाई लेकिन मैं टोटल नहीं हूं। क्योंकि तलवार चलाना मेरे लिए एक कला है, एक आर्ट है। मैं चलाता हूं, लेकिन मैं अलग हूं और पूरे वक्त मैं देख रहा हूं कि चोट तो नहीं लग जाएगी। कैसे बचूं, कैसे न बचूं।

उसने कहा, बचने न बचने का तो सवाल ही न था मेरे लिए। इतना ही सवाल था कि आपको भी पता चल जाए कि तलवार चलायी गई। तुमने ऐसे ही नहीं मारा नहीं तो लोग तुम्हारी इज्जत को नाम धरेंगे, तो मैंने कहा कि अब मैं पूरा चला ही लूं दो चार क्षण के लिए जो मौका है।

यह टोटल एक्शन से मेरा मतलब है। कृष्ण ने योग को कुशलता कहा है। यह तलवार चलानेवाला बिलकुल अकुशल आदमी, एकदम कुशल हो गया है। क्यों? क्योंकि योग को उपलब्ध हो गया है। योग शब्द का मतलब है, टोटल, जोड़। जब कोई आदमी भीतर पूरी तरह जुड़ जाता है तो योग उपलब्ध होता है, इंटीग्रेटेड, संयुक्त, संश्लिष्ट। जब भीतर कोई खंड नहीं होते। प्रेम करता है तो प्रेम करता है, क्रोध करता है तो क्रोध करता है, दुश्मन है तो दुश्मन है, मित्र है तो मित्र है। जब कोई आदमी किसी भी कृत्य में पूरा होता है तब उसकी शक्ति नहीं खोती।
और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई आदमी कृत्यों में पूरा हो जाये तो क्रोध धीरे-धीरे असंभव हो जाता है। क्योंकि तब क्रोध पूरा जला देता है, झुलसा देता है। तब घृणा मुश्किल हो जाती है, क्योंकि घृणा जहर हो जाती है। सब पूरे शरीर के रग-रोएं में जहर के फफोले छूट जाते हैं। तब शत्रु होना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि शत्रुता आत्मघात प्रतीत होती है, अपनी ही छाती में छुरा भोंकना प्रतीत होता है।

हम तभी तक क्रोध में हो सकते हैं जब तक हम अधूरे काम कर रहे हैं। हम तभी तक दुश्मन हो सकते हैं जब तक हमारे कृत्य पूरे नहीं हैं। जिस दिन हमारे कृत्य पूरे हैं, उस दिन हमारी जिंदगी में प्रेम का ही फूल खिल सकता है। जिस दिन हमारा कृत्य पूर्ण है, उस दिन प्रार्थना ही हमारे प्राणों की अभीप्सा बन जाती है। जिस दिन हमारे सारे जीवन का एक-एक कृत्य पूरा हो जाता है, उस दिन परमात्मा ही हमारे लिए एकमात्र सत्य रह जाता है। जब भीतर एक पैदा होता है तो बाहर भी एक दिखाई पड़ने लगता है। जब तक भीतर दो हैं तब तक बाहर दो हैं। दो भी कहना ठीक नहीं। हमारे भीतर अनेक हैं।

मैंने सुना है, जीसस एक गांव से गुजरते थे। रात थी और मरघट पर एक आदमी छाती पीट रहा था, चिल्ला रहा था, पत्थरों से अपने शरीर को खरोंच कर लहूलुहान कर रहा था। तो जीसस ने उस आदमी से जाकर पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, जो सारी दुनिया कर रही है वही मैं कर रहा हूं। फिर वह अपने खरोंचने में लग गया। लहू बह गया है, सिर पीट रहा है, सिर पर घाव हो गया है। जीसस ने कहा, ऐ पागल, तेरा नाम क्या है? तो उस आदमी ने कहा, माई नेम इज लीजियन। मेरे नाम हजार हैं। मेरा एक नाम नहीं है। जीसस बार-बार इस कहानी को कहते थे कि एक आदमी ने मुझसे कहा था कि माई नेम इज लीजियन, मेरे नाम हजार हैं, एक मेरा नाम नहीं है क्योंकि मैं हजार आदमी हूं। मैं एक आदमी नहीं हूं।

हमारे नाम भी लीजियन हैं। हमारे भीतर भी हजार आदमी हैं। कोई बचाना चाह रहा है, कोई मारना चाह रहा है; कोई प्रेम करना चाह रहा है, कोई हत्या करना चाह रहा है; कोई जीना चाह रहा है, कोई अपनी कब्र का पत्थर बनवा रहा है; कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर रहा है, हमारे ही भीतर कोई कह रहा है, सब झूठ है, सब असत्य है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। कोई घंटा बजा रहा है मंदिर का, और कोई भीतर हंस रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो? उस घंटे के बजाने से कुछ भी नहीं हो सकता है। कोई माला फेर रहा है और हमारे भीतर उसी वक्त कोई दुकान भी चला रहा है। माई नेम इज लीजियन। उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं।

ये जो हजार आदमी हैं हमारे भीतर, यही हमारी शक्ति का ह्रास है। अगर ये ही एक आदमी हो जायें तो हमारी शक्ति संरक्षित होती है। टोटल एक्शन, एक करने की विधि है, समग्र कृत्य। जो भी करें उसके साथ पूरे ही खड़े हो जायें, जो भी करें उसे पूरा ही कर लें। और जैसे ही उसे पूरा करेंगे वैसे ही आपके भीतर कोई चीज एकदम इकट्ठी होने लगेगी, संयुक्त होने लगेगी, संश्लिष्ट होने लगेगी।

गुरजिएफ कहा करता था कि पूर्ण कृत्य, क्रिस्टलाइजेशन है। जब भी कोई व्यक्ति कोई काम पूरा करता है तो उसके भीतर कोई चीज क्रिस्टलाइज हो जाती है। कोई चीज इकट्ठी हो जाती है। यह इकट्ठा हो जाना व्यक्तित्व का जन्म है, आत्मा का जन्म है। इस अर्थ में मैंने कहा है। उसे प्रयोग करें, समझें, देखें, तो यह बात खयाल में आ सकती है।
 - ओशो....

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