भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो; उतना उपयोगी होगाः
भक्ति परमात्मा की खोज नहीं हैः भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज
है...
ज्ञान, कर्म, योग, उन सबका सार-सूत्र है प्रयास।
ज्ञान, कर्म, योग मनुष्य की चेष्टा पर निर्भर हैं; भक्ति परमात्मा के
प्रसाद पर। स्वभावतः भक्ति अतुलनीय है। न कर्म छू सकता है उस ऊंचाई को, न
ज्ञान, न योग।
मनुष्य का प्रयास ऊंचा भी जाए तो कितना? मनुष्य
करेगा भी तो कितना? मनुष्य का किया हुआ मनुष्य से बड़ा नहीं हो सकता। मनुष्य
जो भी करेगा, उस पर मनुष्य की छाप रहेगी। मनुष्य जो भी करेगा उस पर मनुष्य
की सीमा का बंधन रहेगा।
भक्ति मनुष्य में भरोसा नहीं करती; भक्ति
परमात्मा में भरोसा करती है। एक बहुत अनूठा भक्त हुआः बायजीद बिस्तामी।
कहा है उसने, तीस साल तक निरंतर परमात्मा को खोजने के बाद, एक दिन सोचा तो
दिखायी पड़ाः 'मेरे खोजे वह कैसे मिलेगा, जब तक वही मुझे न खोजता हो?' तब
खोज छोड़ दी, और खोज छोड़कर ही उसे पा लिया।
तीस साल या तीस जन्मों
की खोज से भी उसे पाया नहीं जा सकता, क्योंकि खोजेंगे तो हम-अंधे, अंधकार
में डूबे, पापग्रस्त, सीमा में बंधे भूल चूकों का ढेर हैं हम। हम ही तो
खोजेंगे उसे! रोशनी कहां है हमारे पास उसे खोजने को? हमारे पास हाथ कहां जो
उसे टटोलें? कहां से लाएं हम वह दिल जो उसे पहचाने?
खोजी एक दिन
पाता है कि नहीं, मेरे खोजे तू न मिलेगा, जब तक कि तू ही मुझे न खोजता हो।
और बायजीद ने कहा है, जब उसे पा लिया तो जाना कि यह भी मेरी भ्रांति थी कि
मैं उसे खोज रहा था। वही मुझे खोज रहा था।
जब तक परमात्मा ने ही
तुम्हें खोजना शुरू न कर दिया हो, तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात न
उठेगी। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी, लेकिन बड़ा गहन सत्य है।
परमात्मा को केवल वे ही लोग खोजने निकलते हैं जिनको परमात्मा ने खोजना शुरू
कर दिया। जो उसके द्वारा चुन ही लिये गये हैं, वे ही केवल उसे चुनते हैं।
जो किसी भांति उनके हृदय में आ ही गया है, वे ही उसकी प्रार्थना में तत्पर
होते हैं।
तुम्हारे भीतर से वही उसको खोजता है। सारा खेल उसका है।
तुम जहां भी इस खेल में कर्ता बन जाते हो, वहीं बाधा खड़ी हो जाती है, वहीं
दरवाजे बंद हो जाते हैं।
तुम खाली रहो, उसे खोजने दो तुम्हारे भीतर से, तो तत्क्षण इस क्षण भी उस महाक्रांति का आविर्भाव हो सकता है।
भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो; उतना उपयोगी होगाः
भक्ति परमात्मा की खोज नहीं हैः भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज
है।
मनुष्य हारकर समर्पण कर देता है, थककर समर्पण कर देता है,
पराजित होकर झुक जाता है-कहता है, 'अब तू ही उठा तो उठा! अब तू ही सम्हाल
तो सम्हाल! अब अपने से सम्हाला नहीं जाता! जो मै कर सकता था, किया; जो मैं
हो सकता था, हुआ-लेकिन मेरे किये कुछ भी नहीं हो पाता! मेरा किया सब अनकिया
हो जाता है। जितना सम्हालता हूं उतना ही गिरता हूं। जितनी कोशिश करता हूं
कि ठीक राह पर आ जाऊं, उतना ही भटकता हूं। अब तू ही चल! जन्म तेरा है, जीवन
तेरा है, मौत तेरी है-प्रार्थना मेरी कैसे होगी?
पहला सूत्र है आजः 'वह भक्ति, वह प्रेमरूपा भक्ति, कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।'
श्रेष्ठता यही है कि वह अनंत के द्वारा तुम्हारी खोज है।
गंगा सागर की तरफ जाती है, तो ज्ञान, तो योग, तो कर्म। जब सागर गंगा की तरफ आता है, तो भक्ति।
भक्ति ऐसे है जैसे छोटा बच्चा पुकारता है, रोता है, मां दौड़ी चली आती है।
भक्ति बस तुम्हारा रुदन है!
तुम्हारे हृदय से उठी आह है!
भक्ति तुम्हारे जीवन की सारी खोज की व्यर्थता का निवेदन है। भक्ति
तुम्हारे आंसुओं की अभिव्यक्ति है। तुम कहीं जाते नहीं, तुम जहां हो वहीं
ठिठककर रह जाते हो। एक सत्य तुम्हारी समझ में आ जाता है कि तुम ही बस गलत
हो; तुम गलत करते हो, ऐसा नहीं।
कर्मयोग कहता हैः तुम गलत करते हो, ठीक करो तो पहुंच जाओगे।
ज्ञानयोग कहता हैः तुम गलत जानते हो, ठीक जान लो, पहुंच जाओगे।
योगशास्त्र कहता हैः तुम्हें विधियां पता नहीं है, मार्ग पता नहीं है।
विधियां सीख लो, मार्ग सीख लो, तकनीकि की बात है, पहुंच जाओगे।
भक्ति कहती हैः तुम ही गलत हो। न ज्ञान से पहुंचोगे, न कर्म से पहुंचोगे, न
योग से पहुंचोगे। तुम तुमसे छूट जाओ, तो पहुंचना हो जाएगा। तुम न बचो तो
पहुंचना हो जाएगा।
पहले तुम अज्ञान में थे, फिर तुम ज्ञान में भी
रहोगे-फर्क बहुत न पड़ेगा। फर्क तो पड़ेगा, बहुत न पड़ेगा। फर्क ऐसा ही होगा
कि जंजीरे लोहे की थीं, उन पर सोना मढ़ लोगे! कारागृह कुरूप था दुर्गंधयुक्त
था, तुम सुगंधे छिड़क लोगे, रंग रोगन कर लोगे, कारागृह को सजा लोगे!
-ओशो-
पुस्तकः भक्ति-सूत्र
प्रवचन नं. 7 से संकलित
जब
परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है
संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है
तुम्हारे भीतर जो बीज है , उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर
गुलाब खिलने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा।
जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा - उसे भी संन्यास दूंगा। क्योकिं मैं
मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरुरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसीव्यक्ति को समग्र रूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का
मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति कि जिज्ञासा को मूल्य देता हूं,
उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा कि खोज
के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने
ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों
की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों कि चिंता है।
मैं तो संन्यास
कि एक नयी अवधारणा को जन्म दे रहा हूं। उसका शास्त्र बना लूंगा, उसका वेद
बना लूंगा। वेद बनाने में क्या रखा है? शास्त्र बनाने में क्या रखा है?
जोभी बात सत्य के अनुसरण में बोली जाती है, वही शास्त्र है और जो बात भी
सत्य कि उदघोषणा करती है वही वेद है।
समझने कि कोशिश करो, समझाने कि नहीं।
देर कर दी। जरा जल्दी आना था। मैं तो बिगड़ ही गया और हजारों को बिगाड़ भी
चूका। और अब तो यह बात चल पड़ी है, रूकने वाली नहीं हैं। अब तो यह नया वेद
निर्मित होगा। अब तो यह नया शास्त्र बनेगा, बनने ही लगा ! अब तो मनुष्यों
की एक नयी तस्वीर उभरने ही लगी।
मेरा संन्यासी भविष्य के मनुष्य की उदघोसना है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है इसका संबंध वर्तमान से है और भविष्य से है।
बहुरि न ऐसा दांव, ओशो
No comments:
Post a Comment