पहलाः तत्त्वमसि, वह तू है;
दूसराः त्वं तदसि,तू वह है,
तीसराः त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म है; और
चौथाः अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूँ ।
ओशो के एक शिष्य चिदानंद ने जब ओशो से पैंगल उपनिषद् के इन सूत्रों का अर्थ समझाने का आग्रह किया तो ओशो ने गुरू-शिष्य संबंध की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत की।
उपनिषद् सदगुरु और शिष्य के बीच शून्य ने हृदय पर गीत गाया है। न तो गुरु ने कुछ कहा है और न शिष्य ने कुछ सुना है, फिर भी गुरु ने सब कह दिया है और शिष्य ने सब सुन लिया है। गुरु के साथ तीन प्रकार के संबंध हो सकते हैं।– विद्यार्थी का; तब गुरु केवल शिक्षक होता है। वहाँ वाणी आवश्यक है। संवाद जरूरी है। क्योंकि बात बुद्धि से बुद्धि तक होगी। वह सबसे ऊपरी नाता है। विद्यार्थी जिज्ञासु है, मुमुक्ष नहीं। जानना चाहता है, होना नहीं। होने के लिए तो न-होने की तैयारी चाहिए। जानने में कुछ कीमत चुकानी नहीं पड़ती। जानकारी इकट्ठी करके और भी अंहकार को रस आता है। जैसे-जैसे जानकारी बढ़ती वैसे-वैसे अंहकार और परिपुष्ट होता है। इसलिए तो उपनिषद् कहते हैं कि अज्ञान तो थोड़ा ही भटकता है, ज्ञान बहुत भटका देता है, अज्ञान ले जाता है अंधकार में, ज्ञान ले जाता है महाअंधकार में।
उपनिषद् अनूठे हैं। पृथ्वी पर कहीं भी किसी काल, किसी देश में वैसी अपूर्ण घटना नहीं घटी है। गुरु और शिष्य के बीच यह जो पहला नाता है, इसमें उपनिषद् निर्मित नहीं होते। शास्त्र बन सकते हैं, तर्क निर्मित हो सकता है, दर्शन स्थापित हो सकता है, लेकिन बात ऊपर-ऊपर की ही रहेगी, भीतर की नहीं हो सकती।
दूसरा नाता हैः गुरु और शिष्य के बीच शिष्यत्व का। विद्यार्थी अब केवल पूछने में उत्सुक नहीं है; प्रश्न ही नहीं है, अब विद्यार्थी स्वयं प्रश्न बन गया। अब जानकारी इकट्ठी नहीं करनी है। अब जानना है। और जो भी कीमत चुकानी पड़े, चुकाने की तैयारी है। अब जानने में मिट भी जाना पड़े तो भी पीछे पैर नहीं लौटेंगे। इतने साहस से ही विद्यार्थी का रूपांतरण शिष्य में होता है।
इसलिए नानक ने अपने सत्संगियों को सिक्ख कहा। वह पंजाबी रूपांतरण है शिष्य का। शिष्य के साथ ही धर्म की शुरूआत है। विद्यार्थी दर्शन के जंगल में भटकता, शब्दों के जाल में अटकता, शिष्य सुलझने लगता है, राह पाने लगता है। राह प्रेम की है, भटकाव तर्क का है। उलझाव बुद्धि का है, सुलझाव हृदय का है। जब ऊर्जा बुद्धि से हृदय में प्रवेश करती है तो विद्यार्थी रूपांतरित होता है। उसके भीतर आत्मक्रांति घटित होती है। वह शिष्य होता है। शिष्य और गुरु के बीच पहली बार कुछ सार्थक जन्म पाता है। उसके पहले तो बातचीत ही बातचीत थी। उसके पहले तो संभाषण था, अब कुछ गहराई में उतरना हुआ। अब चले उस प्रगाढ़ता की तरफ जैसे नमक का पुतला सागर में डुबकी मारे थाह का पता लगाने को, थाह मिलते-मिलते खुद भी खो जाए; थाह मिले लेकिन खुद न बचे। शिष्य करीब सरकने लगा गुरु के। कुछ-कुछ-दूर जैसे कोयले बोले, ऐसे गुरु की बात समझ में आनी शुरू होगी। शब्द अब भी गुरु बोलेगा, लेकिन शिष्य अब शब्दों के बीच में जो खाली जगह है वह सुनेगा। वह जो विराम है, वह जो विश्राम है, ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठेगा। शब्द उसको उभारने के काम में आएंगे। शब्द उसे पृष्ठभूमि देंगे। अभी शब्दों की जरूरत रहेगी,. लेकिन बड़ी बदली हुई जरूरत।
विद्यार्थी सिर्फ शब्द को सुनता था, लकीरों को पढ़ता था, शिष्य शब्दों के बीच में जो शून्य है, उसे सुनता है; पंक्तियों के बीच में जो रिक्त स्थान है, उसे सुनता है। गुरु क्या कहता है, यह कम महत्त्वपूर्ण है, गुरु क्या है यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण होने लगता है। यह नाता प्रेम का है। यह मामला तर्क, समझ, गणित के पार गया।
इसलिए तो विद्यार्थी तो दुनिया में सब जगह हुए हैं-स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय विद्यार्थियों से भरे हुए हैं- लेकिन शिष्य कभी-कभी हुए हैं। किसी जीसस के पास, किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी कबीर के पास, शिष्य कभी-कभी हुए हैं,। शिष्य होने के लिए अहंकार को छोड़ने का साहस चाहिए। क्योंकि जब तक अहंकार है तब तक प्रेम नहीं।
और तीसरा जो संबंध है गुरु और शिष्य के बीच उसे संबंध भी कैसे कहें ? क्योंकि जहाँ दो न बचें वहाँ कैसा संबंध ? मगर वही परम सम्बन्ध है। विद्यार्थी से जो यात्रा शुरू हुई थी, वह उसी परम सम्बन्ध पर जाकर समाप्त होती है। शिष्य का तो पड़ाव है। इसलिए तीसरा जो रूप है, वह भक्त का है।
विद्यार्थी बाहर-बाहर, परिधि पर भक्त, केन्द्र पर; दोनों के मध्य में शिष्य।
शिष्य को शब्दों की जरूरत होती है-विद्यार्थी को सिर्फ शब्दों की जरूरत होती है, शिष्य को शब्दों की और शब्दों के साथ शून्य की जरूरत होती है। भक्त को शब्दों की कोई जरूरत नहीं रह जाती, शून्य पर्याप्त होता है।
उपनिषद् प्रारंभ होता है, शिष्य के साथ और पूर्ण होता है भक्त के साथ। बुद्धि विद्यार्थी बनाती है, हृदय शिष्य बनाता है और हृदय शिष्य से भी गहरा जो तुम्हारे प्राणों का भी प्राण है, तुम्हारी आत्मा है, वह भक्त बनाती है। भक्त का संबंध आत्मीय है। संबंध नहीं कहना चाहिए। मजबूरी है भाषा की, इसलिए संबंध कह रहा हूँ। दो तो मिट गये, दुई गयी, अब तो न गुरु है न शिष्य है, एक सन्नाटा है, एक शून्य है, जिसमें दोनों लीन हैं। और तभी असली गुफ्तगूं है। वहीं उपनिषद् घटे हैं ।
उपनिषदों में सच में ही महाकाव्य हैं। महाकाव्य कहते हैं, उन वाक्यों को जो महाशून्य में घटे हों। अनुकंपा है कि किन्हीं ने उन्हें संकलित कर लिया है।
ये चारों महाकाव्य बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। पहले तीन गुरु ने शिष्य से कहे हैं; चौथा, शिष्य समझा है- गुरु ने जो कहा है, उसे जीया है, पहचाना है और अपनी पहचान की उद्घोषणा की है। चौथा वक्तव्य शिष्य का है। तीन में गुरु तैयारी करवा रहा है, चौथे में शिष्य ने उद्घोषणा की अपनी तैयारी की।
पहला हैः तत्त्वमसि, वह तू है। दूसराः त्वं तदसि, तू वह है। तीसराः त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म है। और चौथाः अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूँ । तीन गुरु के द्वारा कहे गये वचन हैं- साढ़ियां-चौथा मंदिर में प्रवेश है। जो चला था खोजी, वह आ गया मंजिल पर आने की घोषणा की है उसने गुरु को। यह उसका निवेदन है गुरु के चरणों में कि जो आपने कहा था, जाना, चखा, पीया, हुआ। अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूँ ।
फिर ये जो तीन पहले वचन हैं, इनमें क्रम है। पहलाः तत्त्वमसि वह तू-जोर है वह पर, ताकि तू मिट सके। तू को मिटाना है। जितना तू गलेगा, जितना तू मिटेगा, उतना वह विराट होगा, प्रगट होगा प्रखर रूप से, उद्घाटित होगा, अनावृत होगा। तू में आच्छादित है। तू को हटाना है, ताकि उसे निर्बाध जाना जा सके। इसलिए पहला सूत्र हैः तत्त्वमसि, वह तू है। याद रख, वह है, असली वह है, तू तो बस छाया है, ! तू उसकी छाया, उसका प्रतिबिंब ! वह आकाश में ऊगा पूर्णिमा का चांद, तू झील में बनी उसकी झाईं, परछाईं ! जोर वह पर है।
जब गुरु देखता है कि बात समझ में आ गयी, तू खो गया, वह ही शेष रहा, तब दूसरे महाकाव्य की उद्घोषणा हैः त्वं तदसि, तू वह है। अब जोर तू पर है। क्योंकि जब तू न रहा, तो वही रहा। जब तू न रहा तो अब उसके सिवाय और क्या बचा ? तो कहीं भ्रांति न हो जाए कि मुझे छोड़कर और सब ब्रह्म है, उस भ्रांति को न बनने देने के लिए दूसरा महाकाव्य है कि मत घबड़ा; अब तू नहीं है इसलिए इस योग्य हुआ है कि तुझसे कहा जा सकता है कि तू भी वही है। चिंता न कर, यूं न सोच कि और सब परमात्मा हैं मुझे छोड़कर। जब सब वही है तू सब में सम्मिलित है। सम्मिलित ही नहीं है, अब यह भी कहा जा सकता है कि तू प्रथम है। क्योंकि सारी यात्रा अपने से ही शुरू होगी। यह जरा बारीक और नाजुक बात है, सूक्ष्म है। जब तू मिट जाए तो फिर तू की बात की जा सकती है। फिर कोई अड़चन नहीं है, फिर कुछ हर्जा नहीं है। त्वं तदसि, तू वह है।
लेकिन अभी इन दोनों महाकाव्यों में वह शब्द का प्रयोग हुआ है। वह शब्द दूरी का प्रतीक है ! जैसे हम किन्हीं वस्तुओं की बात कर रहे हों, तटस्थ, जैसे अभी जीवंत ब्रह्म की बात नहीं छेडी, अभी थोड़ी-सी दूरी बचाये रखी है- कहीं भी कोई खतरा न हो जाए। गुरु तो फूंक-फूंककर कदम रखता है। खतरे की बहुत संभावना है। क्योंकि हम सदियों-सदियों से, जन्मों-जन्मों में भ्रांति में जीये हैं। हम भ्रांतियों में लिपटे हैं। हमारे रोएं-रोएं में भ्रान्ति समायी हुई है। हमें धोना है, निखारना है, साफ करना है गुरु को। कबीर ने कहा है कि गुरु तो रंगरेज है। मगर इसके पहले कि वह रंगे, सफाई करेगा, धोएगा, निखारेगा, गंदगी वस्त्र की दूर करेगा। साफ-स्वच्छ हो जाए वस्त्र तो हो रंगा जाए, तो ही रंग अपनी परिपूर्णता में प्रकट होंगे।
जब ये दो बातें पूरी हो गयीं, यह बात साफ हो गयी कि शिष्य समझ गया कि वह नहीं है, स्वयं नहीं है, अस्तित्व है। मगर अभी वह का प्रयोग किया जा रहा है। जब यह भी बात समझ में आ गयी कि अस्तित्व, वह सब कुछ है, तो अब बात को गहराया जा सकता है, थोड़ा और-अब भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म में प्रवेश कराया जा सकता है। त्वं ब्रह्मास्मि। वह ही नहीं है तू, ब्रह्म भी तू है।
ब्रह्म का अर्थ होता हैः अब हमने वह व्यक्तित्व दिया। वह को चेतना दी, वह को जीवन दिया। अब वह कोई वस्तु न रही, कोई मंदिर की प्रतिमा न रही, अब तटस्थ रहने की कोई जरूरत न रही, अब तैयारी इतनी है कि हम उसको व्यक्ति की भांति स्वीकार कर सकते हैं। अब उसे निर्विकार निराकार, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं है; वह तो खतरा था तुम्हारे साथ। अगर यह कहा जाता तो मंदिर की मूर्ति की पकड़ जाती। अगर पहले तुमसे कहा जाताः त्वं ब्रह्मास्मि, कि तुम ब्रह्म हो, तो बड़ी अकड़ आ जाती। तब तो भ्रांति होनेवाली थी। लेकिन क्रम से, आहिस्ता-आहिस्ता, नेति-नेति, धीरे-धीरे; जैसे कि मूर्तिकार मूर्ति को गढ़ता है; छेनी उठाकर धीरे-धीरे पत्थर को तोड़ता है, जो-जो अनावश्यक है, अलग करता है, तब जो प्रकट हो जाती है-मूर्ति। ऐसे तो वह छिपी ही पड़ी था, पत्थर में छिपी थी, लेकिन अनावश्यक से जुड़ी थी। अनावश्यक अलग हो गया, अब मूर्ति अपनी प्रगाड़ता में प्रकट हो गयी है। अब मूर्ति बन सकती है। अब हम शब्द का प्रयोग न करें, अब अस्तित्व कहना उचित नहीं, अब प्रकृति कहना उचित नहीं। अब परमात्मा को, अस्तित्व शब्द को लाया जा सकता है।
देखना कितनी समझ पूर्वक एक-एक सूत्र आगे बढ़ रहा है ! इससे नास्तिक भी बैचैन नहीं होगा। दो सूत्रों से तो नास्तिक भी राजी हो जाएगा। अस्तित्व के सूत्र हैं, परमात्मा की बात उठायी है अभी। तार्किक भी दिखाई भी राजी हो जाएगा। क्योंकि अस्तित्व तो है, यह तो दिखाई ही पड़ रहा है, और मैं भी अस्तित्व हूँ सभी कुछ अस्तित्व है। अस्तित्व यानी समग्रता का नाम।
इन दो सूत्रों से कार्ल मार्क्स को एतराज नहीं होगा, चार्वाकों को एतराज नहीं होगा, इपीकुरस को एतराज नहीं होगा; पदार्थवादी को, विज्ञानवादी को, भौतिवादी को किसी को एतराज नहीं होगा। और प्रथमतः सभी लोग वहीं हैं, उसी अवस्था में हैं।
तीसरा सूत्र तो केवल उससे कहा जा सकता है, जिसने दो सूत्र पूरे कर लिए हों। त्वं ब्रह्मास्मि। अब गुरु आहिस्ता से कहता हैः अब तू पते की बात सुन, अस्तित्व कोई जड़ पदार्थमात्र नहीं है, ब्रह्म है, चिदानंद है, चैतन्य है। त्वं ब्रह्मास्मि का अर्थ हुआः तू शरीर नहीं है, तू मन नहीं है, तू आत्मा है।
ये तीन घोषणाएं गुरु की। फिर गुरु प्रतीक्षा करता है। जब शिष्य समझ लेता है-और समझ का यहाँ अर्थ होता हैः तब पी लेता है, जब डोलने लगता है, जब मस्ती में आ जाता है-तब उसके भीतर उद्घोष होता है-वह उद्घोष करता नहीं, उद्घोष होता है-अहं ब्रह्मास्मि; अनलहक; मैं ब्रह्म हूँ।
इन्हें महाकाव्य कहा जाता है, क्योंकि इन चारों वाक्यों में सब शास्त्र आ जाते हैं। कुछ शेष नहीं बचता। क्या शेष बचा अब और ?
लेकिन शर्तें समझ लेना मैं जाए, तो ही संभावना है यह जानने की कि मैं कौन हूँ । मैं जाए तो ही ब्रह्म आये। और फिर अद्भुत अवस्था हो जाती है.....।
दूसराः त्वं तदसि,तू वह है,
तीसराः त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म है; और
चौथाः अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूँ ।
ओशो के एक शिष्य चिदानंद ने जब ओशो से पैंगल उपनिषद् के इन सूत्रों का अर्थ समझाने का आग्रह किया तो ओशो ने गुरू-शिष्य संबंध की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत की।
उपनिषद् सदगुरु और शिष्य के बीच शून्य ने हृदय पर गीत गाया है। न तो गुरु ने कुछ कहा है और न शिष्य ने कुछ सुना है, फिर भी गुरु ने सब कह दिया है और शिष्य ने सब सुन लिया है। गुरु के साथ तीन प्रकार के संबंध हो सकते हैं।– विद्यार्थी का; तब गुरु केवल शिक्षक होता है। वहाँ वाणी आवश्यक है। संवाद जरूरी है। क्योंकि बात बुद्धि से बुद्धि तक होगी। वह सबसे ऊपरी नाता है। विद्यार्थी जिज्ञासु है, मुमुक्ष नहीं। जानना चाहता है, होना नहीं। होने के लिए तो न-होने की तैयारी चाहिए। जानने में कुछ कीमत चुकानी नहीं पड़ती। जानकारी इकट्ठी करके और भी अंहकार को रस आता है। जैसे-जैसे जानकारी बढ़ती वैसे-वैसे अंहकार और परिपुष्ट होता है। इसलिए तो उपनिषद् कहते हैं कि अज्ञान तो थोड़ा ही भटकता है, ज्ञान बहुत भटका देता है, अज्ञान ले जाता है अंधकार में, ज्ञान ले जाता है महाअंधकार में।
उपनिषद् अनूठे हैं। पृथ्वी पर कहीं भी किसी काल, किसी देश में वैसी अपूर्ण घटना नहीं घटी है। गुरु और शिष्य के बीच यह जो पहला नाता है, इसमें उपनिषद् निर्मित नहीं होते। शास्त्र बन सकते हैं, तर्क निर्मित हो सकता है, दर्शन स्थापित हो सकता है, लेकिन बात ऊपर-ऊपर की ही रहेगी, भीतर की नहीं हो सकती।
दूसरा नाता हैः गुरु और शिष्य के बीच शिष्यत्व का। विद्यार्थी अब केवल पूछने में उत्सुक नहीं है; प्रश्न ही नहीं है, अब विद्यार्थी स्वयं प्रश्न बन गया। अब जानकारी इकट्ठी नहीं करनी है। अब जानना है। और जो भी कीमत चुकानी पड़े, चुकाने की तैयारी है। अब जानने में मिट भी जाना पड़े तो भी पीछे पैर नहीं लौटेंगे। इतने साहस से ही विद्यार्थी का रूपांतरण शिष्य में होता है।
इसलिए नानक ने अपने सत्संगियों को सिक्ख कहा। वह पंजाबी रूपांतरण है शिष्य का। शिष्य के साथ ही धर्म की शुरूआत है। विद्यार्थी दर्शन के जंगल में भटकता, शब्दों के जाल में अटकता, शिष्य सुलझने लगता है, राह पाने लगता है। राह प्रेम की है, भटकाव तर्क का है। उलझाव बुद्धि का है, सुलझाव हृदय का है। जब ऊर्जा बुद्धि से हृदय में प्रवेश करती है तो विद्यार्थी रूपांतरित होता है। उसके भीतर आत्मक्रांति घटित होती है। वह शिष्य होता है। शिष्य और गुरु के बीच पहली बार कुछ सार्थक जन्म पाता है। उसके पहले तो बातचीत ही बातचीत थी। उसके पहले तो संभाषण था, अब कुछ गहराई में उतरना हुआ। अब चले उस प्रगाढ़ता की तरफ जैसे नमक का पुतला सागर में डुबकी मारे थाह का पता लगाने को, थाह मिलते-मिलते खुद भी खो जाए; थाह मिले लेकिन खुद न बचे। शिष्य करीब सरकने लगा गुरु के। कुछ-कुछ-दूर जैसे कोयले बोले, ऐसे गुरु की बात समझ में आनी शुरू होगी। शब्द अब भी गुरु बोलेगा, लेकिन शिष्य अब शब्दों के बीच में जो खाली जगह है वह सुनेगा। वह जो विराम है, वह जो विश्राम है, ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो उठेगा। शब्द उसको उभारने के काम में आएंगे। शब्द उसे पृष्ठभूमि देंगे। अभी शब्दों की जरूरत रहेगी,. लेकिन बड़ी बदली हुई जरूरत।
विद्यार्थी सिर्फ शब्द को सुनता था, लकीरों को पढ़ता था, शिष्य शब्दों के बीच में जो शून्य है, उसे सुनता है; पंक्तियों के बीच में जो रिक्त स्थान है, उसे सुनता है। गुरु क्या कहता है, यह कम महत्त्वपूर्ण है, गुरु क्या है यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण होने लगता है। यह नाता प्रेम का है। यह मामला तर्क, समझ, गणित के पार गया।
इसलिए तो विद्यार्थी तो दुनिया में सब जगह हुए हैं-स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय विद्यार्थियों से भरे हुए हैं- लेकिन शिष्य कभी-कभी हुए हैं। किसी जीसस के पास, किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी कबीर के पास, शिष्य कभी-कभी हुए हैं,। शिष्य होने के लिए अहंकार को छोड़ने का साहस चाहिए। क्योंकि जब तक अहंकार है तब तक प्रेम नहीं।
और तीसरा जो संबंध है गुरु और शिष्य के बीच उसे संबंध भी कैसे कहें ? क्योंकि जहाँ दो न बचें वहाँ कैसा संबंध ? मगर वही परम सम्बन्ध है। विद्यार्थी से जो यात्रा शुरू हुई थी, वह उसी परम सम्बन्ध पर जाकर समाप्त होती है। शिष्य का तो पड़ाव है। इसलिए तीसरा जो रूप है, वह भक्त का है।
विद्यार्थी बाहर-बाहर, परिधि पर भक्त, केन्द्र पर; दोनों के मध्य में शिष्य।
शिष्य को शब्दों की जरूरत होती है-विद्यार्थी को सिर्फ शब्दों की जरूरत होती है, शिष्य को शब्दों की और शब्दों के साथ शून्य की जरूरत होती है। भक्त को शब्दों की कोई जरूरत नहीं रह जाती, शून्य पर्याप्त होता है।
उपनिषद् प्रारंभ होता है, शिष्य के साथ और पूर्ण होता है भक्त के साथ। बुद्धि विद्यार्थी बनाती है, हृदय शिष्य बनाता है और हृदय शिष्य से भी गहरा जो तुम्हारे प्राणों का भी प्राण है, तुम्हारी आत्मा है, वह भक्त बनाती है। भक्त का संबंध आत्मीय है। संबंध नहीं कहना चाहिए। मजबूरी है भाषा की, इसलिए संबंध कह रहा हूँ। दो तो मिट गये, दुई गयी, अब तो न गुरु है न शिष्य है, एक सन्नाटा है, एक शून्य है, जिसमें दोनों लीन हैं। और तभी असली गुफ्तगूं है। वहीं उपनिषद् घटे हैं ।
उपनिषदों में सच में ही महाकाव्य हैं। महाकाव्य कहते हैं, उन वाक्यों को जो महाशून्य में घटे हों। अनुकंपा है कि किन्हीं ने उन्हें संकलित कर लिया है।
ये चारों महाकाव्य बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। पहले तीन गुरु ने शिष्य से कहे हैं; चौथा, शिष्य समझा है- गुरु ने जो कहा है, उसे जीया है, पहचाना है और अपनी पहचान की उद्घोषणा की है। चौथा वक्तव्य शिष्य का है। तीन में गुरु तैयारी करवा रहा है, चौथे में शिष्य ने उद्घोषणा की अपनी तैयारी की।
पहला हैः तत्त्वमसि, वह तू है। दूसराः त्वं तदसि, तू वह है। तीसराः त्वं ब्रह्मास्मि, तू ब्रह्म है। और चौथाः अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूँ । तीन गुरु के द्वारा कहे गये वचन हैं- साढ़ियां-चौथा मंदिर में प्रवेश है। जो चला था खोजी, वह आ गया मंजिल पर आने की घोषणा की है उसने गुरु को। यह उसका निवेदन है गुरु के चरणों में कि जो आपने कहा था, जाना, चखा, पीया, हुआ। अहं ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूँ ।
फिर ये जो तीन पहले वचन हैं, इनमें क्रम है। पहलाः तत्त्वमसि वह तू-जोर है वह पर, ताकि तू मिट सके। तू को मिटाना है। जितना तू गलेगा, जितना तू मिटेगा, उतना वह विराट होगा, प्रगट होगा प्रखर रूप से, उद्घाटित होगा, अनावृत होगा। तू में आच्छादित है। तू को हटाना है, ताकि उसे निर्बाध जाना जा सके। इसलिए पहला सूत्र हैः तत्त्वमसि, वह तू है। याद रख, वह है, असली वह है, तू तो बस छाया है, ! तू उसकी छाया, उसका प्रतिबिंब ! वह आकाश में ऊगा पूर्णिमा का चांद, तू झील में बनी उसकी झाईं, परछाईं ! जोर वह पर है।
जब गुरु देखता है कि बात समझ में आ गयी, तू खो गया, वह ही शेष रहा, तब दूसरे महाकाव्य की उद्घोषणा हैः त्वं तदसि, तू वह है। अब जोर तू पर है। क्योंकि जब तू न रहा, तो वही रहा। जब तू न रहा तो अब उसके सिवाय और क्या बचा ? तो कहीं भ्रांति न हो जाए कि मुझे छोड़कर और सब ब्रह्म है, उस भ्रांति को न बनने देने के लिए दूसरा महाकाव्य है कि मत घबड़ा; अब तू नहीं है इसलिए इस योग्य हुआ है कि तुझसे कहा जा सकता है कि तू भी वही है। चिंता न कर, यूं न सोच कि और सब परमात्मा हैं मुझे छोड़कर। जब सब वही है तू सब में सम्मिलित है। सम्मिलित ही नहीं है, अब यह भी कहा जा सकता है कि तू प्रथम है। क्योंकि सारी यात्रा अपने से ही शुरू होगी। यह जरा बारीक और नाजुक बात है, सूक्ष्म है। जब तू मिट जाए तो फिर तू की बात की जा सकती है। फिर कोई अड़चन नहीं है, फिर कुछ हर्जा नहीं है। त्वं तदसि, तू वह है।
लेकिन अभी इन दोनों महाकाव्यों में वह शब्द का प्रयोग हुआ है। वह शब्द दूरी का प्रतीक है ! जैसे हम किन्हीं वस्तुओं की बात कर रहे हों, तटस्थ, जैसे अभी जीवंत ब्रह्म की बात नहीं छेडी, अभी थोड़ी-सी दूरी बचाये रखी है- कहीं भी कोई खतरा न हो जाए। गुरु तो फूंक-फूंककर कदम रखता है। खतरे की बहुत संभावना है। क्योंकि हम सदियों-सदियों से, जन्मों-जन्मों में भ्रांति में जीये हैं। हम भ्रांतियों में लिपटे हैं। हमारे रोएं-रोएं में भ्रान्ति समायी हुई है। हमें धोना है, निखारना है, साफ करना है गुरु को। कबीर ने कहा है कि गुरु तो रंगरेज है। मगर इसके पहले कि वह रंगे, सफाई करेगा, धोएगा, निखारेगा, गंदगी वस्त्र की दूर करेगा। साफ-स्वच्छ हो जाए वस्त्र तो हो रंगा जाए, तो ही रंग अपनी परिपूर्णता में प्रकट होंगे।
जब ये दो बातें पूरी हो गयीं, यह बात साफ हो गयी कि शिष्य समझ गया कि वह नहीं है, स्वयं नहीं है, अस्तित्व है। मगर अभी वह का प्रयोग किया जा रहा है। जब यह भी बात समझ में आ गयी कि अस्तित्व, वह सब कुछ है, तो अब बात को गहराया जा सकता है, थोड़ा और-अब भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म में प्रवेश कराया जा सकता है। त्वं ब्रह्मास्मि। वह ही नहीं है तू, ब्रह्म भी तू है।
ब्रह्म का अर्थ होता हैः अब हमने वह व्यक्तित्व दिया। वह को चेतना दी, वह को जीवन दिया। अब वह कोई वस्तु न रही, कोई मंदिर की प्रतिमा न रही, अब तटस्थ रहने की कोई जरूरत न रही, अब तैयारी इतनी है कि हम उसको व्यक्ति की भांति स्वीकार कर सकते हैं। अब उसे निर्विकार निराकार, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं है; वह तो खतरा था तुम्हारे साथ। अगर यह कहा जाता तो मंदिर की मूर्ति की पकड़ जाती। अगर पहले तुमसे कहा जाताः त्वं ब्रह्मास्मि, कि तुम ब्रह्म हो, तो बड़ी अकड़ आ जाती। तब तो भ्रांति होनेवाली थी। लेकिन क्रम से, आहिस्ता-आहिस्ता, नेति-नेति, धीरे-धीरे; जैसे कि मूर्तिकार मूर्ति को गढ़ता है; छेनी उठाकर धीरे-धीरे पत्थर को तोड़ता है, जो-जो अनावश्यक है, अलग करता है, तब जो प्रकट हो जाती है-मूर्ति। ऐसे तो वह छिपी ही पड़ी था, पत्थर में छिपी थी, लेकिन अनावश्यक से जुड़ी थी। अनावश्यक अलग हो गया, अब मूर्ति अपनी प्रगाड़ता में प्रकट हो गयी है। अब मूर्ति बन सकती है। अब हम शब्द का प्रयोग न करें, अब अस्तित्व कहना उचित नहीं, अब प्रकृति कहना उचित नहीं। अब परमात्मा को, अस्तित्व शब्द को लाया जा सकता है।
देखना कितनी समझ पूर्वक एक-एक सूत्र आगे बढ़ रहा है ! इससे नास्तिक भी बैचैन नहीं होगा। दो सूत्रों से तो नास्तिक भी राजी हो जाएगा। अस्तित्व के सूत्र हैं, परमात्मा की बात उठायी है अभी। तार्किक भी दिखाई भी राजी हो जाएगा। क्योंकि अस्तित्व तो है, यह तो दिखाई ही पड़ रहा है, और मैं भी अस्तित्व हूँ सभी कुछ अस्तित्व है। अस्तित्व यानी समग्रता का नाम।
इन दो सूत्रों से कार्ल मार्क्स को एतराज नहीं होगा, चार्वाकों को एतराज नहीं होगा, इपीकुरस को एतराज नहीं होगा; पदार्थवादी को, विज्ञानवादी को, भौतिवादी को किसी को एतराज नहीं होगा। और प्रथमतः सभी लोग वहीं हैं, उसी अवस्था में हैं।
तीसरा सूत्र तो केवल उससे कहा जा सकता है, जिसने दो सूत्र पूरे कर लिए हों। त्वं ब्रह्मास्मि। अब गुरु आहिस्ता से कहता हैः अब तू पते की बात सुन, अस्तित्व कोई जड़ पदार्थमात्र नहीं है, ब्रह्म है, चिदानंद है, चैतन्य है। त्वं ब्रह्मास्मि का अर्थ हुआः तू शरीर नहीं है, तू मन नहीं है, तू आत्मा है।
ये तीन घोषणाएं गुरु की। फिर गुरु प्रतीक्षा करता है। जब शिष्य समझ लेता है-और समझ का यहाँ अर्थ होता हैः तब पी लेता है, जब डोलने लगता है, जब मस्ती में आ जाता है-तब उसके भीतर उद्घोष होता है-वह उद्घोष करता नहीं, उद्घोष होता है-अहं ब्रह्मास्मि; अनलहक; मैं ब्रह्म हूँ।
इन्हें महाकाव्य कहा जाता है, क्योंकि इन चारों वाक्यों में सब शास्त्र आ जाते हैं। कुछ शेष नहीं बचता। क्या शेष बचा अब और ?
लेकिन शर्तें समझ लेना मैं जाए, तो ही संभावना है यह जानने की कि मैं कौन हूँ । मैं जाए तो ही ब्रह्म आये। और फिर अद्भुत अवस्था हो जाती है.....।
***ओशो***
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