Thursday, January 17, 2013

" पुनर्जन्‍म " ~ ओशो

# प्रश्‍न—कुछ धर्म पुनर्जन्‍म में विश्‍वास करते है और कुछ नहीं करते। आप अपने बारे में कैसे जान सकते है कि आपने भी जीवन जिया है और पुन: जीएंगे?

ओशो: — " सिद्धांतों में मेरा विश्‍वास नहीं हे। मैं एक साधारण आदमी हूं कोई सिद्धांतवादी नहीं। सिद्धांतवादी तो महान विचारक होते है। वह यथार्थ के बारे में कुछ भी नहीं जानते, मगर वह इसके बारे में सिद्धांत गढ़ता रहते है। उसकी पूरा जीवन घूमता ही रहता है। और सत्‍य, यर्थाथ तो बस केंद्र में ही रह जाता है। किंतु सिद्धांतवादी इधर-उधर की हांकने में माहिर होता है।

जिस क्षण तुम किसी दूसरे पर भरोसा करने लगते हो, तो अपनी व्‍यक्‍तिगत खोज बंद कर देते हो। और मैं नहीं चाहूंगा। कि तुम अपनी व्‍यक्‍तिगत खोज बंद करों। हजारों वर्ष से व्‍यक्‍ति को इसी तरह छला गया और उसका शोषण किया गया है। मैं इस पूरी रणनीति को समूल नष्‍ट कर देना चाहता हूं। केवल अपने अनुभव पर भरोसा रखो। मैं हां कहूं या न, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अंतर इस बात से पड़ता है कि तुमने इसका अनुभव किया या नहीं। वहीं निर्णायक होगा। उससे तुम्‍हारे जीवन में निश्‍चय ही परिवर्तन आ जाएगा।

तीन धर्म है—यहूदी, ईसाइयत, इसलाम, जिनका पूनर्जन्‍म के सिद्धांत पर नकारात्‍मक रूख रहा है। वे कहते है कि यह सच नहीं है। यह एक नकारात्‍मक विश्‍वास है। इन तीनों धर्मों के समानांतर—हिंदू, बौद्ध और जैन, तीन धर्म है जिनका सकारात्‍मक दृष्‍टिकोण है। वे कहते है, पुनर्जन्‍म एक वास्‍तविकता है। किंतु वह भी एक विश्‍वास है; एक सकारात्‍मक विश्‍वास।

मेरी मान्‍यता तीसरी है, जिसे अभी आजमाया नहीं गया है। मैं कहता हूं, इस सिद्धांत को परिकल्‍पना मान कर स्‍वीकार करो, न तो हां कहो और न ना। परिकल्‍पना मान कर स्‍वीकार करने का अर्थ है: ‘’मैं इसके बारे में किसी सकारात्‍मक अथवा नकारात्‍मक पूर्वाग्रह के बिना इसी जांच-पड़ताल करने के लिए तैयार हूं। मैं इसकी सच्‍चाई जानने के लिए किसी पूर्व कल्‍पित विचार के बिना इसकी गहराई में जाऊँगा।

धर्मों ने परिकल्‍पना शब्‍द का प्रयोग किया ही नहीं है। तुम या तो विश्‍वास करे या अविश्‍वास। अविश्‍वासी भी विश्‍वासी होता है। केवल नकारात्‍मक ढंग से। उनमें कोई गुणात्‍मक भिन्‍नता नहीं है। वे एक तरह के लोग है। जब तुम्‍हारा कोई नकारात्‍मक विश्‍वास या कोई सकारात्‍मक विश्‍वास होता है, तो तुम्‍हारे मन ने यह निर्णय कर लिया होता है कि सच्‍चाई क्‍या है। इसे मैं अप्रामाणिक, बेईमान कहता हूं। और तुम किसी वस्‍तु को नकारात्‍मक अथवा सकारात्‍मक दृष्‍टि से स्‍वीकार कर लेते हो। तो मन की यह क्षमता है कि वह उस तरह का भ्रम पैदा कर देता है।

इसलाम में, ईसाइयों में, यहूदियों में तुम्‍हें ऐसे बच्‍चे नहीं मिलेंगे जिन्‍हें अपने पूर्वजन्‍म की याद हो। किंतु हिंदू, बौद्ध, और जैन धर्मों में लगभग प्रत्‍येक दिन कहीं ने कहीं किसी बच्‍चे को अपने पूर्व जन्‍मों की याद आती है। लोगों ने यह समझने का प्रयत्‍न किया है कह उसकी स्‍मृति में कोई तथ्‍य होता है या यह मात्र कल्‍पना होती है। और ऐसे बहुत से मामले मिले है जिनमे तथ्‍य इसका स्‍पष्‍ट रूप से समर्थन करते है।

भारत में तो ऐसा हर दिन होता रहता है—एक स्‍थान में, दूसरे स्‍थान में, किसी ने किसी बच्‍चे को इसकी स्‍मृति होती है। और हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म कोई भी इसकी जांच-पड़ताल नहीं करता। क्‍योंकि वे इस बात से भयभीत होते है कि उनका सिद्धांत गलत न सिद्ध हो जाये। मगर तुम किसी ईसाई देश में, यहूदी समुदाय में, किसी इस्‍लामिक भूमि में ऐसा नहीं कर सकते, क्‍योंकि उन्‍होंने इस बात को स्‍वीकार कर लिया है कि इस तरह की चीज पूर्ण रूप से असत्‍य है।

जहां तक मेरा संबंध है, पुनर्जन्‍म एक सच्‍चाई है। यह मेरा अपना अनुभव है। किंतु जो मेरे लिए सत्‍य है, तुम्‍हारे लिए वह सिद्धांत हो जाता है। और मैं अपने सत्‍य को तुम्‍हारा सिद्धांत नहीं बनाना चाहता। इसीलिए मैंने कहा: ‘’मेरा सिद्धांतों में, विश्‍वासों से कुछ लेना-देना नहीं है। सत्‍य मेरा व्‍यवसाय है।‘’

~ ओशो , फ्रॉम पर्सनैलिटी टु इंडीवीजुअलटी


# पिछले जन्‍मों का क्‍या महत्‍व होता है, उसकी क्‍या उपयोगिता है? क्‍या उन्‍हें याद करना लाभ दायी होगा?

ओशो: — " इस जन्‍म का भी तो कोई महत्‍व नहीं है; और वे बीते हुए जन्‍म भी एक ही चीज की बार-बार पुनरावृति के आलावा और कुछ नहीं था। उनका क्‍या महत्‍व हो सकता है। इस जीवन के स्‍वप्‍न को देख लो, तो तुमने वे सारे स्‍वप्‍न देख लिए जिन्‍हें तुमने पहले जीया है। स्‍वप्‍नों का कोई महत्‍व नहीं होता।

पाश्‍चात्‍य मनोविश्‍लेषण का बड़ा आग्रह है कि स्‍वप्‍नों का महत्‍व होता है। पूरब के देशों में, हम कहते है कि स्‍वप्‍नों को कोई महत्‍व नहीं होता। केवल स्‍वप्‍न द्रष्‍टा महत्‍वपूर्ण है। स्‍वप्‍न विषय है, उन्‍हें देखने वाला तुम्‍हारी आत्म परकता है। स्‍वप्‍न परिवर्तित होते रहे है। स्‍वप्‍न द्रष्‍टा वहीं रहता है। विज्ञान परिवर्तित होता रहता है। किंतु दृष्‍टा वहीं रहता है। दृष्‍टा का महत्‍व है। यही पर पाश्‍चात्‍य मनोविज्ञान और पूर्वीय मनोविज्ञान में भेद। पूरब के रहस्‍यवादी के लिए वे सारे खोल जो मनोविश्‍लेषण, उनकी शाखाएं वे उनके संस्‍थापक खेलते है, मात्र पहेली है। मनोविश्‍लेषण एक सुंदर खेल है। तुम खेलते रह सकते हो, मगर तुम पूर्ण रूप से वही रहते हो।

वास्‍तविक चीज तो परिवर्तन है, चेतना को स्‍वप्‍न से हटा कर स्‍वप्‍न द्रष्‍टा में ले जाना है। पूरे गेस्‍टाल्‍ट का परिवर्तन—वस्‍तु की और नहीं देखना बल्‍कि देखने वाले को देखना है। तब फिर सब कुछ सपना हो जाता है।

पुनर्जन्‍म, जन्‍म, और मृत्‍यु, अच्‍छा और बुरा। तुम सम्राट हो या भिखारी, तुम हत्‍यारे हो या महात्‍मा—सब कुछ सपना है।

लेकिन एक बात तय है कि सपने के लिए साक्षी की जरूरत नहीं है। साक्षित्‍व सत्‍य है। उस साक्षित्‍व को जान लेना अपने बुद्ध स्‍वभाव को जान लेना है "

~ ओशो , टेक इट ईजी

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