Thursday, January 31, 2013
" ओशो अमृत पत्र : ईश्वर की पुकार से भरे प्राणों में ही संन्यास का अवतरण "
" प्रिय धर्म ज्योति,
प्रेम, संन्यास उस चित में ही अवतरित होता है,
जिसके लिए कि ईश्वर ही सब कुछ हो।
जहां ईश्वर ‘’सब कुछ’’ है,
वहां संसार अपने आप ही ‘’कुछ नहीं’’ हो जाता है।
किसी फकीर के पास ऐ कंबल था।
उसे किसी ने चुरा लिया है।
फकीर उठा और पास के थाने में जाकर चोरी की रिपोर्ट लिखवाई।
उसने लिखवाया कि उसका तकिया, उसका गद्दा,
उसका छाता, उसका पाजामा,उसका कोट और उसी तरह की बहुत सी चीजें चौरी हो गई है।
चोर भी उत्सुकतावश पीछे-पीछे थाने चला आया।
सूची की इतनी लम्बी-चौड़ी रूपरेखा देखकर वह मारे क्रोध के प्रकट हो गया,
और थानेदार के सामने कंबल फेंककर बोला।
बस यही, एक सड़ा गला कंबल था—इसके बदले इसने संसार भर की चीजें लिखा डाली।
फकीर ने कंबल उठाकर कहा—‘’आह, बस यही तो मेरा संसार है।‘’
फकीर ने कंबल उठाकर चलने को उत्सुक हुआ तो थानेदार ने उसे रोका,
और कहा कि रिपोर्ट में झूठी चीजें क्यों लिखवायी?
वह फकीर बोला—‘’ नहीं झूठ एक शब्द भी नहीं लिखवाया है। देखिए,
यहीं कंबल मेरे लिए सब कुछ है—यही मेरा तकिया है,
यहीं मेरा गद्दा है, यही मेरा छाता है, यहीं पाजामा,यहीं कोट है।
बेशक, उसकी बात ठीक ही थी।
जिस दिन ईश्वर भी ऐसे ही सब कुछ हो जाता है—तकिया,गद्दा, छाता,पाजामा, कोट—
उसी दिन संन्यास का अलौकिक फूल जीवन में खिलता है। "
~ रजनीश के प्रणाम
प्रेम, संन्यास उस चित में ही अवतरित होता है,
जिसके लिए कि ईश्वर ही सब कुछ हो।
जहां ईश्वर ‘’सब कुछ’’ है,
वहां संसार अपने आप ही ‘’कुछ नहीं’’ हो जाता है।
किसी फकीर के पास ऐ कंबल था।
उसे किसी ने चुरा लिया है।
फकीर उठा और पास के थाने में जाकर चोरी की रिपोर्ट लिखवाई।
उसने लिखवाया कि उसका तकिया, उसका गद्दा,
उसका छाता, उसका पाजामा,उसका कोट और उसी तरह की बहुत सी चीजें चौरी हो गई है।
चोर भी उत्सुकतावश पीछे-पीछे थाने चला आया।
सूची की इतनी लम्बी-चौड़ी रूपरेखा देखकर वह मारे क्रोध के प्रकट हो गया,
और थानेदार के सामने कंबल फेंककर बोला।
बस यही, एक सड़ा गला कंबल था—इसके बदले इसने संसार भर की चीजें लिखा डाली।
फकीर ने कंबल उठाकर कहा—‘’आह, बस यही तो मेरा संसार है।‘’
फकीर ने कंबल उठाकर चलने को उत्सुक हुआ तो थानेदार ने उसे रोका,
और कहा कि रिपोर्ट में झूठी चीजें क्यों लिखवायी?
वह फकीर बोला—‘’ नहीं झूठ एक शब्द भी नहीं लिखवाया है। देखिए,
यहीं कंबल मेरे लिए सब कुछ है—यही मेरा तकिया है,
यहीं मेरा गद्दा है, यही मेरा छाता है, यहीं पाजामा,यहीं कोट है।
बेशक, उसकी बात ठीक ही थी।
जिस दिन ईश्वर भी ऐसे ही सब कुछ हो जाता है—तकिया,गद्दा, छाता,पाजामा, कोट—
उसी दिन संन्यास का अलौकिक फूल जीवन में खिलता है। "
~ रजनीश के प्रणाम
Saturday, January 26, 2013
" अर्पित मेरी भावना - इसे स्वीकार करो ! " ~ ओशो
" तुमने गति का संघर्ष दिया मेरे मन को,
सपनों को छवि के इंद्रजाल का सम्मोहन;
तुमसे आंसू की सृष्टि रची है आंखों में,
अधरों को दी है शुभ्र मधुरिमा की पुलकन;
उल्लास और उच्छवास तुम्हारे ही अवयव,
तुमने मरीचिका और तृषा का सृजन किया;
अभिशाप बना कर तुमने मेरी सत्ता को,
मुझको पग-पग पर मिटने का वरदान दिया;
मैं हंसा तुम्हारे हंसते से संकेतों पर,
मैं फूट पड़ा लख बंक भृकुटि का संचालन;
अपनी लीलाओं से है विस्मित और चकित!
अर्पित मेरी भावना-इसे स्वीकार करो!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो!
क्या पाप और क्या पुण्य इसे तो तुम जानो,
करना पड़ता है केवल इतना ज्ञात यहां;
आकाश तुम्हारा और तुम्हारी ही पृथ्वी,
तुम मे ही तो इस सांसों का आघात यहां;
तुम में निर्बलता और शक्ति इन हाथों की,
मैं चला कि चरणों का गुण केवल चलना है;
ये दृश्य रचे, दी वहीं दृष्टि तुमने मुझको,
मैं क्या जानूं क्या सत्य और क्या छलना है।
रच-रच कर करना नष्ट तुम्हारा ही गुण है,
तुम में ही तो है कुंठा इन सीमाओं की;
है निज असफलता और सफलता से प्रेरित!
अर्पित है मेरा कर्म-इसे स्वीकार करो!
अर्पित मेरा अस्तित्व-इसे स्वीकार करो!
रंगों की सुषमा रच, मधुऋतु जल जाती है,
सौरभ बिखरा कर फूल धूल बन जाता है;
धरती की प्यास बुझा जाता गल कर बादल,
पाषाणों से टकरा कर निर्झर गाता है;
तुमने ही तो पागलपन का संगीत दिया,
करुणा बन गलना तुमने मुझको सिखलाया;
तुमने ही मुझको यहां धूल से ममता दी,
रंगों में जलना मैंने तुम से ही पाया।
उस ज्ञान और भ्रम में ही तो तुम चेतन हो,
जिनसे मैं बरबस उठता-गिरता रहता हूं;
निज खंड-खंड में हे असीम तुम हे अखंड!
अर्पित मेरा अस्तित्व-इसे स्वीकार करो ! "
~ ओशो , प्रीतम छबि नैनन बसी ♥...
Wednesday, January 23, 2013
" निर्दोषिता की ओर वापसी " ~ ओशो
# Q. :- " मैं एक समलैंगिक कैथलिक हूं, क्या आप मेरी उलझन से मुझे बाहर निकाल सकते हैं? "
# ओशो :- " सबसे पहले तुम्हें अपने कैथलिक धर्म से बाहर निकलना चाहिए ,वही असली गड़बड़ है। समलैंगिकता कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है, वास्तव में यह कोई समस्या ही नहीं है। यह तो मनुष्य की स्वतंत्रता का हिस्सा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है अगर दो व्यक्ति एक विशेष तरह के लैंगिक सम्बन्ध को चुनते हैं, यह व्यक्तिगत मामला होना चाहिए। परंतु नेता और राजनैतिज्ञ प्रत्येक मामलों में अपनी टांग अड़ाते हैं। वे तुममें हीन भावना पैदा करते हैं जो पूर्णतः अनावश्यक है।
यदि दो पुरुष प्रेम में हैं तो इसमें गलत क्या है? किसी और को क्या हानि पहुंचा रहे हैं वे? वास्तव में वे ज्यादा खुश दिखाई पड़ते हैं बजाए विपरीतलिंगीयों से। तभी उन्हें गे कहा जाता है, खुशमिजाज। और यह आश्चर्यजनक है, मैंने कभी समलैंगिक महिलाओं को इतना प्रसन्न नहीं देखा, वे दुखी और गंभीर दिखाई पड़ती हैं । परंतु दो समलैंगिक पुरुष प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं। बहुत मधुर ,सचमुच मधुर ।
मैं सोचता हूं मामला क्या है? क्यों समलैं गिक महिलाएं इतनी प्रसन्न नहीं हैं? शायद वे सताए जाने का आनंद नहीं उठा सकतीं जो कि शाश्वत आनंद रहा है महिलाओं का। वास्तव में बिना सताए कोई धार्मिक हो ही नहीं सकता कभी। तुम्हारे सारे साधु–संत प्रतिफल हैं सताए जाने का।
सारे साधु –संतों को कृतज्ञ होना चाहिए महिलाओं के प्रति , महिलाओं ने उन्हें प्रेरित किया है धार्मिक होने के लिए।
समलैंगिक महिलाएं खुश नहीं दिखाई पड़ती हैं, कुछ चूक रहा है। और वह जो चूक रहा है वह यह कि वे संताप, यातना नहीं दे पा रही एक-दूसरे को। वे परिपूर्ण रूप से समझती हैं एक दूसरे को और वे इतने परिपूर्ण रूप से समझती हैं कि वहां कोई रहस्य है ही नहीं। आदमी मस्तिष्क में जीता है और स्त्री ह्रदय से जीती है। और उसका ह्रदय तभी आनंदित होता है जब उसे रहस्य मिले। ह्रदय को रहस्यों में आनंद मालूम होता हैं जबकि मस्तिष्क को रहस्यों में कोई रुचि, कोई रस नहीं मालूम पड़ता। उसे रस है समस्या में, पहेली में।
कोई समस्या कोई पहेली और मस्तिष्क को रस आने लगता है। मस्तिष्क की पहुंच तार्किक है। एक पुरूष के लिए स्त्री बड़ी रहस्यमयी है, उससे संबन्धित होने के लिये पुरूष को अपने ह्रदय पर आना होगा। पर वह मस्तिष्क में जीता है इसलिए स्त्री हमेशा एक परेशानी रही है पुरूषों के लिये। वह उसे समझ नहीं पाता, उसे समझ नहीं सकता, वह उसे वैसे भी नहीं समझ सकता। क्योंकि उसे एक रह्स्य के साथ जीना है जो कि एक सतत पीड़ा है उसके लिए । और वह उसकी समझ के बाहर है।
लेकिन पुरुषों के साथ चीजें सरल हैं क्योंकि वे दोनो तार्किक हैं। वे एक दूसरे की भाषा समझते हैं, तर्क समझते हैं गणित और हिसाब समझते हैं। पुरूष एक नए प्रश्न की तरह है जो हल किया जा सकता है। वह रहस्य की तरह नहीं है वरन एक प्रश्न की तरह , एक समस्या जो हल की जा सकती है, जिसे कि हल करना असंभव नहीं है। और यही उन्हें रोचक बनाए हुए हैं एक दूसरे के प्रति। यही लुभाए हुए है उन्हें। इसलिए मैं देखता हूं कि समलैंगिक पुरूष प्रसन्न दिखाई देते हैं,और समलैंगिक महिलाएं दुखी ।
और एक बात और होती है, समलैंगिक पुरुष स्त्रैण हो जाते हैं। और उनमें एक अलग तरह की सुंदरता होती है, एक तरह का सौंदर्य होता है, समलैंगिक महिलाएं पुरूष की तरह हो जाती हैं। वे अपना स्त्रेण सौंदर्य खोने लगती हैं, वे मर्दाना, आक्रमक ,कठोर होने लगती हैं। इसलिए यदि तुम स्त्री होते तो यह एक समस्या हो सकती थी और मैं तुम्हारी मदद करता इससे बाहर आने में लेकिन तुम पुरूष हो । इसमें समस्या क्या है? यदि तुम आनंदित हो एक पुरूष के साथ प्रेम संबध मे तो आनंदित होओ।
समलैंगिकता कोई समस्या नहीं है। हमें अवास्तविक समस्याओं की बजाए वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए । बहुत सी वास्तविक समस्याएं हैं हल करने के लिए।
और यह एक तरकीब है मनुष्य के दिमाग की: अवास्तविक समस्याओं को पैदा करना ताकि तुम व्यस्त रहो उनको सुलझाने में और वास्तविक समस्याएं बढ़ती जाती हैं। यह एक पुरानी राजनीति है, सभी राजनीतिज्ञ , पुरोहित ,धार्मिक नेता तुम्हें झूठी समस्याएं बताते आ रहे हैं ताकि तुम झूठी समस्याओं में ही व्यस्त रहो।
समस्याएं अपने आप में इतनी अर्थहीन हैं । तु्म्हारी समस्याएं बिलकुल भी समस्याएं नहीं हैं । लेकिन समलैंगिकता के बारे में कितना उपद्रव चलता आ रहा है सदियों से । आज भी कुछ ऐसे देश हैं जहां पर लोग मारे जा रहे हैं , हत्याएं हो रही हैं। क्योंकि वे समलैंगिक हैं वे जेल भेजे जा रहे हैं । कितना असामान्य है यह। यह असामान्य दुनिया, और इसे कहते हो तुम इक्कीसवीं सदी ?
समलैंगिकता बिलकुल भी कोई समस्या नहीं है , और भी हजारों वास्तविक समस्याएं हैं । लेकिन आदमी खिलौनों में उलझा रहता है।
मेरा प्रयास है तुम्हारा सारा ध्यान खिलौनों से हटा लेना ताकि तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर सको; और जब तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करोगे तब वे सुलझाई जा सकती हैं।
अब मैं यह नहीं देख पता कि कैसे समलैंगिकता समस्या बन गयी है। समस्या तो सिर्फ एक ही है: तुम्हारा कैथलिक धर्म ।
एक सम्मानजनक परिवार बोसटान के बड़े बेटे रॉडनी ने अपने पिता को हैरानी में डाल दिया जब उसने यह घोषणा की कि वह अपने बायफ्रेंड के साथ रहना चाहता है बोसटान हिल में।
"क्या बेवकूफी है?," पिता जी ने कहा," हमारा परिवार संभ्रान्त परिवार है, आज तक खानदान में ऐसी शर्मनाक घटना नहीं घटी।"
"मैं बेबस हूं पिताजी, मैं उससे प्यार करता हूं।" बेटा बोला।
" समझने की कोशिश करो बेटा, वह लड़का कैथलिक है।"
यह है वास्तविक समस्या ! अपने कैथलिक धर्म से बाहर आओ और जब मैं यह कह रहा हूं कि कैथलिक धर्म से बाहर आओ तो मेरा मतलब है अपनी बेवकूफी भरी धारणाओं से बाहर आओ ,और जिंदगी को जीना शुरू करो ऐसे जैसे कि तुम आदम और ईव हो –– धरती पर सबसे पहला आदमी और धरती पर सबसे पहली स्त्री ।
जीवन को सरलता से जीओ, सरल से सरलतम। लेकिन लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं जो मैं कह रहा हूं। जीवन एक रहस्य है, यह कुछ सुलझाने या करने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है। और किसी ने पूछा है… "ओशो आप जब कहते हैं जीवन एक रहस्य है यह कुछ सुलझाने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है। पर मैं समझता हूं कि जीवन तो एक दुख है, सुलझाने या कुछ करने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है।
यह तुम पर निर्भर करता है कैसे तुम इसे लेते हो । जहां तक मैं देखता हूं मुझे जीवन एक रहस्य दिखाई पड़ता है। सुलझाने के लिये नहीं, बस जीने के लिये है। लेकिन तुम इसे दुख मान सकते हो।
कोई भी अनावश्यक , अवास्तविक समस्याएं अपने लिये खड़ी मत करो, ताकि तुम्हारी पूरी उर्जा केंद्रित हो सके उसके लिये जो वास्तविक है, जो आधारभूत समस्या है। और आधारभूत समस्या केवल एक है: स्वयं को जानना। "
~ ओशो , दि गूज़ इज़ आउट, प्रवचन # 3
# ओशो :- " सबसे पहले तुम्हें अपने कैथलिक धर्म से बाहर निकलना चाहिए ,वही असली गड़बड़ है। समलैंगिकता कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है, वास्तव में यह कोई समस्या ही नहीं है। यह तो मनुष्य की स्वतंत्रता का हिस्सा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है अगर दो व्यक्ति एक विशेष तरह के लैंगिक सम्बन्ध को चुनते हैं, यह व्यक्तिगत मामला होना चाहिए। परंतु नेता और राजनैतिज्ञ प्रत्येक मामलों में अपनी टांग अड़ाते हैं। वे तुममें हीन भावना पैदा करते हैं जो पूर्णतः अनावश्यक है।
यदि दो पुरुष प्रेम में हैं तो इसमें गलत क्या है? किसी और को क्या हानि पहुंचा रहे हैं वे? वास्तव में वे ज्यादा खुश दिखाई पड़ते हैं बजाए विपरीतलिंगीयों से। तभी उन्हें गे कहा जाता है, खुशमिजाज। और यह आश्चर्यजनक है, मैंने कभी समलैंगिक महिलाओं को इतना प्रसन्न नहीं देखा, वे दुखी और गंभीर दिखाई पड़ती हैं । परंतु दो समलैंगिक पुरुष प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं। बहुत मधुर ,सचमुच मधुर ।
मैं सोचता हूं मामला क्या है? क्यों समलैं गिक महिलाएं इतनी प्रसन्न नहीं हैं? शायद वे सताए जाने का आनंद नहीं उठा सकतीं जो कि शाश्वत आनंद रहा है महिलाओं का। वास्तव में बिना सताए कोई धार्मिक हो ही नहीं सकता कभी। तुम्हारे सारे साधु–संत प्रतिफल हैं सताए जाने का।
सारे साधु –संतों को कृतज्ञ होना चाहिए महिलाओं के प्रति , महिलाओं ने उन्हें प्रेरित किया है धार्मिक होने के लिए।
समलैंगिक महिलाएं खुश नहीं दिखाई पड़ती हैं, कुछ चूक रहा है। और वह जो चूक रहा है वह यह कि वे संताप, यातना नहीं दे पा रही एक-दूसरे को। वे परिपूर्ण रूप से समझती हैं एक दूसरे को और वे इतने परिपूर्ण रूप से समझती हैं कि वहां कोई रहस्य है ही नहीं। आदमी मस्तिष्क में जीता है और स्त्री ह्रदय से जीती है। और उसका ह्रदय तभी आनंदित होता है जब उसे रहस्य मिले। ह्रदय को रहस्यों में आनंद मालूम होता हैं जबकि मस्तिष्क को रहस्यों में कोई रुचि, कोई रस नहीं मालूम पड़ता। उसे रस है समस्या में, पहेली में।
कोई समस्या कोई पहेली और मस्तिष्क को रस आने लगता है। मस्तिष्क की पहुंच तार्किक है। एक पुरूष के लिए स्त्री बड़ी रहस्यमयी है, उससे संबन्धित होने के लिये पुरूष को अपने ह्रदय पर आना होगा। पर वह मस्तिष्क में जीता है इसलिए स्त्री हमेशा एक परेशानी रही है पुरूषों के लिये। वह उसे समझ नहीं पाता, उसे समझ नहीं सकता, वह उसे वैसे भी नहीं समझ सकता। क्योंकि उसे एक रह्स्य के साथ जीना है जो कि एक सतत पीड़ा है उसके लिए । और वह उसकी समझ के बाहर है।
लेकिन पुरुषों के साथ चीजें सरल हैं क्योंकि वे दोनो तार्किक हैं। वे एक दूसरे की भाषा समझते हैं, तर्क समझते हैं गणित और हिसाब समझते हैं। पुरूष एक नए प्रश्न की तरह है जो हल किया जा सकता है। वह रहस्य की तरह नहीं है वरन एक प्रश्न की तरह , एक समस्या जो हल की जा सकती है, जिसे कि हल करना असंभव नहीं है। और यही उन्हें रोचक बनाए हुए हैं एक दूसरे के प्रति। यही लुभाए हुए है उन्हें। इसलिए मैं देखता हूं कि समलैंगिक पुरूष प्रसन्न दिखाई देते हैं,और समलैंगिक महिलाएं दुखी ।
और एक बात और होती है, समलैंगिक पुरुष स्त्रैण हो जाते हैं। और उनमें एक अलग तरह की सुंदरता होती है, एक तरह का सौंदर्य होता है, समलैंगिक महिलाएं पुरूष की तरह हो जाती हैं। वे अपना स्त्रेण सौंदर्य खोने लगती हैं, वे मर्दाना, आक्रमक ,कठोर होने लगती हैं। इसलिए यदि तुम स्त्री होते तो यह एक समस्या हो सकती थी और मैं तुम्हारी मदद करता इससे बाहर आने में लेकिन तुम पुरूष हो । इसमें समस्या क्या है? यदि तुम आनंदित हो एक पुरूष के साथ प्रेम संबध मे तो आनंदित होओ।
समलैंगिकता कोई समस्या नहीं है। हमें अवास्तविक समस्याओं की बजाए वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए । बहुत सी वास्तविक समस्याएं हैं हल करने के लिए।
और यह एक तरकीब है मनुष्य के दिमाग की: अवास्तविक समस्याओं को पैदा करना ताकि तुम व्यस्त रहो उनको सुलझाने में और वास्तविक समस्याएं बढ़ती जाती हैं। यह एक पुरानी राजनीति है, सभी राजनीतिज्ञ , पुरोहित ,धार्मिक नेता तुम्हें झूठी समस्याएं बताते आ रहे हैं ताकि तुम झूठी समस्याओं में ही व्यस्त रहो।
समस्याएं अपने आप में इतनी अर्थहीन हैं । तु्म्हारी समस्याएं बिलकुल भी समस्याएं नहीं हैं । लेकिन समलैंगिकता के बारे में कितना उपद्रव चलता आ रहा है सदियों से । आज भी कुछ ऐसे देश हैं जहां पर लोग मारे जा रहे हैं , हत्याएं हो रही हैं। क्योंकि वे समलैंगिक हैं वे जेल भेजे जा रहे हैं । कितना असामान्य है यह। यह असामान्य दुनिया, और इसे कहते हो तुम इक्कीसवीं सदी ?
समलैंगिकता बिलकुल भी कोई समस्या नहीं है , और भी हजारों वास्तविक समस्याएं हैं । लेकिन आदमी खिलौनों में उलझा रहता है।
मेरा प्रयास है तुम्हारा सारा ध्यान खिलौनों से हटा लेना ताकि तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित कर सको; और जब तुम जीवन की वास्तविक समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित करोगे तब वे सुलझाई जा सकती हैं।
अब मैं यह नहीं देख पता कि कैसे समलैंगिकता समस्या बन गयी है। समस्या तो सिर्फ एक ही है: तुम्हारा कैथलिक धर्म ।
एक सम्मानजनक परिवार बोसटान के बड़े बेटे रॉडनी ने अपने पिता को हैरानी में डाल दिया जब उसने यह घोषणा की कि वह अपने बायफ्रेंड के साथ रहना चाहता है बोसटान हिल में।
"क्या बेवकूफी है?," पिता जी ने कहा," हमारा परिवार संभ्रान्त परिवार है, आज तक खानदान में ऐसी शर्मनाक घटना नहीं घटी।"
"मैं बेबस हूं पिताजी, मैं उससे प्यार करता हूं।" बेटा बोला।
" समझने की कोशिश करो बेटा, वह लड़का कैथलिक है।"
यह है वास्तविक समस्या ! अपने कैथलिक धर्म से बाहर आओ और जब मैं यह कह रहा हूं कि कैथलिक धर्म से बाहर आओ तो मेरा मतलब है अपनी बेवकूफी भरी धारणाओं से बाहर आओ ,और जिंदगी को जीना शुरू करो ऐसे जैसे कि तुम आदम और ईव हो –– धरती पर सबसे पहला आदमी और धरती पर सबसे पहली स्त्री ।
जीवन को सरलता से जीओ, सरल से सरलतम। लेकिन लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं जो मैं कह रहा हूं। जीवन एक रहस्य है, यह कुछ सुलझाने या करने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है। और किसी ने पूछा है… "ओशो आप जब कहते हैं जीवन एक रहस्य है यह कुछ सुलझाने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है। पर मैं समझता हूं कि जीवन तो एक दुख है, सुलझाने या कुछ करने के लिये नहीं है, बस जीने के लिये है।
यह तुम पर निर्भर करता है कैसे तुम इसे लेते हो । जहां तक मैं देखता हूं मुझे जीवन एक रहस्य दिखाई पड़ता है। सुलझाने के लिये नहीं, बस जीने के लिये है। लेकिन तुम इसे दुख मान सकते हो।
कोई भी अनावश्यक , अवास्तविक समस्याएं अपने लिये खड़ी मत करो, ताकि तुम्हारी पूरी उर्जा केंद्रित हो सके उसके लिये जो वास्तविक है, जो आधारभूत समस्या है। और आधारभूत समस्या केवल एक है: स्वयं को जानना। "
~ ओशो , दि गूज़ इज़ आउट, प्रवचन # 3
उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं - ओशो....
आचार्य श्री, आपने कहा कि यदि कोई भी क्रिया पूरी, टोटल हो तो ऊर्जा खोयी
नहीं जाती। कृपया बताइए कि टोटल एक्शन का आप क्या अर्थ लेते हैं? और यह भी
बतायें कि संभोग की प्रक्रिया में टोटल यानी पूर्ण होने का क्या अर्थ है? क्या उसमें ऊर्जा के क्षय न होने का अर्थ है?
कर्म पूर्ण हो, कृत्य पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती। कोई भी कर्म पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती है। जब मैंने ऐसा कहा तो मेरा अर्थ है कि कृत्य अधूरा तब होता है जब हम अपने भीतर खंडित और विभाजित और कांफ्लिक्ट में होते हैं। जब मैं अपने भीतर ही टूटा हुआ होता हूं तो कृत्य अधूरा होता है।
समझें कि आप मुझे मिले और मैंने आपको गले लगा लिया। अगर इस गले लगाते वक्त मेरे मन का एक खंड कह रहा है कि यह क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है, मत करो। और एक खंड कह रहा है कि करूंगा, बहुत ठीक है। तो मेरे भीतर मैं दो हिस्से में बंटा हूं और लड़ रहा हूं। आधे हिस्से से मैं गले लगाऊंगा और आधे हिस्से से गले से दूर हटने की कोशिश में लगा रहूंगा। मैं एक ही साथ दो विरोधी काम कर रहा हूं। इन विरोधी कामों में मेरे भीतर की मनस-ऊर्जा क्षीण होगी। लेकिन अगर मैंने पूरे ही हृदय से किसी को गले लगा लिया है और उस गले लगाने में मेरे हृदय में कहीं भी कोई विरोधी स्वर नहीं है तो ऊर्जा के नष्ट होने का कोई भी कारण नहीं है। बल्कि यह पूर्ण आलिंगन मुझे और भी ऊर्जा से भर जाएगा, मुझे और भी आनंद से भर जाएगा।
शक्ति क्षीण होती है कांफ्लिक्ट में, इनर कांफ्लिक्ट में। भीतरी अंतर्द्वंद्व शक्ति के क्षीण होने का आधार है। कितना ही अच्छा काम कर रहे हों, अगर भीतर विरोध है तो शक्ति क्षीण होगी ही, क्योंकि आप अपने भीतर ही लड़ रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे मैं एक मकान बनाऊं। एक हाथ से ईंट रखूं और दूसरे से उतारता चला जाऊं, तो शक्ति तो नष्ट होगी और मकान कभी बनेगा नहीं।
हम सब स्व-विरोधी खंडों में बंटे हैं। हम जो भी कर रहे हैं उसके बाहर भी, हमारे विरोध में कोई चीज खड़ी है। अगर हम किसी को प्रेम कर रहे हैं तो उसे घृणा भी कर रहे हैं। अगर हम किसी से मित्रता बना रहे हैं तो शत्रुता भी बना रहे हैं। अगर किसी के पैर छू रहे हैं तो दूसरे कोने से उसके अनादर का इंतजाम भी कर रहे हैं। हम पूरे समय दोहरे काम कर रहे हैं। इसलिए प्रत्येक आदमी धीरे-धीरे दिवालिया हो जाता है, उसके भीतर की शक्ति बैंक्रप्ट हो जाती है। वह खुद ही अपने से लड़ कर मर जाता है।
देखें अपनी तरफ, भीतर देखें तो आपके खयाल में बात आ जाएगी। जब भी कोई काम कर रहे हैं, यदि आप पूरे उसमें हैं तो आप सदा ही और भी ताजे, और भी शक्तिशाली होकर उस काम से बाहर आएंगे। और अगर आप अधूरे उस काम में हैं तो आप थक कर चकनाचूर होकर, टूटकर बाहर आएंगे।
इसलिए जो लोग भी किसी काम को पूरा कर पाते हैं--जैसे चित्रकार है, अगर वह अपने चित्र को रंगने में, बनाने में, पूरा लग जाता है, तो कभी भी थकता नहीं है। वह पूरे का पूरा और भी आनंदित, और भी रिफ्रेस्ड, और भी ताजा होकर वापस लौट आता है। लेकिन इसी चित्रकार को आप नौकरी पर रख लें और कहें कि हम रुपए देंगे, और चित्र बनाओ, तब वह थक कर लौट आता है। क्योंकि उसका पूरा मन उस चित्र के साथ खड़ा नहीं हो पाता। जैसे ही हमारे मन का कोई हिस्सा हमारे विरोध में हो जाता है, तो हमारी शक्ति क्षीण होती है।
जब मैंने कहा, टोटल एक्ट, तो किसी एक काम के लिए नहीं, सारे कामों के लिए, जो भी आप कर रहे हैं। अगर भोजन करने जैसा या स्नान करने जैसा साधारण काम कर रहे हैं तो भी पूरा करें। स्नान करते वक्त स्नान करना ही अकेला कृत्य हो, न तो मन कुछ और सोचे, न मन कुछ और करे। आप पूरे के पूरे स्नान ही कर लें। तो शरीर ही स्नान नहीं करेगा, आत्मा भी स्नान कर जायेगी। आप स्नान के बाहर पाएंगे कि आप कुछ लेकर लौटे हैं।
लेकिन नहीं, स्नान आप कर रहे हैं और हो सकता है पैर आपके अब तक सड़क पर पहुंच गए हों और मन आपका अब तक दफ्तर में पहुंच गया हो और आप भागे हुए हैं। स्नान का कोई रस नहीं, कोई आनंद नहीं। वह स्नान भी एक टूटा हुआ कृत्य है। कहीं पानी डाला है और भागे। इस भागने में आप शक्ति को खो रहे हैं। और ऐसा प्रतिपल हो रहा है, चौबीस घंटे यही हो रहा है। बिस्तर पर सोए हैं लेकिन सोए नहीं हैं, क्योंकि सोने का एक्ट पूरा होगा तभी सुबह विश्राम होगा। सो रहे हैं, सपने देख रहे हैं। सो रहे हैं, सोच रहे हैं। सो रहे हैं, करवट बदल रहे हैं। हजार विचार हैं, हजार काम हैं। आज दिन में क्या किया, वह भी साथ है, कल सुबह क्या करना है, वह भी साथ है। तब सुबह आप और भी थककर, चकनाचूर होकर बिस्तर से उठते हैं। नींद भी आपकी विश्राम न दे पाएगी, क्योंकि नींद में भी आप पूरे नहीं हो पाते कि सो ही जायें, नींद में भी अधूरे ही होते हैं।
इसलिए नींद उखड़ती जा रही है, नींद कम होती जा रही है। सारी दुनिया में बड़े से बड़े सवालों में एक यह भी है कि नींद का क्या होगा? नींद खत्म होती जा रही है। नींद खत्म होगी, क्योंकि नींद कहती है कि पूरे सोओ तो ही सो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे हम टूटे हुए हैं, और जब सब कामों में टूटे हुए हैं तो नींद में इकट्ठे कैसे हो सकते हैं? रात तो हमारे दिन भर का जोड़ है। जैसे हम दिन भर रहे हैं वैसे ही हम रात नींद में भी होंगे। और ध्यान रहे जैसे हम रात नींद में होंगे कल का दिन भी उसी आधार पर फैलेगा और विकसित होगा। फिर जिंदगी पूरी टूट जाती है। न तो हम ठीक से जी पाते हैं, जीते वक्त भी हजार तरह के रोग हैं।
एक मित्र को मेरे पास अभी लाया गया है। उनको जो लोग लाए थे उन्होंने कहा कि ये पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके हैं। मैंने कहा, बड़े गजब के आदमी हैं, प्रयास भी अधूरा करते हैं, ऐसा मालूम होता है। पांच बार! और जो आदमी पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुका है वह पूरा जी रहा होगा, यह तो माना ही नहीं जा सकता। अगर पूरे ही जी रहे हों तो मरने की क्या जरूरत आ गई? पूरा जीएगा भी नहीं, पूरा मरेगा भी नहीं। पांच बार प्रयास कर चुके हैं!
मैंने उनसे कहा कि अब तो शर्म खाओ, अब प्रयास मत करो। पांच बार काफी है!
लेकिन पांच बार कोई आदमी आत्महत्या करके नहीं कर पाया और बच गया, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि एक हिस्सा उसका बचने की कोशिश में लगा ही रहा होगा। उसने कोशिश भी की होगी, बचने का इंतजाम भी किया होगा, नहीं तो कोई किसी को मरने से रोक सकता है? मरने में भी आनेस्टी नहीं है, उसमें भी ईमानदारी नहीं है, तब फिर जीने में ईमानदारी कैसे होगी! जब मरने तक में ईमानदारी नहीं है तो यह जीना पूरा का पूरा डिसआनेस्टी, बेईमानी होगा ही।
जब मैंने उस मित्र को कहा कि शर्म आनी चाहिए, पांच बार मर कर तो मर ही जाना चाहिए था। एक ही बार में मर जाना चाहिए था। अब उनको लाया गया कि वह छठवीं बार मरने का प्रयास कर रहे हैं। तो मैंने उनसे कहा कि और अब नाहक बदनामी होगी, अब मत प्रयास करो। वे बहुत चौंके, क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं उनको समझाऊंगा कि आत्महत्या मत करो। और उन्होंने कहा, आप आदमी कैसे हैं? मुझे जिसके पास भी ले जाया गया उन्होंने मुझे समझाया है कि यह बहुत बुरा काम है। मैंने कहा, मैं नहीं कहता बुरा काम है, मैं कहता हूं, अधूरा करना बहुत बुरी बात है। करना है, पूरा करो। वह आदमी मेरी तरफ थोड़ी देर देखता रहा। फिर बोला, आत्महत्या करनी तो नहीं है, जीना तो मैं भी चाहता हूं, लेकिन अपनी शर्तों के साथ जीना चाहता हूं। अगर मेरी शर्त नहीं मानी गई तो मैं मर जाऊंगा।
न तो यह आदमी मरना चाहता है, क्योंकि यह मरना भी शर्तों के साथ चाहता है, और न यह आदमी जीना चाहता है, क्योंकि जीना भी शर्तों के साथ चाहता है। यह आदमी जीयेगा भी तो मरा हुआ जीयेगा, और मरेगा भी किसी दिन तो जीने की आकांक्षा से तड़फता हुआ मरेगा। यह आदमी न जी पाएगा, न मर पाएगा। इसकी जिंदगी में मौत प्रवेश कर गई, इसकी मौत में जिंदगी प्रवेश कर जायेगी। यह आदमी विक्षिप्त हो गया है।
हम सब इसी तरह के आदमी हैं। हम सब में बहुत फर्क नहीं है। हम सब ऐसा ही कर रहे हैं। जिसको हम प्रेम करते हैं उसको भी प्रेम नहीं करते। सांझ प्रेम करते हैं, सुबह तलाक देने का विचार करते हैं मन में। फिर दोपहर पश्चात्ताप करते हैं, सांझ क्षमा मांगते हैं, सुबह फिर तलाक देने का विचार करते हैं।
मैं एक घर में ठहरा था। उस घर में पति-पत्नी अपने तलाक की एप्लीकेशन बिलकुल तैयार ही रखे हुए हैं, सिर्फ दस्तखत करने की बात है। देखी है मैंने अपनी आंख से। पति ने मुझे बताया कि कई दफा ऐसी हालत हो जाती है कि बस दस्तखत कर दूं। वे तो पूरी तैयारी रखे हुए हैं। मैंने कहा कि इसमें कोई हर्जा नहीं है कि दस्तखत कर दो, लेकिन इसको तैयार रखे हो, यह बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जिस पत्नी के लिए तलाक देने की एप्लीकेशन तैयार हो, उस पत्नी को पत्नी कहने का कोई अर्थ है? कोई अर्थ नहीं है। लेकिन पत्नी जारी है। यह एप्लीकेशन तो सात साल से तैयार रखी हुई है, वे कहने लगे। यह कोई नई बात नहीं है।
इस आधे-आधे जीने के संघर्ष को मैं कहता हूं, ऊर्जा का स्खलन है। यह शक्ति का गंवाना है। इस तरह जिंदगी में हम कभी कुछ भी नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात समझाऊं।
मैंने सुना है एक समुराई सरदार, जापान में एक सम्राट, जो बहुत तेजस्वी तलवार चलानेवाला समुराई सरदार है। उसके मुकाबले जापान में कोई आदमी नहीं है जो इतनी अच्छी तरह तलवार चला सके। उसकी कुशलता की कीर्ति दूर-दूर तक जापान के बाहर भी पहुंच गई। लेकिन एक दिन उसे पता चला कि उसका पहरेदार उसकी पत्नी के प्रेम में पड़ गया है। उसने उन दोनों को पकड़ लिया। लेकिन समुराई सरदार था! उसने कहा कि मन तो मेरा करता है कि तेरी गर्दन काट दूं। लेकिन नहीं, तूने भी प्रेम किया है मेरी पत्नी को, इसलिए उचित यही होगा कि एक तलवार तू ले ले और एक मैं ले लूं। हम दोनों युद्ध में उतर जायें। जो बच जाये वही मालिक हो। उस पहरेदार ने कहा कि मालिक आप ऐसे ही मेरी गर्दन काट दें तो अच्छा है, यह खेल आप क्यों करते हैं? गर्दन मेरी ही कटेगी। क्योंकि मैं तो तलवार पकड़ना भी नहीं जानता, और आप जैसा तलवार चलानेवाला आदमी शायद पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। तो आप तलवार से लड़ने का मुझे जो मौका दे रहे हैं, नाहक मखौल और मजाक क्यों करते हैं? तलवार से मेरी गर्दन ऐसे ही काट दें। तलवार से गरदन तो मेरी ही कटेगी, क्योंकि मैं तो तलवार चलाना नहीं जानता। लेकिन उस समुराई सरदार ने कहा कि यह मेरी इज्जत के खिलाफ होगा कि कभी यह कहा जाये कि मैंने बिना तुझे मौका दिए तेरी गर्दन काट दी। तलवार संभाल और मैदान में उतर।
कोई रास्ता न था। वह गरीब बेचारा डरता हुआ तलवार हाथ में लेकर मैदान में उतरा। गांव इकट्ठा हो गया। खबर फैल गई। सारे लोग जानते हैं कि वह गरीब आदमी मर जाएगा। क्योंकि इस सरदार से तो एक हाथ भी बचाना मुश्किल है। वह इतना कुशल कारीगर है, वह इतना कुशल तलवारबाज है।
लेकिन हालत उलटी हो गई। हालत यह हुई कि जब उस पहरेदार ने तलवार चलानी शुरू की तो उस सरदार के छक्के छूट गए। छक्के इसलिए छूट गए कि वह तलवार बिलकुल बेढंगी चला रहा था। उसको चलाना आता ही नहीं था। उससे बचाव मुश्किल मालूम पड़ा, और वह इतनी पूर्णता से तलवार चला रहा था...क्योंकि उसके जीवन-मरण का सवाल था। सरदार के लिए तो एक खेल का मामला था। वह जानता था अभी काट देंगे, परंतु पहरेदार के लिए जीवन-मृत्यु का सवाल था। तलवार और वह पहरेदार एक ही हो गया। सरदार ने घुटने टेक दिए और कहा कि मुझे माफ कर दे। लेकिन तू यह कर क्या रहा है?
बामुश्किल उसको रोका जा सका। उसके सामने एक दरख्त था। उसको उसने तलवार से काट डाला, वह इतना एक हो गया। राजा तो हट गया, घुटने टेक दिए, लेकिन उसमें जो ऊर्जा जाग गई थी, उसने जब तक दरख्त नहीं काट डाला तब तक ऊर्जा रुकी नहीं। बामुश्किल उसे रोका जा सका। जब उससे पूछा गया कि यह तुझे हो क्या गया? तुझमें कहां से यह शक्ति आ गई?
तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि जब मरना ही है तो पूरी तलवार चलाकर ही मर जाना चाहिए। जब मरना ही पक्का है और अब जीने का कोई उपाय नहीं है, तो मैं पहली दफा जिंदगी में इंटीग्रेटेड हो गया। पहली दफा इकट्ठा हो गया। मैंने कहा, अब कोई सवाल नहीं है। मौत सामने खड़ी है। और एक मौका है कि जो भी मैं कर सकता हूं, कर डालूं। तो मुझे न आगे का खयाल रहा, न पीछे का खयाल रहा, न मुझे पत्नी का, राजा का खयाल रहा, न अपनी प्रेयसी का खयाल रहा। फिर तो धीरे-धीरे मुझे यह भी पता नहीं रहा कि मेरा हाथ कहां खत्म होता है और तलवार कहां शुरू होती है! और जब लोग चिल्लाने लगे कि रुको, रुको! तो मुझे सुनाई नहीं पड़ता था कि कौन चिल्ला रहा है? किसको रोक रहे हैं?
यह आदमी टोटल हो गया। उस सम्राट ने कहा, आज मुझे पहली दफा पता चला कि सबसे बड़ी कुशलता टोटल एक्शन है। मैंने बड़ी कुशलता पाई लेकिन मैं टोटल नहीं हूं। क्योंकि तलवार चलाना मेरे लिए एक कला है, एक आर्ट है। मैं चलाता हूं, लेकिन मैं अलग हूं और पूरे वक्त मैं देख रहा हूं कि चोट तो नहीं लग जाएगी। कैसे बचूं, कैसे न बचूं।
उसने कहा, बचने न बचने का तो सवाल ही न था मेरे लिए। इतना ही सवाल था कि आपको भी पता चल जाए कि तलवार चलायी गई। तुमने ऐसे ही नहीं मारा नहीं तो लोग तुम्हारी इज्जत को नाम धरेंगे, तो मैंने कहा कि अब मैं पूरा चला ही लूं दो चार क्षण के लिए जो मौका है।
यह टोटल एक्शन से मेरा मतलब है। कृष्ण ने योग को कुशलता कहा है। यह तलवार चलानेवाला बिलकुल अकुशल आदमी, एकदम कुशल हो गया है। क्यों? क्योंकि योग को उपलब्ध हो गया है। योग शब्द का मतलब है, टोटल, जोड़। जब कोई आदमी भीतर पूरी तरह जुड़ जाता है तो योग उपलब्ध होता है, इंटीग्रेटेड, संयुक्त, संश्लिष्ट। जब भीतर कोई खंड नहीं होते। प्रेम करता है तो प्रेम करता है, क्रोध करता है तो क्रोध करता है, दुश्मन है तो दुश्मन है, मित्र है तो मित्र है। जब कोई आदमी किसी भी कृत्य में पूरा होता है तब उसकी शक्ति नहीं खोती।
और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई आदमी कृत्यों में पूरा हो जाये तो क्रोध धीरे-धीरे असंभव हो जाता है। क्योंकि तब क्रोध पूरा जला देता है, झुलसा देता है। तब घृणा मुश्किल हो जाती है, क्योंकि घृणा जहर हो जाती है। सब पूरे शरीर के रग-रोएं में जहर के फफोले छूट जाते हैं। तब शत्रु होना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि शत्रुता आत्मघात प्रतीत होती है, अपनी ही छाती में छुरा भोंकना प्रतीत होता है।
हम तभी तक क्रोध में हो सकते हैं जब तक हम अधूरे काम कर रहे हैं। हम तभी तक दुश्मन हो सकते हैं जब तक हमारे कृत्य पूरे नहीं हैं। जिस दिन हमारे कृत्य पूरे हैं, उस दिन हमारी जिंदगी में प्रेम का ही फूल खिल सकता है। जिस दिन हमारा कृत्य पूर्ण है, उस दिन प्रार्थना ही हमारे प्राणों की अभीप्सा बन जाती है। जिस दिन हमारे सारे जीवन का एक-एक कृत्य पूरा हो जाता है, उस दिन परमात्मा ही हमारे लिए एकमात्र सत्य रह जाता है। जब भीतर एक पैदा होता है तो बाहर भी एक दिखाई पड़ने लगता है। जब तक भीतर दो हैं तब तक बाहर दो हैं। दो भी कहना ठीक नहीं। हमारे भीतर अनेक हैं।
मैंने सुना है, जीसस एक गांव से गुजरते थे। रात थी और मरघट पर एक आदमी छाती पीट रहा था, चिल्ला रहा था, पत्थरों से अपने शरीर को खरोंच कर लहूलुहान कर रहा था। तो जीसस ने उस आदमी से जाकर पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, जो सारी दुनिया कर रही है वही मैं कर रहा हूं। फिर वह अपने खरोंचने में लग गया। लहू बह गया है, सिर पीट रहा है, सिर पर घाव हो गया है। जीसस ने कहा, ऐ पागल, तेरा नाम क्या है? तो उस आदमी ने कहा, माई नेम इज लीजियन। मेरे नाम हजार हैं। मेरा एक नाम नहीं है। जीसस बार-बार इस कहानी को कहते थे कि एक आदमी ने मुझसे कहा था कि माई नेम इज लीजियन, मेरे नाम हजार हैं, एक मेरा नाम नहीं है क्योंकि मैं हजार आदमी हूं। मैं एक आदमी नहीं हूं।
हमारे नाम भी लीजियन हैं। हमारे भीतर भी हजार आदमी हैं। कोई बचाना चाह रहा है, कोई मारना चाह रहा है; कोई प्रेम करना चाह रहा है, कोई हत्या करना चाह रहा है; कोई जीना चाह रहा है, कोई अपनी कब्र का पत्थर बनवा रहा है; कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर रहा है, हमारे ही भीतर कोई कह रहा है, सब झूठ है, सब असत्य है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। कोई घंटा बजा रहा है मंदिर का, और कोई भीतर हंस रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो? उस घंटे के बजाने से कुछ भी नहीं हो सकता है। कोई माला फेर रहा है और हमारे भीतर उसी वक्त कोई दुकान भी चला रहा है। माई नेम इज लीजियन। उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं।
ये जो हजार आदमी हैं हमारे भीतर, यही हमारी शक्ति का ह्रास है। अगर ये ही एक आदमी हो जायें तो हमारी शक्ति संरक्षित होती है। टोटल एक्शन, एक करने की विधि है, समग्र कृत्य। जो भी करें उसके साथ पूरे ही खड़े हो जायें, जो भी करें उसे पूरा ही कर लें। और जैसे ही उसे पूरा करेंगे वैसे ही आपके भीतर कोई चीज एकदम इकट्ठी होने लगेगी, संयुक्त होने लगेगी, संश्लिष्ट होने लगेगी।
गुरजिएफ कहा करता था कि पूर्ण कृत्य, क्रिस्टलाइजेशन है। जब भी कोई व्यक्ति कोई काम पूरा करता है तो उसके भीतर कोई चीज क्रिस्टलाइज हो जाती है। कोई चीज इकट्ठी हो जाती है। यह इकट्ठा हो जाना व्यक्तित्व का जन्म है, आत्मा का जन्म है। इस अर्थ में मैंने कहा है। उसे प्रयोग करें, समझें, देखें, तो यह बात खयाल में आ सकती है।
कर्म पूर्ण हो, कृत्य पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती। कोई भी कर्म पूरा हो तो ऊर्जा क्षीण नहीं होती है। जब मैंने ऐसा कहा तो मेरा अर्थ है कि कृत्य अधूरा तब होता है जब हम अपने भीतर खंडित और विभाजित और कांफ्लिक्ट में होते हैं। जब मैं अपने भीतर ही टूटा हुआ होता हूं तो कृत्य अधूरा होता है।
समझें कि आप मुझे मिले और मैंने आपको गले लगा लिया। अगर इस गले लगाते वक्त मेरे मन का एक खंड कह रहा है कि यह क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है, मत करो। और एक खंड कह रहा है कि करूंगा, बहुत ठीक है। तो मेरे भीतर मैं दो हिस्से में बंटा हूं और लड़ रहा हूं। आधे हिस्से से मैं गले लगाऊंगा और आधे हिस्से से गले से दूर हटने की कोशिश में लगा रहूंगा। मैं एक ही साथ दो विरोधी काम कर रहा हूं। इन विरोधी कामों में मेरे भीतर की मनस-ऊर्जा क्षीण होगी। लेकिन अगर मैंने पूरे ही हृदय से किसी को गले लगा लिया है और उस गले लगाने में मेरे हृदय में कहीं भी कोई विरोधी स्वर नहीं है तो ऊर्जा के नष्ट होने का कोई भी कारण नहीं है। बल्कि यह पूर्ण आलिंगन मुझे और भी ऊर्जा से भर जाएगा, मुझे और भी आनंद से भर जाएगा।
शक्ति क्षीण होती है कांफ्लिक्ट में, इनर कांफ्लिक्ट में। भीतरी अंतर्द्वंद्व शक्ति के क्षीण होने का आधार है। कितना ही अच्छा काम कर रहे हों, अगर भीतर विरोध है तो शक्ति क्षीण होगी ही, क्योंकि आप अपने भीतर ही लड़ रहे हैं। यह वैसा ही है जैसे मैं एक मकान बनाऊं। एक हाथ से ईंट रखूं और दूसरे से उतारता चला जाऊं, तो शक्ति तो नष्ट होगी और मकान कभी बनेगा नहीं।
हम सब स्व-विरोधी खंडों में बंटे हैं। हम जो भी कर रहे हैं उसके बाहर भी, हमारे विरोध में कोई चीज खड़ी है। अगर हम किसी को प्रेम कर रहे हैं तो उसे घृणा भी कर रहे हैं। अगर हम किसी से मित्रता बना रहे हैं तो शत्रुता भी बना रहे हैं। अगर किसी के पैर छू रहे हैं तो दूसरे कोने से उसके अनादर का इंतजाम भी कर रहे हैं। हम पूरे समय दोहरे काम कर रहे हैं। इसलिए प्रत्येक आदमी धीरे-धीरे दिवालिया हो जाता है, उसके भीतर की शक्ति बैंक्रप्ट हो जाती है। वह खुद ही अपने से लड़ कर मर जाता है।
देखें अपनी तरफ, भीतर देखें तो आपके खयाल में बात आ जाएगी। जब भी कोई काम कर रहे हैं, यदि आप पूरे उसमें हैं तो आप सदा ही और भी ताजे, और भी शक्तिशाली होकर उस काम से बाहर आएंगे। और अगर आप अधूरे उस काम में हैं तो आप थक कर चकनाचूर होकर, टूटकर बाहर आएंगे।
इसलिए जो लोग भी किसी काम को पूरा कर पाते हैं--जैसे चित्रकार है, अगर वह अपने चित्र को रंगने में, बनाने में, पूरा लग जाता है, तो कभी भी थकता नहीं है। वह पूरे का पूरा और भी आनंदित, और भी रिफ्रेस्ड, और भी ताजा होकर वापस लौट आता है। लेकिन इसी चित्रकार को आप नौकरी पर रख लें और कहें कि हम रुपए देंगे, और चित्र बनाओ, तब वह थक कर लौट आता है। क्योंकि उसका पूरा मन उस चित्र के साथ खड़ा नहीं हो पाता। जैसे ही हमारे मन का कोई हिस्सा हमारे विरोध में हो जाता है, तो हमारी शक्ति क्षीण होती है।
जब मैंने कहा, टोटल एक्ट, तो किसी एक काम के लिए नहीं, सारे कामों के लिए, जो भी आप कर रहे हैं। अगर भोजन करने जैसा या स्नान करने जैसा साधारण काम कर रहे हैं तो भी पूरा करें। स्नान करते वक्त स्नान करना ही अकेला कृत्य हो, न तो मन कुछ और सोचे, न मन कुछ और करे। आप पूरे के पूरे स्नान ही कर लें। तो शरीर ही स्नान नहीं करेगा, आत्मा भी स्नान कर जायेगी। आप स्नान के बाहर पाएंगे कि आप कुछ लेकर लौटे हैं।
लेकिन नहीं, स्नान आप कर रहे हैं और हो सकता है पैर आपके अब तक सड़क पर पहुंच गए हों और मन आपका अब तक दफ्तर में पहुंच गया हो और आप भागे हुए हैं। स्नान का कोई रस नहीं, कोई आनंद नहीं। वह स्नान भी एक टूटा हुआ कृत्य है। कहीं पानी डाला है और भागे। इस भागने में आप शक्ति को खो रहे हैं। और ऐसा प्रतिपल हो रहा है, चौबीस घंटे यही हो रहा है। बिस्तर पर सोए हैं लेकिन सोए नहीं हैं, क्योंकि सोने का एक्ट पूरा होगा तभी सुबह विश्राम होगा। सो रहे हैं, सपने देख रहे हैं। सो रहे हैं, सोच रहे हैं। सो रहे हैं, करवट बदल रहे हैं। हजार विचार हैं, हजार काम हैं। आज दिन में क्या किया, वह भी साथ है, कल सुबह क्या करना है, वह भी साथ है। तब सुबह आप और भी थककर, चकनाचूर होकर बिस्तर से उठते हैं। नींद भी आपकी विश्राम न दे पाएगी, क्योंकि नींद में भी आप पूरे नहीं हो पाते कि सो ही जायें, नींद में भी अधूरे ही होते हैं।
इसलिए नींद उखड़ती जा रही है, नींद कम होती जा रही है। सारी दुनिया में बड़े से बड़े सवालों में एक यह भी है कि नींद का क्या होगा? नींद खत्म होती जा रही है। नींद खत्म होगी, क्योंकि नींद कहती है कि पूरे सोओ तो ही सो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे हम टूटे हुए हैं, और जब सब कामों में टूटे हुए हैं तो नींद में इकट्ठे कैसे हो सकते हैं? रात तो हमारे दिन भर का जोड़ है। जैसे हम दिन भर रहे हैं वैसे ही हम रात नींद में भी होंगे। और ध्यान रहे जैसे हम रात नींद में होंगे कल का दिन भी उसी आधार पर फैलेगा और विकसित होगा। फिर जिंदगी पूरी टूट जाती है। न तो हम ठीक से जी पाते हैं, जीते वक्त भी हजार तरह के रोग हैं।
एक मित्र को मेरे पास अभी लाया गया है। उनको जो लोग लाए थे उन्होंने कहा कि ये पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुके हैं। मैंने कहा, बड़े गजब के आदमी हैं, प्रयास भी अधूरा करते हैं, ऐसा मालूम होता है। पांच बार! और जो आदमी पांच बार आत्महत्या का प्रयास कर चुका है वह पूरा जी रहा होगा, यह तो माना ही नहीं जा सकता। अगर पूरे ही जी रहे हों तो मरने की क्या जरूरत आ गई? पूरा जीएगा भी नहीं, पूरा मरेगा भी नहीं। पांच बार प्रयास कर चुके हैं!
मैंने उनसे कहा कि अब तो शर्म खाओ, अब प्रयास मत करो। पांच बार काफी है!
लेकिन पांच बार कोई आदमी आत्महत्या करके नहीं कर पाया और बच गया, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि एक हिस्सा उसका बचने की कोशिश में लगा ही रहा होगा। उसने कोशिश भी की होगी, बचने का इंतजाम भी किया होगा, नहीं तो कोई किसी को मरने से रोक सकता है? मरने में भी आनेस्टी नहीं है, उसमें भी ईमानदारी नहीं है, तब फिर जीने में ईमानदारी कैसे होगी! जब मरने तक में ईमानदारी नहीं है तो यह जीना पूरा का पूरा डिसआनेस्टी, बेईमानी होगा ही।
जब मैंने उस मित्र को कहा कि शर्म आनी चाहिए, पांच बार मर कर तो मर ही जाना चाहिए था। एक ही बार में मर जाना चाहिए था। अब उनको लाया गया कि वह छठवीं बार मरने का प्रयास कर रहे हैं। तो मैंने उनसे कहा कि और अब नाहक बदनामी होगी, अब मत प्रयास करो। वे बहुत चौंके, क्योंकि वे सोचते होंगे कि मैं उनको समझाऊंगा कि आत्महत्या मत करो। और उन्होंने कहा, आप आदमी कैसे हैं? मुझे जिसके पास भी ले जाया गया उन्होंने मुझे समझाया है कि यह बहुत बुरा काम है। मैंने कहा, मैं नहीं कहता बुरा काम है, मैं कहता हूं, अधूरा करना बहुत बुरी बात है। करना है, पूरा करो। वह आदमी मेरी तरफ थोड़ी देर देखता रहा। फिर बोला, आत्महत्या करनी तो नहीं है, जीना तो मैं भी चाहता हूं, लेकिन अपनी शर्तों के साथ जीना चाहता हूं। अगर मेरी शर्त नहीं मानी गई तो मैं मर जाऊंगा।
न तो यह आदमी मरना चाहता है, क्योंकि यह मरना भी शर्तों के साथ चाहता है, और न यह आदमी जीना चाहता है, क्योंकि जीना भी शर्तों के साथ चाहता है। यह आदमी जीयेगा भी तो मरा हुआ जीयेगा, और मरेगा भी किसी दिन तो जीने की आकांक्षा से तड़फता हुआ मरेगा। यह आदमी न जी पाएगा, न मर पाएगा। इसकी जिंदगी में मौत प्रवेश कर गई, इसकी मौत में जिंदगी प्रवेश कर जायेगी। यह आदमी विक्षिप्त हो गया है।
हम सब इसी तरह के आदमी हैं। हम सब में बहुत फर्क नहीं है। हम सब ऐसा ही कर रहे हैं। जिसको हम प्रेम करते हैं उसको भी प्रेम नहीं करते। सांझ प्रेम करते हैं, सुबह तलाक देने का विचार करते हैं मन में। फिर दोपहर पश्चात्ताप करते हैं, सांझ क्षमा मांगते हैं, सुबह फिर तलाक देने का विचार करते हैं।
मैं एक घर में ठहरा था। उस घर में पति-पत्नी अपने तलाक की एप्लीकेशन बिलकुल तैयार ही रखे हुए हैं, सिर्फ दस्तखत करने की बात है। देखी है मैंने अपनी आंख से। पति ने मुझे बताया कि कई दफा ऐसी हालत हो जाती है कि बस दस्तखत कर दूं। वे तो पूरी तैयारी रखे हुए हैं। मैंने कहा कि इसमें कोई हर्जा नहीं है कि दस्तखत कर दो, लेकिन इसको तैयार रखे हो, यह बड़ी खतरनाक बात है। क्योंकि जिस पत्नी के लिए तलाक देने की एप्लीकेशन तैयार हो, उस पत्नी को पत्नी कहने का कोई अर्थ है? कोई अर्थ नहीं है। लेकिन पत्नी जारी है। यह एप्लीकेशन तो सात साल से तैयार रखी हुई है, वे कहने लगे। यह कोई नई बात नहीं है।
इस आधे-आधे जीने के संघर्ष को मैं कहता हूं, ऊर्जा का स्खलन है। यह शक्ति का गंवाना है। इस तरह जिंदगी में हम कभी कुछ भी नहीं उपलब्ध कर पाते हैं। एक छोटी-सी कहानी से मैं अपनी बात समझाऊं।
मैंने सुना है एक समुराई सरदार, जापान में एक सम्राट, जो बहुत तेजस्वी तलवार चलानेवाला समुराई सरदार है। उसके मुकाबले जापान में कोई आदमी नहीं है जो इतनी अच्छी तरह तलवार चला सके। उसकी कुशलता की कीर्ति दूर-दूर तक जापान के बाहर भी पहुंच गई। लेकिन एक दिन उसे पता चला कि उसका पहरेदार उसकी पत्नी के प्रेम में पड़ गया है। उसने उन दोनों को पकड़ लिया। लेकिन समुराई सरदार था! उसने कहा कि मन तो मेरा करता है कि तेरी गर्दन काट दूं। लेकिन नहीं, तूने भी प्रेम किया है मेरी पत्नी को, इसलिए उचित यही होगा कि एक तलवार तू ले ले और एक मैं ले लूं। हम दोनों युद्ध में उतर जायें। जो बच जाये वही मालिक हो। उस पहरेदार ने कहा कि मालिक आप ऐसे ही मेरी गर्दन काट दें तो अच्छा है, यह खेल आप क्यों करते हैं? गर्दन मेरी ही कटेगी। क्योंकि मैं तो तलवार पकड़ना भी नहीं जानता, और आप जैसा तलवार चलानेवाला आदमी शायद पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। तो आप तलवार से लड़ने का मुझे जो मौका दे रहे हैं, नाहक मखौल और मजाक क्यों करते हैं? तलवार से मेरी गर्दन ऐसे ही काट दें। तलवार से गरदन तो मेरी ही कटेगी, क्योंकि मैं तो तलवार चलाना नहीं जानता। लेकिन उस समुराई सरदार ने कहा कि यह मेरी इज्जत के खिलाफ होगा कि कभी यह कहा जाये कि मैंने बिना तुझे मौका दिए तेरी गर्दन काट दी। तलवार संभाल और मैदान में उतर।
कोई रास्ता न था। वह गरीब बेचारा डरता हुआ तलवार हाथ में लेकर मैदान में उतरा। गांव इकट्ठा हो गया। खबर फैल गई। सारे लोग जानते हैं कि वह गरीब आदमी मर जाएगा। क्योंकि इस सरदार से तो एक हाथ भी बचाना मुश्किल है। वह इतना कुशल कारीगर है, वह इतना कुशल तलवारबाज है।
लेकिन हालत उलटी हो गई। हालत यह हुई कि जब उस पहरेदार ने तलवार चलानी शुरू की तो उस सरदार के छक्के छूट गए। छक्के इसलिए छूट गए कि वह तलवार बिलकुल बेढंगी चला रहा था। उसको चलाना आता ही नहीं था। उससे बचाव मुश्किल मालूम पड़ा, और वह इतनी पूर्णता से तलवार चला रहा था...क्योंकि उसके जीवन-मरण का सवाल था। सरदार के लिए तो एक खेल का मामला था। वह जानता था अभी काट देंगे, परंतु पहरेदार के लिए जीवन-मृत्यु का सवाल था। तलवार और वह पहरेदार एक ही हो गया। सरदार ने घुटने टेक दिए और कहा कि मुझे माफ कर दे। लेकिन तू यह कर क्या रहा है?
बामुश्किल उसको रोका जा सका। उसके सामने एक दरख्त था। उसको उसने तलवार से काट डाला, वह इतना एक हो गया। राजा तो हट गया, घुटने टेक दिए, लेकिन उसमें जो ऊर्जा जाग गई थी, उसने जब तक दरख्त नहीं काट डाला तब तक ऊर्जा रुकी नहीं। बामुश्किल उसे रोका जा सका। जब उससे पूछा गया कि यह तुझे हो क्या गया? तुझमें कहां से यह शक्ति आ गई?
तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि जब मरना ही है तो पूरी तलवार चलाकर ही मर जाना चाहिए। जब मरना ही पक्का है और अब जीने का कोई उपाय नहीं है, तो मैं पहली दफा जिंदगी में इंटीग्रेटेड हो गया। पहली दफा इकट्ठा हो गया। मैंने कहा, अब कोई सवाल नहीं है। मौत सामने खड़ी है। और एक मौका है कि जो भी मैं कर सकता हूं, कर डालूं। तो मुझे न आगे का खयाल रहा, न पीछे का खयाल रहा, न मुझे पत्नी का, राजा का खयाल रहा, न अपनी प्रेयसी का खयाल रहा। फिर तो धीरे-धीरे मुझे यह भी पता नहीं रहा कि मेरा हाथ कहां खत्म होता है और तलवार कहां शुरू होती है! और जब लोग चिल्लाने लगे कि रुको, रुको! तो मुझे सुनाई नहीं पड़ता था कि कौन चिल्ला रहा है? किसको रोक रहे हैं?
यह आदमी टोटल हो गया। उस सम्राट ने कहा, आज मुझे पहली दफा पता चला कि सबसे बड़ी कुशलता टोटल एक्शन है। मैंने बड़ी कुशलता पाई लेकिन मैं टोटल नहीं हूं। क्योंकि तलवार चलाना मेरे लिए एक कला है, एक आर्ट है। मैं चलाता हूं, लेकिन मैं अलग हूं और पूरे वक्त मैं देख रहा हूं कि चोट तो नहीं लग जाएगी। कैसे बचूं, कैसे न बचूं।
उसने कहा, बचने न बचने का तो सवाल ही न था मेरे लिए। इतना ही सवाल था कि आपको भी पता चल जाए कि तलवार चलायी गई। तुमने ऐसे ही नहीं मारा नहीं तो लोग तुम्हारी इज्जत को नाम धरेंगे, तो मैंने कहा कि अब मैं पूरा चला ही लूं दो चार क्षण के लिए जो मौका है।
यह टोटल एक्शन से मेरा मतलब है। कृष्ण ने योग को कुशलता कहा है। यह तलवार चलानेवाला बिलकुल अकुशल आदमी, एकदम कुशल हो गया है। क्यों? क्योंकि योग को उपलब्ध हो गया है। योग शब्द का मतलब है, टोटल, जोड़। जब कोई आदमी भीतर पूरी तरह जुड़ जाता है तो योग उपलब्ध होता है, इंटीग्रेटेड, संयुक्त, संश्लिष्ट। जब भीतर कोई खंड नहीं होते। प्रेम करता है तो प्रेम करता है, क्रोध करता है तो क्रोध करता है, दुश्मन है तो दुश्मन है, मित्र है तो मित्र है। जब कोई आदमी किसी भी कृत्य में पूरा होता है तब उसकी शक्ति नहीं खोती।
और यह बड़े मजे की बात है कि अगर कोई आदमी कृत्यों में पूरा हो जाये तो क्रोध धीरे-धीरे असंभव हो जाता है। क्योंकि तब क्रोध पूरा जला देता है, झुलसा देता है। तब घृणा मुश्किल हो जाती है, क्योंकि घृणा जहर हो जाती है। सब पूरे शरीर के रग-रोएं में जहर के फफोले छूट जाते हैं। तब शत्रु होना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि शत्रुता आत्मघात प्रतीत होती है, अपनी ही छाती में छुरा भोंकना प्रतीत होता है।
हम तभी तक क्रोध में हो सकते हैं जब तक हम अधूरे काम कर रहे हैं। हम तभी तक दुश्मन हो सकते हैं जब तक हमारे कृत्य पूरे नहीं हैं। जिस दिन हमारे कृत्य पूरे हैं, उस दिन हमारी जिंदगी में प्रेम का ही फूल खिल सकता है। जिस दिन हमारा कृत्य पूर्ण है, उस दिन प्रार्थना ही हमारे प्राणों की अभीप्सा बन जाती है। जिस दिन हमारे सारे जीवन का एक-एक कृत्य पूरा हो जाता है, उस दिन परमात्मा ही हमारे लिए एकमात्र सत्य रह जाता है। जब भीतर एक पैदा होता है तो बाहर भी एक दिखाई पड़ने लगता है। जब तक भीतर दो हैं तब तक बाहर दो हैं। दो भी कहना ठीक नहीं। हमारे भीतर अनेक हैं।
मैंने सुना है, जीसस एक गांव से गुजरते थे। रात थी और मरघट पर एक आदमी छाती पीट रहा था, चिल्ला रहा था, पत्थरों से अपने शरीर को खरोंच कर लहूलुहान कर रहा था। तो जीसस ने उस आदमी से जाकर पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? उस आदमी ने कहा, जो सारी दुनिया कर रही है वही मैं कर रहा हूं। फिर वह अपने खरोंचने में लग गया। लहू बह गया है, सिर पीट रहा है, सिर पर घाव हो गया है। जीसस ने कहा, ऐ पागल, तेरा नाम क्या है? तो उस आदमी ने कहा, माई नेम इज लीजियन। मेरे नाम हजार हैं। मेरा एक नाम नहीं है। जीसस बार-बार इस कहानी को कहते थे कि एक आदमी ने मुझसे कहा था कि माई नेम इज लीजियन, मेरे नाम हजार हैं, एक मेरा नाम नहीं है क्योंकि मैं हजार आदमी हूं। मैं एक आदमी नहीं हूं।
हमारे नाम भी लीजियन हैं। हमारे भीतर भी हजार आदमी हैं। कोई बचाना चाह रहा है, कोई मारना चाह रहा है; कोई प्रेम करना चाह रहा है, कोई हत्या करना चाह रहा है; कोई जीना चाह रहा है, कोई अपनी कब्र का पत्थर बनवा रहा है; कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश कर रहा है, हमारे ही भीतर कोई कह रहा है, सब झूठ है, सब असत्य है, कहीं कोई परमात्मा नहीं है। कोई घंटा बजा रहा है मंदिर का, और कोई भीतर हंस रहा है कि यह क्या पागलपन कर रहे हो? उस घंटे के बजाने से कुछ भी नहीं हो सकता है। कोई माला फेर रहा है और हमारे भीतर उसी वक्त कोई दुकान भी चला रहा है। माई नेम इज लीजियन। उस आदमी ने ठीक कहा कि मेरे नाम हजार हैं। मैं कौन-सा नाम बताऊं तुम्हें! मैं एक आदमी नहीं हूं, मैं हजार आदमी हूं।
ये जो हजार आदमी हैं हमारे भीतर, यही हमारी शक्ति का ह्रास है। अगर ये ही एक आदमी हो जायें तो हमारी शक्ति संरक्षित होती है। टोटल एक्शन, एक करने की विधि है, समग्र कृत्य। जो भी करें उसके साथ पूरे ही खड़े हो जायें, जो भी करें उसे पूरा ही कर लें। और जैसे ही उसे पूरा करेंगे वैसे ही आपके भीतर कोई चीज एकदम इकट्ठी होने लगेगी, संयुक्त होने लगेगी, संश्लिष्ट होने लगेगी।
गुरजिएफ कहा करता था कि पूर्ण कृत्य, क्रिस्टलाइजेशन है। जब भी कोई व्यक्ति कोई काम पूरा करता है तो उसके भीतर कोई चीज क्रिस्टलाइज हो जाती है। कोई चीज इकट्ठी हो जाती है। यह इकट्ठा हो जाना व्यक्तित्व का जन्म है, आत्मा का जन्म है। इस अर्थ में मैंने कहा है। उसे प्रयोग करें, समझें, देखें, तो यह बात खयाल में आ सकती है।
- ओशो....
Tuesday, January 22, 2013
धर्म निष्प्राण हो गया है। - ओशो
धर्म जबसे भागने पर निर्भर हो गया है, तभी
से धर्म निष्प्राण हो गया है। जब धर्म वापस बदलने पर निर्भर होगा, तब उसमें
फिर पुन: प्राण आएँगे।इसको स्मरण रखें, आपको अपने को बदलना है, अपनी जगह
को नहीं बदलना है। जगह को बदलने का कोई मतलब नहीं है। जगह को बदलने में
धोखा है, क्योंकि जगह को बदलने से यह हो सकता है कि आपको कुछ बातें पता न
चलें। नए वातावरण में, शांत वातारण में आपको धोखा हो कि आप शांत हो गए हैं।
मैं पुन: कहूँ, साधु जो नहीं सिखा सकते इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और आपमें सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं
जो शांति प्रतिकूल परिस्थितियों में न टिके, वह कोई शांति नहीं है। इसीलिए जो समझदार हैं, वे प्रतिकूल परिस्थिति में ही शांति को साधते हैं क्योंकि जो प्रतिकूल में साध लेते हैं, अनुकूल में तो उसे हमेशा उपलब्ध कर ही लेते हैं।इसलिए जीवन से भागने की बात नहीं है। जीवन को परीक्षा समझें। और इसे स्मरण रखें कि आपके आसपास जो लोग हैं, वे सब सहयोगी हैं। वह आदमी भी आपका सहयोगी है जो सुबह आपको गाली दे जाए। उसने एक मौका दिया है आपको। चाहें तो अपने पर प्रेम को साध सकते हैं। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर क्रोध को प्रकट करे। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आपकी निंदा कर जाए।वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर कीचड़ उछालता हो। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो आपके रास्ते पर काँटे बिछा दे, क्योंकि वह भी एक मौका है और परीक्षा है। और चाहें उससे पार हो जाएँ, तो आपके मन में उसके प्रति इतना ऋण होगा, जिसका हिसाब नहीं है। साधु जो नहीं सिखा सकते हैं, इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं।मैं पुन: कहूँ, साधु जो नहीं सिखा सकते इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और आपमें सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं। अन्यथा हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है। अगर समझ हो। अगर समझ हो तो हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है।इस पर थोड़ा विचार करें। आपको अपने घर में, परिवार में जो-जो बातें पत्थर मालूम होती हों कि इनकी वजह से मैं शांत नहीं हो पाता, उन्हीं को साधना का केंद्र बनाएँ और देखें कि वे ही आपको शांत होने में सहयोगी हो जाएँगी। कौन-सी बात आपको रोकती है? जो बात आपको रोकती हो, जरा विचार करें, क्या कोई रास्ता उसे सीढ़ी बनाने का हो सकता है? बराबर रास्ते हो सकते हैं। और अगर विचार करेंगे और विवेक करेंगे, तो रास्ता दिखाई पड़ेगा।
जब परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर जो बीज है , उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर गुलाब खिलने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा। जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा - उसे भी संन्यास दूंगा। क्योकिं मैं मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरुरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसीव्यक्ति को समग्र रूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का
मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति कि जिज्ञासा को मूल्य देता हूं,
उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा कि खोज
के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने
ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों
की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों कि चिंता है।
मैं पुन: कहूँ, साधु जो नहीं सिखा सकते इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और आपमें सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं
जो शांति प्रतिकूल परिस्थितियों में न टिके, वह कोई शांति नहीं है। इसीलिए जो समझदार हैं, वे प्रतिकूल परिस्थिति में ही शांति को साधते हैं क्योंकि जो प्रतिकूल में साध लेते हैं, अनुकूल में तो उसे हमेशा उपलब्ध कर ही लेते हैं।इसलिए जीवन से भागने की बात नहीं है। जीवन को परीक्षा समझें। और इसे स्मरण रखें कि आपके आसपास जो लोग हैं, वे सब सहयोगी हैं। वह आदमी भी आपका सहयोगी है जो सुबह आपको गाली दे जाए। उसने एक मौका दिया है आपको। चाहें तो अपने पर प्रेम को साध सकते हैं। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर क्रोध को प्रकट करे। वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आपकी निंदा कर जाए।वह आदमी आपका सहयोगी है, जो आप पर कीचड़ उछालता हो। वह आदमी भी आपका सहयोगी है, जो आपके रास्ते पर काँटे बिछा दे, क्योंकि वह भी एक मौका है और परीक्षा है। और चाहें उससे पार हो जाएँ, तो आपके मन में उसके प्रति इतना ऋण होगा, जिसका हिसाब नहीं है। साधु जो नहीं सिखा सकते हैं, इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं।मैं पुन: कहूँ, साधु जो नहीं सिखा सकते इस जगत में शत्रु सिखा सकते हैं। अगर आप सजग हैं और आपमें सीखने की समझ है, तो आप जिंदगी के हर पत्थर को सीढ़ी बना सकते हैं। और नहीं तो नासमझ, सीढ़ियों को भी पत्थर समझ लेते हैं और उनसे ही रुक जाते हैं। अन्यथा हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है। अगर समझ हो। अगर समझ हो तो हर पत्थर सीढ़ी हो सकता है।इस पर थोड़ा विचार करें। आपको अपने घर में, परिवार में जो-जो बातें पत्थर मालूम होती हों कि इनकी वजह से मैं शांत नहीं हो पाता, उन्हीं को साधना का केंद्र बनाएँ और देखें कि वे ही आपको शांत होने में सहयोगी हो जाएँगी। कौन-सी बात आपको रोकती है? जो बात आपको रोकती हो, जरा विचार करें, क्या कोई रास्ता उसे सीढ़ी बनाने का हो सकता है? बराबर रास्ते हो सकते हैं। और अगर विचार करेंगे और विवेक करेंगे, तो रास्ता दिखाई पड़ेगा।
जब परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर जो बीज है , उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर गुलाब खिलने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा। जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा - उसे भी संन्यास दूंगा। क्योकिं मैं मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरुरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसीव्यक्ति को समग्र रूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का
मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति कि जिज्ञासा को मूल्य देता हूं,
उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा कि खोज
के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने
ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों
की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों कि चिंता है।
मैं तो संन्यास
कि एक नयी अवधारणा को जन्म दे रहा हूं। उसका शास्त्र बना लूंगा, उसका वेद
बना लूंगा। वेद बनाने में क्या रखा है? शास्त्र बनाने में क्या रखा है?
जोभी बात सत्य के अनुसरण में बोली जाती है, वही शास्त्र है और जो बात भी
सत्य कि उदघोषणा करती है वही वेद है।
समझने कि कोशिश करो, समझाने कि नहीं।
देर कर दी। जरा जल्दी आना था। मैं तो बिगड़ ही गया और हजारों को बिगाड़ भी
चूका। और अब तो यह बात चल पड़ी है, रूकने वाली नहीं हैं। अब तो यह नया वेद
निर्मित होगा। अब तो यह नया शास्त्र बनेगा, बनने ही लगा ! अब तो मनुष्यों
की एक नयी तस्वीर उभरने ही लगी।
मेरा संन्यासी भविष्य के मनुष्य की उदघोसना है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है इसका संबंध वर्तमान से है और भविष्य से है।
बहुरि न ऐसा दांव, ओशो
Don't get too much attached - Osho
Osho
– REMEMBER remain alert that you don t get too much attached to the
accidental — and all is accidental except your consciousness. Except
your awareness, all is accidental. Pain and pleasure, success and
failure, fame and defamation — all is accidental. Only your witnessing
consciousness is essential. Stick to it! Get more and more rooted in it.
And don’t spread your attachment to worldly things.
I don’t mean leave them. I don’t mean leave your house, leave your
wife, leave your children — but remember that it is just an accident
that you are together. It is not going to be an eternal state. It has a
beginning; it will have an end. Remember that you were happy even before
it began; and you will be happy when it has ended. If you can carry
this touchstone, you can always judge what is accidental and what is
essential.
That which is always is truth. That which is
momentary is untrue. In the East and in the West there is a difference
in the definition of truth. In the Western philosophy, truth is
equivalent to the real. In the East. truth is equivalent to the eternal —
because in the East we say even the momentary is real: real for the
moment; but it is not true because it is not eternal. It is just a
reflection. The reflection is also real!
You see the moon in
the sky and the reflection in the lake — the reflection is also real
because it is there! There is a difference between the reflection and no
reflection, so it is real. Even a dream is real, because when you dream
it is there! It is real as a dream, but it is real.
The only
difference between the dream and the waking state is that the dream
lasts only for a few moments — the waking state lasts longer. But in the
East we have come to the ultimate awakening also. Then this waking
state also looks momentary, then this too is dreamlike.
The
eternal is true. The temporal is untrue. Both are real. The accidental
is also real and the essential is also real, but with the accidental you
will remain in misery. And with the essential the doors of bliss open,
the doors of satchitanand — of truth, of consciousness, of bliss.
" सेक्स और धन में संबंध " ~ ओशो
" संबंध है, धन में शक्ति है, इसलिए धन का प्रयोग कई तरह से किया जा सकता
है। धन से सेक्स खरीदा जा सकता है और सदियों से यह होता आ रहा है। राजाओं
के पास हजारों पत्नियाँ हुआ करती थीं। बीसवीं सदी में ही केवल तीस-चालीस
साल पहले हैदराबाद के निजाम की पाँच सौ पत्नियाँ थीं।
कहा जाता है कि कृष्ण के पास सोलह हजार रानियाँ हुआ करती थीं। मैं सोचा करता हूँ कि यह कुछ ज्यादा ही
बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया है परंतु यदि चालीस साल पहले हैदराबाद के निजाम के पास
पाँच सौ रानियाँ हो सकती थीं, तो यह कुछ ज्यादा नहीं, केवल बत्तीस गुना ही
तो अधिक हुई। यह संभव लगता है क्योंकि यदि आप पाँच सौ पत्नियों को रखने की
क्षमता रख सकते हो तो सोलह हजार की क्यों नहीं?
संसारभर में
राजाओं ने यही किया। स्त्रियों को भेड़-बकरियों की तरह इस्तेमाल किया गया।
बड़े-बड़े राजाओं के महलों में स्त्रियों को गिनती के हिसाब से पुकारा जाता
था। अब इतने सारे नाम याद रखने तो बहुत कठिन थे। इसलिए राजा अपने नौकरों को
ऐसे ही कहता था, 'चार सौ एक नंबर को ले आओ।' क्योंकि पाँच सौ नामों को
कैसे याद रखा जा सकता है। इसलिए नंबर ही होते थे, जैसे सिपाहियों के नंबर
हुआ करते हैं उन्हें नामों से नहीं गिनती के हिसाब से पुकारा जाता है। और
इससे काफी फर्क पड़ता है। क्योंकि नंबर तो गणित में होते हैं और नंबर साँस
नहीं लेते, नंबरों के दिल भी नहीं होते, न ही नंबरों की कोई आत्मा होती है।
जब युद्ध में किसी सिपाही की मौत होती है तो नोटिस बोर्ड पर केवल ऐसे लिखा
जाता है, 'नंबर पंद्रह की मौत हो गई है।' अब पंद्रह नंबर की मौत होना एक
बात है यदि उस सिपाही का नाम लिखा जाता है तो बात एकदम बदल जाती है। तब उस
नाम के व्यक्ति की एक पत्नी भी है जो विधवा हो गई। मरने वाले व्यक्ति के
बच्चे भी हैं जो अनाथ हो गए। हो सकता है कि वह व्यक्ति अपने बूढ़े माँ-बाप
का इकलौता सहारा हो। एक परिवार टूट जाता है। एक घर में अँधेरा छा जाता है
परंतु जब कोई पंद्रह मरता है तो नंबर पंद्रह की न कोई पत्नी होती है, न
बच्चे और न ही कोई उसके बूढ़े माँ-बाप हैं। नंबर पंद्रह केवल नंबर पंद्रह है
बस और कुछ नहीं। नंबरों के जाने पर कुछ अफसोस नहीं करता। नंबर तो बदलते
रहते हैं।
इसी तरह पत्नियों के भी केवल नंबर ही हुआ करते थे- और
यह संख्या कितनी है, वह इस बात पर निर्भर था कि आपके पास कितना धन है।
वास्तव में पुराने जमाने में इसी बात से आपके धन का पता लगता था कि आपके
पास स्त्रियों की गिनती है। धनी का यही मापदंड हुआ करता था। सदियों से धन
द्वारा स्त्रियों का शोषण होता आ रहा है। सारी दुनिया में वेश्यावृत्ति
द्वारा दुःख भोगे गए हैं। मनुष्यता का इससे अधिक अपमान क्या होगा। वेश्या
के रूप में स्त्री को यंत्रवत बना दिया गया है, जिसे तुम पैसों से खरीद
सकते हो।
लेकिन इसे पूर्णरूप से जान लिया जाए कि आप लोगों की
पत्नियाँ भी इससे कुछ भिन्न नहीं हैं। एक वेश्या को तुम टैक्सी की तरह
इस्तेमाल करते हो, और पत्नी को अपनी कार की तरह, हाँ यह आपके पास स्थायी
व्यवस्था है। अमीर लोग अपने धन के बलबूते पर ज्यादा कारें रख सकते हैं।
मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसके पास तीन सौ पैंसठ कारें थीं और एक
कार तो सोने की थी। धन में शक्ति है क्योंकि धन से कुछ भी खरीदा जा सकता
है। धन और सेक्स में अवश्य संबंध है। "
~ ओशो , 'ओशो वाणी' साईट से ♥...
Monday, January 21, 2013
भक्ति और परमात्मा
भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो; उतना उपयोगी होगाः
भक्ति परमात्मा की खोज नहीं हैः भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज
है...
ज्ञान, कर्म, योग, उन सबका सार-सूत्र है प्रयास।
ज्ञान, कर्म, योग मनुष्य की चेष्टा पर निर्भर हैं; भक्ति परमात्मा के
प्रसाद पर। स्वभावतः भक्ति अतुलनीय है। न कर्म छू सकता है उस ऊंचाई को, न
ज्ञान, न योग।
मनुष्य का प्रयास ऊंचा भी जाए तो कितना? मनुष्य
करेगा भी तो कितना? मनुष्य का किया हुआ मनुष्य से बड़ा नहीं हो सकता। मनुष्य
जो भी करेगा, उस पर मनुष्य की छाप रहेगी। मनुष्य जो भी करेगा उस पर मनुष्य
की सीमा का बंधन रहेगा।
भक्ति मनुष्य में भरोसा नहीं करती; भक्ति
परमात्मा में भरोसा करती है। एक बहुत अनूठा भक्त हुआः बायजीद बिस्तामी।
कहा है उसने, तीस साल तक निरंतर परमात्मा को खोजने के बाद, एक दिन सोचा तो
दिखायी पड़ाः 'मेरे खोजे वह कैसे मिलेगा, जब तक वही मुझे न खोजता हो?' तब
खोज छोड़ दी, और खोज छोड़कर ही उसे पा लिया।
तीस साल या तीस जन्मों
की खोज से भी उसे पाया नहीं जा सकता, क्योंकि खोजेंगे तो हम-अंधे, अंधकार
में डूबे, पापग्रस्त, सीमा में बंधे भूल चूकों का ढेर हैं हम। हम ही तो
खोजेंगे उसे! रोशनी कहां है हमारे पास उसे खोजने को? हमारे पास हाथ कहां जो
उसे टटोलें? कहां से लाएं हम वह दिल जो उसे पहचाने?
खोजी एक दिन
पाता है कि नहीं, मेरे खोजे तू न मिलेगा, जब तक कि तू ही मुझे न खोजता हो।
और बायजीद ने कहा है, जब उसे पा लिया तो जाना कि यह भी मेरी भ्रांति थी कि
मैं उसे खोज रहा था। वही मुझे खोज रहा था।
जब तक परमात्मा ने ही
तुम्हें खोजना शुरू न कर दिया हो, तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात न
उठेगी। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी, लेकिन बड़ा गहन सत्य है।
परमात्मा को केवल वे ही लोग खोजने निकलते हैं जिनको परमात्मा ने खोजना शुरू
कर दिया। जो उसके द्वारा चुन ही लिये गये हैं, वे ही केवल उसे चुनते हैं।
जो किसी भांति उनके हृदय में आ ही गया है, वे ही उसकी प्रार्थना में तत्पर
होते हैं।
तुम्हारे भीतर से वही उसको खोजता है। सारा खेल उसका है।
तुम जहां भी इस खेल में कर्ता बन जाते हो, वहीं बाधा खड़ी हो जाती है, वहीं
दरवाजे बंद हो जाते हैं।
तुम खाली रहो, उसे खोजने दो तुम्हारे भीतर से, तो तत्क्षण इस क्षण भी उस महाक्रांति का आविर्भाव हो सकता है।
भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो; उतना उपयोगी होगाः
भक्ति परमात्मा की खोज नहीं हैः भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज
है।
मनुष्य हारकर समर्पण कर देता है, थककर समर्पण कर देता है,
पराजित होकर झुक जाता है-कहता है, 'अब तू ही उठा तो उठा! अब तू ही सम्हाल
तो सम्हाल! अब अपने से सम्हाला नहीं जाता! जो मै कर सकता था, किया; जो मैं
हो सकता था, हुआ-लेकिन मेरे किये कुछ भी नहीं हो पाता! मेरा किया सब अनकिया
हो जाता है। जितना सम्हालता हूं उतना ही गिरता हूं। जितनी कोशिश करता हूं
कि ठीक राह पर आ जाऊं, उतना ही भटकता हूं। अब तू ही चल! जन्म तेरा है, जीवन
तेरा है, मौत तेरी है-प्रार्थना मेरी कैसे होगी?
पहला सूत्र है आजः 'वह भक्ति, वह प्रेमरूपा भक्ति, कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।'
श्रेष्ठता यही है कि वह अनंत के द्वारा तुम्हारी खोज है।
गंगा सागर की तरफ जाती है, तो ज्ञान, तो योग, तो कर्म। जब सागर गंगा की तरफ आता है, तो भक्ति।
भक्ति ऐसे है जैसे छोटा बच्चा पुकारता है, रोता है, मां दौड़ी चली आती है।
भक्ति बस तुम्हारा रुदन है!
तुम्हारे हृदय से उठी आह है!
भक्ति तुम्हारे जीवन की सारी खोज की व्यर्थता का निवेदन है। भक्ति
तुम्हारे आंसुओं की अभिव्यक्ति है। तुम कहीं जाते नहीं, तुम जहां हो वहीं
ठिठककर रह जाते हो। एक सत्य तुम्हारी समझ में आ जाता है कि तुम ही बस गलत
हो; तुम गलत करते हो, ऐसा नहीं।
कर्मयोग कहता हैः तुम गलत करते हो, ठीक करो तो पहुंच जाओगे।
ज्ञानयोग कहता हैः तुम गलत जानते हो, ठीक जान लो, पहुंच जाओगे।
योगशास्त्र कहता हैः तुम्हें विधियां पता नहीं है, मार्ग पता नहीं है।
विधियां सीख लो, मार्ग सीख लो, तकनीकि की बात है, पहुंच जाओगे।
भक्ति कहती हैः तुम ही गलत हो। न ज्ञान से पहुंचोगे, न कर्म से पहुंचोगे, न
योग से पहुंचोगे। तुम तुमसे छूट जाओ, तो पहुंचना हो जाएगा। तुम न बचो तो
पहुंचना हो जाएगा।
पहले तुम अज्ञान में थे, फिर तुम ज्ञान में भी
रहोगे-फर्क बहुत न पड़ेगा। फर्क तो पड़ेगा, बहुत न पड़ेगा। फर्क ऐसा ही होगा
कि जंजीरे लोहे की थीं, उन पर सोना मढ़ लोगे! कारागृह कुरूप था दुर्गंधयुक्त
था, तुम सुगंधे छिड़क लोगे, रंग रोगन कर लोगे, कारागृह को सजा लोगे!
-ओशो-
पुस्तकः भक्ति-सूत्र
प्रवचन नं. 7 से संकलित
जब
परमात्मा जीवन देता है तो मैं मानता हूं कि उसने तुम्हें अवसर दिया है
संन्यासी होने का। जीवन है क्या? जीवन है संन्यासी होने का अवसर। जीवन है
तुम्हारे भीतर जो बीज है , उनको फूल बनाने का अवसर। जीवन है तुम्हारे भीतर
गुलाब खिलने का अवसर। मेरे पास तो जो आएगा, बेशर्त उसे संन्यास दूंगा।
जुआरी आएगा, शराबी आएगा, चोर आएगा - उसे भी संन्यास दूंगा। क्योकिं मैं
मानता हूं कि चोर भी अचोर हो सकता है, जुआरी जुआरीपन छोड़ सकता है। और जिसने कभी हत्या की थी, जरुरी नहीं कि उस हत्या से सदा के लिए बंध गया।
कोई कृत्य किसीव्यक्ति को समग्र रूप से नहीं घेरता है। इसलिए कृत्यों का
मैं कोई हिसाब नहीं रखता। मैं तो व्यक्ति कि जिज्ञासा को मूल्य देता हूं,
उसकी अभीप्सा को मूल्य देता हूं। संन्यास का अर्थ है, वह परमात्मा कि खोज
के लिए आतुर है। कितना ही बुरा हो और कितने ही गड्ढे में पड़ा हो और कितने
ही अंधकार में हो, अगर सूरज की तलाश है तो मैं उसे साथ दूंगा। न मुझे वेदों
की चिंता है, न तुम्हारे शास्त्रों कि चिंता है।
मैं तो संन्यास
कि एक नयी अवधारणा को जन्म दे रहा हूं। उसका शास्त्र बना लूंगा, उसका वेद
बना लूंगा। वेद बनाने में क्या रखा है? शास्त्र बनाने में क्या रखा है?
जोभी बात सत्य के अनुसरण में बोली जाती है, वही शास्त्र है और जो बात भी
सत्य कि उदघोषणा करती है वही वेद है।
समझने कि कोशिश करो, समझाने कि नहीं।
देर कर दी। जरा जल्दी आना था। मैं तो बिगड़ ही गया और हजारों को बिगाड़ भी
चूका। और अब तो यह बात चल पड़ी है, रूकने वाली नहीं हैं। अब तो यह नया वेद
निर्मित होगा। अब तो यह नया शास्त्र बनेगा, बनने ही लगा ! अब तो मनुष्यों
की एक नयी तस्वीर उभरने ही लगी।
मेरा संन्यासी भविष्य के मनुष्य की उदघोसना है। इसका अतीत से कोई संबंध नहीं है इसका संबंध वर्तमान से है और भविष्य से है।
बहुरि न ऐसा दांव, ओशो
आचार्य श्री, यौन-ऊर्जा के संचय और ऊर्ध्वीकरण के संबंध में आहार रसायन, डाइट केमिस्ट्री पर भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
आहार शब्द बहुत बड़ा है। डाइट से बहुत बड़ा है। पहले आहार शब्द को समझ लें, फिर हम थोड़ी-सी बात करें।
आहार का मतलब है, जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं वह सब आहार है। आंख से देखते हैं एक सुंदर फूल को, तो आहार हो रहा है। आंख सौंदर्य का आहार कर रही है। कान से सुनते हैं एक संगीत को, तो संगीत का आहार हो रहा है। कान ध्वनियों का आहार कर रहा है। किसी के शरीर को स्पर्श करते हैं, हाथ आहार ले रहा है। किसी की सुगंध नासापुटों को छू लेती है, नाक आहार कर रही है। पूरा शरीर आहार कर रहा है, रोआं-रोआं श्वास ले रहा है, रोआं-रोआं स्पर्श ले रहा है। पूरा शरीर ही हमारा आहार यंत्र है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर के जगत को भीतर ले जा रही हैं। लेकिन हम सिर्फ भोजन को आहार समझते हैं, उससे भूल होती है।
काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वीकरण के लिए समस्त आहार को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, भोजन आपने बिलकुल ऐसा लिया हो जो काम-ऊर्जा को नीचे न ले जाकर ऊपर ले जाने में सहयोगी हो। लेकिन आंख ने ऐसे दृश्य देखे हों कि काम-ऊर्जा को नीचे ले जायें, और कान ने ऐसी ध्वनियां सुनी हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें, और शरीर ने ऐसे स्पर्श किए हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें। तो आहार के पूरे पर्सपेक्टिव को देख लेना जरूरी है।
आंख से भी हम भोजन ले रहे हैं, कान से भी हम भोजन ले रहे हैं, नाक से भी हम भोजन ले रहे हैं, मुंह से भी हम भोजन ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श से भी हम भोजन ले रहे हैं। चौबीस घंटे हम भोजन कर रहे हैं। बाहर के जगत से बहुत कुछ हममें प्रविष्ट हो रहा है। यह जो प्रवेश हममें हो रहा है, इसके परिणाम होंगे।
स्वभावतः हम जो भी इकट्ठा कर रहे हैं, शरीर में वह कुछ काम करेगा। अगर एक आदमी ने शराब पी ली है तो उसका सारा व्यक्तित्व दूसरा होगा, उसके सारे व्यक्तित्व में मूर्च्छा छा जाएगी। वह वही काम करने लगेगा जो मूर्च्छा में संभव हैं। एक आदमी ने शराब नहीं पी है तो वह वे काम नहीं कर सकेगा, जो मूर्च्छा में ही हो सकते हैं। हम जो भी भोजन ले रहे हैं वह सब परिणाम लाएगा। उसके परिणाम आते ही रहेंगे।
मुसोलिनी से एक भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ मिलने गए थे। मुसोलिनी ने आमंत्रण दिया था। संगीतज्ञ इटली गया था, तो उसने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। तब मुसोलिनी ताकत में था। उसने पं. ओंकार नाथ से भोजन करते समय यह कहा कि मैंने सुना है कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो लोग दीवाने होकर उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे! ठीक जाने दें लोगों को, हो जाते होंगे, लेकिन यह विश्वास नहीं होता कि हरिण भी दौड़ आते थे! मोर भी नाचने लगते थे! यह कैसे हो सकता है? पं. ओंकार नाथ ने कहा कि मैं कृष्ण तो नहीं हूं, इसलिए वैसी बांसुरी नहीं बजा सकता, लेकिन थोड़ा-सा क ख ग मैं भी जानता हूं, वह मैं आपको प्रयोग करके ही बताऊं। मुसोलिनी ने कहा, इससे बेहतर क्या होगा।
लेकिन वहां कोई वाद्यऱ्यंत्र भी न था, वहां तो चम्मच-कांटे थे। खाने की मेज पर बैठ कर ये बातें हो रही थीं। तो ओंकार नाथ ने चम्मच और कांटे को उठाकर और चीनी के बर्तनों पर बजाना शुरू कर दिया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। और मेरा सिर झुक-झुक कर टेबुल से लगने लगा और वह इतने जोर से चम्मच-कांटे पटकने लगे कि मेरा सिर उसकी ताल में टेबुल पर गिरे और उठे। फिर मेरा सिर लहूलुहान हो गया और मैंने चिल्लाकर कहा कि बंद करो यह वाद्य, अन्यथा मैं सिर को कैसे रोकूं! तब उस संगीतज्ञ ने बंद किया। सिर पर खून की बूंदें आ गयीं, सारा सिर छिल गया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने कहा, मुझे माफ करना, मुझे पता नहीं था कि संगीत का ऐसा परिणाम भीतर हो सकता है कि मैं रोक ही नहीं पा रहा था। शरीर अवश हो गया, सिर मेरे हाथ के बाहर हो गया और मुझे ऐसा लगा कि अब तो मैं मर जाऊंगा। क्योंकि मैं कोशिश करूं! और कोई उपाय नहीं...जितना ही कोशिश करूं, सिर उतना ही और जोर से जाकर टेबुल से टकराने लगा। और ओंकार नाथ ने कहा कि मेरी कोई हैसियत नहीं। कृष्ण के बाबत मैं कोई वक्तव्य दूं, यह ठीक नहीं। लेकिन इतना हो सकता है, तो उतना भी हो सकता है।
इस्लाम ने संगीत को वर्जित किया, इसलिए नहीं कि संगीत अनिवार्य रूप से काम-ऊर्जा को नीचे ले जाता है। लेकिन संगीत के जितने प्रकार प्रचलित हैं, उनमें से निन्यान्बे प्रतिशत काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाले हैं। शायद एक प्रतिशत संगीत मुश्किल से जगत में बचा है जो ऊर्जा को ऊपर ले जाये। वह भी खोता जा रहा है, उसका भी कोई उपाय बचाने का नहीं दिखायी पड़ता। ऐसे सूफी फकीरों के नृत्य हैं, जिनको देखते- देखते देखनेवाले ध्यानस्थ हो जायें।
गुरजिएफ सूफी फकीरों के दरवेश नृत्य की एक टोली बनाकर सारे यूरोप और अमरीका में घूमता रहा और उसने कहा, सिर्फ देखो और कुछ मत करो। तीस लोगों की टोली है। वे नाचना शुरू करते हैं। फकीरों का नाच है। और जितने लोग बैठे हैं वे थोड़ी देर में ध्यानस्थ हो जाएंगे। वे सिर्फ देखेंगे मूवमेंट्स, वे मूवमेंट्स उनके प्राणों में उतर जाएंगे और उनके भीतर भी करस्पांडिंग मूवमेंट पैदा होंगे। जो बाहर हो रहा है, वही आकृति उनके भीतर भी डोलने लगेगी। बाहर वह जो फकीर नाच रहे हैं, उनके नाचने की जो रिदम और गति है और लय है, वह धीरे-धीरे उनके हृदय की गति और लय बन जाएगी। और उनके भीतर भी कोई नृत्य शुरू हो जाएगा और उनकी ऊर्जा में रूपांतरण हो जाएगा।
आंख से जो हम देखते हैं, कान से जो हम सुनते हैं, ओंठ से जो हम स्वाद लेते हैं, नाक से जो हम गंध लेते हैं, उन सबके संबंध हैं। मंदिरों में घंटे हमने कभी लटकाये थे। हर कोई घंटा मतलब का नहीं है। कुछ विशेष घंटे ही काम के हो सकते हैं।
तिब्बतियों के पास एक विशेष घंटा होता है, शायद आपमें से किसी ने देखा हो। वह घंटा ऐसा लटकाने वाला नहीं होता। बर्तन की तरह बड़ा होता है, और बजाने को उसके अंदर एक गोल डंडा घुमाकर चोट करनी पड़ती है। जैसे एक बाल्टी रखी हो, उसके अंदर गोल घुमाकर डंडे से चोट करनी पड़ती है। उस डंडे और घंटे के बीच चोट का एक विशेष क्रम है। उस चोट करने से, घंटे से जोर की आवाज निकलती है--ॐ मणि पद्मे हुं--यह पूरा सूत्र तिब्बत का उससे निकलता है। और यह सूत्र बार-बार मंदिर में गूंजता रहता है। और इस सूत्र के कुछ उपाय हैं। ये सूत्र हमारे भीतर जाकर कुछ चक्रों पर चोट करना शुरू कर देते हैं और उन चक्रों की शक्ति ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।
ओम का उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को ऊपर ले जाने के लिए थी। अकेले ओम का ही नहीं, मुसलमान कहते हैं आमीन, वह ओम का ही रूप है। क्रिश्चियन भी कहते हैं, आमीन, वह ओम का ही रूप है। अंग्रेजी में शब्द हैं: ओमनीसाइंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीप्रेजेंट; वह सब ओम से ही बने हुए शब्द हैं। ओमनीसाइंट का मतलब है, जिसने ओम को देख लिया। ओम का मतलब है, विराट ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट का अर्थ है, जो ओम के साथ मौजूद हो गया। ओमनीपोटेंट का अर्थ है, जो ओम की तरह शक्तिशाली हो गया। जो परमात्मा के बराबर शक्ति-बीज से भर गया।
अब यह जो ओम शब्द है उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल ध्वनियां हैं। ये ध्वनियां अगर व्यवस्था से गुंजायी जायें तो ऊर्जा को ऊपर ले जाने लगती हैं। इससे उलटी ध्वनियां भी हैं, जो चोट की जायें तो ऊर्जा नीचे जाने लगती है।
आज अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और जमाने भर के नृत्य हैं। उन सबकी ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम, सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिए अगर आप टि्वस्ट देख रहे हों तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि आपके भीतर टि्वस्ट होना शुरू हो गया। आपके भीतर कोई शक्ति डावांडोल होने लगी। आधुनिक जगत में विकसित सभी नृत्य और सभी संगीत की व्यवस्थाएं मनुष्य के काम का शोषण हैं।
इसलिए आहार का मतलब बड़ा है। इसलिए जो भोजन हम ले रहे हैं उसके परिणाम होंगे ही, उसके परिणाम से हम बच नहीं सकते। क्योंकि हमारा पूरा का पूरा जो जीवनऱ्यंत्र है वह साइको केमिकल है। उसमें पीछे मन है, तो नीचे रसायन है। वह रसायन पूरे वक्त काम कर रहा है। केमिस्ट्री हमारे पूरे शरीर में पूरे वक्त काम कर रही है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, उसके परिणाम होंगे। ऐसे भी भोजन हैं जो मनुष्य को ज्यादा कामुक बनाते हैं।
मधुमक्खियों के छत्ते में एक खास तरह की जैली होती है। मधुमक्खियों के बाबत आपको शायद थोड़ा पता हो कि मधुमक्खियों में एक ही रानी मक्खी होती है जो बच्चे पैदा करती है। और बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री मधुमक्खी जो सिर्फ मजदूर का काम करती हैं, उनकी जिंदगी में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती। फेवरे, जिसने इन मधुमक्खियों का विराट गहन अध्ययन किया है, वह बड़ी हैरानी में पड़ा कि लाखों मधुमक्खियों की जिंदगी में कोई सेक्स क्यों नहीं होता! आखिर वे भी मादा हैं, उनकी जिंदगी में भी सेक्स का यंत्र पूरा है, लेकिन फिर भी सेक्स नहीं है। बात क्या है? तो उसे बड़ी हैरानी का जो नतीजा निकला वह यह कि मधुमक्खियां खास तरह की जैली इकट्ठी करती हैं जो सिर्फ मादा रानी ही खाती है। बाकी सब मधुमक्खियों को सिर्फ तीन दिन के लिए, जन्म के बाद, वह खाने को मिलती है, उसके बाद खाने को नहीं मिलती। उस जैली में ही सारा राज है।
इसलिए उस जैली को रिजुवीनेशन के लिए कई पागलों ने प्रयोग किया...आदमी को उसकी गोली बनाकर खिला दी जाये तो शायद बूढ़ा आदमी जवान हो जाये। उस जैली से बहुत-सी क्रीम भी लोगों ने बनाई और लाखों स्त्रियों के चेहरे पर पोती कि शायद उस जैली से सौंदर्य प्रगट हो जाये। वह जैली विशेष विटामिन्स लिए हुए है, जो अति-कामुकता पैदा कर देती है।
तो वह जो रानी मधुमक्खी है उसकी कामुकता का हिसाब लगाना मुश्किल है। वह दो हजार अंडे रोज देती है और देती ही चली जाती है। वह करोड़ों अंडे एक ही मादा पैदा कर देती है, इतनी सेक्स ऐक्टीविटी उसके भीतर पैदा हो जाती है।
और अब तो हम जानते हैं कि हारमोन्स की खोज ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि अगर एक पुरुष को भी स्त्री हारमोन्स के इंजेक्शन दे दिए जायें तो उसका शरीर पुरुष का न रहकर थोड़े दिनों में स्त्री का हो जाएगा। अगर एक स्त्री शरीर को पुरुष-इंजेक्शन दे दिये जायें तो उसका शरीर थोड़े दिनों में स्त्री का न रहकर पुरुष का हो जाएगा। पैंतालीस से पचास साल के बाद आमतौर से कुछ स्त्रियों को मूंछ आनी शुरू हो जाती है। उसका कुल कारण इतना ही है कि स्त्री हारमोन्स कम हो गए और शरीर में पड़े हुए पुरुष हारमोन प्रभावी होने लगे, इसलिए मूंछ आनी शुरू हो जायेगी। स्त्रियों की आवाज पचास साल के बाद पुरुषों से मेल खाने लगेगी। उसका कुल कारण यही है कि पुरुष हारमोन और स्त्री हारमोन का अनुपात टूट गया। स्त्री हारमोन कम हो गए, पुरुष हारमोन अनुपात में ज्यादा हो गए, तो आवाज में बदलाहट हो जाएगी। ये सारे केमिकल मामले हैं।
हम जो भोजन ले रहे हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर है। हम कैसा भोजन ले रहे हैं, इस भोजन में यदि मादक तत्व हैं, इस भोजन में यदि मूर्च्छा लानेवाले तत्व हैं, तो वे शरीर-ऊर्जा को, काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। इस भोजन में अगर उत्तेजक स्टिमुलेंट हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो वे शरीर की काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। अगर इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स हैं, और शामक तत्व हैं जो कि मन को शांत करते हैं, उत्तेजित नहीं करते हैं, तो वे ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले जाने में सहयोगी होंगे।
यह तो बहुत बड़ी बात है, लेकिन सिद्धांत की बात खयाल में लाई जा सकती है। जो तत्व उत्तेजना देते हों, जो तत्व मूर्च्छा देते हों, मादकता देते हों, जो तत्व शरीर को भारी कर देते हों, मन को बोझिल कर देते हों, उस तरह के भोजन से निरंतर बचना चाहिए। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को भारी न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को उत्तेजित न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को मादकता न दे, मूर्च्छा न दे, तंद्रा और निद्रा लानेवाला न बने। तो ऐसा भोजन साधक के लिए सहयोगी होता है। और उसके ऊपर की यात्रा का रास्ता बन जाता है।
अगर इसके विपरीत भोजन है, तो साधक की यात्रा कठिन हो जाती है। ऐसा नहीं है कि नहीं हो सकती है, हो सकती है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। गलत भोजन करके भी साधक ऊपर की तरफ जा सकता है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं।
और जब मैंने आहार की पूरी बात कही तो इसको भी ध्यान में ले लेना जरूरी है। जो साधक है, जो अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना चाहता है, वह सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह सभी कुछ नहीं देखेगा, वह सभी कुछ नहीं सुनेगा। वह इस बात का विचार करके सुनेगा कि जो संगीत उत्तेजित करता है, वह व्यर्थ है। जो संगीत शांत करता है, वह सार्थक है। वह ऐसे दृश्य नहीं देखेगा जो उत्तेजना से भर देते हैं।
अब आपने देखा होगा...फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है।
अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।
लेकिन हम रास्ते पर भी सब कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।
लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा में बाधा बनेंगे। आपको नर्क जाना है, अपनी गाड़ी पकड़ें और अपनी गाड़ी पर मजबूती से रुके रहें।
लेकिन आदमी अजीब है, एक पांव नर्क की गाड़ी पर रखे रहता है, एक पांव स्वर्ग की गाड़ी पर रखे रहता है। कहीं भी नहीं पहुंच पाता। यह सारी जिंदगी एक घसीटन बन जाती है। वह यहां से वहां तक घसीटता रहता है। आदमी ऐसी बैलगाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत दिए हैं। वे दोनों तरफ खींचते रहते हैं। कभी यह बैल थोड़ा खींच लेता है, फिर मन पछताता है कि नर्क चूक गया, थोड़ा इस तरफ चलें। फिर थोड़ा नर्क की तरफ गए कि फिर मन पछताता है, कहीं स्वर्ग न चूक जाये, थोड़ा उस तरफ चलें। और सारी जिंदगी ऐसे ही बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं पाती। अस्थिपंजर ढीले हो जाते हैं और बैल मर जाते हैं। फिर नई दुनिया, फिर नई जिंदगी, फिर वही काम हम पुरानी आदत से शुरू करते हैं।
यह निर्णय करें कि कहां जाना है, निर्णय करें क्या होना है, निर्णय करें क्या पाना है, निर्णय करें क्या लक्ष्य है, क्या दिशा है, क्या आयाम है। फिर उस निर्णय के अनुसार चलना शुरू करें, उस निर्णय के अनुसार जिंदगी में सब बदलें। आंख, कान, मुंह, हाथ सब को बदलें। फिर वही स्पर्श करें जो परमात्मा की तरफ ले जानेवाला हो। फिर वही सुनें जिसकी झंकार प्राणों को छुए और वह ऊपर उठ आये। फिर वही खायें जो जीवन को ऊंचा उठाता है और हल्का करता है। फिर वही देखें जो आंखों में दीया बन जाता है और अंधेरे को दूर करता है। और फिर सब कुछ बदल दें
मंदिर में भी एक सुगंध है। मुसलमान फकीरों ने कुछ सुगंधें चुनी थीं। इस मुल्क में हिंदू संन्यासियों ने भी कुछ सुगंधें चुनी थीं। उन सुगंधों का कुछ आधार है। उनका कुछ कारण है। जब आदमी किसी गहरे ध्यान में पहुंचता है तो अक्सर जैसी चंदन की गंध होती है, वैसी गंध से भर जाता है। इसलिए तो मंदिर में हमने चंदन को जलाना शुरू किया कि शायद यह गंध किसी के भीतर की गंध को चोट करे और स्मरण दिला दे। जब कोई आदमी ध्यान की किसी स्थिति में पहुंच जाता है तो ऐसी गंध से भर जाता है जैसे लोभान की गंध होती है। इसलिए मुसलमान फकीरों ने लोभान को चुना कि शाायद लोभान की गंध किसी के भीतर सोयी हुई गंध को चोट मार दे और उठा दे। यह सब कुछ चुनाव है, यह सब अकारण नहीं है। इस सबके पीछे कारण है।
एक व्यक्ति, कोई जिज्ञासु, एक दिन आया। उसका नाम था मौलुंकपुत्र, एक बड़ा ब्राह्मण विद्वान; पाँच सौ शिष्यों के साथ आया था बुद्ध के पास। निश्चित ही उसके पास बहुत सारे प्रश्न थे। एक बड़े विद्वान के पास होते ही हैं ढेर सारे प्रश्न, समस्याएं ही समस्याएं। बुद्ध ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, मौलुंकपुत्र, एक शर्त है। यदि तुम शर्त पूरी करो,केवल तभी मैं उत्तर दे सकता हूं। मैं देख सकता हूं तुम्हारे सिर में भनभनाते प्रश्नों को। एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो। ध्यान करो,मौन रहो। तब तुम्हारे भीतर का शोरगुल समाप्त हो जाए, जब तुम्हारी भी की बातचीत रूक जाए,तब तुम कुछ भी पूछना और मैं उत्तर दूँगा। यह मैं वचन देता हूं।
मौलुंकपुत्र कुछ चिंतित हुआ—एक वर्ष, केवल मौन रहना, और तब यह व्यक्ति उत्तर देगा। और कौन जाने कि वे उत्तर सही भी है या नहीं? तो हो सकता है एक वर्ष बिलकुल ही बेकार जाए। इसके उत्तर बिलकुल व्यर्थ भी हो सकते है। क्या करना चाहिए? वह दुविधा में पड़ गया। वह थोड़ा झिझक भी रहा था। ऐसी शर्त मानने मे; इसमें खतरा था। और तभी बुद्ध का एक दूसरा शिष्य, सारिपुत्र, जोर से हंसने लगा। वह वहीं पास में ही बैठा था—एकदम खिलखिला कर हंसने लगा। मौलुंकपुत्र और भी परेशान हो गया; उसने कहा,बात क्या है? क्यों हंस रहे हो तुम?
सारिपुत्र ने कहा, इनकी मत सुनना। ये बहुत धोखेबाज है। इन्होंने मुझे भी धोखा दिया। जब मैं आया था। तुम्हारे तो केवल पांच सौ शिष्य है। मेरे पाँच हजार थे। वह बड़ा ब्राह्मण था, देश भी में मेरी ख्याति थी। इन्होंने फुसला लिया मुझे; इन्होंने कहा, साल भर प्रतीक्षा करो। मौन रहो। ध्यान करो। और फिर पूछना और मैं उत्तर दूँगा। और साल भर बाद कोई प्रश्न ही नहीं बचा। तो मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं और इन्होंने कोई उत्तर दिया ही नहीं। यदि तुम पूछना चाहते हो तो अभी पूछ लो, मैं इसी चक्कर में पड़ गया। मुझे इसी तरह इन्होंने धोखा दिया।
बुद्ध ने कहा, मैं पक्का रहूंगा अपने वचन पर। यदि तुम पूछते हो, तो मैं उत्तर दूँगा। यदि तुम पूछो ही नहीं,तो मैं क्या कर सकता हूं?
एक वर्ष बीता, मौलुंकपुत्र ध्यान में उतर गया। और-और मौन हाता गया—भीतर की बातचीत समाप्त हो गई। भीतर का कोलाहल रूक गया। वह बिलकुल भूल गया कि कब एक वर्ष बीत गया। कौन फिक्र करता है? जब प्रश्न ही न रहें, तो कौन फिक्र करता है उत्तरों की? एक दिन अचानक बुद्ध ने पूछा, ‘’यह अंतिम दिन है वर्ष का। इसी दिन तुम यहां आए थे एक वर्ष पहले। और मैंने वचन दिया था तुम्हें कि एक वर्ष बाद तुम जो पूछोगे, मैं उत्तर दूँगा, मैं उत्तर देने को तैयार हूं। अब तुम प्रश्न पूछो।
मौलुंकपुत्र हंसने लगा,और उसने कहा,आपने मुझे भी धोखा दिया। वह सारिपुत्र ठीक कहता था। अब कोई प्रश्न ही नहीं रहा पूछने के लिए। तो मैं क्या पुछूं? मेरे पास पूछने के लिए कुछ भी नहीं है।
असल में यदि तुम सत्य नहीं हो तो समस्याएं होती है। और प्रश्न होते है। वे तुम्हारे झूठ से पैदा होते है—तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारी नींद से वे पैदा होते है। जब तुम सत्य, प्रामाणिक मौन समग्र होत हो—वे तिरोहित हो जाते है।
मेरी समझ ऐसी है कि मन की एक अवस्था है, जहां केवल प्रश्न होते है; और मन की एक अवस्था है, जहां केवल उत्तर होते है। और वे कभी साथ-साथ नहीं होती। यदि तुम अभी भी पूछ रहे हो, तो तुम उत्तर नहीं ग्रहण कर सकते। में उत्तर दे सकता हूं लेकिन तुम उसे ले नहीं सकते। यदि तुम्हारे भीतर प्रश्न उठने बंद हो गये है, तो कोई जरूरत नहीं है मुझे उत्तर देने की: तुम्हें उत्तर मिल जाता है। किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है। मन की एक ऐसी अवस्था उपलब्ध करनी होती है जहां कोई प्रश्न नहीं उठते। मन की प्रश्न रहित अवस्था ही एक मात्र उत्तर है।
यही तो ध्यान की पूरी प्रक्रिया है: प्रश्नों को गिरा देना, भीतर चलती बातचीत को गिरा देना। जब भीतर की बातचीत रूक जाती है। तो ऐ असीम मौन छा जाता है। उस मौन में हर चीज का उत्तर मिल जाता है। हर चीज सुलझ जाती है—शब्दिक रूप से नहीं, आस्तित्व गत रूप में सुलझ जाती है। कहीं कोई समस्या नहीं रह जाती है।
आहार का मतलब है, जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं वह सब आहार है। आंख से देखते हैं एक सुंदर फूल को, तो आहार हो रहा है। आंख सौंदर्य का आहार कर रही है। कान से सुनते हैं एक संगीत को, तो संगीत का आहार हो रहा है। कान ध्वनियों का आहार कर रहा है। किसी के शरीर को स्पर्श करते हैं, हाथ आहार ले रहा है। किसी की सुगंध नासापुटों को छू लेती है, नाक आहार कर रही है। पूरा शरीर आहार कर रहा है, रोआं-रोआं श्वास ले रहा है, रोआं-रोआं स्पर्श ले रहा है। पूरा शरीर ही हमारा आहार यंत्र है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर के जगत को भीतर ले जा रही हैं। लेकिन हम सिर्फ भोजन को आहार समझते हैं, उससे भूल होती है।
काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वीकरण के लिए समस्त आहार को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, भोजन आपने बिलकुल ऐसा लिया हो जो काम-ऊर्जा को नीचे न ले जाकर ऊपर ले जाने में सहयोगी हो। लेकिन आंख ने ऐसे दृश्य देखे हों कि काम-ऊर्जा को नीचे ले जायें, और कान ने ऐसी ध्वनियां सुनी हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें, और शरीर ने ऐसे स्पर्श किए हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें। तो आहार के पूरे पर्सपेक्टिव को देख लेना जरूरी है।
आंख से भी हम भोजन ले रहे हैं, कान से भी हम भोजन ले रहे हैं, नाक से भी हम भोजन ले रहे हैं, मुंह से भी हम भोजन ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श से भी हम भोजन ले रहे हैं। चौबीस घंटे हम भोजन कर रहे हैं। बाहर के जगत से बहुत कुछ हममें प्रविष्ट हो रहा है। यह जो प्रवेश हममें हो रहा है, इसके परिणाम होंगे।
स्वभावतः हम जो भी इकट्ठा कर रहे हैं, शरीर में वह कुछ काम करेगा। अगर एक आदमी ने शराब पी ली है तो उसका सारा व्यक्तित्व दूसरा होगा, उसके सारे व्यक्तित्व में मूर्च्छा छा जाएगी। वह वही काम करने लगेगा जो मूर्च्छा में संभव हैं। एक आदमी ने शराब नहीं पी है तो वह वे काम नहीं कर सकेगा, जो मूर्च्छा में ही हो सकते हैं। हम जो भी भोजन ले रहे हैं वह सब परिणाम लाएगा। उसके परिणाम आते ही रहेंगे।
मुसोलिनी से एक भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ मिलने गए थे। मुसोलिनी ने आमंत्रण दिया था। संगीतज्ञ इटली गया था, तो उसने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। तब मुसोलिनी ताकत में था। उसने पं. ओंकार नाथ से भोजन करते समय यह कहा कि मैंने सुना है कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो लोग दीवाने होकर उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे! ठीक जाने दें लोगों को, हो जाते होंगे, लेकिन यह विश्वास नहीं होता कि हरिण भी दौड़ आते थे! मोर भी नाचने लगते थे! यह कैसे हो सकता है? पं. ओंकार नाथ ने कहा कि मैं कृष्ण तो नहीं हूं, इसलिए वैसी बांसुरी नहीं बजा सकता, लेकिन थोड़ा-सा क ख ग मैं भी जानता हूं, वह मैं आपको प्रयोग करके ही बताऊं। मुसोलिनी ने कहा, इससे बेहतर क्या होगा।
लेकिन वहां कोई वाद्यऱ्यंत्र भी न था, वहां तो चम्मच-कांटे थे। खाने की मेज पर बैठ कर ये बातें हो रही थीं। तो ओंकार नाथ ने चम्मच और कांटे को उठाकर और चीनी के बर्तनों पर बजाना शुरू कर दिया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। और मेरा सिर झुक-झुक कर टेबुल से लगने लगा और वह इतने जोर से चम्मच-कांटे पटकने लगे कि मेरा सिर उसकी ताल में टेबुल पर गिरे और उठे। फिर मेरा सिर लहूलुहान हो गया और मैंने चिल्लाकर कहा कि बंद करो यह वाद्य, अन्यथा मैं सिर को कैसे रोकूं! तब उस संगीतज्ञ ने बंद किया। सिर पर खून की बूंदें आ गयीं, सारा सिर छिल गया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने कहा, मुझे माफ करना, मुझे पता नहीं था कि संगीत का ऐसा परिणाम भीतर हो सकता है कि मैं रोक ही नहीं पा रहा था। शरीर अवश हो गया, सिर मेरे हाथ के बाहर हो गया और मुझे ऐसा लगा कि अब तो मैं मर जाऊंगा। क्योंकि मैं कोशिश करूं! और कोई उपाय नहीं...जितना ही कोशिश करूं, सिर उतना ही और जोर से जाकर टेबुल से टकराने लगा। और ओंकार नाथ ने कहा कि मेरी कोई हैसियत नहीं। कृष्ण के बाबत मैं कोई वक्तव्य दूं, यह ठीक नहीं। लेकिन इतना हो सकता है, तो उतना भी हो सकता है।
इस्लाम ने संगीत को वर्जित किया, इसलिए नहीं कि संगीत अनिवार्य रूप से काम-ऊर्जा को नीचे ले जाता है। लेकिन संगीत के जितने प्रकार प्रचलित हैं, उनमें से निन्यान्बे प्रतिशत काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाले हैं। शायद एक प्रतिशत संगीत मुश्किल से जगत में बचा है जो ऊर्जा को ऊपर ले जाये। वह भी खोता जा रहा है, उसका भी कोई उपाय बचाने का नहीं दिखायी पड़ता। ऐसे सूफी फकीरों के नृत्य हैं, जिनको देखते- देखते देखनेवाले ध्यानस्थ हो जायें।
गुरजिएफ सूफी फकीरों के दरवेश नृत्य की एक टोली बनाकर सारे यूरोप और अमरीका में घूमता रहा और उसने कहा, सिर्फ देखो और कुछ मत करो। तीस लोगों की टोली है। वे नाचना शुरू करते हैं। फकीरों का नाच है। और जितने लोग बैठे हैं वे थोड़ी देर में ध्यानस्थ हो जाएंगे। वे सिर्फ देखेंगे मूवमेंट्स, वे मूवमेंट्स उनके प्राणों में उतर जाएंगे और उनके भीतर भी करस्पांडिंग मूवमेंट पैदा होंगे। जो बाहर हो रहा है, वही आकृति उनके भीतर भी डोलने लगेगी। बाहर वह जो फकीर नाच रहे हैं, उनके नाचने की जो रिदम और गति है और लय है, वह धीरे-धीरे उनके हृदय की गति और लय बन जाएगी। और उनके भीतर भी कोई नृत्य शुरू हो जाएगा और उनकी ऊर्जा में रूपांतरण हो जाएगा।
आंख से जो हम देखते हैं, कान से जो हम सुनते हैं, ओंठ से जो हम स्वाद लेते हैं, नाक से जो हम गंध लेते हैं, उन सबके संबंध हैं। मंदिरों में घंटे हमने कभी लटकाये थे। हर कोई घंटा मतलब का नहीं है। कुछ विशेष घंटे ही काम के हो सकते हैं।
तिब्बतियों के पास एक विशेष घंटा होता है, शायद आपमें से किसी ने देखा हो। वह घंटा ऐसा लटकाने वाला नहीं होता। बर्तन की तरह बड़ा होता है, और बजाने को उसके अंदर एक गोल डंडा घुमाकर चोट करनी पड़ती है। जैसे एक बाल्टी रखी हो, उसके अंदर गोल घुमाकर डंडे से चोट करनी पड़ती है। उस डंडे और घंटे के बीच चोट का एक विशेष क्रम है। उस चोट करने से, घंटे से जोर की आवाज निकलती है--ॐ मणि पद्मे हुं--यह पूरा सूत्र तिब्बत का उससे निकलता है। और यह सूत्र बार-बार मंदिर में गूंजता रहता है। और इस सूत्र के कुछ उपाय हैं। ये सूत्र हमारे भीतर जाकर कुछ चक्रों पर चोट करना शुरू कर देते हैं और उन चक्रों की शक्ति ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।
ओम का उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को ऊपर ले जाने के लिए थी। अकेले ओम का ही नहीं, मुसलमान कहते हैं आमीन, वह ओम का ही रूप है। क्रिश्चियन भी कहते हैं, आमीन, वह ओम का ही रूप है। अंग्रेजी में शब्द हैं: ओमनीसाइंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीप्रेजेंट; वह सब ओम से ही बने हुए शब्द हैं। ओमनीसाइंट का मतलब है, जिसने ओम को देख लिया। ओम का मतलब है, विराट ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट का अर्थ है, जो ओम के साथ मौजूद हो गया। ओमनीपोटेंट का अर्थ है, जो ओम की तरह शक्तिशाली हो गया। जो परमात्मा के बराबर शक्ति-बीज से भर गया।
अब यह जो ओम शब्द है उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल ध्वनियां हैं। ये ध्वनियां अगर व्यवस्था से गुंजायी जायें तो ऊर्जा को ऊपर ले जाने लगती हैं। इससे उलटी ध्वनियां भी हैं, जो चोट की जायें तो ऊर्जा नीचे जाने लगती है।
आज अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और जमाने भर के नृत्य हैं। उन सबकी ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम, सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिए अगर आप टि्वस्ट देख रहे हों तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि आपके भीतर टि्वस्ट होना शुरू हो गया। आपके भीतर कोई शक्ति डावांडोल होने लगी। आधुनिक जगत में विकसित सभी नृत्य और सभी संगीत की व्यवस्थाएं मनुष्य के काम का शोषण हैं।
इसलिए आहार का मतलब बड़ा है। इसलिए जो भोजन हम ले रहे हैं उसके परिणाम होंगे ही, उसके परिणाम से हम बच नहीं सकते। क्योंकि हमारा पूरा का पूरा जो जीवनऱ्यंत्र है वह साइको केमिकल है। उसमें पीछे मन है, तो नीचे रसायन है। वह रसायन पूरे वक्त काम कर रहा है। केमिस्ट्री हमारे पूरे शरीर में पूरे वक्त काम कर रही है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, उसके परिणाम होंगे। ऐसे भी भोजन हैं जो मनुष्य को ज्यादा कामुक बनाते हैं।
मधुमक्खियों के छत्ते में एक खास तरह की जैली होती है। मधुमक्खियों के बाबत आपको शायद थोड़ा पता हो कि मधुमक्खियों में एक ही रानी मक्खी होती है जो बच्चे पैदा करती है। और बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री मधुमक्खी जो सिर्फ मजदूर का काम करती हैं, उनकी जिंदगी में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती। फेवरे, जिसने इन मधुमक्खियों का विराट गहन अध्ययन किया है, वह बड़ी हैरानी में पड़ा कि लाखों मधुमक्खियों की जिंदगी में कोई सेक्स क्यों नहीं होता! आखिर वे भी मादा हैं, उनकी जिंदगी में भी सेक्स का यंत्र पूरा है, लेकिन फिर भी सेक्स नहीं है। बात क्या है? तो उसे बड़ी हैरानी का जो नतीजा निकला वह यह कि मधुमक्खियां खास तरह की जैली इकट्ठी करती हैं जो सिर्फ मादा रानी ही खाती है। बाकी सब मधुमक्खियों को सिर्फ तीन दिन के लिए, जन्म के बाद, वह खाने को मिलती है, उसके बाद खाने को नहीं मिलती। उस जैली में ही सारा राज है।
इसलिए उस जैली को रिजुवीनेशन के लिए कई पागलों ने प्रयोग किया...आदमी को उसकी गोली बनाकर खिला दी जाये तो शायद बूढ़ा आदमी जवान हो जाये। उस जैली से बहुत-सी क्रीम भी लोगों ने बनाई और लाखों स्त्रियों के चेहरे पर पोती कि शायद उस जैली से सौंदर्य प्रगट हो जाये। वह जैली विशेष विटामिन्स लिए हुए है, जो अति-कामुकता पैदा कर देती है।
तो वह जो रानी मधुमक्खी है उसकी कामुकता का हिसाब लगाना मुश्किल है। वह दो हजार अंडे रोज देती है और देती ही चली जाती है। वह करोड़ों अंडे एक ही मादा पैदा कर देती है, इतनी सेक्स ऐक्टीविटी उसके भीतर पैदा हो जाती है।
और अब तो हम जानते हैं कि हारमोन्स की खोज ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि अगर एक पुरुष को भी स्त्री हारमोन्स के इंजेक्शन दे दिए जायें तो उसका शरीर पुरुष का न रहकर थोड़े दिनों में स्त्री का हो जाएगा। अगर एक स्त्री शरीर को पुरुष-इंजेक्शन दे दिये जायें तो उसका शरीर थोड़े दिनों में स्त्री का न रहकर पुरुष का हो जाएगा। पैंतालीस से पचास साल के बाद आमतौर से कुछ स्त्रियों को मूंछ आनी शुरू हो जाती है। उसका कुल कारण इतना ही है कि स्त्री हारमोन्स कम हो गए और शरीर में पड़े हुए पुरुष हारमोन प्रभावी होने लगे, इसलिए मूंछ आनी शुरू हो जायेगी। स्त्रियों की आवाज पचास साल के बाद पुरुषों से मेल खाने लगेगी। उसका कुल कारण यही है कि पुरुष हारमोन और स्त्री हारमोन का अनुपात टूट गया। स्त्री हारमोन कम हो गए, पुरुष हारमोन अनुपात में ज्यादा हो गए, तो आवाज में बदलाहट हो जाएगी। ये सारे केमिकल मामले हैं।
हम जो भोजन ले रहे हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर है। हम कैसा भोजन ले रहे हैं, इस भोजन में यदि मादक तत्व हैं, इस भोजन में यदि मूर्च्छा लानेवाले तत्व हैं, तो वे शरीर-ऊर्जा को, काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। इस भोजन में अगर उत्तेजक स्टिमुलेंट हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो वे शरीर की काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। अगर इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स हैं, और शामक तत्व हैं जो कि मन को शांत करते हैं, उत्तेजित नहीं करते हैं, तो वे ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले जाने में सहयोगी होंगे।
यह तो बहुत बड़ी बात है, लेकिन सिद्धांत की बात खयाल में लाई जा सकती है। जो तत्व उत्तेजना देते हों, जो तत्व मूर्च्छा देते हों, मादकता देते हों, जो तत्व शरीर को भारी कर देते हों, मन को बोझिल कर देते हों, उस तरह के भोजन से निरंतर बचना चाहिए। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को भारी न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को उत्तेजित न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को मादकता न दे, मूर्च्छा न दे, तंद्रा और निद्रा लानेवाला न बने। तो ऐसा भोजन साधक के लिए सहयोगी होता है। और उसके ऊपर की यात्रा का रास्ता बन जाता है।
अगर इसके विपरीत भोजन है, तो साधक की यात्रा कठिन हो जाती है। ऐसा नहीं है कि नहीं हो सकती है, हो सकती है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। गलत भोजन करके भी साधक ऊपर की तरफ जा सकता है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं।
और जब मैंने आहार की पूरी बात कही तो इसको भी ध्यान में ले लेना जरूरी है। जो साधक है, जो अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना चाहता है, वह सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह सभी कुछ नहीं देखेगा, वह सभी कुछ नहीं सुनेगा। वह इस बात का विचार करके सुनेगा कि जो संगीत उत्तेजित करता है, वह व्यर्थ है। जो संगीत शांत करता है, वह सार्थक है। वह ऐसे दृश्य नहीं देखेगा जो उत्तेजना से भर देते हैं।
अब आपने देखा होगा...फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है।
अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।
लेकिन हम रास्ते पर भी सब कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।
लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा में बाधा बनेंगे। आपको नर्क जाना है, अपनी गाड़ी पकड़ें और अपनी गाड़ी पर मजबूती से रुके रहें।
लेकिन आदमी अजीब है, एक पांव नर्क की गाड़ी पर रखे रहता है, एक पांव स्वर्ग की गाड़ी पर रखे रहता है। कहीं भी नहीं पहुंच पाता। यह सारी जिंदगी एक घसीटन बन जाती है। वह यहां से वहां तक घसीटता रहता है। आदमी ऐसी बैलगाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत दिए हैं। वे दोनों तरफ खींचते रहते हैं। कभी यह बैल थोड़ा खींच लेता है, फिर मन पछताता है कि नर्क चूक गया, थोड़ा इस तरफ चलें। फिर थोड़ा नर्क की तरफ गए कि फिर मन पछताता है, कहीं स्वर्ग न चूक जाये, थोड़ा उस तरफ चलें। और सारी जिंदगी ऐसे ही बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं पाती। अस्थिपंजर ढीले हो जाते हैं और बैल मर जाते हैं। फिर नई दुनिया, फिर नई जिंदगी, फिर वही काम हम पुरानी आदत से शुरू करते हैं।
यह निर्णय करें कि कहां जाना है, निर्णय करें क्या होना है, निर्णय करें क्या पाना है, निर्णय करें क्या लक्ष्य है, क्या दिशा है, क्या आयाम है। फिर उस निर्णय के अनुसार चलना शुरू करें, उस निर्णय के अनुसार जिंदगी में सब बदलें। आंख, कान, मुंह, हाथ सब को बदलें। फिर वही स्पर्श करें जो परमात्मा की तरफ ले जानेवाला हो। फिर वही सुनें जिसकी झंकार प्राणों को छुए और वह ऊपर उठ आये। फिर वही खायें जो जीवन को ऊंचा उठाता है और हल्का करता है। फिर वही देखें जो आंखों में दीया बन जाता है और अंधेरे को दूर करता है। और फिर सब कुछ बदल दें
मंदिर में भी एक सुगंध है। मुसलमान फकीरों ने कुछ सुगंधें चुनी थीं। इस मुल्क में हिंदू संन्यासियों ने भी कुछ सुगंधें चुनी थीं। उन सुगंधों का कुछ आधार है। उनका कुछ कारण है। जब आदमी किसी गहरे ध्यान में पहुंचता है तो अक्सर जैसी चंदन की गंध होती है, वैसी गंध से भर जाता है। इसलिए तो मंदिर में हमने चंदन को जलाना शुरू किया कि शायद यह गंध किसी के भीतर की गंध को चोट करे और स्मरण दिला दे। जब कोई आदमी ध्यान की किसी स्थिति में पहुंच जाता है तो ऐसी गंध से भर जाता है जैसे लोभान की गंध होती है। इसलिए मुसलमान फकीरों ने लोभान को चुना कि शाायद लोभान की गंध किसी के भीतर सोयी हुई गंध को चोट मार दे और उठा दे। यह सब कुछ चुनाव है, यह सब अकारण नहीं है। इस सबके पीछे कारण है।
एक व्यक्ति, कोई जिज्ञासु, एक दिन आया। उसका नाम था मौलुंकपुत्र, एक बड़ा ब्राह्मण विद्वान; पाँच सौ शिष्यों के साथ आया था बुद्ध के पास। निश्चित ही उसके पास बहुत सारे प्रश्न थे। एक बड़े विद्वान के पास होते ही हैं ढेर सारे प्रश्न, समस्याएं ही समस्याएं। बुद्ध ने उसके चेहरे की तरफ देखा और कहा, मौलुंकपुत्र, एक शर्त है। यदि तुम शर्त पूरी करो,केवल तभी मैं उत्तर दे सकता हूं। मैं देख सकता हूं तुम्हारे सिर में भनभनाते प्रश्नों को। एक वर्ष तक प्रतीक्षा करो। ध्यान करो,मौन रहो। तब तुम्हारे भीतर का शोरगुल समाप्त हो जाए, जब तुम्हारी भी की बातचीत रूक जाए,तब तुम कुछ भी पूछना और मैं उत्तर दूँगा। यह मैं वचन देता हूं।
मौलुंकपुत्र कुछ चिंतित हुआ—एक वर्ष, केवल मौन रहना, और तब यह व्यक्ति उत्तर देगा। और कौन जाने कि वे उत्तर सही भी है या नहीं? तो हो सकता है एक वर्ष बिलकुल ही बेकार जाए। इसके उत्तर बिलकुल व्यर्थ भी हो सकते है। क्या करना चाहिए? वह दुविधा में पड़ गया। वह थोड़ा झिझक भी रहा था। ऐसी शर्त मानने मे; इसमें खतरा था। और तभी बुद्ध का एक दूसरा शिष्य, सारिपुत्र, जोर से हंसने लगा। वह वहीं पास में ही बैठा था—एकदम खिलखिला कर हंसने लगा। मौलुंकपुत्र और भी परेशान हो गया; उसने कहा,बात क्या है? क्यों हंस रहे हो तुम?
सारिपुत्र ने कहा, इनकी मत सुनना। ये बहुत धोखेबाज है। इन्होंने मुझे भी धोखा दिया। जब मैं आया था। तुम्हारे तो केवल पांच सौ शिष्य है। मेरे पाँच हजार थे। वह बड़ा ब्राह्मण था, देश भी में मेरी ख्याति थी। इन्होंने फुसला लिया मुझे; इन्होंने कहा, साल भर प्रतीक्षा करो। मौन रहो। ध्यान करो। और फिर पूछना और मैं उत्तर दूँगा। और साल भर बाद कोई प्रश्न ही नहीं बचा। तो मैंने कभी कुछ पूछा ही नहीं और इन्होंने कोई उत्तर दिया ही नहीं। यदि तुम पूछना चाहते हो तो अभी पूछ लो, मैं इसी चक्कर में पड़ गया। मुझे इसी तरह इन्होंने धोखा दिया।
बुद्ध ने कहा, मैं पक्का रहूंगा अपने वचन पर। यदि तुम पूछते हो, तो मैं उत्तर दूँगा। यदि तुम पूछो ही नहीं,तो मैं क्या कर सकता हूं?
एक वर्ष बीता, मौलुंकपुत्र ध्यान में उतर गया। और-और मौन हाता गया—भीतर की बातचीत समाप्त हो गई। भीतर का कोलाहल रूक गया। वह बिलकुल भूल गया कि कब एक वर्ष बीत गया। कौन फिक्र करता है? जब प्रश्न ही न रहें, तो कौन फिक्र करता है उत्तरों की? एक दिन अचानक बुद्ध ने पूछा, ‘’यह अंतिम दिन है वर्ष का। इसी दिन तुम यहां आए थे एक वर्ष पहले। और मैंने वचन दिया था तुम्हें कि एक वर्ष बाद तुम जो पूछोगे, मैं उत्तर दूँगा, मैं उत्तर देने को तैयार हूं। अब तुम प्रश्न पूछो।
मौलुंकपुत्र हंसने लगा,और उसने कहा,आपने मुझे भी धोखा दिया। वह सारिपुत्र ठीक कहता था। अब कोई प्रश्न ही नहीं रहा पूछने के लिए। तो मैं क्या पुछूं? मेरे पास पूछने के लिए कुछ भी नहीं है।
असल में यदि तुम सत्य नहीं हो तो समस्याएं होती है। और प्रश्न होते है। वे तुम्हारे झूठ से पैदा होते है—तुम्हारे स्वप्न, तुम्हारी नींद से वे पैदा होते है। जब तुम सत्य, प्रामाणिक मौन समग्र होत हो—वे तिरोहित हो जाते है।
मेरी समझ ऐसी है कि मन की एक अवस्था है, जहां केवल प्रश्न होते है; और मन की एक अवस्था है, जहां केवल उत्तर होते है। और वे कभी साथ-साथ नहीं होती। यदि तुम अभी भी पूछ रहे हो, तो तुम उत्तर नहीं ग्रहण कर सकते। में उत्तर दे सकता हूं लेकिन तुम उसे ले नहीं सकते। यदि तुम्हारे भीतर प्रश्न उठने बंद हो गये है, तो कोई जरूरत नहीं है मुझे उत्तर देने की: तुम्हें उत्तर मिल जाता है। किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है। मन की एक ऐसी अवस्था उपलब्ध करनी होती है जहां कोई प्रश्न नहीं उठते। मन की प्रश्न रहित अवस्था ही एक मात्र उत्तर है।
यही तो ध्यान की पूरी प्रक्रिया है: प्रश्नों को गिरा देना, भीतर चलती बातचीत को गिरा देना। जब भीतर की बातचीत रूक जाती है। तो ऐ असीम मौन छा जाता है। उस मौन में हर चीज का उत्तर मिल जाता है। हर चीज सुलझ जाती है—शब्दिक रूप से नहीं, आस्तित्व गत रूप में सुलझ जाती है। कहीं कोई समस्या नहीं रह जाती है।
- ओशो....
Sunday, January 20, 2013
" You are the Surgeon & You are the Patient " ~ O S H O
" I used to know one man in Jabalpur(India). I liked that man, I was
really impressed by him: he was something unique .... For one year I was
living in a bungalow which was facing six roads, so all kinds of
processions were passing by there. And it was near the high court, the
collector’s office, the commissioner’s office. They were all just within a half-mile radius.
So every kind of procession – protests, either going to the chief justice, or going to the commissioner, or going to the collector .... I used to enjoy seeing them. The most exciting thing for me was one
who was always in every protest, whether it was the communist party, socialist party, congress party, president’s party – any party. And in India there are all kinds of parties.
Whether it was a religious protest – Christians protesting that something was being done against their religion, or Mohammedans, Hindus, Jainas, Buddhists – he was always, inevitably there. I could not believe it. That man was something! One day I caught hold of him and I said, "You have to come inside with me.”
He said, "Right now I cannot come, I am going in the protest.”
I said, "You can go later on – I will send you, I will drive you. But for five minutes you just come in – because now it is too much, I cannot bear it any more.”
He said, "But what is the problem? What have I done to you?”
I said, "You have not done anything to me; I just want to know to which party you belong.”
He laughed. He said, "As far as parties are concerned, I am a member of all the parties.”
I said, "But ...?”
He said, "You will not understand, nobody understands. I enjoy shouting, screaming. Now, who is screaming against whom, that is not material. I simply enjoy – I shout, jump, have a flag. I don’t care whose flag, I don’t have any flag of my own. And I am not interested in what they are demanding, whether they get it or not, but I enjoy it.”
Now this man has no political interest, no religious interest. What his interest is, is in finding unconsciousness in shouting, screaming, getting involved in something in which he has no ideological interest. But he has psychological involvement, he forgets himself. For the two, three hours that the protest continues, he forgets himself. Now, how can he miss if some other party is protesting? His psychological interest is the same.
He said, "It is not very costly.” In India you can become a member for one fourth of a rupee; that is a one-year membership. And that too you don’t have to pay, somebody will pay for you, you have just to vote for him.
So I asked him, "So many parties, so many religions and you must be paying so much money ....”
He said, ”No, they pay it. And those idiots don’t even ask, ‘Are you a member of any other party?’ I have not yet been asked, so I have not yet been forced to lie. Nobody asks me. I say, ‘I want to become a member of your party.’ They say, ‘Very good, you just become a member of the party, fill in the form.’ I have filled in all the forms of all the parties. I go to all religious prayers, religious meetings. I believe in the unity of all.”
I said, "That’s very good.”
But he was really getting juice. You try protesting, shouting, and soon you get involved in it. Your thinking disappears, your past, your present, disappear. You are suddenly herenow – but not in a conscious way – through an unconscious trick. You can do it by alcohol, you can do it by politics, you can do it by religion. You can do it in a church, you can do it in a movie house. You can do it in a thousand and one ways, and people are using all kinds of ways.
People are not interested in consciousness.
Consciousness is painful, because you will have to drop so much which you have carried your whole life thinking it very valuable.
You will have to uncover your wounds which you have covered and completely forgotten.
You will have to revive all worries and anguishes that somehow you have repressed.
You will have to face again your original face which you have lost far back. You have become somebody else. You have been somebody else so long, that now to face your original face is going to shatter you completely. "
To be conscious not a game.
To be conscious is to go through a deep surgery.
And the problem is, you are the surgeon, and you are the patient. "
~ O S H O , From Darkness to Light,
So every kind of procession – protests, either going to the chief justice, or going to the commissioner, or going to the collector .... I used to enjoy seeing them. The most exciting thing for me was one
who was always in every protest, whether it was the communist party, socialist party, congress party, president’s party – any party. And in India there are all kinds of parties.
Whether it was a religious protest – Christians protesting that something was being done against their religion, or Mohammedans, Hindus, Jainas, Buddhists – he was always, inevitably there. I could not believe it. That man was something! One day I caught hold of him and I said, "You have to come inside with me.”
He said, "Right now I cannot come, I am going in the protest.”
I said, "You can go later on – I will send you, I will drive you. But for five minutes you just come in – because now it is too much, I cannot bear it any more.”
He said, "But what is the problem? What have I done to you?”
I said, "You have not done anything to me; I just want to know to which party you belong.”
He laughed. He said, "As far as parties are concerned, I am a member of all the parties.”
I said, "But ...?”
He said, "You will not understand, nobody understands. I enjoy shouting, screaming. Now, who is screaming against whom, that is not material. I simply enjoy – I shout, jump, have a flag. I don’t care whose flag, I don’t have any flag of my own. And I am not interested in what they are demanding, whether they get it or not, but I enjoy it.”
Now this man has no political interest, no religious interest. What his interest is, is in finding unconsciousness in shouting, screaming, getting involved in something in which he has no ideological interest. But he has psychological involvement, he forgets himself. For the two, three hours that the protest continues, he forgets himself. Now, how can he miss if some other party is protesting? His psychological interest is the same.
He said, "It is not very costly.” In India you can become a member for one fourth of a rupee; that is a one-year membership. And that too you don’t have to pay, somebody will pay for you, you have just to vote for him.
So I asked him, "So many parties, so many religions and you must be paying so much money ....”
He said, ”No, they pay it. And those idiots don’t even ask, ‘Are you a member of any other party?’ I have not yet been asked, so I have not yet been forced to lie. Nobody asks me. I say, ‘I want to become a member of your party.’ They say, ‘Very good, you just become a member of the party, fill in the form.’ I have filled in all the forms of all the parties. I go to all religious prayers, religious meetings. I believe in the unity of all.”
I said, "That’s very good.”
But he was really getting juice. You try protesting, shouting, and soon you get involved in it. Your thinking disappears, your past, your present, disappear. You are suddenly herenow – but not in a conscious way – through an unconscious trick. You can do it by alcohol, you can do it by politics, you can do it by religion. You can do it in a church, you can do it in a movie house. You can do it in a thousand and one ways, and people are using all kinds of ways.
People are not interested in consciousness.
Consciousness is painful, because you will have to drop so much which you have carried your whole life thinking it very valuable.
You will have to uncover your wounds which you have covered and completely forgotten.
You will have to revive all worries and anguishes that somehow you have repressed.
You will have to face again your original face which you have lost far back. You have become somebody else. You have been somebody else so long, that now to face your original face is going to shatter you completely. "
To be conscious not a game.
To be conscious is to go through a deep surgery.
And the problem is, you are the surgeon, and you are the patient. "
~ O S H O , From Darkness to Light,
CHAPTER 7.
TIME IS VERY SHORT BUT MY METHODS ARE VERY QUICK
आदमी को क्या हो गया है?
आचार्य श्री, आपने कहा है कि वर्तमान में पल-पल जीने से सेक्स एनर्जी,
यौन-ऊर्जा का संचय और ऊर्ध्वगमन होने लगता है तथा अतीत और भविष्य के चिंतन
से ऊर्जा का विनाश और अधोगमन होने लगता है। इन दोनों बातों में क्या-क्या प्रक्रिया घटित होती है, उसका विज्ञान स्पष्ट करें।
जीवन है अभी और यहीं, जीवन है क्षण-क्षण में, जीवन है पल-पल में, लेकिन मनुष्य का चित्त सोचता है पीछे की, मनुष्य का चित्त सोचता है आगे की। और यह जो चित्त का चिंतन है जब काम से संबंधित होता है तो मनुष्य का चित्त सोचता है उन काम-संबंधों के संबंध में, उन यौन अनुभवों के संबंध में जो पीछे घटित हुए हैं। और उन यौन-संबंधों की कल्पना करता है, जो आगे घटित होंगे, हो सकते हैं, होने की आकांक्षा है। और जब चित्त इस तरह के चिंतन में खो जाता है पीछे और आगे, तो शारीरिक वीर्य-कण तो नष्ट नहीं होते, लेकिन जिस यौन-ऊर्जा की, जिस काम-ऊर्जा की, जिस साइकिक एनर्जी की मैंने बात कही है, वह नष्ट होनी शुरू हो जाती है। शरीर के वीर्य-कण तो वास्तविक संभोग में नष्ट होंगे, लेकिन मन की ऊर्जा चिंतन में ही नष्ट होने लगती है।
इसलिए भाव से भी जो काम का चिंतन करता है, वह अपनी ऊर्जा को अधोगामी करता है, भाव से भी, विचार से भी। एक रत्ती भर शक्ति शरीर नहीं खो रहा है, सिर्फ सोच रहा है उन संभोगों के संबंध में जो उसने किए, या उन संभोगों के संबंध में जो वह करेगा, सिर्फ चिंतन कर रहा है। पर इतना चिंतन भी मन की ऊर्जा के विनाश के लिए काफी है। मन की ऊर्जा तो विनष्ट होनी शुरू हो जाएगी। और मन की यह ऊर्जा ही असली ऊर्जा है। संभोग से तो सिर्फ शरीर के ही कुछ कण खोते हैं, लेकिन मन के संभोग से, इस मेंटल सेक्स से, इस मानसिक यौन से, मन की विराट ऊर्जा नष्ट होती है। शरीर तो आज नहीं, कल पूरा ही नष्ट हो जाएगा। शरीर उतना चिंतनीय नहीं है, चूंकि मन की जो ऊर्जा है वह अगले जन्म में भी आपके साथ होगी। उस ऊर्जा का ही असली सवाल है।
इसलिए जब मैंने यह कहा कि जो व्यक्ति पल-पल जीता है--न पीछे की सोचता है, न आगे की सोचता है काम के संबंध में--तो वह आगे की भी नहीं सोचता और पीछे की भी नहीं सोचता, वही पल-पल जीता है। उसकी मानसिक ऊर्जा के विसर्जन का कोई उपाय नहीं रह जाता।
और भी एक मजे की बात है कि जो आदमी अतीत की चिंता कम करता है, भविष्य की चिंता कम करता है, जो सामने होता है उसी को करता है, उसी में पूरा डूबकर जीता है, उसकी जिंदगी में तनाव, टेन्शंस कम हो जाते हैं। और जितना तनाव कम हो उतनी सेक्स की जरूरत कम हो जाती है। जितना तनाव ज्यादा हो उतनी सेक्स की जरूरत बढ़ जाती है, क्योंकि सेक्स रिलीफ का काम करने लगता है। वह तनाव के बिखेरने का काम करने लगता है।
इसलिए जितना ज्यादा चिंतित आदमी है, उतना कामुक हो जाएगा। और जितना चिंतित समाज है, वह उतना कामुक हो जायेगा, जैसे आज यूरोप या अमरीका है। अत्यधिक चिंतित है तो जीवन सारा काम से भर जाएगा। जितना निश्चिंत व्यक्ति है, उतनी काम की जरूरत कम हो जाएगी। क्योंकि तनाव इतने इकट्ठे नहीं होते कि शरीर से शक्ति को फेंककर उन्हें हल्का करना पड़े।
अतीत और भविष्य की बहुत ज्यादा चिंतना तनावग्रस्त करती है, टेन्शंस पैदा करती है। वर्तमान में जीये जाना तनाव मुक्त करता है। जो आदमी अपने बगीचे में गङ्ढा खोद रहा है तो गङ्ढा ही खोद रहा है। जो आदमी खाना खा रहा है तो खाना ही खा रहा है। जो आदमी सोने गया है तो सोने ही गया है, दफ्तर में है तो दफ्तर में है, घर में है तो घर में है, जिससे मिल रहा है उससे मिल रहा है, जिससे बिछुड़ गया है उससे बिछुड़ गया है। जो आदमी आगे-पीछे बहुत समेट कर नहीं चलता है, उसके चित्त पर इतने कम भार होते हैं कि उसकी काम की जरूरत निरंतर कम हो जाती है।
तो दो कारणों से मैंने ऐसा कहा। एक तो चिंतन करने से काम के, मानसिक काम-ऊर्जा विनष्ट होती है। दूसरा, अतीत और भविष्य की कामनाओं में डूबे होने से तनाव इकट्ठे होते हैं। और जब तनाव ज्यादा इकट्ठे हो जाते हैं तो शरीर को अनिवार्य रूप से अपनी शक्ति कम करनी पड़ती है। शक्ति कम करके जो शिथिलता अनुभव होती है उस शिथिलता में विश्राम मालूम पड़ता है। शिथिलता को हम विश्राम समझे हुए हैं। थककर गिर जाते हैं तो सोचते हैं आराम हुआ। थक कर टूट जाते हैं तो लगता है अब सो जायें, अब चिंता नहीं रही। चिंता के लिए भी शक्ति चाहिए। लेकिन चिंता ऐसी शक्ति है जो भंवर बन गयी और जो पीड़ा देने लगी। अब उस शक्ति को बाहर फेंक देना पड़ेगा। उस शक्ति को हम निरंतर बाहर फेंक रहे हैं। और हमारे पास शक्ति को बाहर फेंकने का एक ही उपाय दिखाई पड़ता है। क्योंकि ऊपर जाने का तो हमारे मन में कोई खयाल नहीं है। नीचे जाने का एकमात्र बंधा हुआ मार्ग है।
इसलिए जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान में...इसका यह मतलब नहीं है कि आपको कल सुबह ट्रेन से जाना हो तो आज टिकिट नहीं खरीदेंगे। लेकिन कल की टिकिट खरीदनी आज का ही काम है। लेकिन आज ही कल की गाड़ी में सवार हो जाना खतरनाक है। और आज ही बैठकर कल की गाड़ी पर क्या-क्या मुसीबतें होंगी और कल की गाड़ी पर बैठकर क्या-क्या होने वाला है, इस सबके चिंतन में खो जाना खतरनाक है।
नहीं, यौन इतना बुरा नहीं है जितना यौन का चिंतन बुरा है। यौन तो सहज, प्राकृतिक घटना भी हो सकती है, लेकिन उसका चिंतन बड़ा अप्राकृतिक और परवर्सन है, वह विकृति है। एक आदमी सोच रहा है, सोच रहा है, योजनाएं बना रहा है, चौबीस घंटे सोच रहा है। और कई बार तो ऐसा हो जाता है, होता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों लोगों के अनुभवों के बाद यह पता चलता है कि आदमी मानसिक यौन में इतना रस लेने लगता है कि वास्तविक यौन में उसे रस ही नहीं आता, फिर वह फीका मालूम पड़ता है। चित्त में ही जो यौन चलता है वही ज्यादा रसपूर्ण और रंगीन मालूम पड़ने लगता है।
चित्त में यौन की इस तरह से व्यवस्था हो जाये तो हमारे भीतर कंफ्यूजन पैदा होता है। चित्त का काम नहीं है यौन। गुरजिएफ कहा करता था कि जो लोग यौन के केंद्र का काम चित्त के केंद्र से करने लगते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। होगी ही, क्योंकि उन दोनों के काम अलग हैं। अगर कोई आदमी कान से भोजन करने की कोशिश करने लगे तो कान तो खराब होगा ही और भोजन भी नहीं पहुंचेगा। दोनों ही उपद्रव हो जाएंगे।
व्यक्ति के शरीर में हर चीज का सेंटर है। चित्त काम का सेंटर नहीं है। काम का सेंटर मूलाधार है। मूलाधार को अपना काम करने दें। लेकिन चित्त को, चेतना को, अभी उस काम में मत लगायें, अन्यथा चेतना उस काम से ग्रस्त, आबसेस्ड हो जाएगी।
इसलिए आदमी आबसेस्ड दिखायी पड़ता है। वह नंगी तस्वीरें देख रहा है बैठकर, और मूलाधार को नंगी तस्वीरों से कोई भी संबंध नहीं है। उसके पास आंख भी नहीं है। आदमी नंगी तस्वीरें देख रहा है, यह मन से देख रहा है। और मन में तस्वीरों का विचार कर रहा है, योजनाएं बना रहा है, कल्पनाएं कर रहा है, रंगीन चित्र बना रहा है। यह सब के सब मिल कर उसके भीतर सेंटर का कंफ्यूजन पैदा कर रहे हैं। मूलाधार का काम चित्त करने लगेगा, पर मूलाधार तो चित्त का काम नहीं कर सकता है। बुद्धि भ्रष्ट होगी, चित्त भ्रमित होगा, विक्षिप्त होगा।
पागलखाने में जितने लोग बंद हैं उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग चित्त से यौन का काम लेने के कारण पागल हैं। पागलखानों के बाहर भी जितने लोग पागल हैं, अगर उनके पागलपन का हम पता लगाने जायें तो हमें पता चलेगा कि उसमें भी नब्बे प्रतिशत यौन के ही कारण हैं। उनकी कविताएं पढ़ें तो यौन, उनकी तस्वीरें देखें तो यौन, उनकी पेंटिंग्स देखें तो यौन, उनका उपन्यास देखें तो यौन, उनकी फिल्म देखने जायें तो यौन, उनका सब कुछ यौन से घिर गया है। आब्सेशन है यह, यह पागलपन है।
अगर पशुओं को भी हमारे संबंध में पता होगा तो वे भी हम पर हंसते होंगे कि आदमी को क्या हो गया है? अगर हमारी कविताएं वे पढ़ें, भले ही कालिदास की हों, तो पशुओं को बड़ी हैरानी होगी कि इन कविताओं की जरूरत क्या है? इनका अर्थ क्या है? वे हमारे चित्र देखें, चाहे पिकासो के हों, तो उन्हें बड़ी हैरानी होगी कि इन चित्रों का मतलब क्या है? ये स्त्रियों के स्तनों को इतना चित्रित करने की कौन-सी आवश्यकता है? क्या प्रयोजन है?
आदमी जरूर कहीं पागल हो गया है। पागल इसलिए हो गया है कि जो काम मूलाधार का है, सेक्स-सेंटर का है, उसे वह इंटलेक्ट से ले रहा है। इसलिए इंटलेक्ट से जो काम लिया जा सकता था, उसका तो समय ही नहीं बचता है।
बुद्धि परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकती है, लेकिन वह मूलाधार का काम कर रही है। चेतना परम जीवन का अनुभव कर सकती है, लेकिन चेतना सिर्फ फैंटेसीज में जी रही है, सेक्सुअल फैंटेसीज में जी रही है, वह सिर्फ यौन के चित्रों में भटक रही है।
इसलिए मैंने कहा, अतीत का मत सोचें, भविष्य का मत सोचें। यौन के संबंध में तो बिलकुल ही नहीं। अभी जीयें और जितना यौन पल में आ जाता हो उसे आने दें, घबरायें मत, लेकिन उस यौन के समय में भी जो मैंने ऊर्ध्वगमन की यात्रा की बात कही, अगर उसका थोड़ा स्मरण करें तो बहुत शीघ्र उस शक्ति का ऊपर प्रवाह शुरू हो जाता है। और जैसी धन्यता उस प्रवाह में अनुभव होती है वैसी जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती। - ओशो....
जीवन है अभी और यहीं, जीवन है क्षण-क्षण में, जीवन है पल-पल में, लेकिन मनुष्य का चित्त सोचता है पीछे की, मनुष्य का चित्त सोचता है आगे की। और यह जो चित्त का चिंतन है जब काम से संबंधित होता है तो मनुष्य का चित्त सोचता है उन काम-संबंधों के संबंध में, उन यौन अनुभवों के संबंध में जो पीछे घटित हुए हैं। और उन यौन-संबंधों की कल्पना करता है, जो आगे घटित होंगे, हो सकते हैं, होने की आकांक्षा है। और जब चित्त इस तरह के चिंतन में खो जाता है पीछे और आगे, तो शारीरिक वीर्य-कण तो नष्ट नहीं होते, लेकिन जिस यौन-ऊर्जा की, जिस काम-ऊर्जा की, जिस साइकिक एनर्जी की मैंने बात कही है, वह नष्ट होनी शुरू हो जाती है। शरीर के वीर्य-कण तो वास्तविक संभोग में नष्ट होंगे, लेकिन मन की ऊर्जा चिंतन में ही नष्ट होने लगती है।
इसलिए भाव से भी जो काम का चिंतन करता है, वह अपनी ऊर्जा को अधोगामी करता है, भाव से भी, विचार से भी। एक रत्ती भर शक्ति शरीर नहीं खो रहा है, सिर्फ सोच रहा है उन संभोगों के संबंध में जो उसने किए, या उन संभोगों के संबंध में जो वह करेगा, सिर्फ चिंतन कर रहा है। पर इतना चिंतन भी मन की ऊर्जा के विनाश के लिए काफी है। मन की ऊर्जा तो विनष्ट होनी शुरू हो जाएगी। और मन की यह ऊर्जा ही असली ऊर्जा है। संभोग से तो सिर्फ शरीर के ही कुछ कण खोते हैं, लेकिन मन के संभोग से, इस मेंटल सेक्स से, इस मानसिक यौन से, मन की विराट ऊर्जा नष्ट होती है। शरीर तो आज नहीं, कल पूरा ही नष्ट हो जाएगा। शरीर उतना चिंतनीय नहीं है, चूंकि मन की जो ऊर्जा है वह अगले जन्म में भी आपके साथ होगी। उस ऊर्जा का ही असली सवाल है।
इसलिए जब मैंने यह कहा कि जो व्यक्ति पल-पल जीता है--न पीछे की सोचता है, न आगे की सोचता है काम के संबंध में--तो वह आगे की भी नहीं सोचता और पीछे की भी नहीं सोचता, वही पल-पल जीता है। उसकी मानसिक ऊर्जा के विसर्जन का कोई उपाय नहीं रह जाता।
और भी एक मजे की बात है कि जो आदमी अतीत की चिंता कम करता है, भविष्य की चिंता कम करता है, जो सामने होता है उसी को करता है, उसी में पूरा डूबकर जीता है, उसकी जिंदगी में तनाव, टेन्शंस कम हो जाते हैं। और जितना तनाव कम हो उतनी सेक्स की जरूरत कम हो जाती है। जितना तनाव ज्यादा हो उतनी सेक्स की जरूरत बढ़ जाती है, क्योंकि सेक्स रिलीफ का काम करने लगता है। वह तनाव के बिखेरने का काम करने लगता है।
इसलिए जितना ज्यादा चिंतित आदमी है, उतना कामुक हो जाएगा। और जितना चिंतित समाज है, वह उतना कामुक हो जायेगा, जैसे आज यूरोप या अमरीका है। अत्यधिक चिंतित है तो जीवन सारा काम से भर जाएगा। जितना निश्चिंत व्यक्ति है, उतनी काम की जरूरत कम हो जाएगी। क्योंकि तनाव इतने इकट्ठे नहीं होते कि शरीर से शक्ति को फेंककर उन्हें हल्का करना पड़े।
अतीत और भविष्य की बहुत ज्यादा चिंतना तनावग्रस्त करती है, टेन्शंस पैदा करती है। वर्तमान में जीये जाना तनाव मुक्त करता है। जो आदमी अपने बगीचे में गङ्ढा खोद रहा है तो गङ्ढा ही खोद रहा है। जो आदमी खाना खा रहा है तो खाना ही खा रहा है। जो आदमी सोने गया है तो सोने ही गया है, दफ्तर में है तो दफ्तर में है, घर में है तो घर में है, जिससे मिल रहा है उससे मिल रहा है, जिससे बिछुड़ गया है उससे बिछुड़ गया है। जो आदमी आगे-पीछे बहुत समेट कर नहीं चलता है, उसके चित्त पर इतने कम भार होते हैं कि उसकी काम की जरूरत निरंतर कम हो जाती है।
तो दो कारणों से मैंने ऐसा कहा। एक तो चिंतन करने से काम के, मानसिक काम-ऊर्जा विनष्ट होती है। दूसरा, अतीत और भविष्य की कामनाओं में डूबे होने से तनाव इकट्ठे होते हैं। और जब तनाव ज्यादा इकट्ठे हो जाते हैं तो शरीर को अनिवार्य रूप से अपनी शक्ति कम करनी पड़ती है। शक्ति कम करके जो शिथिलता अनुभव होती है उस शिथिलता में विश्राम मालूम पड़ता है। शिथिलता को हम विश्राम समझे हुए हैं। थककर गिर जाते हैं तो सोचते हैं आराम हुआ। थक कर टूट जाते हैं तो लगता है अब सो जायें, अब चिंता नहीं रही। चिंता के लिए भी शक्ति चाहिए। लेकिन चिंता ऐसी शक्ति है जो भंवर बन गयी और जो पीड़ा देने लगी। अब उस शक्ति को बाहर फेंक देना पड़ेगा। उस शक्ति को हम निरंतर बाहर फेंक रहे हैं। और हमारे पास शक्ति को बाहर फेंकने का एक ही उपाय दिखाई पड़ता है। क्योंकि ऊपर जाने का तो हमारे मन में कोई खयाल नहीं है। नीचे जाने का एकमात्र बंधा हुआ मार्ग है।
इसलिए जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान में...इसका यह मतलब नहीं है कि आपको कल सुबह ट्रेन से जाना हो तो आज टिकिट नहीं खरीदेंगे। लेकिन कल की टिकिट खरीदनी आज का ही काम है। लेकिन आज ही कल की गाड़ी में सवार हो जाना खतरनाक है। और आज ही बैठकर कल की गाड़ी पर क्या-क्या मुसीबतें होंगी और कल की गाड़ी पर बैठकर क्या-क्या होने वाला है, इस सबके चिंतन में खो जाना खतरनाक है।
नहीं, यौन इतना बुरा नहीं है जितना यौन का चिंतन बुरा है। यौन तो सहज, प्राकृतिक घटना भी हो सकती है, लेकिन उसका चिंतन बड़ा अप्राकृतिक और परवर्सन है, वह विकृति है। एक आदमी सोच रहा है, सोच रहा है, योजनाएं बना रहा है, चौबीस घंटे सोच रहा है। और कई बार तो ऐसा हो जाता है, होता है, मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों लोगों के अनुभवों के बाद यह पता चलता है कि आदमी मानसिक यौन में इतना रस लेने लगता है कि वास्तविक यौन में उसे रस ही नहीं आता, फिर वह फीका मालूम पड़ता है। चित्त में ही जो यौन चलता है वही ज्यादा रसपूर्ण और रंगीन मालूम पड़ने लगता है।
चित्त में यौन की इस तरह से व्यवस्था हो जाये तो हमारे भीतर कंफ्यूजन पैदा होता है। चित्त का काम नहीं है यौन। गुरजिएफ कहा करता था कि जो लोग यौन के केंद्र का काम चित्त के केंद्र से करने लगते हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। होगी ही, क्योंकि उन दोनों के काम अलग हैं। अगर कोई आदमी कान से भोजन करने की कोशिश करने लगे तो कान तो खराब होगा ही और भोजन भी नहीं पहुंचेगा। दोनों ही उपद्रव हो जाएंगे।
व्यक्ति के शरीर में हर चीज का सेंटर है। चित्त काम का सेंटर नहीं है। काम का सेंटर मूलाधार है। मूलाधार को अपना काम करने दें। लेकिन चित्त को, चेतना को, अभी उस काम में मत लगायें, अन्यथा चेतना उस काम से ग्रस्त, आबसेस्ड हो जाएगी।
इसलिए आदमी आबसेस्ड दिखायी पड़ता है। वह नंगी तस्वीरें देख रहा है बैठकर, और मूलाधार को नंगी तस्वीरों से कोई भी संबंध नहीं है। उसके पास आंख भी नहीं है। आदमी नंगी तस्वीरें देख रहा है, यह मन से देख रहा है। और मन में तस्वीरों का विचार कर रहा है, योजनाएं बना रहा है, कल्पनाएं कर रहा है, रंगीन चित्र बना रहा है। यह सब के सब मिल कर उसके भीतर सेंटर का कंफ्यूजन पैदा कर रहे हैं। मूलाधार का काम चित्त करने लगेगा, पर मूलाधार तो चित्त का काम नहीं कर सकता है। बुद्धि भ्रष्ट होगी, चित्त भ्रमित होगा, विक्षिप्त होगा।
पागलखाने में जितने लोग बंद हैं उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग चित्त से यौन का काम लेने के कारण पागल हैं। पागलखानों के बाहर भी जितने लोग पागल हैं, अगर उनके पागलपन का हम पता लगाने जायें तो हमें पता चलेगा कि उसमें भी नब्बे प्रतिशत यौन के ही कारण हैं। उनकी कविताएं पढ़ें तो यौन, उनकी तस्वीरें देखें तो यौन, उनकी पेंटिंग्स देखें तो यौन, उनका उपन्यास देखें तो यौन, उनकी फिल्म देखने जायें तो यौन, उनका सब कुछ यौन से घिर गया है। आब्सेशन है यह, यह पागलपन है।
अगर पशुओं को भी हमारे संबंध में पता होगा तो वे भी हम पर हंसते होंगे कि आदमी को क्या हो गया है? अगर हमारी कविताएं वे पढ़ें, भले ही कालिदास की हों, तो पशुओं को बड़ी हैरानी होगी कि इन कविताओं की जरूरत क्या है? इनका अर्थ क्या है? वे हमारे चित्र देखें, चाहे पिकासो के हों, तो उन्हें बड़ी हैरानी होगी कि इन चित्रों का मतलब क्या है? ये स्त्रियों के स्तनों को इतना चित्रित करने की कौन-सी आवश्यकता है? क्या प्रयोजन है?
आदमी जरूर कहीं पागल हो गया है। पागल इसलिए हो गया है कि जो काम मूलाधार का है, सेक्स-सेंटर का है, उसे वह इंटलेक्ट से ले रहा है। इसलिए इंटलेक्ट से जो काम लिया जा सकता था, उसका तो समय ही नहीं बचता है।
बुद्धि परमात्मा की तरफ यात्रा कर सकती है, लेकिन वह मूलाधार का काम कर रही है। चेतना परम जीवन का अनुभव कर सकती है, लेकिन चेतना सिर्फ फैंटेसीज में जी रही है, सेक्सुअल फैंटेसीज में जी रही है, वह सिर्फ यौन के चित्रों में भटक रही है।
इसलिए मैंने कहा, अतीत का मत सोचें, भविष्य का मत सोचें। यौन के संबंध में तो बिलकुल ही नहीं। अभी जीयें और जितना यौन पल में आ जाता हो उसे आने दें, घबरायें मत, लेकिन उस यौन के समय में भी जो मैंने ऊर्ध्वगमन की यात्रा की बात कही, अगर उसका थोड़ा स्मरण करें तो बहुत शीघ्र उस शक्ति का ऊपर प्रवाह शुरू हो जाता है। और जैसी धन्यता उस प्रवाह में अनुभव होती है वैसी जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती। - ओशो....
Saturday, January 19, 2013
Sex is the most powerful instinct in man.
Sex
is the most powerful instinct in man. The politician and the priest
have understood from the very beginning that sex is the most driving
energy in man. It has to be curtailed, it has to be cut. If man is
allowed total freedom in sex, then there will be no possibility to
dominate him. To make a slave out of him will be impossible.
Have you not seen it being done? When you want a bull to be yok
ed to a cart, what do you do? You castrate him, you destroy his sex
energy. And have you seen the difference between a bull and an ox? What a
difference! An ox is a poor phenomenon, a slave. A bull is a beauty; a
bull is a glorious phenomenon, a great splendor. See a bull walking, how
he walks like an emperor! And see an ox pulling a cart.
The
same has been done to man. The sex instinct has been curtailed, cut,
crippled. Man does not exist as the bull now, he exists like the ox, and
each man is pulling a thousand and one carts. Look and you will find
behind you a thousand and one carts, and you are yoked to them.
Why can't you yoke a bull? The bull is too powerful. If he sees a cow
passing by, he will throw both you and the cart, and he will move to the
cow! He will not bother a bit about who you are, and he will not
listen. It will be impossible to control the bull. Sex energy is life
energy; it is uncontrollable. And the politician and the priest are not
interested in you, they are interested in channeling your energy into
other directions. So there is a certain mechanism behind it—it has to be
understood.
Sex is not wrong.
You are wrong if you
are stuck there. Move higher. The higher is not against the lower; the
lower makes it possible for the higher to exist.
Each time you
are in love somehow you feel guilty; a guilt has arisen. When there is
guilt you cannot move totally into love—the guilt prevents you, it keeps
you holding on. Even while making love to your wife or your husband,
there is guilt. You know this is sin, you know you are doing something
wrong. "Saints don't do it"—you are a sinner. So you cannot move totally
even when you are allowed, superficially, to love your wife. The priest
is hidden behind you in your guilt; he is pulling you from there,
pulling your strings.
When guilt arises, you start feeling that
you are wrong; you lose self-worth, you lose self-respect. And another
problem arises: When there is guilt you start pretending. Mothers and
fathers don't allow their children to know that they make love, they
pretend. They pretend that sex does not exist. Their pretension will be
known by the children sooner or later. When the children come to know
about the pretension, they lose all trust. They feel betrayed, they feel
cheated.
And fathers and mothers say that their children don't
respect them— you are the cause of it, how can they respect you? You
have been deceiving them in every way, you have been dishonest, you have
been mean. You were telling them not to fall in love—"Beware!" and you
were making love all the time. And the day will come, sooner or later,
when they will realize that even their father, even their mother was not
true with them. How can they respect you?
First, guilt creates
pretension. Then pretension creates alienation from people. Even the
child, your own child, will not feel in tune with you. There is a
barrier—your pretension. One day you will come to know that you are just
pretending and so are others. When everybody is pretending, how can you
relate? When everybody is false, how can you relate? How can you be
friendly when everywhere there is deception and deceit? You become very,
very sore about reality, you become very bitter. You see it only as a
devil's workshop.
And everybody has a false face, nobody is
authentic. Everybody is carrying masks, nobody shows his original face.
You feel guilty, you feel that you are pretending and you know that
everybody else is pretending. Everybody is feeling guilty and everybody
has become just like an ugly wound. Now it is very easy to make these
people slaves—to turn them into clerks, stationmasters, schoolmasters,
deputy collectors, ministers, governors, presidents. Now it is very easy
to distract them. You have distracted them from their roots.
Sex repression, tabooing sex, is the very foundation of human slavery.
Man cannot be free unless sex is free. Man cannot be really free unless
his sex energy is allowed natural growth.
— Osho
Comparison is a disease, one of the greatest diseases.
Comparison
is a disease, one of the greatest diseases. And we are taught from the
very beginning to compare. Your mother starts comparing you with other
children, your father starts comparing you with other children. The
teacher compares you: ”Look at Johnny, how well he is doing, and you are
no good at all! Look at others..." From the very beginning you are
being told to compare yourself with others. This is the greatest
disease; it is like a cancer that goes on destroying your very soul —
because each individual is unique, and comparison is not possible. I am
just myself and you are just yourself. There is nobody else in the world
you can be compared with.
Do you compare a marigold with a
roseflower? You don’t compare. Do you compare a mango with an apple? You
don’t compare. You know they are different! Comparison is not possible.
And man is not a species because each man is unique. There has never
been any individual like you before and there will never be again. You
are utterly unique. This is your privilege, your prerogative, God’s
blessing, that He has made you unique. Don’t compare. Comparison will
bring trouble.
If you fall victim to this disease of
comparison, naturally you will either become very egoistic or you will
become very bitter; it depends on whom you compare yourself with. If you
compare yourself with those who seem to be bigger than you, higher than
you, greater than you, you will become bitter. You will become a
complaint against God, an anger: ”Why am I not greater than I am? Why am
I not like that person? Why am I not physically so beautiful, so
strong? Why am I not intelligent? Why am I not this, not that?” And
there are millions of things in the world....
If you compare
yourself with the people who are greater in some way than you, you will
become bitter, very bitter. Your life will become poisoned by the
comparison. You will remain always in a state of depression, as if God
has deceived you, betrayed you, as if you have been let down.
Or if you compare yourself with people who are smaller than you, in some
way lesser than you, then you will become very egoistic. This is one of
the reasons why politicians are always surrounded by people smaller
than themselves. They collect them; that is their joy. They collect
smaller people around themselves so that they can look bigger than they
are by comparison. It is stupid, but one cannot expect anything more
from a politician.
Rich people are always surrounded by those who are smaller. They feel good, very good, great in comparison to those people.
But ordinarily people always look at others’ houses, their successes,
their achievements, and feel very bitter against God. In the world,
religion cannot prosper because people cannot pray to a god who has
betrayed them from the very beginning, who has made them so small, so
ugly. How can they be thankful towards him? Impossible. And without
thankfulness there is no prayer, and without prayer there is no
religion.
But a man who understands the uniqueness of everybody
can be religious, can only be religious, because he feels immense
gratitude for whatsoever God has given to him. If you don’ t compare,
then you are neither bigger nor smaller, neither ugly nor beautiful,
neither intelligent nor stupid. If you don’t compare, you are simply
yourself And in that state of simply being yourself, spring comes,
flowers come, because a deep acceptance of life and a deep gratitude
towards God helps to bring
the spring.
— Osho
Totally Free, Totally Aware
To be totally free one needs to be totally aware,
because our bondage is rooted in our unconsciousness;
it does not come from the outside.
Nobody can make you unfree.
You can be destroyed but your freedom cannot be taken away -
unless you give it away.
In the ultimate analysis it is always your desire to be unfree
that makes you unfree.
It is your desire to be dependent,
your desire to drop the responsibility of being yourself,
that makes you unfree.
The moment one takes responsibility for oneself...
and remember it is not all roses,
there are thorns in it; and it is not all sweet,
there are many bitter moments in it.
The sweet is always balanced by the bitter,
they always come in the same proportion.
The roses are balanced by the thorns,
the days by the nights, the summers by the winters.
Life keeps a balance between the polar opposites,
so one who is ready to accept the responsibility
of being oneself with all its beauties, bitternesses,
in joys and agonies, can be free.
Only he can be free.
Accept the responsibility of being yourself as you are,
with all that is good and with all that is bad,
with all that is beautiful and that which is not beautiful.
In that acceptance a transcendence happens
and one becomes free.
Freedom means transcendence, going above the duality.
Then you are neither ecstasy nor agony;
you are just a witness to all that happens to you.
That transcendence is real freedom and
that makes one enlightened, liberated.
------ ~*~OSHO~*~ --------
मृत्यु की ठीक-ठीक भविष्य वाणी—पतंजलि
’सक्रिय व निष्क्रिय या लक्षणात्मक वह विलक्षणात्मक—इन दो प्रकार के
कर्मों पर संयम पा लेने के बाद मृत्यु की ठीक-ठीक घड़ी की भविष्य सूचना
पायी जा सकती है।‘’
सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्संयमादपारान्तज्ञानमरि ष्टेभये वा।
तो इसे दो प्रकार से जाना जा सकता है। या तो प्रारब्ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास है जिन्हें देख कर जाना जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति मरता है तो मरने के ठीक नौ महीने पहले कुछ न कुछ होता है। साधारणतया हम जागरूक नहीं होते है। और वह घटना बहुत ही सूक्ष्म होती है। मैं नौ महीने कहता हूं—क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसमे थोड़ी भिन्नता होती है। यह निर्भर करता है: समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्म के बीच मौजूद रहता है।
उतना ही समय मृत्यु को जानने का रहेगा। अगर कोई व्यक्ति गर्भ में नौ महीने रहने बाद जन्म लेता है, तो उसे नौ महीने पहले मृत्यु का आभास होगा। अगर कोई दस महीने गर्भ में रहता है तो उसे दस महीने पहले मृत्यु का अहसास होगा, कोई सात महीने पेट में रहता है तो उसे सात महीने पहले उसे मृत्यु का एहसास होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्म के समय के बीच कितना समय रहा।
मृत्यु के ठीक उतने ही महीने पहले हार में, नाभि चक्र में कुछ होने लगता है। हारा सेंटर को क्लिक होना ही पड़ता है। क्योंकि गर्भ में आने और जन्म के बीच नौ महीने का अंतराल था: जन्म लेने में नौ महीने का समय लगा, ठीक उतना ही समय मृत्यु के लिए लगेगा। जैसे जन्म लेने के पूर्व नौ महीने मां के गर्भ में रहकर तैयार होते हो, ठीक ऐसे ही मृत्यु की तैयारी में भी नौ महीने लगेंगे। फिर वर्तुल पूरा हो जायेगा। तो मृत्यु के नौ महीने पहले नाभि चक्र में कुछ होने लगता है।
जो लोग जागरूक है, सजग है, वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि चक्र में कुछ टूट गया है; और अब मृत्यु निकट ही है। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग नौ महीने लगते है।
या फिर उदाहरण के लिए, मृत्यु के और भी कुछ अन्य लक्षण तथा पूर्वाभास होते है, कोई आदमी मरने से पहले, अपने मरने के ठीक छह महीने पहले, अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे-धीरे असमर्थ हो जाता है। क्योंकि आंखें धीरे-धीरे ऊपर की और मुड़ने लगती है। मृत्यु में आंखे पूरी तरह ऊपर की और मुड़ जाती है। लेकिन मृत्यु के पहल ही लौटने की यात्रा का प्रारंभ हो जाता है। ऐसा होता है: जब एक बच्चा जन्म लेता है, तो बच्चे की दृष्टि थिर होने में करीब छह महीने लगते है। साधारणतया ऐसा ही होता है। लेकिन इसमे कुछ अपवाद भी हो सकते है—बच्चे की दृष्टि ठहरने में छह महीने लगते है। उससे पहले बच्चे की दृष्टि थिर नहीं होती। इसी लिए तो छह महीने का बच्चा अपनी दोनों आंखें एक साथ नाक के करीब ला सकता है। और फिर किनारे पर भी आसानी से ला सकता है। इसका मतलब है बच्चे की आंखे अभी थिर नहीं हुई है। जिस दिन बच्चे की आंखे थिर हो जाती है। फिर वह दिन छह महीने के बाद का हो। या दस महीने के बाद का हो, ठीक उतना ही समय लगेगा फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी। और ऊपर की और मुड़ने लगेंगी। इसीलिए भारत में गांव के लोग कहते है, निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से मिली होगी—कि मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है।
और भी बहुत सी विधियां है, जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते है। वह नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते है। जो लोग नाक की नोक पर एकाग्र चित होकर ध्यान करते है, अचानक एक दिन वे पाते है कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ है, वे अपनी नाक की नोक नहीं देख सकते है। इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है।
योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में सात चक्र होत है। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्त्रार, जो सिर में होता है। इन दोनों के बीच में पाँच चक्र और होते है। जब भी व्यक्ति कि मृत्यु होती है; तो वह किसी एक निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्याग ता है। व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्श देता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते है। क्योंकि जीवन भर लोग काम-केंद्र के आसपास ही जीते है। वे हमेशा सेक्स के बारे ही सोचते है, उसी की कल्पना करते है, उसी के स्वप्न देखते है, उनका सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है—जैसे कि उनका पूरा जीवन काम केंद्र के आसपास ही केंद्रित हो गया हो। ऐसे लोग मूलाधार से काम केंद्र से ही प्राण छोड़ते है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम का उपलब्ध हो जाता है। और कामवासना के पार चला जाता है। तो वह ह्रदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है। और अगर कोई व्यक्ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्त्रार से छोड़ेगा।
और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है। क्योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है.....
जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है, व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदू स्थल खुल जाता है। उस बिंदु स्थल को देखा जा सकता है। किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा। तो वह भी पोस्टमार्टम का हिस्सा हो जाएगा। कि व्यक्ति कैसे मेरा। अभी तो चिकित्सक केवल यही देखता है कि व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है। या उसकी हत्या की गयी है, या उसके आत्महत्या की है—यही सारी साधारण सी बातें चिकित्सक देखते है। सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात की चिकित्सक चूक जाते है। जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए—कि व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले है: काम केंद्र से निकले है, ह्रदय केंद्र से निकले है, या सहस्त्रार से निकले है। किसी केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है।
और इसकी संभावना है, क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। और इसे देखा जा सकता है। क्योंकि जिस केंद्र से प्राण-ऊर्जा निर्मुक्त होती है। वही विशेष केंद्र टूट जाता है। जैसे कि कोई अंडा टूटता है और कोई चीज उससे बहार आ जाती है। ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहां सक निर्मुक्त होती है।
जब कोई व्यक्ति संयम को उपल्बध हो जाता है। तो मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है, कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्त्रार से ही शरीर को छोड़ता है। मृत्यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन-चलन, एक तरह की गति, ठीक सिरा के शीर्ष भाग पर होने लगती है।
यह संकेत हमे मृत्यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते है। और अगर हम मृत्यु को उत्सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहो भाव से नाचते गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें—तो फिर हमारा दूसरा जन्म नहीं होता। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है उसे हमने सीख लिया। अब हम तैयार है किसी महान लक्ष्य महान जीवन और अनंत-अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार है। और इसे हमने अर्जित कर लिया है।
इस सूत्र के बारे में एक बात और क्रिया मान कर्म, दिन प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे-छोटे कर्म होते है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते है। इसके नीचे होता है प्रारब्ध कर्म। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे ‘’अवचेतन’’ कह सकते है। उससे भी नीचे होता है, संचित कर्म; आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम अचेतन कह सकते है।
साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता, तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है। यह लगभग असंभव ही है। तो तुम दिन प्रतिदिन की छोटी-छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना। अगर सड़क पर चल रह हो, तो सड़क पर सजग होकर, होश पूर्वक चलना। अगर भोजन कर रहे हो तो सजगता पूर्वक करना। दिन में जो कुछ भी करो, उसे होश पूर्वक सजगता से करना। कुछ कार्य करो, उस कार्य पूरी तरह से डूब जाना। उसके साथ एक हो जाना। फिर कर्ता और कृत्य अलग-अलग न रहें। फिर मन इधर-उधर ही नहीं भागता रहे। जीवित लाश की भांति कार्य मत करना। जब सड़क पर चलो तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो। कुछ भी बोलों वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए, ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पड़े।
अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो, तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है, तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो।
तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया, जागरूक हो जाओ। तब किसी ने तुम्हारा अपमान किया—और क्रोध की एक छोटी सी तरंग, जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है। तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है। अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो, तो तुम उस उठी हई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे। जब तक कि वह चेतन में न आ जाए, तुम उसे नहीं जान सकोगे। वरना, धीरे-धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे—वही है प्रारब्ध, वहीं है अवचेतन।
और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है। तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है। जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है, उतने ही अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते है। तीसरे चरण को, अंतिम चरण को देखना संभव है। जो कर्म अतीत में संचित हुए थे। अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है। जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है। तो इसका अर्थ है कि वह चेतन के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराईयों में ले जा रहा है। व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा। संबुद्ध होने का अर्थ यही है, कि अब कुछ भी अंधकार में नहीं है। व्यक्ति का अंतस्तल का कोना-कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता।
ओशो
पतंजलि को योग सूत्र—भाग-4
प्रवचन—11
सोपक्रमं निरूपक्रमं च कर्म तत्संयमादपारान्तज्ञानमरि
तो इसे दो प्रकार से जाना जा सकता है। या तो प्रारब्ध को देखकर या फिर कुछ लक्षण और पूर्वाभास है जिन्हें देख कर जाना जा सकता है।
उदाहरण के लिए, जब कोई व्यक्ति मरता है तो मरने के ठीक नौ महीने पहले कुछ न कुछ होता है। साधारणतया हम जागरूक नहीं होते है। और वह घटना बहुत ही सूक्ष्म होती है। मैं नौ महीने कहता हूं—क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसमे थोड़ी भिन्नता होती है। यह निर्भर करता है: समय का जो अंतराल गर्भधारण और जन्म के बीच मौजूद रहता है।
उतना ही समय मृत्यु को जानने का रहेगा। अगर कोई व्यक्ति गर्भ में नौ महीने रहने बाद जन्म लेता है, तो उसे नौ महीने पहले मृत्यु का आभास होगा। अगर कोई दस महीने गर्भ में रहता है तो उसे दस महीने पहले मृत्यु का अहसास होगा, कोई सात महीने पेट में रहता है तो उसे सात महीने पहले उसे मृत्यु का एहसास होगा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि गर्भधारण और जन्म के समय के बीच कितना समय रहा।
मृत्यु के ठीक उतने ही महीने पहले हार में, नाभि चक्र में कुछ होने लगता है। हारा सेंटर को क्लिक होना ही पड़ता है। क्योंकि गर्भ में आने और जन्म के बीच नौ महीने का अंतराल था: जन्म लेने में नौ महीने का समय लगा, ठीक उतना ही समय मृत्यु के लिए लगेगा। जैसे जन्म लेने के पूर्व नौ महीने मां के गर्भ में रहकर तैयार होते हो, ठीक ऐसे ही मृत्यु की तैयारी में भी नौ महीने लगेंगे। फिर वर्तुल पूरा हो जायेगा। तो मृत्यु के नौ महीने पहले नाभि चक्र में कुछ होने लगता है।
जो लोग जागरूक है, सजग है, वे तुरंत जान लेंगे कि नाभि चक्र में कुछ टूट गया है; और अब मृत्यु निकट ही है। इस पूरी प्रक्रिया में लगभग नौ महीने लगते है।
या फिर उदाहरण के लिए, मृत्यु के और भी कुछ अन्य लक्षण तथा पूर्वाभास होते है, कोई आदमी मरने से पहले, अपने मरने के ठीक छह महीने पहले, अपनी नाक की नोक को देखने में धीरे-धीरे असमर्थ हो जाता है। क्योंकि आंखें धीरे-धीरे ऊपर की और मुड़ने लगती है। मृत्यु में आंखे पूरी तरह ऊपर की और मुड़ जाती है। लेकिन मृत्यु के पहल ही लौटने की यात्रा का प्रारंभ हो जाता है। ऐसा होता है: जब एक बच्चा जन्म लेता है, तो बच्चे की दृष्टि थिर होने में करीब छह महीने लगते है। साधारणतया ऐसा ही होता है। लेकिन इसमे कुछ अपवाद भी हो सकते है—बच्चे की दृष्टि ठहरने में छह महीने लगते है। उससे पहले बच्चे की दृष्टि थिर नहीं होती। इसी लिए तो छह महीने का बच्चा अपनी दोनों आंखें एक साथ नाक के करीब ला सकता है। और फिर किनारे पर भी आसानी से ला सकता है। इसका मतलब है बच्चे की आंखे अभी थिर नहीं हुई है। जिस दिन बच्चे की आंखे थिर हो जाती है। फिर वह दिन छह महीने के बाद का हो। या दस महीने के बाद का हो, ठीक उतना ही समय लगेगा फिर उतने ही समय के पूर्व आंखें शिथिल होने लगेंगी। और ऊपर की और मुड़ने लगेंगी। इसीलिए भारत में गांव के लोग कहते है, निश्चित रूप से इस बात की खबर उन्हें योगियों से मिली होगी—कि मृत्यु आने के पूर्व व्यक्ति अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ हो जाता है।
और भी बहुत सी विधियां है, जिनके माध्यम से योगी निरंतर अपनी नाक की नोक पर ध्यान देते है। वह नाक की नोक पर अपने को एकाग्र करते है। जो लोग नाक की नोक पर एकाग्र चित होकर ध्यान करते है, अचानक एक दिन वे पाते है कि वे अपनी ही नाक की नोक को देख पाने में असमर्थ है, वे अपनी नाक की नोक नहीं देख सकते है। इस बात से उन्हें पता चल जाता है कि मृत्यु अब निकट ही है।
योग के शरीर विज्ञान के अनुसार व्यक्ति के शरीर में सात चक्र होत है। पहला चक्र है मूलाधार, और अंतिम चक्र है सहस्त्रार, जो सिर में होता है। इन दोनों के बीच में पाँच चक्र और होते है। जब भी व्यक्ति कि मृत्यु होती है; तो वह किसी एक निश्चित चक्र के द्वारा अपने प्राण त्याग ता है। व्यक्ति ने किस चक्र से शरीर छोड़ा है, वह उसके इस जीवन के विकास को दर्श देता है। साधारणतया तो लोग मूलाधार से ही मरते है। क्योंकि जीवन भर लोग काम-केंद्र के आसपास ही जीते है। वे हमेशा सेक्स के बारे ही सोचते है, उसी की कल्पना करते है, उसी के स्वप्न देखते है, उनका सभी कुछ सेक्स को लेकर ही होता है—जैसे कि उनका पूरा जीवन काम केंद्र के आसपास ही केंद्रित हो गया हो। ऐसे लोग मूलाधार से काम केंद्र से ही प्राण छोड़ते है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति प्रेम का उपलब्ध हो जाता है। और कामवासना के पार चला जाता है। तो वह ह्रदय केंद्र से प्राण को छोड़ता है। और अगर कोई व्यक्ति पूर्णरूप से विकसित हो जाता है, सिद्ध हो जाता है तो वह अपनी ऊर्जा को, अपने प्राणों को सहस्त्रार से छोड़ेगा।
और जिस केंद्र से व्यक्ति की मृत्यु होती है, वह केंद्र खुल जाता है। क्योंकि तब पूरी जीवन ऊर्जा उसी केंद्र से निर्मुक्त होती है.....
जिस केंद्र से व्यक्ति प्राणों को छोड़ता है, व्यक्ति का निर्मुक्ति देने वाला बिंदू स्थल खुल जाता है। उस बिंदु स्थल को देखा जा सकता है। किसी दिन जब पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान योग के शरीर विज्ञान के प्रति सजग हो सकेगा। तो वह भी पोस्टमार्टम का हिस्सा हो जाएगा। कि व्यक्ति कैसे मेरा। अभी तो चिकित्सक केवल यही देखता है कि व्यक्ति की मृत्यु स्वाभाविक हुई है, या उसे जहर दिया गया है। या उसकी हत्या की गयी है, या उसके आत्महत्या की है—यही सारी साधारण सी बातें चिकित्सक देखते है। सबसे आधारभूत और महत्वपूर्ण बात की चिकित्सक चूक जाते है। जो कि उनकी रिपोर्ट में होनी चाहिए—कि व्यक्ति के प्राण किस केंद्र से निकले है: काम केंद्र से निकले है, ह्रदय केंद्र से निकले है, या सहस्त्रार से निकले है। किसी केंद्र से उसकी मृत्यु हुई है।
और इसकी संभावना है, क्योंकि योगियों ने इस पर बहुत काम किया है। और इसे देखा जा सकता है। क्योंकि जिस केंद्र से प्राण-ऊर्जा निर्मुक्त होती है। वही विशेष केंद्र टूट जाता है। जैसे कि कोई अंडा टूटता है और कोई चीज उससे बहार आ जाती है। ऐसे ही जब कोई विशेष केंद्र टूटता है, तो ऊर्जा वहां सक निर्मुक्त होती है।
जब कोई व्यक्ति संयम को उपल्बध हो जाता है। तो मृत्यु के ठीक तीन दिन पहले वह सजग हो जाता है, कि उसे कौन से केंद्र से शरीर छोड़ना है। अधिकतर तो वह सहस्त्रार से ही शरीर को छोड़ता है। मृत्यु के तीन दिन पहले एक तरह की हलन-चलन, एक तरह की गति, ठीक सिरा के शीर्ष भाग पर होने लगती है।
यह संकेत हमे मृत्यु को कैसे ग्रहण करना, इसके लिए तैयार कर सकते है। और अगर हम मृत्यु को उत्सवपूर्ण ढंग से, आनंद से, अहो भाव से नाचते गाते कैसे ग्रहण करना है, यह जान लें—तो फिर हमारा दूसरा जन्म नहीं होता। तब इस संसार की पाठशाला में हमारा पाठ पूरा हो गया। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सीखने को है उसे हमने सीख लिया। अब हम तैयार है किसी महान लक्ष्य महान जीवन और अनंत-अनंत जीवन के लिए। अब ब्रह्मांड में संपूर्ण अस्तित्व में समाहित होने के लिए हम तैयार है। और इसे हमने अर्जित कर लिया है।
इस सूत्र के बारे में एक बात और क्रिया मान कर्म, दिन प्रतिदिन के कर्म, वे तो बहुत ही छोटे-छोटे कर्म होते है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे चेतन कह सकते है। इसके नीचे होता है प्रारब्ध कर्म। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में हम इसे ‘’अवचेतन’’ कह सकते है। उससे भी नीचे होता है, संचित कर्म; आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में इसे हम अचेतन कह सकते है।
साधारणतया तो आदमी अपनी प्रतिदिन की गतिविधियों के बारे में सजग ही नहीं होता, तो फिर प्रारब्ध या संचित कर्म के बारे में कैसे सचेत हो सकता है। यह लगभग असंभव ही है। तो तुम दिन प्रतिदिन की छोटी-छोटी गतिविधियों में सजग होने का प्रयास करना। अगर सड़क पर चल रह हो, तो सड़क पर सजग होकर, होश पूर्वक चलना। अगर भोजन कर रहे हो तो सजगता पूर्वक करना। दिन में जो कुछ भी करो, उसे होश पूर्वक सजगता से करना। कुछ कार्य करो, उस कार्य पूरी तरह से डूब जाना। उसके साथ एक हो जाना। फिर कर्ता और कृत्य अलग-अलग न रहें। फिर मन इधर-उधर ही नहीं भागता रहे। जीवित लाश की भांति कार्य मत करना। जब सड़क पर चलो तो ऐसे मत चलना जैसे कि किसी गहरे सम्मोहन में चल रहे हो। कुछ भी बोलों वह तुम्हारे पूरे होश सजगता से आए, ताकि तुम्हें फिर कभी पीछे पछताना न पड़े।
अगर तुम इस प्रथम चरण को उपलब्ध कर लेते हो, तो फिर दूसरा चरण अपने से सुलभ हो जाता है, तब तुम अवचेतन में उतर सकते हो।
तो फिर जब कोई तुम्हारा अपमान करता है, तो जिस समय तुम्हें क्रोध आया, जागरूक हो जाओ। तब किसी ने तुम्हारा अपमान किया—और क्रोध की एक छोटी सी तरंग, जो कि बहुत ही सूक्ष्म होती है। तुम्हारे अस्तित्व के अवचेतन की गहराई में उतर जाती है। अगर तुम संवेदनशील और जागरूक नहीं हो, तो तुम उस उठी हई सूक्ष्म तरंग को पहचान न सकोगे। जब तक कि वह चेतन में न आ जाए, तुम उसे नहीं जान सकोगे। वरना, धीरे-धीरे तुम सूक्ष्म बातों को, भावनाओं को सूक्ष्म तरंगों के प्रति सचेत होने लगोगे—वही है प्रारब्ध, वहीं है अवचेतन।
और जब अवचेतन के प्रति सजगता आती है। तो तीसरा चरण भी उपलब्ध हो जाता है। जितना अधिक व्यक्ति का विकास होता है, उतने ही अधिक विकास की संभावना के द्वार खुलते चले जाते है। तीसरे चरण को, अंतिम चरण को देखना संभव है। जो कर्म अतीत में संचित हुए थे। अब उनके प्रति सजग हो पाना संभव है। जब व्यक्ति अचेतन में उतरता है। तो इसका अर्थ है कि वह चेतन के प्रकाश को अपने अस्तित्व की गहराईयों में ले जा रहा है। व्यक्ति संबोधि को उपलब्ध हो जाएगा। संबुद्ध होने का अर्थ यही है, कि अब कुछ भी अंधकार में नहीं है। व्यक्ति का अंतस्तल का कोना-कोना प्रकाशित हो गया। तब वह जीता भी है, कार्य भी करता है, लेकिन फिर भी किसी तरह के कर्म का संचय नहीं होता।
ओशो
पतंजलि को योग सूत्र—भाग-4
प्रवचन—11
BELOVED OSHO,
BELOVED OSHO,
WHEN YOU SAID THAT YOU ARE NOT CELIBATE, I WAS SHOCKED. I GUESS I THOUGHT YOU HAD TRANSCENDED SEX. WHY DID THIS DISTURB ME?
I was also shocked, because I was thinking you all would be shocked and only one camel got the shock. But his question is meaningful.
You were shocked, Mr. Camel, because you had certain expectations of me. It is strange -- I don't expect anything from you, and you go on expecting how I should be, what I should do, what I should not. I am giving you total freedom, and you want me to be a prisoner of your expectations?
You were shocked because of the long, ancient tradition of a very surprising phenomenon: masters have been imposing their ideas on their disciples; in return the disciples were imposing their ideas on the masters. And it was not that the master was really a master -- because he followed his own followers, he fulfilled their expectations.
If he does not fulfill their expectations all his respectability is gone, the followers will disperse. In fact, the same people who had respected him like a god will treat him like a dog. He will be condemned and cursed. And your old so-called masters were not courageous enough to remain free. What could they give you? They were imprisoned by you.
You both were doing the same thing. The follower was fulfilling the master's ideas; otherwise he would be condemned -- that is clear. The other thing is a little more subtle: the followers had certain criteria, expectations, and their so-called masters -- they don't deserve even to be called "so-called" masters -- were fulfilling their expectations for centuries; it was a mutual slavery. That's why you were shocked. It has nothing to do with my celibacy or my love. It has something to do with your rotten mind.
Who are you to expect anything from me?
We have no contract, no bargain.
You are here out of your own freedom, I am here out of my own freedom. Freedom is the only bridge between us. I don't expect anything from you, still, what stupidity... you expect anything from me? I should follow your idea of enlightenment? Are you enlightened? An enlightened man should follow the idea of the unenlightened, how he has to behave? Do you see the absurdity of it? But the follower's ego is fulfilled: his master is celibate, his master is this, that....
Every religion has created different kinds of expectations. The Jaina master has to remain naked, only then will Jainas recognize him as enlightened. I don't see any relationship between nakedness and enlightenment. Do you see any relationship?
The Buddhists will not allow Gautam Buddha to touch a woman, to hold her hand and have a little dance with her, because the enlightened man does not touch a woman. In fact, he is expected not even to see a woman. The buddhist master walks looking only four feet ahead of him, so that his eyes are glued to the earth. At the most he may be able to see the feet of a woman, but not the face.
The Hindus have their expectation. The Hindu master is not supposed even to sit on the place where a woman has been sitting before. Even that part of the earth has become dangerous, because the woman has left her vibrations there, and those vibrations can destroy his celibacy.
All these people were fulfilling the desires of their followers. I don't care a bit what you expect; that is your problem. I am going to shatter all your expectations of me. I am totally a free man. I don't care even about whether you think me enlightened or not. I am, why should I care?
When I became enlightened I also had the idea, which has been there for centuries, that after enlightenment one transcends sex. So for a few days I waited for the transcendence. It was not coming; on the contrary, the grass was greener. The women were more beautiful than ever before, because my eyes were clear.
It has been traditionally understood that if an enlightened man makes love to a woman, his enlightenment is finished. So I was a little hesitant. But then I thought that if enlightenment is such a weak thing, it is not worth having. How can making love to a woman destroy enlightenment? And if it does destroy it, that means the love between a man and a woman is a far bigger, stronger and more vital force than your bogus so-called enlightenment.
And I am always attracted towards the unknown, untried, unexplored. I said to myself, "For five thousand years the enlightened people have perpetuated the idea. I have to experiment and to see." And I have loved many women -- my enlightenment has not changed. I have created a historical event! In the future, no enlightened man should be expected to be celibate. I have risked much. But in a way, after enlightenment something is transcended -- it is not sex, but sexuality. After enlightenment I have not been able to look into the eyes of any woman with sexuality.
It is nothing on my part, I cannot take the credit for it. The whole experience of enlightenment has changed many things. Even making love to a woman is now totally different, absolutely different, has no connection with the love when I was unenlightened. It was not love, it was just a biological, chemical, hormonal attraction. It was just a kind of slavery; it was a need, and you were possessed by the need. That need has disappeared. Now making love to a woman is just pure fun -- and I have never heard that after enlightenment fun is transcended.
In fact, only after enlightenment can you love. Before that you were just animals, camels. Have you seen two animals making love? Watch carefully -- you will be surprised. They both look so sad, so depressed. A clear perception is there that they are feeling the bondage of biology, they are feeling the slavery of biology. Animals don't enjoy making love. They have to do it; it is something that they cannot avoid -- they are not conscious enough. When the season comes, they have to mate.
Man, even though unenlightened, has changed one thing: there is no season for mating for him, the whole year he is free to love. A certain freedom has come to humanity which is not available to the animals.
It is very strange to see animals: for one month or two months they become attracted to each other and then for ten months they are celibate; for ten months they remain enlightened! Just for two months those poor guys, under the impact of biological forces, have to make love. It is almost as if somebody is holding a gun behind you and telling you to make love. The biological gun is not visible, but it is very powerful. How can you enjoy? How can you be blissful?
No animal is happy making love. Only man has risen a little higher, and that height has made him capable of being freed from one thing: the biological period of mating. But still, it is biology that goes on forcing him to make love all the year round.
In the East, people make love only in the night. In the West, they have a little more intelligence, they make love early in the morning -- of course they also make love in the night. The western mind has grown a little more towards freedom. Why make love in darkness? The reason was always because making love was a kind of enforcement, and the faces of the lovers looked distorted. It was better not to see the faces of each other. Not to spoil the game, the darkness was good. Under the blanket of darkness they could manage to believe that everything was going right.
It needed a little more intelligence to ask why you should remain bounded by the night. Animals are bounded by a certain period in the year. Man's intelligence freed him for the whole year.
In the East they are bound to make love in the night, silently -- nobody should know about it. In the West, intelligence has grown a little better. Why in the night only? In fact, a man who is tired after the whole day's work, worries, tensions, anxieties -- what kind of love is he going to make? His love is more or less like a sleeping pill. It gives him good sleep, it gives him relaxation. The whole day he was so burdened that his heart was not functioning normally. Making love, he loses energy; the heart starts cooling down, calming down.
Now it is a medically-established fact that people who make love never have heart attacks. The longer in their life they go on making love, the more powerful, relaxed their heart remains. Have you heard, in the millions of years of the past, that anybody has died while he was making love?
People have died in every kind of situation. People have died eating, people have died sleeping, people have died working, people have died walking, people have died talking, but strange -- people have never died making love. It establishes something: that love is a relaxation. It is good for sleep and good for your heart, but after a tiring day it cannot be much of a joy. Just a last thing to do somehow, quickly, and then turn your back and go to sleep -- a kind of duty.
Morning, perhaps, is the best time to make love. Energies are fresh, you are rested, there is no anxiety burdening you, it is the beginning of the day. And to make love in the beginning should be considered something auspicious, holy; you cannot begin the day religiously without making love. But still you are in a biological bondage.
After enlightenment, love is no longer a need. In that way there is a transcendence. Love becomes just like any game: playing cards, playing tennis.... I have loved many women, and I am the first enlightened person in the world who is being absolutely truthful to you. You could have never found out whether I am celibate or not. I thought, although I have not said I am celibate, you would consider me a celibate. I have not participated in this lying positively, but negatively I am responsible. And now I am not going to hide anything from you.
Once Gautam Buddha's most intimate disciple, Ananda, asked him, "Bhagwan, can you tell me the essential quality of your philosophy in a very short statement?"
Buddha said, "My philosophy is like a fist; it is a secret. I have not told you everything. The most precious is hidden."
If you ask me, I will say my philosophy is both hands open before you. I am not going to keep anything private, anything secret. For the first time, an enlightened man is trusting the people who love him. But I would not like to be loved by you according to your conceptions, your conditions. I don't need that kind of love, it is poisonous. I would like you to learn to be open to me the way I am open to you.
I am not a fist, but an open hand -- and not only one hand, but both hands. And if you can love me still, then that love will be meaningful.
It is a strange phenomenon that you have never considered. Why do you want the enlightened man, your master, to be naked, to be celibate, to be eating one time only in a day, sleeping on a hard bed, not allowing women any closeness, eating only certain things?
If you see Gautam Buddha drinking even a Coca Cola, you will not anymore consider him enlightened -- he has not even transcended Coca Cola. I don't drink Coca Cola, but I love it. I cannot drink it because of my physicians; Devaraj is after me, Shunyo is after me. I cannot drink Coca Cola, I had to transcend it. But it is not enlightenment that helped me to transcend it, it is diabetes!
Your old religious leaders were captives of your expectations. I am nobody's prisoner. And I feel very light, because I am not burdened. I can say to you everything; there is nothing being withheld. All your masters were withholding things from you. I do not consider them authentic, open, sincere. Even to their own disciples they were not true.
If enlightenment does not make you transcend hunger, thirst, urination, then why should it make you transcend your sex? Sex is part of your whole being, it is not something separate. You eat, you drink, you exercise. Your body has nothing to do with your enlightenment; the body will go on functioning in the same way. It will create blood, it will create semen. How can enlightenment make you transcend sex? You will have to stop eating, you will have to stop drinking. In fact, you will have to stop breathing; only then will there be a transcendence -- in your death.
Sex is a natural phenomenon. Yes, it takes fourteen years to make your sexual energy mature. And if you enjoy it blissfully, without any condemnation, without any Christ standing between you and your beloved....
I think this is very disgusting of these enlightened people -- always poking their nose into your affairs, always watching you from the keyhole, what you are doing. And naturally, because they go on watching you from the keyhole, you also go on watching them even more carefully, because you may be following a wrong man. You have to be certain that his is a twenty-four carat enlightenment.
It fulfills your ego that you are a follower of an enlightened master. That's why, Mr. Camel, you got shocked. I am sorry for you. You are a fellow traveler of a simple, natural, authentic, open person. You are not my followers, because to make you my followers I would have to follow you! Then I would have to keep continuously alert that something is not found out by you.
Celibacy is unnatural -- at least, up to the age of forty-two. Between fourteen years and forty-two, celibacy is absolutely unnatural, and if you force yourself to remain a celibate, you will become just a pervert. Your sexual energy will find ways. It is very simple....
How long can you keep your bladder full? Sooner or later either you have to rush towards the toilet or the bladder will drop any idea of your support and will start functioning on its own. Semen is a similar phenomenon. It is manufactured in you, by your food, by your breathing, by your exercise, by your very living. How long can you hold it? And holding it is such a painful job! That's why you see your saints so sad.
It is natural, if your bladder is full and you are afraid that, "Now I am coming near the boundary when there will be no control...." Semen is a natural by-product of your life. Yes, after enlightenment there is a tremendous change. To me, that is transcendence. That does not mean you stop making love. That simply means it is no longer a need, you are no longer a slave to it. Just, in moments when you want to play with the energy that you have, you can make love. And if the other person is also of the same quality, or even is moving in the same direction, your love will become meditation.
All other religions have forced you to become perverts. In your monasteries there is masturbation but no meditation. And I want to say the thing as it is: Transcendence simply means slavery is transcended. Now I am not making any love to anybody, for the simple reason that I am no longer healthy, my body is fragile. It is not ready to play tennis! It is nothing spiritual -- if I get my health back again, which I have wasted for you....
Just think of me for thirty years continuously wandering in India, and in return getting stones, shoes and knives thrown at me. And you don't know Indian railways, waiting rooms, you don't know the way Indians live. It is unhygienic, ugly, but they are accustomed to it. I had suffered for those thirty years as much -- perhaps more -- than Jesus suffered on the cross. To be on the cross is a question only of a few hours. To be assassinated is even quicker. But to be a wandering master in India is no joke.
I was the healthiest person you could find. Before I started these journeys, knowing perfectly well my health was going to be destroyed.... I had to eat all kinds of food, and in India the food pattern changes just within a few miles. I had to live with dirt, uncleanliness, and I had to be ready for all these rewards -- stones, shoes, knives being thrown at me. And India is a vast country, almost a continent -- I was always on the train.
There are places which take forty-eight hours to reach by the train. And aeroplanes reach only to a few capital cities. If you want to reach the people you have to go in a train. And if you want to enter the very central parts of the country, you have to use even worse trains. Of course, I went on and on destroying my health, knowing perfectly well what I was doing.
But what I had found I wanted at any cost -- at the cost of my life -- to share with a few people, to make them afire. My body may die in the effort, but I have made a few other bodies lighted with the same flame, and they will go on spreading the fire around the earth.
People used to say to me, "Your body is like a marble statue." It was. My weight was one hundred and ninety pounds, and it was not fatness -- I have never been fat. It was immensely solid, like a rock. I was never sick, I was unaware what it means to be sick. But as my body went on deteriorating, I became aware what headache is, what migraine is, what stomach upset is, what finally became my diabetes and my asthma. Now I am only one hundred and thirty-one pounds, down from one hundred and ninety.
Now I don't have any energy for any game. Whatsoever energy I have got, I want it to be devoted to you and to my people around the world. I want to say so many things to you, and life is so short -- one cannot be certain even of tomorrow. But I am determined that death will have to wait till I have fulfilled my task, because it is no longer my task; I have disappeared long ago. Now it is existence meeting you, existence trying to reach you. I am only a vehicle.
But one fact I have proved absolutely and forever -- that making love does not destroy enlightenment. On the contrary, it makes it richer, more beautiful -- new flowers in it, new colors in it, new fragrances in it, new laughter, new smiles. The whole idea that the enlightened man cannot make love is absolutely wrong.
But you got shocked because of your expectation. You are unenlightened, you don't know enlightenment. First, to become enlightened is so arduous -- the camel changing into the lion, the lion changing into the child. And when you have passed this whole long track, you are not courageous enough to do something that may spoil the whole pilgrimage.
But, forgive me, I am a different type of man. When I became enlightened, I wanted to test it in every fire: if it passes through all fire tests, then only is it real. Otherwise, I was hallucinating, I was just imagining that I had become enlightened. And I can say to you now that I have done everything that no enlightened person is expected to do -- even things in which I was not interested at all, but just to test that I was not hallucinating....
After my enlightenment I smoked my first cigarette. I had never had any interest in doing such a silly thing. When you can breathe fresh air and exhale, why should you pollute it with smoke, with dangerous nicotine? But I did smoke, for almost one month. It was difficult, I was coughing; it was a hard thing to do.
I used to live with one of my friends. He was puzzled; he said, "You are mad! You were never interested in cigarettes, and now you are smoking continually."
Coughing, tears coming to my eyes, I said, "I have to see whether the cigarette is stronger than the enlightenment. I have to give it a chance."
I have done everything after enlightenment which has been thought would destroy enlightenment. And I tell you now that nothing can destroy enlightenment, because enlightenment is not just an experience, it is a transformation. It is not that it happens once and you see the light, and then the whole of your life you remember with joy that vision, that opening of the window to existence. It is not like that. Enlightenment transforms you. You are totally a new man.
But of course, if I start smoking here while I am speaking to you, many camels are going to be shocked. But I am an unreliable man, I live moment to moment. If it happens to me, tomorrow you will see a table by my side with the best cigarettes in the world -- what is it? Five-Five-Five? -- and a bottle of champagne, and my Gudia, one of the most beautiful girls I have come across, pouring champagne into the glass for me. I can do that, it is just a question of the idea arising in me. Then nobody can prevent me.
I have found freedom in dropping being respectable. Respectability is a social strategy to keep you imprisoned. Around the world there are so many rumors.... I don't care a bit. Sometimes I have been told by my friends and lovers, "Why don't you contradict them? These are absolutely absurd, they destroy your respectability with people."
I said, "I don't want to be respected by anyone, because if he respects me he will expect me to remain respectable" -- and that I cannot promise. It is better to be notorious, because it gives you immense freedom. I am a notorious man. Jesus, Mohammed, Mahavira, Buddha, Lao Tzu -- none of them was courageous enough to drop the desire for respectability.
People go on condemning me. The moment I come to know that they are condemning me for a certain thing, then I go on doing the same thing on a bigger scale. I had only one Rolls Royce. They started condemning me, so I told my secretary, "Arrange for two."
In India it was very difficult, because the Rolls Royce after 1965 became a banned item, it could not enter the country. I was the only man who managed to have two Rolls Royces enter the country.
When I came to America, I said to my secretary, "Now there is no limit." I had seven, and they were condemning me -- a spiritual man, an enlightened person, having seven Rolls Royces when people are dying of starvation? Now I have ninety. Now they don't condemn me. They know that if they continue condemning me, I will go on having more and more Rolls Royces until they are satisfied.
I have my own individuality. I don't need anybody's respect, because I am so full there is no space for anything else. And it has been a tremendous experience to be so notorious and yet to be loved by millions of people. That gives a great hope, that even an ordinary man can be loved; you need not to be extraordinary to be loved.
How much love I have received! I don't think anybody before me has received so much love. And certainly I have received more hostility, anger, condemnation than anybody else. I am richest man in the world -- I receive everything!
Love I have received -- nobody can come even close to me. Hatred I have received -- nobody can come close to me. And just for a single, simple thing: that I dropped the idea of respectability.
If you ask me, my enlightenment made me transcend only one thing, and that is the opinion of others. That is their business. They cannot disturb my sleep by their opinions. And I don't have to be concerned about what they are thinking. I am living absolutely alone, but utterly fulfilled.
You ask me why you were shocked -- because you are still a camel. The lions were not shocked. They must have roared! They must have found a synchronicity between me and themselves. They must have been rejoiced and danced: "Our master is not celibate, so we need not be unnecessarily depressed that we are not celibate."
Those who have reached the stage of being a child, they must have enjoyed knowing that at least in this whole world there is one man who can say everything truly without taking an oath that, "Whatever I say, I will say only the truth."
I am not one who has taken an oath to speak the truth. I simply want you to understand what a beauty it is to be truthful, authentic, just the way you are. I have put my heart in front of you. Now it is up to you whether to be shocked, or to rejoice. It will depend on your mind. But you cannot influence me; nobody in my whole life has influenced me. Anybody who has tried has found that he was forcing me to do just the opposite. Slowly, slowly people dropped the idea.
In India, Jainas were a great majority of my lovers, but the day I spoke on sex that majority -- camels -- simply disappeared. Yes, a few remained, a few of them are even here. They proved to be lions; they could see and connect themselves with my truth.
There were many Gandhians -- until the day I spoke against Gandhi and said that he was the most cunning politician, not only of this century but of the whole history, that all his religion was mumbo-jumbo; it was a curtain to dominate the whole country. And although he was saying that he was in search of truth, he was continually lying, just like a politician.
He was saying that when the country becomes free, all the armies will be dissolved; there will be no military, there will be no weapons, because a nonviolent country has no need of such things. One American author, Louis Fisher, asked him, "If you dissolve all the armies and the military, and you don't have any weapons, and somebody attacks you, what will you do?"
He said, "We will welcome them. We will say to them, `There is no need for any bloodshed. If you want to live here in this country, come, be our guests. You are welcome.'"
But this was before freedom came to India. When India became independent, everything changed. The army was not dissolved, but increased. The military was not dissolved -- now India has one of the biggest military forces. Weapons were not dissolved. India has atomic plants and is now making every effort to have nuclear weapons -- at the cost of half of the country dying, without food! India is exporting wheat to other countries, because the politicians need money to make a nuclear plant. And these are all Gandhians.
When Gandhi was alive, after independence, Pakistan attacked one part of Kashmir. India had to fight with the invaders, and you cannot believe that Gandhi blessed the first fighter planes to go and destroy Pakistanis -- who were Indians just a few days before! Where had his nonviolence gone? He was blessing fighting planes, sending them to destroy the same people for whom he had been fighting for freedom his whole life.
When I said that his nonviolence was a political strategy.... It was clear that to fight against the British government with weapons was impossible. From where are you going to get all those weapons against the empire? -- perhaps the biggest empire that has existed ever. It was said that the sun never sets on the British empire. It was true: if it sets in one country, it rises in another, but as far as the whole British empire is concerned, it never sets. This was the biggest empire of man's history. Against this empire how can you fight?
And not only can you not fight, you don't have the means to fight. You don't have even men to fight -- Indians are so lousy, so cowardly, so superstitious, and so faithful to the idea that nothing happens without God's will. "It is God's will that Britain is ruling our country. To fight against Britain and its empire is to fight against God's will." That was the Indian conditioning.
Naturally Gandhi invented a new strategy -- nonviolence, which was always respected by the Indians as the most significant religious quality. But his nonviolence was not that of a religious man.
I am nonviolent. You see the guards around me with weapons... and now they are being criticized. Remember, that criticism will create more and more guards and more and more weapons. But I know that those weapons are just toys. Against nuclear powers, you are carrying a small gun. I know it, I know it makes no sense, but the gun is not the point! And I have not arranged those guards either. I don't know even who my guards are, what their names are.
It is you, the people who love me -- a person who never fulfills any of your expectations -- you are worried about my life. It is your love; otherwise those guards are just of no use. Just a bomb will finish... it can become another Nagasaki, Hiroshima. But I am nonviolent.
People have been asking me, if I am nonviolent then why are these weapons here? Those weapons are your love, and I respect your love, knowingly perfectly well those weapons are toys. But I know the person who is carrying the weapon is carrying it out of love. There is no other reason. I cannot tell him to throw the weapon, because that would be an insult to his love. I cannot insult love, I have tremendous respect for love.
You have to come out of your shock; otherwise the bridge between me and you will be broken.
Remember perfectly, I am not going to change in any way. If change has to come, it has to come to you and your mind, because it is your disturbance, your shock. It is your problem -- take the responsibility for it. See the simple fact that you were carrying some expectations -- that means some chains for me. It is time: throw those chains.
I am an absolutely free man. There is no bondage for me. I can do anything, you just have to suggest it to me!
WHEN YOU SAID THAT YOU ARE NOT CELIBATE, I WAS SHOCKED. I GUESS I THOUGHT YOU HAD TRANSCENDED SEX. WHY DID THIS DISTURB ME?
I was also shocked, because I was thinking you all would be shocked and only one camel got the shock. But his question is meaningful.
You were shocked, Mr. Camel, because you had certain expectations of me. It is strange -- I don't expect anything from you, and you go on expecting how I should be, what I should do, what I should not. I am giving you total freedom, and you want me to be a prisoner of your expectations?
You were shocked because of the long, ancient tradition of a very surprising phenomenon: masters have been imposing their ideas on their disciples; in return the disciples were imposing their ideas on the masters. And it was not that the master was really a master -- because he followed his own followers, he fulfilled their expectations.
If he does not fulfill their expectations all his respectability is gone, the followers will disperse. In fact, the same people who had respected him like a god will treat him like a dog. He will be condemned and cursed. And your old so-called masters were not courageous enough to remain free. What could they give you? They were imprisoned by you.
You both were doing the same thing. The follower was fulfilling the master's ideas; otherwise he would be condemned -- that is clear. The other thing is a little more subtle: the followers had certain criteria, expectations, and their so-called masters -- they don't deserve even to be called "so-called" masters -- were fulfilling their expectations for centuries; it was a mutual slavery. That's why you were shocked. It has nothing to do with my celibacy or my love. It has something to do with your rotten mind.
Who are you to expect anything from me?
We have no contract, no bargain.
You are here out of your own freedom, I am here out of my own freedom. Freedom is the only bridge between us. I don't expect anything from you, still, what stupidity... you expect anything from me? I should follow your idea of enlightenment? Are you enlightened? An enlightened man should follow the idea of the unenlightened, how he has to behave? Do you see the absurdity of it? But the follower's ego is fulfilled: his master is celibate, his master is this, that....
Every religion has created different kinds of expectations. The Jaina master has to remain naked, only then will Jainas recognize him as enlightened. I don't see any relationship between nakedness and enlightenment. Do you see any relationship?
The Buddhists will not allow Gautam Buddha to touch a woman, to hold her hand and have a little dance with her, because the enlightened man does not touch a woman. In fact, he is expected not even to see a woman. The buddhist master walks looking only four feet ahead of him, so that his eyes are glued to the earth. At the most he may be able to see the feet of a woman, but not the face.
The Hindus have their expectation. The Hindu master is not supposed even to sit on the place where a woman has been sitting before. Even that part of the earth has become dangerous, because the woman has left her vibrations there, and those vibrations can destroy his celibacy.
All these people were fulfilling the desires of their followers. I don't care a bit what you expect; that is your problem. I am going to shatter all your expectations of me. I am totally a free man. I don't care even about whether you think me enlightened or not. I am, why should I care?
When I became enlightened I also had the idea, which has been there for centuries, that after enlightenment one transcends sex. So for a few days I waited for the transcendence. It was not coming; on the contrary, the grass was greener. The women were more beautiful than ever before, because my eyes were clear.
It has been traditionally understood that if an enlightened man makes love to a woman, his enlightenment is finished. So I was a little hesitant. But then I thought that if enlightenment is such a weak thing, it is not worth having. How can making love to a woman destroy enlightenment? And if it does destroy it, that means the love between a man and a woman is a far bigger, stronger and more vital force than your bogus so-called enlightenment.
And I am always attracted towards the unknown, untried, unexplored. I said to myself, "For five thousand years the enlightened people have perpetuated the idea. I have to experiment and to see." And I have loved many women -- my enlightenment has not changed. I have created a historical event! In the future, no enlightened man should be expected to be celibate. I have risked much. But in a way, after enlightenment something is transcended -- it is not sex, but sexuality. After enlightenment I have not been able to look into the eyes of any woman with sexuality.
It is nothing on my part, I cannot take the credit for it. The whole experience of enlightenment has changed many things. Even making love to a woman is now totally different, absolutely different, has no connection with the love when I was unenlightened. It was not love, it was just a biological, chemical, hormonal attraction. It was just a kind of slavery; it was a need, and you were possessed by the need. That need has disappeared. Now making love to a woman is just pure fun -- and I have never heard that after enlightenment fun is transcended.
In fact, only after enlightenment can you love. Before that you were just animals, camels. Have you seen two animals making love? Watch carefully -- you will be surprised. They both look so sad, so depressed. A clear perception is there that they are feeling the bondage of biology, they are feeling the slavery of biology. Animals don't enjoy making love. They have to do it; it is something that they cannot avoid -- they are not conscious enough. When the season comes, they have to mate.
Man, even though unenlightened, has changed one thing: there is no season for mating for him, the whole year he is free to love. A certain freedom has come to humanity which is not available to the animals.
It is very strange to see animals: for one month or two months they become attracted to each other and then for ten months they are celibate; for ten months they remain enlightened! Just for two months those poor guys, under the impact of biological forces, have to make love. It is almost as if somebody is holding a gun behind you and telling you to make love. The biological gun is not visible, but it is very powerful. How can you enjoy? How can you be blissful?
No animal is happy making love. Only man has risen a little higher, and that height has made him capable of being freed from one thing: the biological period of mating. But still, it is biology that goes on forcing him to make love all the year round.
In the East, people make love only in the night. In the West, they have a little more intelligence, they make love early in the morning -- of course they also make love in the night. The western mind has grown a little more towards freedom. Why make love in darkness? The reason was always because making love was a kind of enforcement, and the faces of the lovers looked distorted. It was better not to see the faces of each other. Not to spoil the game, the darkness was good. Under the blanket of darkness they could manage to believe that everything was going right.
It needed a little more intelligence to ask why you should remain bounded by the night. Animals are bounded by a certain period in the year. Man's intelligence freed him for the whole year.
In the East they are bound to make love in the night, silently -- nobody should know about it. In the West, intelligence has grown a little better. Why in the night only? In fact, a man who is tired after the whole day's work, worries, tensions, anxieties -- what kind of love is he going to make? His love is more or less like a sleeping pill. It gives him good sleep, it gives him relaxation. The whole day he was so burdened that his heart was not functioning normally. Making love, he loses energy; the heart starts cooling down, calming down.
Now it is a medically-established fact that people who make love never have heart attacks. The longer in their life they go on making love, the more powerful, relaxed their heart remains. Have you heard, in the millions of years of the past, that anybody has died while he was making love?
People have died in every kind of situation. People have died eating, people have died sleeping, people have died working, people have died walking, people have died talking, but strange -- people have never died making love. It establishes something: that love is a relaxation. It is good for sleep and good for your heart, but after a tiring day it cannot be much of a joy. Just a last thing to do somehow, quickly, and then turn your back and go to sleep -- a kind of duty.
Morning, perhaps, is the best time to make love. Energies are fresh, you are rested, there is no anxiety burdening you, it is the beginning of the day. And to make love in the beginning should be considered something auspicious, holy; you cannot begin the day religiously without making love. But still you are in a biological bondage.
After enlightenment, love is no longer a need. In that way there is a transcendence. Love becomes just like any game: playing cards, playing tennis.... I have loved many women, and I am the first enlightened person in the world who is being absolutely truthful to you. You could have never found out whether I am celibate or not. I thought, although I have not said I am celibate, you would consider me a celibate. I have not participated in this lying positively, but negatively I am responsible. And now I am not going to hide anything from you.
Once Gautam Buddha's most intimate disciple, Ananda, asked him, "Bhagwan, can you tell me the essential quality of your philosophy in a very short statement?"
Buddha said, "My philosophy is like a fist; it is a secret. I have not told you everything. The most precious is hidden."
If you ask me, I will say my philosophy is both hands open before you. I am not going to keep anything private, anything secret. For the first time, an enlightened man is trusting the people who love him. But I would not like to be loved by you according to your conceptions, your conditions. I don't need that kind of love, it is poisonous. I would like you to learn to be open to me the way I am open to you.
I am not a fist, but an open hand -- and not only one hand, but both hands. And if you can love me still, then that love will be meaningful.
It is a strange phenomenon that you have never considered. Why do you want the enlightened man, your master, to be naked, to be celibate, to be eating one time only in a day, sleeping on a hard bed, not allowing women any closeness, eating only certain things?
If you see Gautam Buddha drinking even a Coca Cola, you will not anymore consider him enlightened -- he has not even transcended Coca Cola. I don't drink Coca Cola, but I love it. I cannot drink it because of my physicians; Devaraj is after me, Shunyo is after me. I cannot drink Coca Cola, I had to transcend it. But it is not enlightenment that helped me to transcend it, it is diabetes!
Your old religious leaders were captives of your expectations. I am nobody's prisoner. And I feel very light, because I am not burdened. I can say to you everything; there is nothing being withheld. All your masters were withholding things from you. I do not consider them authentic, open, sincere. Even to their own disciples they were not true.
If enlightenment does not make you transcend hunger, thirst, urination, then why should it make you transcend your sex? Sex is part of your whole being, it is not something separate. You eat, you drink, you exercise. Your body has nothing to do with your enlightenment; the body will go on functioning in the same way. It will create blood, it will create semen. How can enlightenment make you transcend sex? You will have to stop eating, you will have to stop drinking. In fact, you will have to stop breathing; only then will there be a transcendence -- in your death.
Sex is a natural phenomenon. Yes, it takes fourteen years to make your sexual energy mature. And if you enjoy it blissfully, without any condemnation, without any Christ standing between you and your beloved....
I think this is very disgusting of these enlightened people -- always poking their nose into your affairs, always watching you from the keyhole, what you are doing. And naturally, because they go on watching you from the keyhole, you also go on watching them even more carefully, because you may be following a wrong man. You have to be certain that his is a twenty-four carat enlightenment.
It fulfills your ego that you are a follower of an enlightened master. That's why, Mr. Camel, you got shocked. I am sorry for you. You are a fellow traveler of a simple, natural, authentic, open person. You are not my followers, because to make you my followers I would have to follow you! Then I would have to keep continuously alert that something is not found out by you.
Celibacy is unnatural -- at least, up to the age of forty-two. Between fourteen years and forty-two, celibacy is absolutely unnatural, and if you force yourself to remain a celibate, you will become just a pervert. Your sexual energy will find ways. It is very simple....
How long can you keep your bladder full? Sooner or later either you have to rush towards the toilet or the bladder will drop any idea of your support and will start functioning on its own. Semen is a similar phenomenon. It is manufactured in you, by your food, by your breathing, by your exercise, by your very living. How long can you hold it? And holding it is such a painful job! That's why you see your saints so sad.
It is natural, if your bladder is full and you are afraid that, "Now I am coming near the boundary when there will be no control...." Semen is a natural by-product of your life. Yes, after enlightenment there is a tremendous change. To me, that is transcendence. That does not mean you stop making love. That simply means it is no longer a need, you are no longer a slave to it. Just, in moments when you want to play with the energy that you have, you can make love. And if the other person is also of the same quality, or even is moving in the same direction, your love will become meditation.
All other religions have forced you to become perverts. In your monasteries there is masturbation but no meditation. And I want to say the thing as it is: Transcendence simply means slavery is transcended. Now I am not making any love to anybody, for the simple reason that I am no longer healthy, my body is fragile. It is not ready to play tennis! It is nothing spiritual -- if I get my health back again, which I have wasted for you....
Just think of me for thirty years continuously wandering in India, and in return getting stones, shoes and knives thrown at me. And you don't know Indian railways, waiting rooms, you don't know the way Indians live. It is unhygienic, ugly, but they are accustomed to it. I had suffered for those thirty years as much -- perhaps more -- than Jesus suffered on the cross. To be on the cross is a question only of a few hours. To be assassinated is even quicker. But to be a wandering master in India is no joke.
I was the healthiest person you could find. Before I started these journeys, knowing perfectly well my health was going to be destroyed.... I had to eat all kinds of food, and in India the food pattern changes just within a few miles. I had to live with dirt, uncleanliness, and I had to be ready for all these rewards -- stones, shoes, knives being thrown at me. And India is a vast country, almost a continent -- I was always on the train.
There are places which take forty-eight hours to reach by the train. And aeroplanes reach only to a few capital cities. If you want to reach the people you have to go in a train. And if you want to enter the very central parts of the country, you have to use even worse trains. Of course, I went on and on destroying my health, knowing perfectly well what I was doing.
But what I had found I wanted at any cost -- at the cost of my life -- to share with a few people, to make them afire. My body may die in the effort, but I have made a few other bodies lighted with the same flame, and they will go on spreading the fire around the earth.
People used to say to me, "Your body is like a marble statue." It was. My weight was one hundred and ninety pounds, and it was not fatness -- I have never been fat. It was immensely solid, like a rock. I was never sick, I was unaware what it means to be sick. But as my body went on deteriorating, I became aware what headache is, what migraine is, what stomach upset is, what finally became my diabetes and my asthma. Now I am only one hundred and thirty-one pounds, down from one hundred and ninety.
Now I don't have any energy for any game. Whatsoever energy I have got, I want it to be devoted to you and to my people around the world. I want to say so many things to you, and life is so short -- one cannot be certain even of tomorrow. But I am determined that death will have to wait till I have fulfilled my task, because it is no longer my task; I have disappeared long ago. Now it is existence meeting you, existence trying to reach you. I am only a vehicle.
But one fact I have proved absolutely and forever -- that making love does not destroy enlightenment. On the contrary, it makes it richer, more beautiful -- new flowers in it, new colors in it, new fragrances in it, new laughter, new smiles. The whole idea that the enlightened man cannot make love is absolutely wrong.
But you got shocked because of your expectation. You are unenlightened, you don't know enlightenment. First, to become enlightened is so arduous -- the camel changing into the lion, the lion changing into the child. And when you have passed this whole long track, you are not courageous enough to do something that may spoil the whole pilgrimage.
But, forgive me, I am a different type of man. When I became enlightened, I wanted to test it in every fire: if it passes through all fire tests, then only is it real. Otherwise, I was hallucinating, I was just imagining that I had become enlightened. And I can say to you now that I have done everything that no enlightened person is expected to do -- even things in which I was not interested at all, but just to test that I was not hallucinating....
After my enlightenment I smoked my first cigarette. I had never had any interest in doing such a silly thing. When you can breathe fresh air and exhale, why should you pollute it with smoke, with dangerous nicotine? But I did smoke, for almost one month. It was difficult, I was coughing; it was a hard thing to do.
I used to live with one of my friends. He was puzzled; he said, "You are mad! You were never interested in cigarettes, and now you are smoking continually."
Coughing, tears coming to my eyes, I said, "I have to see whether the cigarette is stronger than the enlightenment. I have to give it a chance."
I have done everything after enlightenment which has been thought would destroy enlightenment. And I tell you now that nothing can destroy enlightenment, because enlightenment is not just an experience, it is a transformation. It is not that it happens once and you see the light, and then the whole of your life you remember with joy that vision, that opening of the window to existence. It is not like that. Enlightenment transforms you. You are totally a new man.
But of course, if I start smoking here while I am speaking to you, many camels are going to be shocked. But I am an unreliable man, I live moment to moment. If it happens to me, tomorrow you will see a table by my side with the best cigarettes in the world -- what is it? Five-Five-Five? -- and a bottle of champagne, and my Gudia, one of the most beautiful girls I have come across, pouring champagne into the glass for me. I can do that, it is just a question of the idea arising in me. Then nobody can prevent me.
I have found freedom in dropping being respectable. Respectability is a social strategy to keep you imprisoned. Around the world there are so many rumors.... I don't care a bit. Sometimes I have been told by my friends and lovers, "Why don't you contradict them? These are absolutely absurd, they destroy your respectability with people."
I said, "I don't want to be respected by anyone, because if he respects me he will expect me to remain respectable" -- and that I cannot promise. It is better to be notorious, because it gives you immense freedom. I am a notorious man. Jesus, Mohammed, Mahavira, Buddha, Lao Tzu -- none of them was courageous enough to drop the desire for respectability.
People go on condemning me. The moment I come to know that they are condemning me for a certain thing, then I go on doing the same thing on a bigger scale. I had only one Rolls Royce. They started condemning me, so I told my secretary, "Arrange for two."
In India it was very difficult, because the Rolls Royce after 1965 became a banned item, it could not enter the country. I was the only man who managed to have two Rolls Royces enter the country.
When I came to America, I said to my secretary, "Now there is no limit." I had seven, and they were condemning me -- a spiritual man, an enlightened person, having seven Rolls Royces when people are dying of starvation? Now I have ninety. Now they don't condemn me. They know that if they continue condemning me, I will go on having more and more Rolls Royces until they are satisfied.
I have my own individuality. I don't need anybody's respect, because I am so full there is no space for anything else. And it has been a tremendous experience to be so notorious and yet to be loved by millions of people. That gives a great hope, that even an ordinary man can be loved; you need not to be extraordinary to be loved.
How much love I have received! I don't think anybody before me has received so much love. And certainly I have received more hostility, anger, condemnation than anybody else. I am richest man in the world -- I receive everything!
Love I have received -- nobody can come even close to me. Hatred I have received -- nobody can come close to me. And just for a single, simple thing: that I dropped the idea of respectability.
If you ask me, my enlightenment made me transcend only one thing, and that is the opinion of others. That is their business. They cannot disturb my sleep by their opinions. And I don't have to be concerned about what they are thinking. I am living absolutely alone, but utterly fulfilled.
You ask me why you were shocked -- because you are still a camel. The lions were not shocked. They must have roared! They must have found a synchronicity between me and themselves. They must have been rejoiced and danced: "Our master is not celibate, so we need not be unnecessarily depressed that we are not celibate."
Those who have reached the stage of being a child, they must have enjoyed knowing that at least in this whole world there is one man who can say everything truly without taking an oath that, "Whatever I say, I will say only the truth."
I am not one who has taken an oath to speak the truth. I simply want you to understand what a beauty it is to be truthful, authentic, just the way you are. I have put my heart in front of you. Now it is up to you whether to be shocked, or to rejoice. It will depend on your mind. But you cannot influence me; nobody in my whole life has influenced me. Anybody who has tried has found that he was forcing me to do just the opposite. Slowly, slowly people dropped the idea.
In India, Jainas were a great majority of my lovers, but the day I spoke on sex that majority -- camels -- simply disappeared. Yes, a few remained, a few of them are even here. They proved to be lions; they could see and connect themselves with my truth.
There were many Gandhians -- until the day I spoke against Gandhi and said that he was the most cunning politician, not only of this century but of the whole history, that all his religion was mumbo-jumbo; it was a curtain to dominate the whole country. And although he was saying that he was in search of truth, he was continually lying, just like a politician.
He was saying that when the country becomes free, all the armies will be dissolved; there will be no military, there will be no weapons, because a nonviolent country has no need of such things. One American author, Louis Fisher, asked him, "If you dissolve all the armies and the military, and you don't have any weapons, and somebody attacks you, what will you do?"
He said, "We will welcome them. We will say to them, `There is no need for any bloodshed. If you want to live here in this country, come, be our guests. You are welcome.'"
But this was before freedom came to India. When India became independent, everything changed. The army was not dissolved, but increased. The military was not dissolved -- now India has one of the biggest military forces. Weapons were not dissolved. India has atomic plants and is now making every effort to have nuclear weapons -- at the cost of half of the country dying, without food! India is exporting wheat to other countries, because the politicians need money to make a nuclear plant. And these are all Gandhians.
When Gandhi was alive, after independence, Pakistan attacked one part of Kashmir. India had to fight with the invaders, and you cannot believe that Gandhi blessed the first fighter planes to go and destroy Pakistanis -- who were Indians just a few days before! Where had his nonviolence gone? He was blessing fighting planes, sending them to destroy the same people for whom he had been fighting for freedom his whole life.
When I said that his nonviolence was a political strategy.... It was clear that to fight against the British government with weapons was impossible. From where are you going to get all those weapons against the empire? -- perhaps the biggest empire that has existed ever. It was said that the sun never sets on the British empire. It was true: if it sets in one country, it rises in another, but as far as the whole British empire is concerned, it never sets. This was the biggest empire of man's history. Against this empire how can you fight?
And not only can you not fight, you don't have the means to fight. You don't have even men to fight -- Indians are so lousy, so cowardly, so superstitious, and so faithful to the idea that nothing happens without God's will. "It is God's will that Britain is ruling our country. To fight against Britain and its empire is to fight against God's will." That was the Indian conditioning.
Naturally Gandhi invented a new strategy -- nonviolence, which was always respected by the Indians as the most significant religious quality. But his nonviolence was not that of a religious man.
I am nonviolent. You see the guards around me with weapons... and now they are being criticized. Remember, that criticism will create more and more guards and more and more weapons. But I know that those weapons are just toys. Against nuclear powers, you are carrying a small gun. I know it, I know it makes no sense, but the gun is not the point! And I have not arranged those guards either. I don't know even who my guards are, what their names are.
It is you, the people who love me -- a person who never fulfills any of your expectations -- you are worried about my life. It is your love; otherwise those guards are just of no use. Just a bomb will finish... it can become another Nagasaki, Hiroshima. But I am nonviolent.
People have been asking me, if I am nonviolent then why are these weapons here? Those weapons are your love, and I respect your love, knowingly perfectly well those weapons are toys. But I know the person who is carrying the weapon is carrying it out of love. There is no other reason. I cannot tell him to throw the weapon, because that would be an insult to his love. I cannot insult love, I have tremendous respect for love.
You have to come out of your shock; otherwise the bridge between me and you will be broken.
Remember perfectly, I am not going to change in any way. If change has to come, it has to come to you and your mind, because it is your disturbance, your shock. It is your problem -- take the responsibility for it. See the simple fact that you were carrying some expectations -- that means some chains for me. It is time: throw those chains.
I am an absolutely free man. There is no bondage for me. I can do anything, you just have to suggest it to me!
***Osho***
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