सम्पूर्ण मानव मात्र 'एक ही संयुक्त परिवार के सदस्य' - वसुधैव कुटुम्बकम् की सार्थकता -
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संसार ही क्या सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही जितने भी प्राणी-मात्र होते हैं, सब के सब एक
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संसार ही क्या सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही जितने भी प्राणी-मात्र होते हैं, सब के सब एक
ही
सूत्र- सोsहं-हंसो में गूँथे हुये मणि के दानों जैसे होते और रहते हैं और
यह सोsहं-हंसो रूप सूत्र का सूत्रधार एकमात्र परमेश्वर या अल्लाहतला ही है।
सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड परमप्रभु रूप पिता और उन्ही की संकल्परूपा आदि-शक्ति रूप माता के संयोग से ही उत्पन्न सोsहं-हंसो रूप सुपुत्र व ‘अहम्’ रूप कुपुत्र तथा सोsहं-हंसो तथा ‘अहम्’ या मैं से सम्बंधित समस्त शरीर और सम्पत्ति, एक ही संयुक्त-परिवार तथा उसकी सम्पत्ति है।
आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह कारण शरीर है । स्थूल,
सूक्ष्म और कारण । उस कारण में कोई रूप नहीं होगा, कोई आकृति नहीं होगी ।
वह सदा-सर्वदा निराकार होता है । कभी साकार हो ही नहीं सकता । साकार होगा
तो वह आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव शक्ति रह ही नहीं जायेगा। जब भी उसका दर्शन
होगा तो ज्योतिर्मय शब्द और शब्द ज्योतिरूप में होगा । तो इसलिये इसको
नाम-रूप कह दिया गया । शब्द ज
ो है उसका नाम
हो गया और ज्योति उसका रूप हो गया । जब भी आप आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह का दर्शन
करेंगे आत्म-ज्योति रूप आत्मा, ब्रम्ह-ज्योति रूप ब्रम्ह-शक्ति, स्वयं
ज्योति रूप शिव-शक्ति या दिव्य-ज्योति रूप ईश्वरीय सत्ता-शक्ति या आलिमे
नूर-नूरे इलाही-लाइफ लाइट-डिवाइन लाइट -चाँदना- परमप्रकाश रूप दिन रात के
रूप में दर्शन होगा । सहज प्रकाश रूप भगवाना । नहिं तहँ पुन विज्ञान विहाना
॥ ये सारे दर्शन आपको होंगे ।
परमेश्वर की जब प्राप्ति होगी, परमेश्वर जो है
जब ये घोषणायें किया जा रहा हैं कि 'कण-कण में भगवान है' तो हम कहेंगे कि
''घोर मूर्खतापूर्ण यह अज्ञान है ।'' ऐसे उन महात्माओं को भगवान् की
जानकारी ही नहीं है । धरती पर तो भगवान् रहता ही नहीं है, कण-कण
में भगवान् कहाँ से आ जायेगा ? धरती पर भगवान नहीं रहता है धरती पर, फिर
कण-कण में कहाँ से आ जायेगा ? कुछ लोग कहने में लगे हैं कि मुझ में भी है,
तुझ में भी है। 'मुझमें-तुझमें खडग खम्भ में ।' यानी मेरे में भी भगवान्,
तेरे में भी भगवान् । मैं भी भगवान्, तू भी भगवान् । यह जो है यह भ्रामक और
मूर्खता पूर्ण ज्ञान मैं भी भगवान्, तू भी भगवान् । यह जो है यह भ्रामक और
मूर्खता पूर्ण ज्ञान की पहचान है । यह मिथ्या ज्ञान की पहचान है । क्योंकि
सभी शरीरों में भगवान्? पूरे सतयुग में, पूरे भू-मण्डल पर देव लोक में भी
एक श्रीविष्णु जी भगवान् के अवतार थे । पूरे त्रेता युग में पूरे भू-मण्डल
पर एक श्रीरामचन्द्र जी महाराज भगवान् के अवतार थे और पूरे द्वापर युग में
पूरे भू-मण्डल पर एक श्रीकृष्ण्र जी महाराज भगवान् के अवतार हुए । जो कोई
भी मेरे में, तेरे में, सब में, सब के भीतर रहने वाली यह आत्मा ही
परमात्मा-भगवान् है--ये जिसकी आवाज है, वे चाहे जो कोई भी हो उसका ज्ञान
भ्रामक और मिथ्या है । उनका ज्ञान मिथ्यात्व से भरा है । उनके अन्दर एक
मिथ्या महत्वाकांक्षा है जो ऐसा बोलने-कहने में लगे हैं । वास्तविकता यह है
कि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह- खुदा-गॉड-भगवान् धरती पर ही नहीं
रहता--धरती पर ही नहीं । आप जब दर्शन करेंगे तो दिखलाई देगा कि सम्पूर्ण
ब्रम्हाण्ड ही उसमें है । आपके सहित सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड उसमें है और वह इस
ब्रम्हाण्ड से परे है ।
दो क्षेत्र हैं । कर्म या माया का क्षेत्र और
धर्म या भगवान् का क्षेत्र । शरीर-परिवार-संसार माया क्षेत्र या लौकिक
कहलाता है । जीव-ईश्वर-परमेश्वर पारलौकिक हैं । जैसे बीच में कोई दरिया हो
और आप इस पार हो तो किसी विशेषण की जरूरत नहीं है । इसको '
लौकिक
(लवकिक-- यानी लवकने वाला) कहते हैं । जब उस पार की बात करनी है तो
पारलौकिक कहना होगा । यानी बैरियर है बीच में जो अवरोधक है तो इसमें अब आप
उस पार के लिये विशेषण देकर बात करना होगा । उस पार भी 'लौकिक यानी लवकने
वाला' है । लौकिक इधर भी है और लौकिक उधर भी है। यह मृत्यु क्षेत्र है ।
यहाँ जो आया है वह मरेगा ही । जो आया है वह जायेगा ही । इसमें उसको उस पार
जाना है क्योंकि आये हैं उसी पार से । अस्तित्व उस पार का ही है। मूलत:
अस्तित्व उस पार वाले का ही है । इस पार वाले का मूलत: अस्तित्व नहीं है।
उस पार-लौकिक का यह इस पार वाला लौकिक डुप्लीकेट फोटोस्टेट कापी है । अपने
आप में अलग से यह कुछ है नहीं ! हमलोग जो दर्शन कराते हैं
जीव-ईश्वर-परमेश्वर का, जब दर्शन कराने चलेंगे तो दिखला देंगे कि ये दुनिया
कहाँ है, तेरा घर-परिवार तेरा संसार कहाँ है, कुछ नहीं है । अब यह बता दो न
कि तुम्हारी शरीर ही कहाँ है, सब निल्ल ! यह दर्शन पहले दिन ही होगा । यह
जो आप पढ़-सुन रहे हैं कि 'ब्रम्ह सत्यम् जगन्मिथ्या !' इसको आप लोगों ने
पढ़ा मात्र है । अब देखने को मिलेगा । महात्माजी लोग तर्क से सिध्द करते
हैं क्योंकि दिव्य-दृष्टि तक उनको जानकारी होती है, ज्ञान-दृष्टि तो उनको
कुछ पता ही नहीं होता है इसलिये उन्हें तर्क से सिध्द ही करना पड़ता है ।
ब्रम्ह सत्य है और जगत् मिथ्या है-- इसे ज्ञान-दृष्टि से देखना होता है
तर्क से सिध्द नहीं किया जाता है।
एक बार जब सत्य के तरफ मुड़ेंगे, सच्चाई के साथ
जब देखना शुरु करेंगे, जानना शुरु करेंगे तो पता चलेगा कि यहाँ का एक
परमाणु भी हमारा नहीं है । जो 'हम' है, वह भी हमारा नहीं है। बार-बार शब्द
आता है -- 'ज्ञान ज्ञान ज्ञान'। आखिर 'ज्ञान' माने क्या
?
सत्य का अर्थ है परमेश्वर । परमेश्वर सम्पूर्ण है । ब्रह्माण्ड में जो कुछ
है सब परमेश्वर से है, परमेश्वर का है और परमेश्वर में है । इसी को जब
जानेंगे तो पता चलेगा कि सम्पूर्ण जान गये । जब तक परमेश्वर को नहीं
जानेंगे तब तक यह नहीं कह सकते कि सम्पूर्ण को जान गये ।
संसार का एकमात्र स्वामी
परमात्मा-खुदा-गॉड-भगवान ही है। इसीलिए संसार की किसी भी वस्तु, सम्पत्ति,
स्थान अथवा व्यक्ति को न तो अपना मानना चाहिए और न अपना बनाना ही चाहिए।
हमें परमात्मा को ही एकमात्र ‘तत्त्वज्ञान’ द्वारा जान देख तथा बातचीत करते
हुये पहचान कर अनन्य भाव से उन्हे ही अपना बनाना चाहिए तथा अपने को
पूर्णतः उन्ही का बन जाना चाहिए। जब हम उन्ही के बन जायेंगे तब हमारे हटाने
के बावजूद भी ये सारी चीजें (ऐश्वर्य) हठात् पहुँचने लगेंगी। ऐसा ही होते
हुये दिखाई देने लगता है।
हम’ या ‘मैं’ शरीर नहीं, बल्कि शरीर हमारा है-
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हम अथवा मैं न तो कोई शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है। ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ, यह तो एकमात्र ‘अस्तित्व’ है जो शब्द-सत्ता से युक्त होता है। शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ के चलते-फिरते घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग-भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र है
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हम अथवा मैं न तो कोई शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है। ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ, यह तो एकमात्र ‘अस्तित्व’ है जो शब्द-सत्ता से युक्त होता है। शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ के चलते-फिरते घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग-भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र है
सत्कर्म
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सत्य से सम्बंधित कर्म सत्कर्म होता है। सत्य द्वारा, सत्य के लिए, सत्य का कर्म ही सत्कर्म होता है। चूँकि वास्तव में ‘सत्य’ शब्द परमात्मा या भगवान के लिए ही प्रयुक्त होता है इसलिए सत्य और भगवान दोनों वास्तव में एक ही सर्वोच्च शक्ति-सत्ता का पर्याय रूप होता है। यही कारण है कि ‘तत्त्वज्ञान’ ही सत्यज्ञान भी होता है। इस प्रकार परमतत्त्व ही परमसत्य तथा परमसत्य ही परमतत्त्व होता है। तत्त्व द
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सत्य से सम्बंधित कर्म सत्कर्म होता है। सत्य द्वारा, सत्य के लिए, सत्य का कर्म ही सत्कर्म होता है। चूँकि वास्तव में ‘सत्य’ शब्द परमात्मा या भगवान के लिए ही प्रयुक्त होता है इसलिए सत्य और भगवान दोनों वास्तव में एक ही सर्वोच्च शक्ति-सत्ता का पर्याय रूप होता है। यही कारण है कि ‘तत्त्वज्ञान’ ही सत्यज्ञान भी होता है। इस प्रकार परमतत्त्व ही परमसत्य तथा परमसत्य ही परमतत्त्व होता है। तत्त्व द
्वारा किया गया समस्त कार्य ही सत्कार्य होता है।
सत्कर्म सदा निष्काम होता है परन्तु निष्काम कर्म सत्कर्म नहीं होता है। परमात्मा के निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश में किया गया प्रत्येक कार्य, चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, हर परिस्थितियों में भी वह सत्कर्म ही कहलाएगा क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा या भगवान की ही होती है इसलिए परमात्मा या भगवान के निर्देशन में किए गए कार्यों पर विचार करना ही विचारक की कमी एवं दोष है क्योंकि परमात्मा के किसी भी कार्य को देखने, निरीक्षण, परीक्षण करने का अधिकार किसी को भी होता ही नहीं । इसलिए कि जाँच एवं परीक्षण के ऊपर परमात्मा का स्थान होता है। वे परीक्षण से परे होते हैं।
सत्कर्म सदा निष्काम होता है परन्तु निष्काम कर्म सत्कर्म नहीं होता है। परमात्मा के निर्देशन, आज्ञा एवं आदेश में किया गया प्रत्येक कार्य, चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, हर परिस्थितियों में भी वह सत्कर्म ही कहलाएगा क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा या भगवान की ही होती है इसलिए परमात्मा या भगवान के निर्देशन में किए गए कार्यों पर विचार करना ही विचारक की कमी एवं दोष है क्योंकि परमात्मा के किसी भी कार्य को देखने, निरीक्षण, परीक्षण करने का अधिकार किसी को भी होता ही नहीं । इसलिए कि जाँच एवं परीक्षण के ऊपर परमात्मा का स्थान होता है। वे परीक्षण से परे होते हैं।
'हम' जीव किसका है ?
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भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! अब तक तो ‘हम’ शरीर से
सम्बंधित वार्ता या सामान्य जानकारी में लगे थे, परन्तु अब ‘हम’ जीव पर
विचार मन्थन करना चाहिए। यहाँ पर मुख्य विषय यह है कि ‘हम’ जीव वास्तव में
किसका है? इस प्रश्न पर विचार-मन्थन हेतु सर्वप्रथम यह देखना होगा कि ‘हम’
जीव की उत्पत्ति, उत्थान और रक्षा-व्यवस्था किससे होती है ?
सर्वप्रथम ‘हम’ जीव, शरीर न होकर, शरीर के माध्यम से कार्य करने और भोग-भोगने वाला ‘अहम
सर्वप्रथम ‘हम’ जीव, शरीर न होकर, शरीर के माध्यम से कार्य करने और भोग-भोगने वाला ‘अहम
्’
शब्द सत्ता रूप एक अस्तित्व है। ‘हम’ जीव की उत्पत्ति आत्म-ज्योति रूप
शब्द-शक्ति से होती है। दूसरे शब्दों में आत्म-ज्योति ही शरीर में प्रवेश
करके ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित होकर कार्य करती है। ‘हम’ जीव की उत्पत्ति
के बारे में लोगों को जानकारी होती ही नहीं है क्योंकि उन्हे ‘हम’ जीव के
बारे में ही कुछ पता नहीं होता। ‘हम’ जीव का माता-पिता कोई सांसारिक
व्यक्ति या शरीर हो ही नहीं सकता। शरीर की रचना तो ‘हम’ जीव आत्म-ज्योति की
सहायता से करता अर्थात् ‘हम’ जीव से आत्म-ज्योति की सहायता से शरीर की
रचना कराई जाती है।
पारिवारिक 'शत्रु-मण्डली' से बच निकलने वाले का ही नाम और रूप दोनों कायम रहता है :-
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भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब ऐसे विषय को ले चला जाय जिससे व्यक्ति को पता चले कि कौन उसका हितैषी है और कौन शत्रु है ?
बन्धुओं ! हो सकता है कि आप मातृ-भक्ति, एवं पितृ-भक्ति तथा पति-व्रत एवं पत्नी-व्रत (नए लोगों के लिए) तथा पुत्र-पुत्री के लाड़-प्यार में बहुत ही आनन्दित रहते हों
माता-पिता बनने वाले लोग कभी भी ‘हम’ जीव के माता-पिता नहीं हो सकते हैं।
माता-पिता, भाई-बहिन, सगा-सम्बन्धी आदि ने ही तो ‘हम’ जीव का ब्रह्म से
सम्बन्ध जोड़ने वाली ब्रह्म-नाल को काट-कटवाकर वास्तविक माता-पिता रूप
ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध छुड़वाकर सांसारिक जालों में फँसाने हेतु अपने आप
ही माता-पिता बनना शुरू करते हुए, पारिवारिकता रूपी सांसारिकता में जकड़कर
इन पारिवारिक सम==============================
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! आइये अब ऐसे विषय को ले चला जाय जिससे व्यक्ति को पता चले कि कौन उसका हितैषी है और कौन शत्रु है ?
बन्धुओं ! हो सकता है कि आप मातृ-भक्ति, एवं पितृ-भक्ति तथा पति-व्रत एवं पत्नी-व्रत (नए लोगों के लिए) तथा पुत्र-पुत्री के लाड़-प्यार में बहुत ही आनन्दित रहते हों
, तो आपको कुछ कष्ट हो,
परन्तु व्यक्तिगत उद्धार एवं समाज-सुधार हेतु हम तो सत्य एवं यथार्थ बात
कहने, बताने, जनाने, आवश्यकता पड़ने पर दिखाते हुए बात-चीत के साथ ही
परिचय-पहचान भी कराने हेतु मजबूर हूँ, क्योंकि पूरे भू-मण्डल पर इसके सिवाय
मेरा और कोई कार्य नहीं है। परमात्मा के सम्पूर्ण शक्ति-सत्ता-सामर्थ्य को
भू-मण्डल पर स्पष्टतः जनाते-दिखाते और बोध कराते हुए हम एवं हमारा समाज
उसी परमात्मा की दृढ़ आस्था से कृत-संकल्पित है। इसके लिए हमें जो कुछ भी
करना पड़े और झेलना पड़े, सदा-सर्वदा तत्परता के साथ करने और झेलने के लिए
भी सहर्ष तैयार हैं। शरीर की कीमत भी इसके समक्ष नगण्य होती है और दूसरा
कुछ हमारे पास है ही नहीं, जो चुकाने को तैयार रहें। आप सभी भगवद् प्रेमी
बन्धुओं से अनुरोध है कि स्पष्टतः जान-समझकर इस सर्वोत्तम सत्कार्य में जुट
जाएँ।
पारिवारिक एवं सांसारिक शारीरिक सम्बन्ध वाले शत्रु-मण्डली रूपी मीठे-जहर से जो किसी भी तरीके से बच निकला, आज वही मन्दिरों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, मस्जिदों आदि के माध्यम से सनातन, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन एवं इस्लाम आदि के समस्त सद् ग्रन्थों में कायम हो गया। जो व्यक्ति अपने शरीर को इस मीठे-जहर रूपी शत्रु-मण्डली से निकाल गया, वही आज समाज में पूजनीय, सम्माननीय एवं विशेष अदरणीय के रूप में शरीर छोड़ते हुये भी, अपने नाम और रूप के साथ आज भी कायम है और आगे भी रहेगा। उदाहरणार्थ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, हरिशचन्द्र, शिवि, दधीचि, रघु, बाल्मीकी, विश्वामित्र, ध्रुव, प्रहलाद, श्री रामचन्द्र जी महाराज (14 वर्ष के लिए निष्कासित नहीं होते तो आज रामायण नहीं होता), हनुमान, श्री कृष्ण जी महाराज, श्री शुकदेव जी, दत्तात्रेय, जड़ भरत, बलि, उद्धव, गोपियाँ, जैन-महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, आद्य शंकराचार्य जी, ईशा मसीह, मुहम्मद साहब को भी हिजरत करना पड़ा था, नानक देव जी, कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, गोरखनाथ जी, भर्तृहरि जी, राम-कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, आदि आदि समस्त योगी आध्यात्मिक सन्त-महात्मा आदि सद् ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। ये सभी या तो ‘मीठे-जहर’ रूपी ‘शत्रु-मण्डली’ से निष्कासित हुये हैं या जानबूझ कर ही बच निकले हैं। यही कारण है कि आज तक भी इन उपर्युक्त महानुभावों का नाम और रूप शरीर छोड़ने के बाद भी कायम हैं और रहेंगे भी। इतना ही नहीं बन्धुओं गौर करने की बात है कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में तथा क्रांतिकारी आदि जो ऐतिहासिक महापुरुष बनें हैं, वे इस शत्रु-मण्डली से ऊपर या अलग हटकर ही सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ आदि किसी भी क्षेत्र में – राजनीतिक में चौराहों पर और आध्यात्मिक तथा तात्त्विक में मन्दिरों, गुरुद्वारों एवं गिरिजाघरों में सुरक्षित स्थान पाकर, ‘मीठे-जहर’ रूप ‘शत्रु-मण्डली’ के द्वारा शमशान एवं भूतहा, प्रेतहा बनने से बच जाते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे महानुभावों के नामों के ख़ारिज की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिधर देखो उधर दाखिला। लगभग छोटे-बड़े सभी के हृदय में और जुबान पर दाखिला। यह है जीवन, इसका नाम है जीवनोत्कर्ष। यह हुई शरीर की गति या दशा। हालाँकि हमको यह भी मालूम है कि जड़ियों, मूढ़ एवं कामी-व्यसनी आदि कामिनी-कंचन वालों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा, परन्तु यह भी सत्य है कि थोड़ा भी संस्कार रहा होगा और बचा होगा, तो अवश्य आत्म-कल्याण का, आत्म-सुधार एवं उद्धार पर गौर करना ही पड़ेगा।
अन्ततः आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ किसी भी क्षेत्र में तीव्र गति से विकास एवं उत्थान हेतु पारिवारिक सम्बन्धों से ऊपर उठना ही होगा, अन्यथा यह मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली, आप की समाप्ति, आपके पतन, आप को पापों एवं कुकर्मों के जाल में फँसाकर बर्बाद और बदनाम करके ही छोड़ेगी। समय रहते जो नहीं चेत जाता, वह समय चूक जाने पर क्या कर सकता है ? बाद में पछताने के सिवाय मिल ही क्या सकता है ?
पारिवारिक एवं सांसारिक शारीरिक सम्बन्ध वाले शत्रु-मण्डली रूपी मीठे-जहर से जो किसी भी तरीके से बच निकला, आज वही मन्दिरों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, मस्जिदों आदि के माध्यम से सनातन, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन एवं इस्लाम आदि के समस्त सद् ग्रन्थों में कायम हो गया। जो व्यक्ति अपने शरीर को इस मीठे-जहर रूपी शत्रु-मण्डली से निकाल गया, वही आज समाज में पूजनीय, सम्माननीय एवं विशेष अदरणीय के रूप में शरीर छोड़ते हुये भी, अपने नाम और रूप के साथ आज भी कायम है और आगे भी रहेगा। उदाहरणार्थ सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, हरिशचन्द्र, शिवि, दधीचि, रघु, बाल्मीकी, विश्वामित्र, ध्रुव, प्रहलाद, श्री रामचन्द्र जी महाराज (14 वर्ष के लिए निष्कासित नहीं होते तो आज रामायण नहीं होता), हनुमान, श्री कृष्ण जी महाराज, श्री शुकदेव जी, दत्तात्रेय, जड़ भरत, बलि, उद्धव, गोपियाँ, जैन-महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, आद्य शंकराचार्य जी, ईशा मसीह, मुहम्मद साहब को भी हिजरत करना पड़ा था, नानक देव जी, कबीर, तुलसीदास, मीराबाई, गोरखनाथ जी, भर्तृहरि जी, राम-कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द जी, आदि आदि समस्त योगी आध्यात्मिक सन्त-महात्मा आदि सद् ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। ये सभी या तो ‘मीठे-जहर’ रूपी ‘शत्रु-मण्डली’ से निष्कासित हुये हैं या जानबूझ कर ही बच निकले हैं। यही कारण है कि आज तक भी इन उपर्युक्त महानुभावों का नाम और रूप शरीर छोड़ने के बाद भी कायम हैं और रहेंगे भी। इतना ही नहीं बन्धुओं गौर करने की बात है कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में तथा क्रांतिकारी आदि जो ऐतिहासिक महापुरुष बनें हैं, वे इस शत्रु-मण्डली से ऊपर या अलग हटकर ही सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ आदि किसी भी क्षेत्र में – राजनीतिक में चौराहों पर और आध्यात्मिक तथा तात्त्विक में मन्दिरों, गुरुद्वारों एवं गिरिजाघरों में सुरक्षित स्थान पाकर, ‘मीठे-जहर’ रूप ‘शत्रु-मण्डली’ के द्वारा शमशान एवं भूतहा, प्रेतहा बनने से बच जाते हैं। इतना ही नहीं, ऐसे महानुभावों के नामों के ख़ारिज की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिधर देखो उधर दाखिला। लगभग छोटे-बड़े सभी के हृदय में और जुबान पर दाखिला। यह है जीवन, इसका नाम है जीवनोत्कर्ष। यह हुई शरीर की गति या दशा। हालाँकि हमको यह भी मालूम है कि जड़ियों, मूढ़ एवं कामी-व्यसनी आदि कामिनी-कंचन वालों पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा, परन्तु यह भी सत्य है कि थोड़ा भी संस्कार रहा होगा और बचा होगा, तो अवश्य आत्म-कल्याण का, आत्म-सुधार एवं उद्धार पर गौर करना ही पड़ेगा।
अन्ततः आध्यात्मिक एवं ‘तात्त्विक’ किसी भी क्षेत्र में तीव्र गति से विकास एवं उत्थान हेतु पारिवारिक सम्बन्धों से ऊपर उठना ही होगा, अन्यथा यह मीठे-जहर रूप शत्रु-मण्डली, आप की समाप्ति, आपके पतन, आप को पापों एवं कुकर्मों के जाल में फँसाकर बर्बाद और बदनाम करके ही छोड़ेगी। समय रहते जो नहीं चेत जाता, वह समय चूक जाने पर क्या कर सकता है ? बाद में पछताने के सिवाय मिल ही क्या सकता है ?
्बन्धों को कायम कर लेते
हैं। यही ब्रह्म-नाल शुकदेव का नहीं कट सका और कबीर का भी नहीं कट सका। तो
उन लोगों को कोई नहीं फँसा सका परन्तु सभी का नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल कटवा
कर ब्रह्म-शक्ति से सम्बन्ध काट देते हैं जिससे ‘हम’ जीव बेचारा
ब्रह्म-शक्ति से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों से वंचित हो जाता है। अब
‘हम’ अपने वास्तविक माता-पिता रूपी ब्रह्म-शक्ति से न मिल सकें, इसलिए ये
पारिवारिक माता-पिता आदि अपने सांसारिक तुच्छ स्वार्थ-पूर्ति हेतु
ब्रह्म-नाड़ी काटकर ब्रह्म-शक्ति के स्थान पर स्वयं ही माता-पिता बन बैठते
हैं। आत्म-ज्योति के स्थान पर दीप-ज्योति, अमृत-पान की जगह मधु-पान और
दूध-पान, दिव्य-ध्वनि की जगह फूल की थाली बजा-बजा कर फँसा देते हैं कि यही
दिव्य-ज्योति, यही दिव्य-आहार तथा यही दिव्य-ध्वनि है, साथ ही सोsहं-हंसो
रूप अजपा-जप के स्थान पर ‘सोहर’ गीत सुनाकर फँसाते हैं कि यही सोहर ही
अजपा-जप है। इस प्रकार ‘हम’ जीव के साथ तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति हेतु, ये
पारिवारिक माता-पिता आदि वास्तविक दिव्य माता-पिता रूप ब्रह्म-शक्ति से
सम्बन्ध कटवा कर अपने-अपने में ये पारिवारिक हमार-हमार कहने वाले सांसारिक
जन भी प्रसूति-गृह में ही इतना बड़ा धोखा, छल, पाखण्ड एवं भ्रम-जाल को ‘हम’
जीव पर डालकर फँसा देते हैं, जिससे ‘हम’ जीव अपने वास्तविक माता-पिता से
वंचित होकर, इन पारिवारिक शारीरिक माता-पिता में ही फँसकर रह जाता है। अब
अन्ततः विचार करने की जरूरत है कि इस प्रकार के क्रिया-कलापों से युक्त
पारिवारिक या सांसारिक व्यक्तियों को हितैषी कहा जाय या ‘हम’ जीव को तुच्छ
स्वार्थों के पीछे फँसाकर मार डालने वाला मीठा-जहर रूप शत्रु-मण्डली। यह
फैसला हम, आप पाठक बन्धुओं पर छोड़ रहे हैं। इस पर यदि आप हमारा फैसला
जानना चाहते हैं, तो हम स्पष्टतः इन लोगों को मीठा-जहर रूप शत्रु-मण्डली ही
देखते हैं। सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, नारद, ध्रुव, प्रहलाद, भरतजी,
लक्ष्मण जी, हनुमान जी, उद्धव, गोपियाँ, शुकदेव, गौतम बुद्ध, महावीर जैन,
मीरा, कबीर, तुलसी, विवेकानन्द आदि समस्त ज्ञानी-भक्त, आध्यात्मिक सिद्ध,
सन्त-महात्मा आदि भी अवश्य ही कुछ जाने देखे होंगे। यह भी आप स्वयं विचार
करके फैसला ले सकते हैं।
शरीर की अन्तिम गति या दशा
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शरीर भी अन्य यन्त्रों की भाँति ही सृष्टि के अन्तर्गत एक सर्वोच्च एवं विचित्र किस्म का यन्त्र है। अन्तर यह है कि सांसारिक सब यन्त्रों को तो मानव चलाता है, पर मानव शरीर रूपी यन्त्र को मानव न चलाकर उसके स्थान पर जीव, जीवात्मा, आत्मा एवं परमात्मा द्वारा चलाया जाता है। चूँकि परमात्मा जब-जब परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होते हैं, तो वे भी मानव शरीर से ही कार्यो
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शरीर भी अन्य यन्त्रों की भाँति ही सृष्टि के अन्तर्गत एक सर्वोच्च एवं विचित्र किस्म का यन्त्र है। अन्तर यह है कि सांसारिक सब यन्त्रों को तो मानव चलाता है, पर मानव शरीर रूपी यन्त्र को मानव न चलाकर उसके स्थान पर जीव, जीवात्मा, आत्मा एवं परमात्मा द्वारा चलाया जाता है। चूँकि परमात्मा जब-जब परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरित होते हैं, तो वे भी मानव शरीर से ही कार्यो
ं का सम्पादन करते हैं। यही कारण है
कि सृष्टि के सर्वोत्तम एवं विचित्र यन्त्र के रूप में इसकी रचना हुई। यह
वह यन्त्र है जिसके माध्यम से जीव, जीवात्मा, आत्मा एवं परमात्मा भी संसार
में इसके द्वारा कर्म, साधना, तत्त्वज्ञान एवं निष्काम कर्म करते हुए,
भोग-भोगते हुए संसार में भ्रमण करते हुए गुजरते रहते हैं।
मानव शरीर की अपनी कोई गति या दशा नहीं होती है। यह भी जड़ के समान ही प्रयुक्त होती रहती है। यह शरीर जब शत्रु-मण्डली रूपी माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, दोस्त एवं सगे-सम्बन्धी आदि के जाल में फँसे रहकर, जीव यदि शरीर छोड़कर निकलता है, तो उपरोक्त शत्रु-मण्डली शरीर को जितनी जल्दी हो सके उतनी ही जल्दी विनाश या आग में या मिट्टी में डालकर बर्बाद कर उस स्थान को शमशान घोषित करते हुये ‘भूतहा’ (भूतों का स्थान) घोषित कर देते हैं कि कोई पारिवारिक सदस्य आदि उधर जाय भी नहीं। इस प्रकार से तो ये शत्रु-मण्डली ‘रूप’ को यानि शरीर को समाप्त कर देती है, जो सदा-सर्वदा के लिए ही समाप्त हो जाय। चूँकि इस प्रक्रिया से सभी को गुजरना पड़ता है। इसीलिए इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है, जबकि यह अति महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर काफी गहराई से जानकारी करनी चाहिए और इस पद्धति को सुधार कर उत्तम पद्धति लागू करनी चाहिए। यदि यह कहा जाय कि शरीर की यही अन्तिम गति है, शरीर की समाप्ति तो होती है, यदि ऐसा नहीं किया जाय तो सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी। चारों तरफ लाशें ही लाशें, वह भी सड़ती और बदबू फैलाती लोगों के लिए विशेष संकट उत्पन्न हो जाएगा। परन्तु ऐसी बात नहीं है, आप इसी प्रश्न में आगे जीव, आत्मा और परमात्मा वाले विषय को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा।
उपर्युक्त प्रकरण के अनुसार कुछ देर के लिए मान भी लिया कि मानव शरीर की यही गति और दशा है। उसे समाप्त करना ही पड़ता है। इसलिए यह ठीक है तो इससे भी बुरा कार्य तो शत्रु-मण्डली का यह होता है कि जो सम्पत्ति का अधिकारी होता है वही मुँह में आग लगाएगा। इतना ही नहीं उस शरीर या रूप को ही समाप्त नहीं किया जाता, बल्कि सम्पत्ति आदि जहाँ-जहाँ भी उसका नाम रहता है, वहाँ-वहाँ से ही ख़ारिज-दाखिल के माध्यम से उन्ही की कमाई सम्पत्ति से नाजायज खर्च कर-कराकर उसका नाम कटवा कर, उसके स्थान पर अपना नाम दाखिल करा कर, उसका नाम और रूप, दोनों को ही समाप्त कर देते हैं। जबकि उसने सन्तान पैदा की थी कि बेटा हमारा नाम चलाएगा अर्थात् पुत्र उत्पन्न होने से नाम कायम रहता है। इन जड़ियों और अन्धों को कौन समझाए कि पुत्र-पौत्र आदि नाम कायम नहीं रखते, बल्कि नाम और रूप दोनों को ये ही समाप्त करते-कराते हैं, दूसरे नहीं। शरीर के तो ये सब कट्टर शत्रु हैं।
मनुष्य नाम और रूप के सिवाय और कुछ होता ही नहीं और यह अपना-अपना कहने-कहलाने वाले शत्रु-मण्डलियों द्वारा यही नाम और रूप खाया जाता है, तो फिर ये लोग किस बात के हितैषी हैं ? ये कभी भी हितैषी नहीं हो सकते। इनके लिए आप नाना तरह के कुकर्म और पाप कर-कर के लाते और खिलाते रहिए, परन्तु जरा सोचिए तो सही कि वर्तमान जीवन में भी आप की सजाओं में कितना बँटवारा करते हैं ? अपनी करनी की सजा आप को अपने आप ही भुगतना पड़ती है। यदि थोड़ा बहुत कोई सहयोग करते हुये दिखलायी देता है, तो थोड़ा सा गहराई में प्रवेश करके देखें तो उसके पीछे उनका कोई स्वार्थ अवश्य निहित होगा, अन्यथा वे नहीं पूछते।
मानव शरीर की अपनी कोई गति या दशा नहीं होती है। यह भी जड़ के समान ही प्रयुक्त होती रहती है। यह शरीर जब शत्रु-मण्डली रूपी माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, दोस्त एवं सगे-सम्बन्धी आदि के जाल में फँसे रहकर, जीव यदि शरीर छोड़कर निकलता है, तो उपरोक्त शत्रु-मण्डली शरीर को जितनी जल्दी हो सके उतनी ही जल्दी विनाश या आग में या मिट्टी में डालकर बर्बाद कर उस स्थान को शमशान घोषित करते हुये ‘भूतहा’ (भूतों का स्थान) घोषित कर देते हैं कि कोई पारिवारिक सदस्य आदि उधर जाय भी नहीं। इस प्रकार से तो ये शत्रु-मण्डली ‘रूप’ को यानि शरीर को समाप्त कर देती है, जो सदा-सर्वदा के लिए ही समाप्त हो जाय। चूँकि इस प्रक्रिया से सभी को गुजरना पड़ता है। इसीलिए इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है, जबकि यह अति महत्वपूर्ण विषय है, जिस पर काफी गहराई से जानकारी करनी चाहिए और इस पद्धति को सुधार कर उत्तम पद्धति लागू करनी चाहिए। यदि यह कहा जाय कि शरीर की यही अन्तिम गति है, शरीर की समाप्ति तो होती है, यदि ऐसा नहीं किया जाय तो सारी व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी। चारों तरफ लाशें ही लाशें, वह भी सड़ती और बदबू फैलाती लोगों के लिए विशेष संकट उत्पन्न हो जाएगा। परन्तु ऐसी बात नहीं है, आप इसी प्रश्न में आगे जीव, आत्मा और परमात्मा वाले विषय को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा।
उपर्युक्त प्रकरण के अनुसार कुछ देर के लिए मान भी लिया कि मानव शरीर की यही गति और दशा है। उसे समाप्त करना ही पड़ता है। इसलिए यह ठीक है तो इससे भी बुरा कार्य तो शत्रु-मण्डली का यह होता है कि जो सम्पत्ति का अधिकारी होता है वही मुँह में आग लगाएगा। इतना ही नहीं उस शरीर या रूप को ही समाप्त नहीं किया जाता, बल्कि सम्पत्ति आदि जहाँ-जहाँ भी उसका नाम रहता है, वहाँ-वहाँ से ही ख़ारिज-दाखिल के माध्यम से उन्ही की कमाई सम्पत्ति से नाजायज खर्च कर-कराकर उसका नाम कटवा कर, उसके स्थान पर अपना नाम दाखिल करा कर, उसका नाम और रूप, दोनों को ही समाप्त कर देते हैं। जबकि उसने सन्तान पैदा की थी कि बेटा हमारा नाम चलाएगा अर्थात् पुत्र उत्पन्न होने से नाम कायम रहता है। इन जड़ियों और अन्धों को कौन समझाए कि पुत्र-पौत्र आदि नाम कायम नहीं रखते, बल्कि नाम और रूप दोनों को ये ही समाप्त करते-कराते हैं, दूसरे नहीं। शरीर के तो ये सब कट्टर शत्रु हैं।
मनुष्य नाम और रूप के सिवाय और कुछ होता ही नहीं और यह अपना-अपना कहने-कहलाने वाले शत्रु-मण्डलियों द्वारा यही नाम और रूप खाया जाता है, तो फिर ये लोग किस बात के हितैषी हैं ? ये कभी भी हितैषी नहीं हो सकते। इनके लिए आप नाना तरह के कुकर्म और पाप कर-कर के लाते और खिलाते रहिए, परन्तु जरा सोचिए तो सही कि वर्तमान जीवन में भी आप की सजाओं में कितना बँटवारा करते हैं ? अपनी करनी की सजा आप को अपने आप ही भुगतना पड़ती है। यदि थोड़ा बहुत कोई सहयोग करते हुये दिखलायी देता है, तो थोड़ा सा गहराई में प्रवेश करके देखें तो उसके पीछे उनका कोई स्वार्थ अवश्य निहित होगा, अन्यथा वे नहीं पूछते।
यह शरीर किसका है ?
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किसी भी बात की यथार्थतः जानकारी हेतु यह अति आवश्यक है कि उस वस्तु, व्यक्ति एवं बात की उत्पत्ति या रचना, उसकी रक्षा-व्यवस्था एवं विकास तथा उत्थान-पतन के आधार पर ही सही सही निर्धारण हो सकता है। शरीर न तो किसी की माता ही हो सकता है और न किसी का पिता हो सकता है, न किसी का पुत्र हो सकता है और न किसी कि पुत्री हो सकता है। इतना ही नहीं यथार्थतः बात तो यह है कि शरीर से शरीर
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किसी भी बात की यथार्थतः जानकारी हेतु यह अति आवश्यक है कि उस वस्तु, व्यक्ति एवं बात की उत्पत्ति या रचना, उसकी रक्षा-व्यवस्था एवं विकास तथा उत्थान-पतन के आधार पर ही सही सही निर्धारण हो सकता है। शरीर न तो किसी की माता ही हो सकता है और न किसी का पिता हो सकता है, न किसी का पुत्र हो सकता है और न किसी कि पुत्री हो सकता है। इतना ही नहीं यथार्थतः बात तो यह है कि शरीर से शरीर
मात्र को ही मात्र शारीरिक
सम्बन्ध एक जड़ता मूलक सम्बन्ध होता है। कोई माता-पिता किसी भी शरीर की
उत्पत्ति या रचना नहीं कर सकते। शरीर रचना तो दूर रही शरीर के किसी अंग या
एक बाल या नाखून की रचना भी नहीं कर सकते। कोई माता-पिता जान बूझकर किसी भी
पुत्र या पुत्री की रचना नहीं करता। माता-पिता के प्रेमपूर्ण हास-विलास और
भोग विलास में इन दोनों की अज्ञानता में ही विधि के विधान के अनुसार गर्भ
रह जाता है और शरीर की रचना हो जाती है। इसमें माता-पिता की कोई रचना या
वृत्ति नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता आपस में भोग-विलास नहीं
करते तो संतानों की उत्पत्ति कैसे होती ? तो यह स्पष्ट बात है कि शत
प्रतिशत ही माता-पिता अपने भोगानन्द या वासना तृप्ति हेतु ही भोग-विलास
करते हैं सन्तान के लिए नहीं। यदि हजार-लाख के अन्दर एक-दो व्यक्ति ऐसे भी
हों कि सन्तान सोच-विचार कर ही मैथुनी सम्बन्ध स्थापित करते हों तो इससे
विधान नहीं बनेगा और पूर्व का विधान नहीं बदलेगा, बल्कि यह अपवाद स्वरूप
होगा। हालाँकि ये लोग भी केवल सोच विचार ही कर सकते हैं, रचना या उत्पत्ति
नहीं। अतः संसार का कोई माता-पिता किसी भी शरीर की न तो रचना किए हैं और न
कर सकते हैं। माता-पिता तो एक निमित्त मात्र ही होते हैं, कर्ता-भर्ता
नहीं। (आदि पुरुष एवं आदि-शक्ति(स्त्री) की उत्पत्ति किसी माता-पिता से
नहीं हुई थी। इस प्रकार परमप्रभु जैसा चाहे कर सकता है। ) शरीर के विकास
में भी माता-पिता की प्रथम भूमिका नहीं होती, बल्कि प्रथम भूमिका जीव की
होती है। कोई माता-पिता यह नहीं कह सकता या दावा नहीं कर सकता कि लड़के को
दूध हमने पिलाया है, लड़के के खान-पान की व्यवस्था हमने की है क्योंकि पहली
बात यह है कि शरीरों के जीवों की ब्रह्म से जुड़ी रहने वाली नार-पुरइन या
ब्रह्म-नाल अमृत-पान से बिछुड़ गयी, तो क्या वे इतने से भी गए कि दूध न
पिलाएँ और खान-पान की व्यवस्था न करें ? और दूसरी बात यह है कि उत्पन्न
शरीर में जीव नहीं रहता तो उस शरीर को कोई माता न दूध पिलाती है और न पिता
खान-पान की व्यवस्था करता है, बल्कि दोनों ही मिलकर उस जीव रहित शरीर को ले
जाकर मिट्टी दे देते हैं। इस शिशु शरीर की मिट्टी पिता से ही दिलाई जाती
है। कोई माता उस शरीर को अपने पास रोक नहीं पाती है। कहाँ गया माता का दूध ?
और कहाँ गया पिता का खान-पान ? कहाँ गया पिता का प्यार और सामर्थ्य ? और
कहाँ गयी माता की शक्ति ? कि अपने शिशु के शरीर को अपने हाथ ही मिट्टी
खोदकर गाड़ या ढप दिया जाता है। कहाँ गयी शारीरिक क्षमता ? और जब जीव ही
प्रधान है शरीर के विकास में तो शरीर जीव का हुआ कि माता-पिता का ? हमें तो
यह दिखलाई दे रहा है कि शरीर का एकमात्र हित जीव ही है और कोई नहीं।
क्योंकि जीव रहते ही शरीर का साथ या सहयोग कोई दे पाता है। जीव के शरीर
छोड़ते ही संसार में कोई ऐसी वस्तु अथवा कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शरीर
को रख सके और उसका विकास कर सके। शरीर का विकास मात्र जीव पर आधारित है,
माता-पिता पर नहीं।
बहुत शरीरों को देखा गया है कि उत्पन्न होते ही
माता-पिता तो फेंक देते हैं, फिर भी शरीर समाप्त नहीं होता, जैसे कबीर और
तुलसी आदि। परन्तु एक भी ऐसे माता-पिता जानने-सुनने को नहीं मिले हैं, जो
जीव रहित शरीर को रखकर दूध और खान-पान देते हुए उसका विकास करता हो। इससे
स्पष्ट जाहिर होता है कि शरीर एकमात्र जीव का ही होता है किसी और का नहीं।
सांसारिक व्यक्ति अगर कोई सहयोग करता भी है तो उसके पीछे उसका कोई न कोई
अपना स्वार्थ जरूर छिपा होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस बात पर अवश्य
ध्यान देना पड़ेगा कि कोई स्वार्थी आप के पतन का ही कारण हो सकता है,
उत्थान का नहीं।
अब रक्षा-व्यवस्था की बात देखी जाय, तो स्पष्टतः दिखाई देगा कि माता-पिता अथवा कोई शारीरिक सम्बन्धी शरीर की रक्षा-व्यवस्था नहीं कर सकता, यदि जीव साथ छोड़ दे। जीव के साथ छोड़ते ही रक्षा-व्यवस्था तो रक्षा-व्यवस्था है, उसके स्थान पर शरीर के नाश यानि समाप्ति की व्यवस्था ये माता-पिता, पुत्र-पुत्री, सगा-सम्बन्धी आदि करना प्रारम्भ कर देंगे और तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक कि शरीर को आग या पानी में या मिट्टी में डालकर बर्बाद नहीं कर देंगे।
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह तो आप लोगों को मानना ही पड़ेगा कि जीव यदि शरीर का साथ छोड़ दे तो माता की गोद में भी रहने पर माता उस मुर्दा-शरीर की रक्षा नहीं कर सकती और लोगों की बात क्या कहीं जाय। परन्तु यदि जीव साथ है तो वह व्यक्ति चाहे जहाँ भी रहे, समीपस्थ व्यक्ति उसका परिचित या दोस्त बन जया करता है और उस शरीर की रक्षा व्यवस्था वह दोस्त-मित्र या सहपाठी करने लगता है। यदि कोई साथी न भी हो, तब भी उस शरीर को कोई यदि नाजायज तरीके से परेशान करता है, तो आत्मवत् सम्बन्ध प्रत्येक से होने के नाते कोई न कोई तीसरा या अन्य व्यक्ति जरूर ही परेशान आदमी की तरफ से बोलने और उसका साथ देने लगता है। यदि कोई साथ नहीं देगा, तब भी सरकार अवश्य साथ देती है। परन्तु शरीर के साथ जीव ही न हो तो दुनिया का कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उस शरीर की रक्षा नहीं कर सकती। आक्सीजन भी जीव नहीं डाल सकता है और दूध या कोई टॉनिक भी उसका विकास या रक्षा नहीं कर सकता। इससे भी स्पष्ट हो जाता है शरीर न तो माता-पिता का है, न पुत्र-पुत्री का है और न किसी अन्य सम्बन्धी का है, यह तो मात्र जीव का ही होता है।
अब रक्षा-व्यवस्था की बात देखी जाय, तो स्पष्टतः दिखाई देगा कि माता-पिता अथवा कोई शारीरिक सम्बन्धी शरीर की रक्षा-व्यवस्था नहीं कर सकता, यदि जीव साथ छोड़ दे। जीव के साथ छोड़ते ही रक्षा-व्यवस्था तो रक्षा-व्यवस्था है, उसके स्थान पर शरीर के नाश यानि समाप्ति की व्यवस्था ये माता-पिता, पुत्र-पुत्री, सगा-सम्बन्धी आदि करना प्रारम्भ कर देंगे और तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक कि शरीर को आग या पानी में या मिट्टी में डालकर बर्बाद नहीं कर देंगे।
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह तो आप लोगों को मानना ही पड़ेगा कि जीव यदि शरीर का साथ छोड़ दे तो माता की गोद में भी रहने पर माता उस मुर्दा-शरीर की रक्षा नहीं कर सकती और लोगों की बात क्या कहीं जाय। परन्तु यदि जीव साथ है तो वह व्यक्ति चाहे जहाँ भी रहे, समीपस्थ व्यक्ति उसका परिचित या दोस्त बन जया करता है और उस शरीर की रक्षा व्यवस्था वह दोस्त-मित्र या सहपाठी करने लगता है। यदि कोई साथी न भी हो, तब भी उस शरीर को कोई यदि नाजायज तरीके से परेशान करता है, तो आत्मवत् सम्बन्ध प्रत्येक से होने के नाते कोई न कोई तीसरा या अन्य व्यक्ति जरूर ही परेशान आदमी की तरफ से बोलने और उसका साथ देने लगता है। यदि कोई साथ नहीं देगा, तब भी सरकार अवश्य साथ देती है। परन्तु शरीर के साथ जीव ही न हो तो दुनिया का कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उस शरीर की रक्षा नहीं कर सकती। आक्सीजन भी जीव नहीं डाल सकता है और दूध या कोई टॉनिक भी उसका विकास या रक्षा नहीं कर सकता। इससे भी स्पष्ट हो जाता है शरीर न तो माता-पिता का है, न पुत्र-पुत्री का है और न किसी अन्य सम्बन्धी का है, यह तो मात्र जीव का ही होता है।
‘हम’ किसके हैं ? माता-पिता या आत्मा-परमात्मा के : यथार्थतः सत्य कौन ?
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भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही सबसे महत्व का विषय है कि ‘हम’ किसके हैं ? वास्तव में ‘हम’ माता-पिता आदि शारीरिक सम्बन्धियों के हैं या आत्मा और परमात्मा के ? यह एक जबर्दस्त एवं जटिल समस्या है। जब तक इसका समाधान नहीं होगा, तब तक ‘हम’ शान्ति और आनन्द, चिदानन्द और कल्या
अवतारी और उनके अनुयायियों या तत्त्वज्ञानियों
द्वारा ‘हम’ को चार रूपों में जाना व देखा जाता है – ‘हम’ शरीर; ‘हम’ जीव;
‘हम’ आत्मा; ‘हम’ परमात्मा। उदाहरणार्थ- (1) हमारा नाम दशरथ है; मानव शरीर
हमारा रूप है, हमारा घर अयोध्या है। (2) ‘हम’ जीव हैं, ‘अहम्’ हमारा नाम
है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त
आकृति हमारा रूप है और शरीर हमारा घर है। (3) ‘हम’ आत्मा है, सोsहं-हंसो ह==============================
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही सबसे महत्व का विषय है कि ‘हम’ किसके हैं ? वास्तव में ‘हम’ माता-पिता आदि शारीरिक सम्बन्धियों के हैं या आत्मा और परमात्मा के ? यह एक जबर्दस्त एवं जटिल समस्या है। जब तक इसका समाधान नहीं होगा, तब तक ‘हम’ शान्ति और आनन्द, चिदानन्द और कल्या
ण तथा सच्चिदानन्द या
मुक्ति तो कदापि हासिल नहीं कर सकते। हम सभी बन्धुओं को सर्वप्रथम इसी जटिल
समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए कि वास्तव में ‘हम’ किसके हैं और हमें
संसार में हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार रहना चाहिए।
उपर्युक्त जटिल समस्याके समाधानमें सर्वप्रथम तो हमें यह देखना पड़ेगा कि ‘हम’ शरीर हैं या जीव; ‘हम’ आत्मा हैं या परमात्मा। ये सारी बाते पिछले प्रश्नों में हल हो चुकी हैं। समाधान हेतु हमें तो यह दिखाई दे रहा है कि बारी-बारी शरीर, जीव, आत्मा तथा परमात्मा चारों को ही हमें देखना पड़ेगा कि क्रमशः ये चारों ही किसके हैं?
उपर्युक्त जटिल समस्याके समाधानमें सर्वप्रथम तो हमें यह देखना पड़ेगा कि ‘हम’ शरीर हैं या जीव; ‘हम’ आत्मा हैं या परमात्मा। ये सारी बाते पिछले प्रश्नों में हल हो चुकी हैं। समाधान हेतु हमें तो यह दिखाई दे रहा है कि बारी-बारी शरीर, जीव, आत्मा तथा परमात्मा चारों को ही हमें देखना पड़ेगा कि क्रमशः ये चारों ही किसके हैं?
मारा
नाम है, आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति हमारा रूप है और
भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र तथा शरीर से बाहर शून्य आकाश भी हमारा विवास
स्थान है। (4) ‘हम’ परमात्मा है, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) हमारा नाम है,
शब्द-ब्रह्म ही यानि शब्द-सत्ता रूप बचन ही हमारा रूप और परमआकाश रूप
परमधाम या अमरलोक ही एक मात्र हमारा निवास है।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है। सृष्टि या ब्रह्माण्ड तथा जीव; आत्मा या ब्रह्म तथा परमात्मा की वास्तविक रूप में, यथार्थतः सत्य जानकारी एवं पहचान एकमात्र अवतारी तथा उन्ही के द्वारा जनाते, बताते और दिखाते हुये पहचान कराए गए तत्त्वज्ञानियों को ही होती है। किसी भी अन्य विद्वान, शास्त्रीय जानकार, वैज्ञानिक, मान्त्रिक, तान्त्रिक, मनोवैज्ञानिक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया को नहीं होती।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है और अन्ततः वही ‘हम’ सत्य भी होता है। शेष सभी तो कोई ‘हम’ आत्मा वाला उसी से उत्पन्न और पृथक हुआ, उसी की रोशनी आत्म-ज्योति आदि होता है और कोई ‘हम’ जीव वाला तो मात्र उसी का ‘प्रतिबिंबवत् ही होता है और शेष कोई ‘हम’ शरीर वाला जो जड़, मूढ़ एवं अज्ञानी सांसारिकों की मान्यता है जो बिल्कुल ही गलत, मिथ्या, भ्रामक एवं जड़ता का सूचक है क्योंकि ‘हम’ शरीर है, यह तो कल्पना भी नहीं हो सकता, यथार्थता की बात तो दूर रही। यह जड़ियों एवं भ्रमित मूढ़ों की देन है कि ‘हम’ को शरीर मानकर उसी में फँसे रहते हैं।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है। सृष्टि या ब्रह्माण्ड तथा जीव; आत्मा या ब्रह्म तथा परमात्मा की वास्तविक रूप में, यथार्थतः सत्य जानकारी एवं पहचान एकमात्र अवतारी तथा उन्ही के द्वारा जनाते, बताते और दिखाते हुये पहचान कराए गए तत्त्वज्ञानियों को ही होती है। किसी भी अन्य विद्वान, शास्त्रीय जानकार, वैज्ञानिक, मान्त्रिक, तान्त्रिक, मनोवैज्ञानिक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया को नहीं होती।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है और अन्ततः वही ‘हम’ सत्य भी होता है। शेष सभी तो कोई ‘हम’ आत्मा वाला उसी से उत्पन्न और पृथक हुआ, उसी की रोशनी आत्म-ज्योति आदि होता है और कोई ‘हम’ जीव वाला तो मात्र उसी का ‘प्रतिबिंबवत् ही होता है और शेष कोई ‘हम’ शरीर वाला जो जड़, मूढ़ एवं अज्ञानी सांसारिकों की मान्यता है जो बिल्कुल ही गलत, मिथ्या, भ्रामक एवं जड़ता का सूचक है क्योंकि ‘हम’ शरीर है, यह तो कल्पना भी नहीं हो सकता, यथार्थता की बात तो दूर रही। यह जड़ियों एवं भ्रमित मूढ़ों की देन है कि ‘हम’ को शरीर मानकर उसी में फँसे रहते हैं।
सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा में ‘हम’
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सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव ही आत्मा से मिलकर ‘हम’ आत्मा हो जाता है। तत्पश्चात् ‘हम’ ‘ज्योति’ रूप आत्मा है। ये लोग सामान्य व्यक्तियों से कहा करते हैं कि ऐ बन्धुओं ! ऐ आत्मवत् बन्धुओं ! हमारी जिस शरीर को देख रहे हो ‘हम’ वह नहीं है, ‘हम’ तो शुद्ध-बुद्ध, निर्विकल्प, निर्लेप एवं निर्विकारी ज्योति रूप आत्
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सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव ही आत्मा से मिलकर ‘हम’ आत्मा हो जाता है। तत्पश्चात् ‘हम’ ‘ज्योति’ रूप आत्मा है। ये लोग सामान्य व्यक्तियों से कहा करते हैं कि ऐ बन्धुओं ! ऐ आत्मवत् बन्धुओं ! हमारी जिस शरीर को देख रहे हो ‘हम’ वह नहीं है, ‘हम’ तो शुद्ध-बुद्ध, निर्विकल्प, निर्लेप एवं निर्विकारी ज्योति रूप आत्
मा
हैं। आप लोग हमें इन दृष्टियों से जान व देख नहीं सकते हो, जब दिव्य
दृष्टि देंगे, तब हमें अच्छी प्रकार जान-देख व समझ पाओगे। ये महानुभाव
सोsहं या शिवोsहं – हंसो नाम और दिव्य-ज्योति या आत्म-ज्योति या परमप्रकाश
आदि को अपने ‘हम’ का रूप बताते, जनाते व दिखाते हैं। अन्ततः समस्त
सिद्ध-साधक या योगी-यति या सन्त-महात्मा आदि आध्यात्मिक नेताओं द्वारा अपने
को शरीर न मानकर ‘हम’ रूप अहम् को अहंकार घोषित करते हुये, इस ‘हम’ जीव को
आत्म-ज्योति से मिलाने में ही इसका कल्याण मानते हैं। इस वर्ग के
दृष्टिकोण में ‘हम’ रूप जीव आत्म-ज्योति से मिलकर हंसो-सोsहं हो जाता है और
ऐसे सिद्ध-साधक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया,
पीर-पैगम्बर आदि अपना (अपने ‘हम’ का) निवास आज्ञा-चक्र में बताते हैं और
अपने अनुयायियों को भी ध्यान के द्वारा वहीं भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र
में ही टिकने को कहते हैं। यह आत्मिक ‘मैं’ महात्माओं का है।
विचारक में ‘हम’
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विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर नहीं है बल्कि जीव है। ‘हम’ जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है। इनके अनुसार ‘हम’ जीव ही सब कुछ है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ ‘हम ब्रह्म हैं’ या ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’। इन विचारकों के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव हृदय-गुफा में रहता है और विचारों के दवारा ही ‘हम’ जीव को जाना जाता है। संसार में विचार से श्रेष्ठ कोई बात नहीं है आदि। ये उपरोक्त सब विचार
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विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर नहीं है बल्कि जीव है। ‘हम’ जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है। इनके अनुसार ‘हम’ जीव ही सब कुछ है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ ‘हम ब्रह्म हैं’ या ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’। इन विचारकों के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव हृदय-गुफा में रहता है और विचारों के दवारा ही ‘हम’ जीव को जाना जाता है। संसार में विचार से श्रेष्ठ कोई बात नहीं है आदि। ये उपरोक्त सब विचार
विचारकों का है। असलियत
तो यह है कि विचारक अति स्वार्थी एवं अहंकारी व्यक्ति होता है। इनकी समस्त
जानकारियों का आधार कल्पना एवं विचार होता है। कल्पना या विचार के अलावा
जानकारी का इनके पास कोई आधार तो होता नहीं। ये लोग परमात्मा को तो जानते
ही नहीं, आत्मा को भी नहीं जानते हैं। विचारक ‘हम’ जीव को ही सब कुछ मानते
हुए, कभी-कभी तो यह भी कहने लगते हैं कि ‘हम’ एक विचार है, ‘हम’ विचार में
ही रहता है और विचार हृदय गुफा में रहता है।
अन्ततः यथार्थतः सत्य बात यह है कि ‘हम’ उच्चारण ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव का है, जो शरीर में रहते हुए मन और बुद्धि को प्रतिनिधित्व देकर, उन्ही प्रतिनिधियों के माध्यम से इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। इस प्रकार ‘अहम्’ रूप जीव, ‘सः’ रूप आत्मा से बराबर ही शक्ति-तेज प्राप्त करता रहता है और उसे मन और बुद्धि के माध्यम से इन्द्रियों को सुपुर्द करता रहता है। इस प्रकार स्वांस-प्रस्वांस के माध्यम से आत्मा शरीर में प्रवेश करती रहती है और जीव रूप ‘अहम्’ बराबर ही आत्मा से मिलने हेतु शरीर से बाहर जाया करता है। यही क्रम बराबर होता रहता है। विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव है, शरीर इसका निवास स्थान है। विचार कार्य करने का माध्यम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से पुनः आकृति ही जीव का रूप है।
अन्ततः यथार्थतः सत्य बात यह है कि ‘हम’ उच्चारण ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव का है, जो शरीर में रहते हुए मन और बुद्धि को प्रतिनिधित्व देकर, उन्ही प्रतिनिधियों के माध्यम से इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। इस प्रकार ‘अहम्’ रूप जीव, ‘सः’ रूप आत्मा से बराबर ही शक्ति-तेज प्राप्त करता रहता है और उसे मन और बुद्धि के माध्यम से इन्द्रियों को सुपुर्द करता रहता है। इस प्रकार स्वांस-प्रस्वांस के माध्यम से आत्मा शरीर में प्रवेश करती रहती है और जीव रूप ‘अहम्’ बराबर ही आत्मा से मिलने हेतु शरीर से बाहर जाया करता है। यही क्रम बराबर होता रहता है। विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव है, शरीर इसका निवास स्थान है। विचार कार्य करने का माध्यम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से पुनः आकृति ही जीव का रूप है।
'हम' कहाँ से आया है ?
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आदि से पूर्व, जब एकमात्र परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर ही थे। तब उन्हे सृष्टि रचना करने की बात सूझी और संकल्प किया, जिससे संकल्परूपा आदि-शक्ति उत्पन्न हुई। सृष्टि रचना हेतु परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से ‘आत्म’ शब्द अलग हुआ, जो ज्योति से युक्त होने के कारण ‘आत्म-ज्योति’ कहलाया। उसके बाद आत्म-ज्योति रूप आत्म
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आदि से पूर्व, जब एकमात्र परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर ही थे। तब उन्हे सृष्टि रचना करने की बात सूझी और संकल्प किया, जिससे संकल्परूपा आदि-शक्ति उत्पन्न हुई। सृष्टि रचना हेतु परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से ‘आत्म’ शब्द अलग हुआ, जो ज्योति से युक्त होने के कारण ‘आत्म-ज्योति’ कहलाया। उसके बाद आत्म-ज्योति रूप आत्म
ा से ही जड़-चेतन रूप सृष्टि की
रचना हुई, जो पिछले अध्यायों में आवश्यकता अनुसार वर्णित है। यहाँ पर अब हम
लोग आत्मा-जीव-शरीर तथा शरीर-जीव-आत्मा के बीच सम्बन्धों को देखें और
समझ-बूझ के साथ चलें।
शरीर सबका जो सबको दिखलाई दे रहा है। ‘हम’ जीव से युक्त रहने पर ही क्रियाशील रूप में जान पड़ता है। जैसे ही ‘हम’ जीव इस शरीर को छोड़ देगा, वैसे ही यह क्रियाहीन रूप में मुर्दा कहलाने लगता है। लोग जीव के शरीर छोड़ते ही मुर्दा घोषित कर आग में, पानी में अथवा मिट्टी में डालकर बर्बाद कर देते हैं। हालाँकि किसी भी शरीर का कोई दुश्मन या शत्रु आग, पानी एवं मिट्टी में नहीं डालता है, नजदीक से नजदीक अपने लोग ही डालते हैं। इससे स्पष्ट हो रहा है कि ‘हम’ जीव शरीर तो बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि शरीर में रहने वाला मात्र जीव है। अफसोस ही नहीं महान कष्ट की बात है कि आए दिन इन उपरोक्त समस्त क्रियाकलापों को जानते-देखते और समझते हुये भी व्यक्ति और समाज आज कितना जबर्दस्त जड़ी और मूढ़ हो गया है कि अपनी जड़ता एवं मूढ़ता को जानते और देखते हुये भी जड़ता को छोड़कर अपनी मूढ़ता के स्थान पर साधना द्वारा आत्म-ज्योति तथा तत्त्वज्ञान द्वारा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से मिलकर अपना उत्थान नहीं कर-करा लेता, जबकि एक दिन कामिनी-कंचन रूप समस्त जड़-पदार्थों को छोडना ही पड़ेगा क्योंकि मृत्यु देवता आपकी जड़ता और मूढ़ता पर दया नहीं दिखा सकता है, उसे तो अपने कर्तव्य-कर्म को ईमानदारी के साथ करना ही पड़ता है।
शरीर सबका जो सबको दिखलाई दे रहा है। ‘हम’ जीव से युक्त रहने पर ही क्रियाशील रूप में जान पड़ता है। जैसे ही ‘हम’ जीव इस शरीर को छोड़ देगा, वैसे ही यह क्रियाहीन रूप में मुर्दा कहलाने लगता है। लोग जीव के शरीर छोड़ते ही मुर्दा घोषित कर आग में, पानी में अथवा मिट्टी में डालकर बर्बाद कर देते हैं। हालाँकि किसी भी शरीर का कोई दुश्मन या शत्रु आग, पानी एवं मिट्टी में नहीं डालता है, नजदीक से नजदीक अपने लोग ही डालते हैं। इससे स्पष्ट हो रहा है कि ‘हम’ जीव शरीर तो बिल्कुल ही नहीं है, बल्कि शरीर में रहने वाला मात्र जीव है। अफसोस ही नहीं महान कष्ट की बात है कि आए दिन इन उपरोक्त समस्त क्रियाकलापों को जानते-देखते और समझते हुये भी व्यक्ति और समाज आज कितना जबर्दस्त जड़ी और मूढ़ हो गया है कि अपनी जड़ता एवं मूढ़ता को जानते और देखते हुये भी जड़ता को छोड़कर अपनी मूढ़ता के स्थान पर साधना द्वारा आत्म-ज्योति तथा तत्त्वज्ञान द्वारा परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ या परमेश्वर से मिलकर अपना उत्थान नहीं कर-करा लेता, जबकि एक दिन कामिनी-कंचन रूप समस्त जड़-पदार्थों को छोडना ही पड़ेगा क्योंकि मृत्यु देवता आपकी जड़ता और मूढ़ता पर दया नहीं दिखा सकता है, उसे तो अपने कर्तव्य-कर्म को ईमानदारी के साथ करना ही पड़ता है।
सम्पूर्ण मानव मात्र 'एक ही संयुक्त परिवार के सदस्य' - वसुधैव कुटुम्बकम् की सार्थकता
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संसार ही क्या सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही जितने भी प्राणी-मात्र होते हैं, सब के सब एक ही सूत्र- सोsहं-हंसो में गूँथे हुये मणि के दानों जैसे होते और रहते हैं और यह सोsहं-हंसो रूप सूत्र का सूत्रधार एकमात्र परमेश्वर या अल्लाहतला ही है।
सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड परमप्रभु रूप पिता और उन्ही की संकल्परूपा आदि-शक्ति रूप माता के संयोग से ही उत्पन्न सोsहं-हंसो रूप सुपुत्र व ‘अहम्’ रूप कुपुत्र तथा सोsहं-हंसो तथा ‘अहम्’ या मैं से सम्बंधित समस्त शरीर और सम्पत्ति, एक ही संयुक्त-परिवार तथा उसकी सम्पत्ति है।
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संसार ही क्या सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही जितने भी प्राणी-मात्र होते हैं, सब के सब एक ही सूत्र- सोsहं-हंसो में गूँथे हुये मणि के दानों जैसे होते और रहते हैं और यह सोsहं-हंसो रूप सूत्र का सूत्रधार एकमात्र परमेश्वर या अल्लाहतला ही है।
सम्पूर्ण सृष्टि या ब्रह्माण्ड परमप्रभु रूप पिता और उन्ही की संकल्परूपा आदि-शक्ति रूप माता के संयोग से ही उत्पन्न सोsहं-हंसो रूप सुपुत्र व ‘अहम्’ रूप कुपुत्र तथा सोsहं-हंसो तथा ‘अहम्’ या मैं से सम्बंधित समस्त शरीर और सम्पत्ति, एक ही संयुक्त-परिवार तथा उसकी सम्पत्ति है।
संयुक्त परिवार में शरीर अनेक
होते हुये भी एक ही विचार या भाव में कायम रहते हुये सम्पूर्ण-सम्पत्ति ही
सबकी समान रूप में रहते हुये भी व्यक्तिगत रूप में पिता के संचालन में रहती
है और पिता की व्यवस्था के अनुसार ही समस्त परिवार का कर्म एवं भोग
निर्धारित रहता है। जो व्यक्ति पिता की विधि-व्यवस्था के अनुसार पिता के
साथ आदर-सम्मान पूर्वक कार्य (सेवा) करता और भोग-भोगता है, वह तो सुपुत्र
है, परन्तु पिता की व्यवस्था एवं विधानों से बिछड़े हुये अथवा काम, क्रोध,
लोभ, मोह तथा मत्सरता के वशीभूत विक्षुब्ध स्वार्थी व्यक्ति जब पिता की
विधि-व्यवस्था के प्रतिकूल, अपनी स्वयं की विधि व्यवस्था कायम कर रहने लगते
हैं, उनको कुपुत्र कहा जाता है। सुपुत्र पिता-माता के निर्देशन, आज्ञा एवं
आदेश में रहते हुये उनके प्रति आदर-सम्मान एवं उनकी विधि-व्यवस्था को
एकमात्र जीवन का आधार मानते हुये सेवा तथा उसके फलों को उनको श्रद्धापूर्वक
समर्पित करने तथा उन्ही की व्यवस्था में रहने में ही अपना आदर-सम्मान एवं
कल्याण समझते हुये रहता है, वही सुपुत्र है एवं वह परिवार एक कुलीन एवं
पवित्र परिवार है और समस्त परिवार की व्यवस्था हेतु स्वयं ही सेविका रूप
में सारी कमियों की पूर्ति करती है क्योंकि यह परिवार सीधे विष्णु रूप पिता
प्रधान परिवार होता है।
कुपुत्र काम, क्रोध, लोभ मोह एवं मत्सर आदि के वशीभूत होने के कारण स्वार्थी एवं अहंकारी के रूप में स्वयं की स्वार्थपरक विधि-व्यवस्था में रहते हुये मनमाना तरीके से कार्यों को करना, उसके फल को भी मनमाने तरीके से भोगना तथा सम्पत्ति को विभाजित कर-कराकर अपने स्वामित्व के अधीन करना चाहते हैं। इनको माता-पिता तथा परिवार के मान-सम्मान एवं विधि-व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता है, ये कामिनी और कंचन प्रधान होते हैं। द्वेष, घृणा, कष्ट, अशान्ति आदि इनकी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है। स्वार्थ एवं अहंकार के वशीभूत होकर ही अपना जीवन यापन करते-रहते हैं।
कुपुत्र काम, क्रोध, लोभ मोह एवं मत्सर आदि के वशीभूत होने के कारण स्वार्थी एवं अहंकारी के रूप में स्वयं की स्वार्थपरक विधि-व्यवस्था में रहते हुये मनमाना तरीके से कार्यों को करना, उसके फल को भी मनमाने तरीके से भोगना तथा सम्पत्ति को विभाजित कर-कराकर अपने स्वामित्व के अधीन करना चाहते हैं। इनको माता-पिता तथा परिवार के मान-सम्मान एवं विधि-व्यवस्था से कोई मतलब नहीं होता है, ये कामिनी और कंचन प्रधान होते हैं। द्वेष, घृणा, कष्ट, अशान्ति आदि इनकी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है। स्वार्थ एवं अहंकार के वशीभूत होकर ही अपना जीवन यापन करते-रहते हैं।
‘हम’ या ‘मैं’ माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र तथा हित-सम्बन्धी आदि कदापि नहीं
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‘हम’ अथवा ‘मैं’ जब शरीर है ही नहीं, तो यह माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, मौसी-मौसा, हित-नात, सगा-सम्बन्धी आदि होने का सवाल ही नहीं बनता है। इतना ही ही नहीं, यथार्थतः देखा जाय तो ईं लोगों से ‘हम’ अथवा ‘मैं’ का कोई सम्बन्ध कायम रखने की बात ही नहीं होती क्योंकि ये उपरोक्त समस्त सम्
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‘हम’ अथवा ‘मैं’ जब शरीर है ही नहीं, तो यह माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री, मौसी-मौसा, हित-नात, सगा-सम्बन्धी आदि होने का सवाल ही नहीं बनता है। इतना ही ही नहीं, यथार्थतः देखा जाय तो ईं लोगों से ‘हम’ अथवा ‘मैं’ का कोई सम्बन्ध कायम रखने की बात ही नहीं होती क्योंकि ये उपरोक्त समस्त सम्
बन्ध या रिश्ता-नाता मात्र
शारीरिक होता है और जीव के लिए तो ये ऐसा ‘मीठा-जहर’ होते हैं कि न तो
इन्हे छोड़ते बनता है और न रहते बनता है परन्तु अन्ततः यदि इस ‘मीठे-जहर’
रूपी मीठे लगाव को समाप्त नहीं किया गया, तो व्यक्तिगत, पारिवारिक,
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा आध्यात्मिक आदि समस्याओं में से कुछ को भी
किसी अन्य तौर-तरीके से सुलझाया नहीं जा सकता है।
ये सभी सम्बन्धी जन पहले तो यह बताएँ कि ये किसके माता-पिता हैं ? किसके भाई-बहिन हैं ? किसके पुत्र-पुत्री हैं ? आदि। ‘हम’ या ‘मैं’ से युक्त शरीर के, तो पता चलेगा कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ को तो जानते ही नहीं कि ‘हम’ या ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? क्या नाम है ? क्या रूप है ? अन्त में हमें कहाँ जाना है ? जब ये सब जानते ही नहीं, तो ‘हम’ या ‘मैं’ के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि कैसे हो सकते हैं ? और जब यह कहा जाय कि शरीर के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि हैं, तो अभी ‘हम’ या ‘मैं’ शरीर छोड़ दे तो ये लोग जो सबसे बड़े अपने बने हैं, वही सबसे पहले शरीर को आग में, जल में अथवा मिट्टी में डालकर समाप्त कर देंगे। तो इस प्रकार ये शरीर वाले भी अपने नहीं हुये। अर्थात् ‘हम’ अथवा ‘मैं’ और ‘हमार’ अथवा ‘मेरा’, दोनों दो बातें हैं। यदि एक ही मान लिया जाय तो इससे बढ़कर जड़ता और मूर्खता कोई नहीं होगी।
ये सभी सम्बन्धी जन पहले तो यह बताएँ कि ये किसके माता-पिता हैं ? किसके भाई-बहिन हैं ? किसके पुत्र-पुत्री हैं ? आदि। ‘हम’ या ‘मैं’ से युक्त शरीर के, तो पता चलेगा कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ को तो जानते ही नहीं कि ‘हम’ या ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? क्या नाम है ? क्या रूप है ? अन्त में हमें कहाँ जाना है ? जब ये सब जानते ही नहीं, तो ‘हम’ या ‘मैं’ के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि कैसे हो सकते हैं ? और जब यह कहा जाय कि शरीर के माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्री आदि हैं, तो अभी ‘हम’ या ‘मैं’ शरीर छोड़ दे तो ये लोग जो सबसे बड़े अपने बने हैं, वही सबसे पहले शरीर को आग में, जल में अथवा मिट्टी में डालकर समाप्त कर देंगे। तो इस प्रकार ये शरीर वाले भी अपने नहीं हुये। अर्थात् ‘हम’ अथवा ‘मैं’ और ‘हमार’ अथवा ‘मेरा’, दोनों दो बातें हैं। यदि एक ही मान लिया जाय तो इससे बढ़कर जड़ता और मूर्खता कोई नहीं होगी।
'हम' अथवा 'मैं' क्या है ?
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‘हम’ अहम् का अपभ्रंश अर्थात् बिगड़ा हुआ उच्चारण युक्त ‘शब्द’ है, जो सदा-सर्वदा चेतनता से युक्त रहते हुए ही प्रयुक्त होता है। दूसरे शब्दों में, अहम् जिसका अर्थ अथवा हिन्दी उच्चारण ‘मैं’ होता है। अहम्, अहम् कहते-कहते जो संस्कृत का शब्द है हिन्दी में ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहा जाने लगा।
हम अथवा मैं न तो किसी शरीर को ही कहा जाता है और न हम कोई वस्तु या पदार्थ ही होता
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‘हम’ अहम् का अपभ्रंश अर्थात् बिगड़ा हुआ उच्चारण युक्त ‘शब्द’ है, जो सदा-सर्वदा चेतनता से युक्त रहते हुए ही प्रयुक्त होता है। दूसरे शब्दों में, अहम् जिसका अर्थ अथवा हिन्दी उच्चारण ‘मैं’ होता है। अहम्, अहम् कहते-कहते जो संस्कृत का शब्द है हिन्दी में ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहा जाने लगा।
हम अथवा मैं न तो किसी शरीर को ही कहा जाता है और न हम कोई वस्तु या पदार्थ ही होता
है।
तब प्रश्न यह बनता है कि ‘हम’ शरीर है ही नहीं, कोई वस्तु भी नहीं है, तो
है क्या ? विचार करने और शोध करने पर आभास हुआ कि ‘हम’ कोई शरीर या वस्तु
नहीं है, यह तो शब्द-सत्ता से युक्त ‘अस्तित्व’ मात्र है, जो शरीरों से
युक्त रहने पर प्रयुक्त होता रहता है। नासमझदारी के कारण अज्ञानी व्यक्ति
शरीर को ही हम या मैं समझ बैठता है, जो भूल एवं भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं
है।
‘हम’ या ‘मैं’ शरीर नहीं, बल्कि शरीर हमारा है
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हम अथवा मैं न तो कोई शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है। ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ, यह तो एकमात्र ‘अस्तित्व’ है जो शब्द-सत्ता से युक्त होता है। शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ के चलते-फिरते घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग-भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र है, ‘हम’ अथवा ‘मैं’ शरीर रूप विचित्र यन्त्र का चालक नियुक्त है। विचित्र यन्त्र रूप शरीर आत्म-शक्ति द्वारा चालित होता है जिसका संचालक या स्वामी एकमात्र परमधाम में बैठा हुआ परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर या सातवें आसमान पर बैठा हुआ अल्लाहतला है।
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हम अथवा मैं न तो कोई शरीर का कोई अंग है और न तो शरीर ही है। ‘हम’ अथवा ‘मैं’ न तो कोई वस्तु है और न कोई पदार्थ, यह तो एकमात्र ‘अस्तित्व’ है जो शब्द-सत्ता से युक्त होता है। शरीर ‘हम’ अथवा ‘मैं’ के चलते-फिरते घर के रूप में अथवा संसार में कर्म करने तथा उसका भोग-भोगने हेतु समस्त साधनों से युक्त सवारी के रूप में सृष्टि के अन्तर्गत श्रेष्ठतम् एवं सर्वोत्तम किस्म का एक विचित्र यन्त्र है, ‘हम’ अथवा ‘मैं’ शरीर रूप विचित्र यन्त्र का चालक नियुक्त है। विचित्र यन्त्र रूप शरीर आत्म-शक्ति द्वारा चालित होता है जिसका संचालक या स्वामी एकमात्र परमधाम में बैठा हुआ परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर या सातवें आसमान पर बैठा हुआ अल्लाहतला है।
अतः आत्म-शक्ति
द्वारा चालित शरीर विचित्र यन्त्र है जिसका चालक जीव नियुक्त है और तीनों –
आत्म-शक्ति, शरीर रूपी विचित्र यन्त्र और जीव रूपी चालक का एकमात्र मालिक
या संचालक केवल परमेश्वर ही हैं जो कि परमधाम में विराजमान रहते हैं और युग
युग में विशिष्ट प्रतिनिधियों की करुण पुकार पर आते हैं और समस्त किस्म के
मैं-मेरा, तू-तेरा रूप झगड़ों का रहस्य यथार्थतः जनाते, दिखाते, समझाते और
पहचान या परख कराते हुये सत्य और न्याय के साथ ‘ठीक’ करते हैं।
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन ?
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‘हम’ अथवा ‘मैं’ परम आकाश रूप परमधाम में सदा-सर्वदा सर्वशक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् रूप में निवास करने वाले परमात्मा या अल्लातआला का प्रतिबिम्ब रूप एक उन्ही का प्रतिनिधि अथवा सामान्य कर्मचारी होता है।
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन ?
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‘हम’ अथवा ‘मैं’ परम आकाश रूप परमधाम में सदा-सर्वदा सर्वशक्ति-सत्ता-सामर्थ्यवान् रूप में निवास करने वाले परमात्मा या अल्लातआला का प्रतिबिम्ब रूप एक उन्ही का प्रतिनिधि अथवा सामान्य कर्मचारी होता है।
‘सोsहं’ का नकल एवं फँसाहट रूप सोहर
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गर्भ स्थित शिशु शरीर में जैसे ही जीव का प्रवेश होता है जो ‘प्राण-प्रतिष्ठापन’ भी है, वैसे ही शरीर के अन्दर से यह आवाज निकलती है ---‘कोsहं’ जिसका अर्थ हुआ ‘मैं कौन ?’ कहीं से जबाब नहीं मिला, तब बार-बार यह आवाज होने लगी। तब कहीं एक विचित्र दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ शब्द रूप आवाज शरीर के अन्दर स्वांस-प्रस्वांस के साथ प्रवेश कर ‘कः’ के स
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गर्भ स्थित शिशु शरीर में जैसे ही जीव का प्रवेश होता है जो ‘प्राण-प्रतिष्ठापन’ भी है, वैसे ही शरीर के अन्दर से यह आवाज निकलती है ---‘कोsहं’ जिसका अर्थ हुआ ‘मैं कौन ?’ कहीं से जबाब नहीं मिला, तब बार-बार यह आवाज होने लगी। तब कहीं एक विचित्र दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ शब्द रूप आवाज शरीर के अन्दर स्वांस-प्रस्वांस के साथ प्रवेश कर ‘कः’ के स
्थान को ‘सः’ ले लेता है, जिससे कोsहं के स्थान पर सोsहं आवाज होने लगी, जो आज तक कायम है और आगे भी रहेगी।
जब सोsहं का सम्बन्ध कट जाता है, तब शिशु परेशान न हो अथवा परेशान होकर जीव शरीर ही न छोड़ दे, इसलिए सोsहं के स्थान पर ‘सोहर’ गा-गाकर शिशु को सुनाती हैं, जिसमें शिशु भटक जाता है कि हम उसी जाप को सुन रहे हैं।
शिशु ब्रह्म से सम्बंधित रहने पर दिव्यानन्द से युक्त रहते हुए मस्ती के साथ उसी में लीन रहता था। परन्तु स्वार्थी, लोभी, आसक्त माता-पिता, पारिवारिक सदस्य बनने वाले लोग, जो शिशु के जीव के तो मीठे जहर रूपी शत्रु होते ही हैं परन्तु ये मीठे जहर ही शिशु के हितैषी बनने लगते हैं, जो कामिनी और कंचन रूप परिवारिकता, सामाजिकता और सम्पत्तिकर्ता रूप सांसारिकता में फँसा एवं जकड़कर बर्बाद कर डालते हैं। ये बनने वाले हितैषी जन स्वार्थी, लोभी, पाखण्डी, धोखेबाज़ एवं जालसाजों का एक बनावटी समाज होता है, जो शिशुओं का हितैषी बन कर प्रसूति गृह से ही शिशु के साथ धोखा, छल, प्रपञ्च रूप जालसाज़ी में फँसाकर, ब्रह्म का जीव से सम्बन्ध जो ब्रह्म-नाल के माध्यम से कायम था, उसी को काटकर अपने में साटना शुरू कर देते हैं कि – हम ‘माता’ हैं, हम ‘पिता’ हैं, हम ‘भाई’ हैं, हम ‘बहिन’ हैं, हम ‘दादा’ हैं, हम ‘मामा’ हैं, हम ‘मौसी’ हैं, हम ‘फूफा’ हैं आदि-आदि। ये सभी अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपने-अपने सम्पर्कों को दिखा-दिखा कर फँसा देते हैं, जिसके कारण शिशु के शरीर में रहने वाला ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ में अपभ्रंश रूप परिवर्तित होकर उच्चारित होने लगा।
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से छिटककर ‘आत्म’ ‘शब्द’ रूप में अलग हुआ, पुनः ‘आत्म’ शब्द ‘सः’ शब्द में परिवर्तित हुआ, पुनः ‘सः’ शब्द ‘अहम्’ बनते हुये तुरन्त सोsहं शब्द-रूप में कायम रहा, फिर सोsहं में जब ‘सः’(ब्रह्म) से सम्बन्ध कट जाता है, तब मात्र ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ ‘हम’ करते हुए जनमानस में उच्चारित होने लगा। अन्ततः वह ‘हम’ या ‘मैं’ नाना शरीरों में जुट-जुट कर शारीरिक नामों व रूपों में छिप जाता है, जिसके कारण यह पता नहीं लगता कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? आदि।
जब सोsहं का सम्बन्ध कट जाता है, तब शिशु परेशान न हो अथवा परेशान होकर जीव शरीर ही न छोड़ दे, इसलिए सोsहं के स्थान पर ‘सोहर’ गा-गाकर शिशु को सुनाती हैं, जिसमें शिशु भटक जाता है कि हम उसी जाप को सुन रहे हैं।
शिशु ब्रह्म से सम्बंधित रहने पर दिव्यानन्द से युक्त रहते हुए मस्ती के साथ उसी में लीन रहता था। परन्तु स्वार्थी, लोभी, आसक्त माता-पिता, पारिवारिक सदस्य बनने वाले लोग, जो शिशु के जीव के तो मीठे जहर रूपी शत्रु होते ही हैं परन्तु ये मीठे जहर ही शिशु के हितैषी बनने लगते हैं, जो कामिनी और कंचन रूप परिवारिकता, सामाजिकता और सम्पत्तिकर्ता रूप सांसारिकता में फँसा एवं जकड़कर बर्बाद कर डालते हैं। ये बनने वाले हितैषी जन स्वार्थी, लोभी, पाखण्डी, धोखेबाज़ एवं जालसाजों का एक बनावटी समाज होता है, जो शिशुओं का हितैषी बन कर प्रसूति गृह से ही शिशु के साथ धोखा, छल, प्रपञ्च रूप जालसाज़ी में फँसाकर, ब्रह्म का जीव से सम्बन्ध जो ब्रह्म-नाल के माध्यम से कायम था, उसी को काटकर अपने में साटना शुरू कर देते हैं कि – हम ‘माता’ हैं, हम ‘पिता’ हैं, हम ‘भाई’ हैं, हम ‘बहिन’ हैं, हम ‘दादा’ हैं, हम ‘मामा’ हैं, हम ‘मौसी’ हैं, हम ‘फूफा’ हैं आदि-आदि। ये सभी अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपने-अपने सम्पर्कों को दिखा-दिखा कर फँसा देते हैं, जिसके कारण शिशु के शरीर में रहने वाला ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ में अपभ्रंश रूप परिवर्तित होकर उच्चारित होने लगा।
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से छिटककर ‘आत्म’ ‘शब्द’ रूप में अलग हुआ, पुनः ‘आत्म’ शब्द ‘सः’ शब्द में परिवर्तित हुआ, पुनः ‘सः’ शब्द ‘अहम्’ बनते हुये तुरन्त सोsहं शब्द-रूप में कायम रहा, फिर सोsहं में जब ‘सः’(ब्रह्म) से सम्बन्ध कट जाता है, तब मात्र ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ ‘हम’ करते हुए जनमानस में उच्चारित होने लगा। अन्ततः वह ‘हम’ या ‘मैं’ नाना शरीरों में जुट-जुट कर शारीरिक नामों व रूपों में छिप जाता है, जिसके कारण यह पता नहीं लगता कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? आदि।
शिशु का ‘कान’ बन्द क्यों रहता है ?
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गर्भस्थ शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसका कान ‘एक विचित्र किस्म के ध्वनि अवरोधक पदार्थ’ रूप ‘जावक’ से बन्द रहता है, जिसके कारण बाहरी कोई ध्वनि या शब्द अन्दर नहीं पहुँच पाती है। गर्भ में नार-पुरइन के माध्यम से शिशु ब्रह्म-ज्योति से सम्बंधित रहता है जिसके कारण अन्नाहार और जल के स्थान पर अमृत-पान करता रहता है। ब्रह्म के पास निरन
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गर्भस्थ शिशु जब गर्भ से बाहर आता है तो देखा जाता है कि उसका कान ‘एक विचित्र किस्म के ध्वनि अवरोधक पदार्थ’ रूप ‘जावक’ से बन्द रहता है, जिसके कारण बाहरी कोई ध्वनि या शब्द अन्दर नहीं पहुँच पाती है। गर्भ में नार-पुरइन के माध्यम से शिशु ब्रह्म-ज्योति से सम्बंधित रहता है जिसके कारण अन्नाहार और जल के स्थान पर अमृत-पान करता रहता है। ब्रह्म के पास निरन
्तर दिव्य-ध्वनियाँ होती रहती हैं, जिसको सुनते हुये शिशु मस्त पड़ा रहता है जो ‘अनहद्-नाद’ कहलाता है।
शिशु की नार-पुरइन जब काट दी जाती है तो ब्रह्म से सम्बन्ध भी कट जाता है और तब दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देनी बन्द हो जाती हैं, जिसके स्थान पर माता-पिता या पारिवारिक सदस्य लोग शिशु को उन दिव्य ध्वनियों के स्थान पर धोखा, छल एवं कपट पूर्वक जो नकली ध्वनियाँ फूल की थाली बजाकर कि ये वही दिव्य ध्वनियाँ हैं, सुनाते हैं। शिशु बेचारे को क्या मालूम कि उसके माता-पिता एवं पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही उसको प्रसूति-गृह में ही धोखा, छल, पाखण्ड, नकल एवं भ्रामक व्यवहार में फँसा दिया जाएगा।
शिशु की नार-पुरइन जब काट दी जाती है तो ब्रह्म से सम्बन्ध भी कट जाता है और तब दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देनी बन्द हो जाती हैं, जिसके स्थान पर माता-पिता या पारिवारिक सदस्य लोग शिशु को उन दिव्य ध्वनियों के स्थान पर धोखा, छल एवं कपट पूर्वक जो नकली ध्वनियाँ फूल की थाली बजाकर कि ये वही दिव्य ध्वनियाँ हैं, सुनाते हैं। शिशु बेचारे को क्या मालूम कि उसके माता-पिता एवं पारिवारिक सदस्यों द्वारा ही उसको प्रसूति-गृह में ही धोखा, छल, पाखण्ड, नकल एवं भ्रामक व्यवहार में फँसा दिया जाएगा।
शिशु की जिह्वा उल्टी क्यों रहती है ?
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गर्भस्थ शिशु जब गर्भ में रहता है तो उसका सम्बन्ध ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म से रहता है और जब पैदा होता है, तब भी नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध कायम रहता है, जिसके कारण शिशु की जिह्वा, जिह्वा मूल से ही ऊर्ध्वमुखी होकर कण्ठ-कूप में प्रवेश कर ‘अमृत-पान’ करती रहती है। यही कारण है कि शिशु की जिह्वा उल्टी रहती है।
जब शिशु का नार-पुरइन काट दिया जाता है, उसी समय ब्रह्म-ज्योति से उसका सम्बन्ध टूट जाता है, जिसके कारण जिह्वा को मुख में अंगुली डालकर कण्ठ-कूप से बाहर नीचे लाकर मुख में सामान्य रूप में कर दिया जाता है और कहा जाता है कि मुख के अन्दर कण्ठ से ‘लेझा’ निकाला गया है। यह उन लोगों को कौन समझाये कि ‘लेझा’ नहीं निकाला गया, बल्कि शिशु जो अमृत-पान कर रहा था, उसका उससे सम्बन्ध छुड़ा दिया गया है ताकि शिशु सांसारिक बनकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करे। ‘अमृत-पान’ से सम्बन्ध यदि न हटे तो उस शिशु को पूरे जीवन भर खाद्य या पेय पदार्थों में से किसी की भी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ सकती है।
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गर्भस्थ शिशु जब गर्भ में रहता है तो उसका सम्बन्ध ब्रह्म-ज्योति रूप ब्रह्म से रहता है और जब पैदा होता है, तब भी नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध कायम रहता है, जिसके कारण शिशु की जिह्वा, जिह्वा मूल से ही ऊर्ध्वमुखी होकर कण्ठ-कूप में प्रवेश कर ‘अमृत-पान’ करती रहती है। यही कारण है कि शिशु की जिह्वा उल्टी रहती है।
जब शिशु का नार-पुरइन काट दिया जाता है, उसी समय ब्रह्म-ज्योति से उसका सम्बन्ध टूट जाता है, जिसके कारण जिह्वा को मुख में अंगुली डालकर कण्ठ-कूप से बाहर नीचे लाकर मुख में सामान्य रूप में कर दिया जाता है और कहा जाता है कि मुख के अन्दर कण्ठ से ‘लेझा’ निकाला गया है। यह उन लोगों को कौन समझाये कि ‘लेझा’ नहीं निकाला गया, बल्कि शिशु जो अमृत-पान कर रहा था, उसका उससे सम्बन्ध छुड़ा दिया गया है ताकि शिशु सांसारिक बनकर गृहस्थ जीवन व्यतीत करे। ‘अमृत-पान’ से सम्बन्ध यदि न हटे तो उस शिशु को पूरे जीवन भर खाद्य या पेय पदार्थों में से किसी की भी कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ सकती है।
अमृत-पान वह
क्रिया है जिसके लिए बहुत-बहुत से योगी जीवन भर ‘खेचरी मुद्रा’ की क्रिया
का अभ्यास करते रहते हैं। यह सबसे कठिन मुद्रा मानी जाती है। योगियों की
माता भी यही मुद्रा कहलाई है।
अमृत के स्थान पर मधु चटाकर शिशु को फँसाना और पेट हेतु गुलाम बनाना –
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अमृत-पान करते हुए शिशु की जिह्वा को जिह्वा-मूल से पकड़कर कण्ठ-कूप से बाहर खींचकर मुख के अन्दर सामान्य रूप में रख देते हैं। पहले पहल तो नार-पुरइन काट दी जाती है और नहीं तो जिह्वा को कण्ठ-कूप से खींचकर अमृत-पान को भी छुड़ा दिया जाता है, जिससे कि भूख-प्यास लगेगी तो शिशु हमारे अनुसार होने लगेगा, ऐसा होते-होते हमको ही अपना मानने लगेगा। इस प्रकार शिशु में पारिवारिकता और सांसारिकता में जकड़ दिया जाता है जिससे कि वह आसानी से क्या कठिनाई से भी निकलने में विभिन्न तरीकों के विरोधों और संघर्षों से गुजरता है। तब भी जीवन भर सशंकित ही रहता है कि कहीं फँस न जाय।
अमृत-पान से वंचित होने पर माता-पिता या पास-पड़ोस के जो लोग उस समय उस स्थान पर उपस्थित रहते हैं, बार बार यह कहना प्रारम्भ कर देते हैं कि जल्दी मधु चटाओ, नहीं तो गला सूख जाएगा। इन लोगों से यदि पूछा जाय कि आज तक गला क्यों नहीं सूखता था कि अब गला ही सूख जाएगा ? ऐसी क्या बात है ? उस पर तो कोई विचार नहीं करता। करता क्या है कि झट से ‘मधु’ लाया और चटा दी। शिशु बेचारा क्या करे ? उसको क्या पता कि पैदा होते ही मेरा जीवन धोखे, छल, पाखण्ड और मिथ्या भ्रम में डाला जा रहा है। अमृत-पान ही कर रहे हैं। इस प्रकार का धोखा, छल, पाखण्ड व्यवहार अपने पुत्र या पारिवारिक सदस्य रूप शिशु के साथ उसके पैदाइश के समय किया जाता है। अब विचारणीय बात तो यह है कि इस परिस्थिति से गुजरने वाले शिशु का अगला जीवन क्या होगा ? इस पर तो स्वार्थरत रहने के कारण कोई ध्यान नहीं देता है। शिशु बेचारे को क्या पता कि आज उसको अमृत के स्थान पर मधु दी जाती है, तो कल मधु के स्थान पर माता का दूध होगा, तो कुछ दिन बाद बकरी, गाय, भैंस का दूध दिया जाएगा। वह भी क्षमतानुसार, उसके बाद दूध के स्थान पर अन्न और पानी पर गुजर-बसर करना पड़ेगा। इतना ही नहीं, वह अन्न और जल भी अथक परिश्रम करने से ही मिलेगा, बहुतों को तो अथक परिश्रम करने के बाद भी पेट भर अन्न और पानी नहीं मिलेगा, ऐसे ही दुनिया में भ्रमण करना है।
अमृत-पान से हटाकर अन्न और जल से सम्बन्ध जोड़ने का परिणाम ही है कि पेट के लिए चोरी, घूसखोरी, डकैती तथा नाना तरह के कुकुर्मों से गुजरते हुये नौकरी और गुलामी तक करने पर भी विश्व के समक्ष भोजन एक सबसे जटिल समस्या बनी हुई है।
अमृत के स्थान पर मधु चटाकर शिशु को फँसाना और पेट हेतु गुलाम बनाना –
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अमृत-पान करते हुए शिशु की जिह्वा को जिह्वा-मूल से पकड़कर कण्ठ-कूप से बाहर खींचकर मुख के अन्दर सामान्य रूप में रख देते हैं। पहले पहल तो नार-पुरइन काट दी जाती है और नहीं तो जिह्वा को कण्ठ-कूप से खींचकर अमृत-पान को भी छुड़ा दिया जाता है, जिससे कि भूख-प्यास लगेगी तो शिशु हमारे अनुसार होने लगेगा, ऐसा होते-होते हमको ही अपना मानने लगेगा। इस प्रकार शिशु में पारिवारिकता और सांसारिकता में जकड़ दिया जाता है जिससे कि वह आसानी से क्या कठिनाई से भी निकलने में विभिन्न तरीकों के विरोधों और संघर्षों से गुजरता है। तब भी जीवन भर सशंकित ही रहता है कि कहीं फँस न जाय।
अमृत-पान से वंचित होने पर माता-पिता या पास-पड़ोस के जो लोग उस समय उस स्थान पर उपस्थित रहते हैं, बार बार यह कहना प्रारम्भ कर देते हैं कि जल्दी मधु चटाओ, नहीं तो गला सूख जाएगा। इन लोगों से यदि पूछा जाय कि आज तक गला क्यों नहीं सूखता था कि अब गला ही सूख जाएगा ? ऐसी क्या बात है ? उस पर तो कोई विचार नहीं करता। करता क्या है कि झट से ‘मधु’ लाया और चटा दी। शिशु बेचारा क्या करे ? उसको क्या पता कि पैदा होते ही मेरा जीवन धोखे, छल, पाखण्ड और मिथ्या भ्रम में डाला जा रहा है। अमृत-पान ही कर रहे हैं। इस प्रकार का धोखा, छल, पाखण्ड व्यवहार अपने पुत्र या पारिवारिक सदस्य रूप शिशु के साथ उसके पैदाइश के समय किया जाता है। अब विचारणीय बात तो यह है कि इस परिस्थिति से गुजरने वाले शिशु का अगला जीवन क्या होगा ? इस पर तो स्वार्थरत रहने के कारण कोई ध्यान नहीं देता है। शिशु बेचारे को क्या पता कि आज उसको अमृत के स्थान पर मधु दी जाती है, तो कल मधु के स्थान पर माता का दूध होगा, तो कुछ दिन बाद बकरी, गाय, भैंस का दूध दिया जाएगा। वह भी क्षमतानुसार, उसके बाद दूध के स्थान पर अन्न और पानी पर गुजर-बसर करना पड़ेगा। इतना ही नहीं, वह अन्न और जल भी अथक परिश्रम करने से ही मिलेगा, बहुतों को तो अथक परिश्रम करने के बाद भी पेट भर अन्न और पानी नहीं मिलेगा, ऐसे ही दुनिया में भ्रमण करना है।
अमृत-पान से हटाकर अन्न और जल से सम्बन्ध जोड़ने का परिणाम ही है कि पेट के लिए चोरी, घूसखोरी, डकैती तथा नाना तरह के कुकुर्मों से गुजरते हुये नौकरी और गुलामी तक करने पर भी विश्व के समक्ष भोजन एक सबसे जटिल समस्या बनी हुई है।
शिशु की आँखें बन्द क्यों रहती हैं ?
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शिशु जब गर्भ से बाहर आता है, तो देखा जाता है कि उसकी आँखें बन्द रहती हैं। परन्तु इस पर कोई विचार नहीं करता कि ऐसा क्यों होता है ? जब किसी क्रिया पर विचार होता है तभी उसकी महत्ता समझ में आती है, अन्यथा नहीं।
जब शिशु गर्भ में था और नार-पुरइन से युक्त था, तब वह ध्यान-मुद्रा में आत्म-ज्योति का दर्शन करता रहता था, जो दिव्यानन्द से युक्त था, जिसकी
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शिशु जब गर्भ से बाहर आता है, तो देखा जाता है कि उसकी आँखें बन्द रहती हैं। परन्तु इस पर कोई विचार नहीं करता कि ऐसा क्यों होता है ? जब किसी क्रिया पर विचार होता है तभी उसकी महत्ता समझ में आती है, अन्यथा नहीं।
जब शिशु गर्भ में था और नार-पुरइन से युक्त था, तब वह ध्यान-मुद्रा में आत्म-ज्योति का दर्शन करता रहता था, जो दिव्यानन्द से युक्त था, जिसकी
अनुभूति में शिशु मस्त पड़ा रहता है, जिसको बाहय दृश्य दर्शन की आवश्यकता
ही नहीं पड़ती है। उसी ध्यान मुद्रा में ही शिशु की पैदाइश होती है, जिसके
कारण आँखें बन्द रहती हैं और नार-पुरइन जब कटवा दी जाती है तब आत्म-ज्योति
से सम्बन्ध कट जाता है, तब शिशु को परेशानी न हो या कष्ट न हो अथवा जीव उस
ज्योति की खोज में शरीर छोड़कर न चला जाय, इसीलिए प्रसूति-गृह में शिशु की
उत्पत्ति से पूर्व ही ‘दीप’ जला दिया जाता है और ऐसी व्यवस्था कर दी जाती
है कि ‘दीप’ बुझने न पाये।
ब्रह्म-ज्योति का पाखण्ड रूप दीप-ज्योति –
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शिशु जब पैदा होता है, उसके पूर्व से ही प्रसूति गृह में दीप जला कर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि दीप बुझना नहीं चाहिए नहीं तो यमदूत शिशु को छू देंगे या यमदूत शिशु को लेकर चले जायेंगे। परन्तु बात की असलियत तो कुछ और ही रहती है। हालाँकि प्रभाव लगभग एक समान ही है कि जीव जो ब्रह्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुआ दिव्यानन्द में मस्त था, वहीं अब नार-पुरइन कट जाने से ब्रह्म-ज्योति का दर्शन होना तो बन्द हो जाता है, तब शिशु का जीव आत्म-ज्योति की तलाश में शरीर छोड़कर न चला जाय या विक्षिप्त न हो जाय, इसी को यमदूत का ले जाना या छूना कहा जाता है। यही कारण है कि दीप जलाकर शिशु को भरमाया जाता है कि ऐ शिशु ! मत घबराओ, जिस आत्म-ज्योति को देखते थे, देखो ! यह दीप-ज्योति वही ब्रह्म-ज्योति है ! इतना बड़ा पाखण्ड, धोखा, छल एवं फंसाहट शिशु के जीव के साथ सांसारिक माता-पिता या पारिवारिक लोग आदि करते हैं और फंसाकर अपना स्वार्थ साधते हैं और जब कोई सन्त-महात्मा फँसे हुये व्यक्ति का पुनः ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध जोड़ कर पारिवारिक, सामाजिक आदि बन्धन से मुक्त करते हैं तो ये स्वार्थी लोग, सन्त-महात्मा को ही ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरी आदि कहकर बदनाम करते हैं और फँसे हुये लोगों को उनके पास पहुँचने से सब प्रयत्नों से एक होकर मना करते हैं और लोग नहीं मानते हैं, तब संतों से विरोध, यहाँ तक कि संघर्ष भी कर बैठते हैं।
ब्रह्म-ज्योति का पाखण्ड रूप दीप-ज्योति –
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शिशु जब पैदा होता है, उसके पूर्व से ही प्रसूति गृह में दीप जला कर रख दिया जाता है और कहा जाता है कि दीप बुझना नहीं चाहिए नहीं तो यमदूत शिशु को छू देंगे या यमदूत शिशु को लेकर चले जायेंगे। परन्तु बात की असलियत तो कुछ और ही रहती है। हालाँकि प्रभाव लगभग एक समान ही है कि जीव जो ब्रह्म-ज्योति का साक्षात्कार करता हुआ दिव्यानन्द में मस्त था, वहीं अब नार-पुरइन कट जाने से ब्रह्म-ज्योति का दर्शन होना तो बन्द हो जाता है, तब शिशु का जीव आत्म-ज्योति की तलाश में शरीर छोड़कर न चला जाय या विक्षिप्त न हो जाय, इसी को यमदूत का ले जाना या छूना कहा जाता है। यही कारण है कि दीप जलाकर शिशु को भरमाया जाता है कि ऐ शिशु ! मत घबराओ, जिस आत्म-ज्योति को देखते थे, देखो ! यह दीप-ज्योति वही ब्रह्म-ज्योति है ! इतना बड़ा पाखण्ड, धोखा, छल एवं फंसाहट शिशु के जीव के साथ सांसारिक माता-पिता या पारिवारिक लोग आदि करते हैं और फंसाकर अपना स्वार्थ साधते हैं और जब कोई सन्त-महात्मा फँसे हुये व्यक्ति का पुनः ब्रह्म-ज्योति से सम्बन्ध जोड़ कर पारिवारिक, सामाजिक आदि बन्धन से मुक्त करते हैं तो ये स्वार्थी लोग, सन्त-महात्मा को ही ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरी आदि कहकर बदनाम करते हैं और फँसे हुये लोगों को उनके पास पहुँचने से सब प्रयत्नों से एक होकर मना करते हैं और लोग नहीं मानते हैं, तब संतों से विरोध, यहाँ तक कि संघर्ष भी कर बैठते हैं।
अनहद्-नाद
=======
आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लो
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आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लो
ग कानों को बन्द कर-कर के सुना
करते हैं, परन्तु गर्भस्थ शिशु अनहद्-नाद मुद्रा में दिव्य-ध्वनि को सुनते
हुये दिव्य-आनन्द में मस्त पड़ा रहता है।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।
अनहद्-नाद
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आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लोग कानों को बन्द कर-कर के सुना करते हैं, परन्तु गर्भस्थ शिशु अनहद्-नाद मुद्रा में दिव्य-ध्वनि को सुनते हुये दिव्य-आनन्द में मस्त पड़ा रहता है।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।
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आत्म-ज्योति के अन्तर्गत होती रहने वाली दिव्य-ध्वनि को श्रवण करने वाली क्रिया प्रक्रिया ही अनहद्-नाद है। यह क्रिया-प्रक्रिया सदा-सर्वदा निरन्तर धुन के रूप में असीम (कितने प्रकार की ध्वनि इसमें निहित रहती है अब तक निश्चित नहीं हो सका है। ) रूप में होता रहता है अर्थात यह सीमा से रहित होता है, इसीलिए इसे अनहद्-नाद कहा जाता है। यह दिव्य-ध्वनि दिव्य-आनन्द से युक्त होती है, जिसे योगी लोग कानों को बन्द कर-कर के सुना करते हैं, परन्तु गर्भस्थ शिशु अनहद्-नाद मुद्रा में दिव्य-ध्वनि को सुनते हुये दिव्य-आनन्द में मस्त पड़ा रहता है।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।
ध्यान-मुद्रा
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ध्यान-मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसके अन्तर्गत दृष्टि बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी होकर उर्ध्वमुखी रूप में आज्ञा-चक्र में टिकायी जाती है। यही दिव्य-दृष्टि तथा तीसरी दृष्टि भी है, जिससे युक्त रहने के कारण शंकर जी त्रिनेत्र भी कहलाते हैं। आत्म-ज्योति का साक्षात्कार इसी ध्यान-मुद्रा अथवा दिव्य-दृष्टि से ही होता है।
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ध्यान-मुद्रा वह मुद्रा होती है जिसके अन्तर्गत दृष्टि बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी होकर उर्ध्वमुखी रूप में आज्ञा-चक्र में टिकायी जाती है। यही दिव्य-दृष्टि तथा तीसरी दृष्टि भी है, जिससे युक्त रहने के कारण शंकर जी त्रिनेत्र भी कहलाते हैं। आत्म-ज्योति का साक्षात्कार इसी ध्यान-मुद्रा अथवा दिव्य-दृष्टि से ही होता है।
गर्भस्थ शिशु ध्यान मुद्रा में रहते हुये सदा-सर्वदा ज्योतिर्मय रहता है।
आत्म-ज्योति से युक्त होकर चिदानंदमय पड़ा रहता है। यही कारण है कि शिशु
उर्ध्वमुखी रहते हुये आँखें बन्द किए रहता है, जिसके अन्तर्गत जीव
ज्योतिर्मय ‘आत्मा’ या ब्रह्म से युक्त होकर पड़ा रहता है। यह
‘आत्म-ज्योति’ परमधाम में वास करने वाले परमात्मा से छिटककर भ्रू-मध्य
स्थित आज्ञा-चक्र में आती है, जहाँ पर जीव, अजपा-जाप की क्रिया के माध्यम
से पहुँचकर ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति का साक्षात्कार करते हुये चिदानंदमय
स्थिति में कायम रहता है। गर्भस्थ शिशु इसी मुद्रा में पड़ा रहता है।
अमृत-पान
=======
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जिह्वा-मूल के ऊपर एक कण्ठ-कूप होता है। इस कूप को अमृत-कूप भी कहते हैं। गर्भस्थ शिशु की जिह्वा, जिह्वा-मूल से ही ऊपर उठकर उसी कण्ठ-कूप में पड़ी रहती है और शिशु अमृत-पान करता रहता है। बाहय व्यवहार से सिमटकर इंद्रियाँ अन्तरमुखी होकर ध्यान के अन्दर रहते हुये जिह्वा को खींचकर जिह्वा-मूल से ऊपर कण्ठ-कूप में स्थिर करने वाली पद्धति ही खेंचरी मुद्रा या अमृत-पा
=======
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जिह्वा-मूल के ऊपर एक कण्ठ-कूप होता है। इस कूप को अमृत-कूप भी कहते हैं। गर्भस्थ शिशु की जिह्वा, जिह्वा-मूल से ही ऊपर उठकर उसी कण्ठ-कूप में पड़ी रहती है और शिशु अमृत-पान करता रहता है। बाहय व्यवहार से सिमटकर इंद्रियाँ अन्तरमुखी होकर ध्यान के अन्दर रहते हुये जिह्वा को खींचकर जिह्वा-मूल से ऊपर कण्ठ-कूप में स्थिर करने वाली पद्धति ही खेंचरी मुद्रा या अमृत-पा
न कहलाता है, जो गर्भस्थ शिशु का स्वतः ही होता रहता है।
अमृत-पान वह विधि है जिससे युक्त और सिद्ध होने वाला साधक भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मूर्छा, जहर आदि-आदि को जीतकर बिना भोजन किए ही हष्ट-पुष्ट एवं तेज से युक्त हो जाता है। योग-साधना के अन्तर्गत यह मुद्रा सबसे अधिक प्रभावी मानी जाती है। इस मुद्रा के लिए कितने-कितने वर्षों तक लगातार अभ्यास करने पर भी बहुत कम लोगों की सिद्ध हो पाती है, जबकि गर्भस्थ शिशु इसी मुद्रा में पड़ा रहता है। यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु को भूख, प्यास आदि नहीं सताती और बिना बाहय खाद तथा पेय पदार्थ के ही शिशु स्वतः ही स्वस्थ रहता है।
अमृत-पान वह विधि है जिससे युक्त और सिद्ध होने वाला साधक भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, मूर्छा, जहर आदि-आदि को जीतकर बिना भोजन किए ही हष्ट-पुष्ट एवं तेज से युक्त हो जाता है। योग-साधना के अन्तर्गत यह मुद्रा सबसे अधिक प्रभावी मानी जाती है। इस मुद्रा के लिए कितने-कितने वर्षों तक लगातार अभ्यास करने पर भी बहुत कम लोगों की सिद्ध हो पाती है, जबकि गर्भस्थ शिशु इसी मुद्रा में पड़ा रहता है। यही कारण है कि गर्भस्थ शिशु को भूख, प्यास आदि नहीं सताती और बिना बाहय खाद तथा पेय पदार्थ के ही शिशु स्वतः ही स्वस्थ रहता है।
कोsहं और सोsहं
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गर्भस्थ शिशु शरीर की रचना जब पूरी हो जाती है और उसमें ‘अहम्’ रूप जीव प्राण-प्रतिष्ठापन होता है, तब तुरन्त ही उस गर्भस्थ शिशु के अन्तर्गत यह प्रश्न रूप आवाज होने लगती है की कोsहं, कोsहं, कोsहं, ----? इस प्रकार की आवाज जिसका अर्थ यह हुआ कि मैं कौन ? मैं कौन ? मैं कौन ? ..... इस प्रकार की आवाज निकालते हुए जब शिशु काफी परेशान हुआ, तब जबाब यानी उत्तर में शिशु को एक दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ ‘शब्द’ से युक्त थी। पुनः देखा कि वह ‘सः’ शब्द शिशु के अन्दर प्रवेश किया करता है और ‘वही’ ‘सः’ शब्द शरीर में प्रवेश कर ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित हो जाता है, जो ‘अहम्’ शरीर के अन्तर्गत कायम रहता है। पुनः ‘सः’ प्रवेश करता रहता है और ‘अहम्’ के रूप में बाहर निकलता रहता है। चूँकि पहले ‘सः’ प्रवेश करता है और ‘अहम्’ बाद में निकलता है, इसलिए दोनों का जब मिलन होता है, तब ‘सः + अहम्’ = ‘सोsहं’ शब्द रूप ले लेता है। इस प्रकार गर्भस्थ शिशु गर्भ के अन्तर्गत ‘सोsहं’ शब्द से युक्त रहता है।
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गर्भस्थ शिशु शरीर की रचना जब पूरी हो जाती है और उसमें ‘अहम्’ रूप जीव प्राण-प्रतिष्ठापन होता है, तब तुरन्त ही उस गर्भस्थ शिशु के अन्तर्गत यह प्रश्न रूप आवाज होने लगती है की कोsहं, कोsहं, कोsहं, ----? इस प्रकार की आवाज जिसका अर्थ यह हुआ कि मैं कौन ? मैं कौन ? मैं कौन ? ..... इस प्रकार की आवाज निकालते हुए जब शिशु काफी परेशान हुआ, तब जबाब यानी उत्तर में शिशु को एक दिव्य-ज्योति दिखलाई दी, जो ‘सः’ ‘शब्द’ से युक्त थी। पुनः देखा कि वह ‘सः’ शब्द शिशु के अन्दर प्रवेश किया करता है और ‘वही’ ‘सः’ शब्द शरीर में प्रवेश कर ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित हो जाता है, जो ‘अहम्’ शरीर के अन्तर्गत कायम रहता है। पुनः ‘सः’ प्रवेश करता रहता है और ‘अहम्’ के रूप में बाहर निकलता रहता है। चूँकि पहले ‘सः’ प्रवेश करता है और ‘अहम्’ बाद में निकलता है, इसलिए दोनों का जब मिलन होता है, तब ‘सः + अहम्’ = ‘सोsहं’ शब्द रूप ले लेता है। इस प्रकार गर्भस्थ शिशु गर्भ के अन्तर्गत ‘सोsहं’ शब्द से युक्त रहता है।
‘सोsहं’ का अजपा-जाप
रूप स्वांस-प्रस्वांस की प्रक्रिया के अन्तर्गत यह शक्ति शरीर के अन्दर
प्रवेश कर बिना किसी बाह्य वस्तुओं की सहायता के समस्त आवश्यकताओं की
पूर्ति करती रहती है।
शरीर-तन्त्र एक अति जटिल रचना है
====================
इस साढ़े तीन हाथ के शरीर के अन्तर्गत ही अनन्त सृष्टि या ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएं, यन्त्र आदि, जो कुछ भी है, प्रतीकात्मक रूप में नियत किए गए हैं। तारे, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह, देवता आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, सब के सब ही प्रतीकात्मक रूप में प्रत्येक शरीर के अन्तर्गत ही नियत हुए हैं। शरीर-तन्त्र और सृष्टि-तन्त्र दोनों की उत्पत्ति या रचना एक समान वस्तुओं और पद्धतियों से ही होती है। वह वस्तु या पदार्थ ‘जड़’ और ‘चेतन’ तथा वह पद्धति ‘गुण’ और ‘दोष’ है। इन्ही जड़ और चेतन रूपी दो वस्तुओं तथा गुण और दोष रूपी दो पद्धतियों से ही शरीर-तन्त्र तथा सृष्टि-तन्त्र की भी उत्पत्ति या रचना होती है। यही कारण है कि योगी-जन भ्रमवश स्वराट शरीर को ही विराट शरीर मान व घोषित करते हुये कायम कर देते हैं।
====================
इस साढ़े तीन हाथ के शरीर के अन्तर्गत ही अनन्त सृष्टि या ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएं, यन्त्र आदि, जो कुछ भी है, प्रतीकात्मक रूप में नियत किए गए हैं। तारे, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह, देवता आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, सब के सब ही प्रतीकात्मक रूप में प्रत्येक शरीर के अन्तर्गत ही नियत हुए हैं। शरीर-तन्त्र और सृष्टि-तन्त्र दोनों की उत्पत्ति या रचना एक समान वस्तुओं और पद्धतियों से ही होती है। वह वस्तु या पदार्थ ‘जड़’ और ‘चेतन’ तथा वह पद्धति ‘गुण’ और ‘दोष’ है। इन्ही जड़ और चेतन रूपी दो वस्तुओं तथा गुण और दोष रूपी दो पद्धतियों से ही शरीर-तन्त्र तथा सृष्टि-तन्त्र की भी उत्पत्ति या रचना होती है। यही कारण है कि योगी-जन भ्रमवश स्वराट शरीर को ही विराट शरीर मान व घोषित करते हुये कायम कर देते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य, सृष्टि के अन्तर्गत निहित
पाँच पदार्थ-तत्त्वों तथा उनसे निर्मित वस्तुओं कि यथार्थ जानकारी और
पहचान कर उसका प्रतिवेदन (Report) जीवात्मा को सुपुर्द करते रहना है। जिसके
आधार पर जीवात्मा मन अथवा बुद्धि को, जिसके क्षेत्र से सम्बंधित प्रतिवेदन
(रिपोर्ट) होता है, उसको क्रियान्वयन हेतु सुपुर्द करती है, उसके बाद
जिसको सुपुर्द होता है वह मन या बुद्धि कर्मेन्द्रियों के माध्यम से
प्रतिवेदन (रिपोर्ट) तथा जीवात्मा के निर्देशन अनुसार कार्य करवाता है। इस
प्रकार कार्यों के क्रियान्वयन हेतु मन और बुद्धि के साधन रूप में जिन
अंगों की रचना हुई, उन्हे ही कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है। ये
कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच ही होती हैं। इस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों और
कर्मेन्द्रियों की संयुक्त रूप में बनी आकृति ही शरीर है। अब देखते हैं कि
गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति हो
जाने के बाद वह हिरण्य ही मानव शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस
प्रकार हिरण्य से शरीर रूप में परिवर्तित होने में कुल तीन माह के करीब समय
लगता है।
ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति और उनके कार्य
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आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – पाँच प्रकार के पदार्थ-तत्त्वों से ही सृष्टि रूप विराट शरीर तथा शरीर रूप स्वराट शरीर की रचना होती है। जो ब्रह्माण्ड और पिण्ड नामों से भी सुना व जाना जाता है। जिसके द्वारा इन पाँच पदार्थ-तत्त्वों की जानकारी और पहचान होती है, वही सूक्ष्म-तत्त्व अथवा विषय है। विषयों के माध्यम स
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आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – पाँच प्रकार के पदार्थ-तत्त्वों से ही सृष्टि रूप विराट शरीर तथा शरीर रूप स्वराट शरीर की रचना होती है। जो ब्रह्माण्ड और पिण्ड नामों से भी सुना व जाना जाता है। जिसके द्वारा इन पाँच पदार्थ-तत्त्वों की जानकारी और पहचान होती है, वही सूक्ष्म-तत्त्व अथवा विषय है। विषयों के माध्यम स
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पदार्थ-तत्त्वों तथा उससे उत्पन्न वस्तुओं को जानने और पहचानने हेतु गर्भ
स्थित हिरण्य में जिन अंगों की रचना हुई, वही उस विषय की ज्ञानेन्द्रिय
कहलाई। दूसरे शब्दों में पाँच पदार्थ-तत्त्वों जिससे स्वराट एवं विराट
शरीरों की रचना होती है, पाँचों का अपना-अपना विषय होता है, जिसके द्वारा
स्वराट शरीर और विराट शरीर सम्बंधित होते हैं। चूँकि स्वराट शरीर, विराट
शरीर की एक इकाई मात्र होती है और विराट शरीर ऐसे असंख्य इकाइयों का
संयुक्त रूप होता है, इसलिए स्वराट शरीर के अन्तर्गत कमियों की पूर्ति हेतु
विराट शरीर द्वारा विषयों के माध्यम से सम्बन्ध कायम रखने हेतु गर्भ स्थित
‘हिरण्य’ में जिन-जिन विषयों के लिए जो-जो स्थान नियत हुये, उसमें से
‘ज्ञान’ (जानकारी और पहचान करने) सम्बन्धी स्थानों को ज्ञानेन्द्रिय और
कर्म करने वाले स्थान या अंगों को कर्मेन्द्रिय कहा गया। पाँचों
पदार्थ-तत्त्वों हेतु पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा पाँच कर्मेन्द्रियों की
रचना हुई।
पाँच पदार्थ-तत्त्व जिस क्रम से विराट शरीर रूप सृष्टि में उत्पन्न हुये थे, ठीक उसी क्रम में उसी गुण-स्वभाव से स्वराट-शरीर रूप मानव शरीर वाले ‘हिरण्य’ में भी उत्पन्न हुआ, जिससे कि बिना किसी व्यवधान के स्वराट और विराट शरीरों में निहित पाँचों तत्त्व आसानी से मिल एवं व्यवहरित हो सकें। सर्वप्रथम आकाश-तत्त्व की उत्पत्ति हुई जिसका सूक्ष्म रूप या विषय ‘शब्द’ है। आकाश को जानने हेतु शब्द को जानना जरूरी है। अर्थात् शब्द के बगैर आकाश तत्त्व को हम जान ही नहीं सकते हैं क्योंकि यह मात्र एक गुण स्वभाव वाला होता है और वह गुण-स्वभाव ‘शब्द’ ही है। हालांकि राग, द्वेष, लज्जा, भय और मोह आदि ये पाँच गुण इसी आकाश तत्त्व से ही सम्बंधित हैं। ये आकाश तत्त्व के विषय नहीं हैं। विषय तो ‘शब्द’ है। यही कारण है कि ‘हिरण्य-गर्भ’ में सर्वप्रथम कान की रचना हुई, जिसके माध्यम से विराट शरीर के अन्तर्गत विशालकाय रूप में स्थित आकाश तत्त्व से सम्बन्ध कायम रहे, उसके बाद इसी क्रम से वायु तत्त्व से सम्बन्ध हेतु स्पर्श के लिए त्वचा की उत्पत्ति हुई, फिर अग्नि-तत्त्व से सम्बन्ध रखने हेतु ‘रूप’ को देखने के लिए ‘चक्षु’ (आँख) की उत्पत्ति हुई, फिर जल-तत्त्व से सम्बन्ध हेतु जल-तत्त्व के विषय ‘रस’ को परखने के लिए ‘रसना’ (जिह्वा) की उत्पत्ति हुई और अन्त में पृथ्वी-तत्त्व से सम्बन्ध कायम रखने के लिए पृथ्वी-तत्त्व के विषय गन्ध को समझने हेतु नाक की उत्पत्ति हुई।
पाँच पदार्थ-तत्त्व जिस क्रम से विराट शरीर रूप सृष्टि में उत्पन्न हुये थे, ठीक उसी क्रम में उसी गुण-स्वभाव से स्वराट-शरीर रूप मानव शरीर वाले ‘हिरण्य’ में भी उत्पन्न हुआ, जिससे कि बिना किसी व्यवधान के स्वराट और विराट शरीरों में निहित पाँचों तत्त्व आसानी से मिल एवं व्यवहरित हो सकें। सर्वप्रथम आकाश-तत्त्व की उत्पत्ति हुई जिसका सूक्ष्म रूप या विषय ‘शब्द’ है। आकाश को जानने हेतु शब्द को जानना जरूरी है। अर्थात् शब्द के बगैर आकाश तत्त्व को हम जान ही नहीं सकते हैं क्योंकि यह मात्र एक गुण स्वभाव वाला होता है और वह गुण-स्वभाव ‘शब्द’ ही है। हालांकि राग, द्वेष, लज्जा, भय और मोह आदि ये पाँच गुण इसी आकाश तत्त्व से ही सम्बंधित हैं। ये आकाश तत्त्व के विषय नहीं हैं। विषय तो ‘शब्द’ है। यही कारण है कि ‘हिरण्य-गर्भ’ में सर्वप्रथम कान की रचना हुई, जिसके माध्यम से विराट शरीर के अन्तर्गत विशालकाय रूप में स्थित आकाश तत्त्व से सम्बन्ध कायम रहे, उसके बाद इसी क्रम से वायु तत्त्व से सम्बन्ध हेतु स्पर्श के लिए त्वचा की उत्पत्ति हुई, फिर अग्नि-तत्त्व से सम्बन्ध रखने हेतु ‘रूप’ को देखने के लिए ‘चक्षु’ (आँख) की उत्पत्ति हुई, फिर जल-तत्त्व से सम्बन्ध हेतु जल-तत्त्व के विषय ‘रस’ को परखने के लिए ‘रसना’ (जिह्वा) की उत्पत्ति हुई और अन्त में पृथ्वी-तत्त्व से सम्बन्ध कायम रखने के लिए पृथ्वी-तत्त्व के विषय गन्ध को समझने हेतु नाक की उत्पत्ति हुई।
आनन्द (THE PLEASURE)
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जीव से, जीव के लिए तथा जीव तक ही अथवा विचार द्वारा, विचार के लिए तथा विचार तक ही, इच्छित विषयानुकूल विचारों आदि से प्राप्त प्रसन्नता ही आनन्द है। सुख का विरोधी दुःख, दिन का विरोधी रात, सत्य का विरोधी असत्य, ग्रहण का विरोधी त्याग, आदि का विरोधी अन्त आदि-आदि सांसारिक वस्तुएं जड़ और चेतन तथा गुण और दोष आदि दो वस्तुओं और दो पद्धतियों जो आपस में विरोधी स्वभाव वाली होने के कारण द्विपक्षीय अथवा उभयपक्षीय होती हैं, परन्तु सांसारिकता से ऊपर उठकर ‘विचार के क्षेत्र’ में अपने शरीर को रख देने पर उभयपक्षीय गुण-स्वभाव समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि आनन्द का कोई विरोधी शब्द ही नहीं बना है। आनन्द हेतु व्यक्ति और वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है। मात्र विचार से ही प्राप्त हो जाता है। इस वर्ग के लोग अहंकारी होते हैं क्योंकि ‘अहम्’ रूप जीव ही इसका सर्वे-सर्वा आभासित होता है। इस वर्ग के लोग बात तो ज्ञानी की तरह करते हैं परन्तु कर्म जड़ी और आसक्त का होता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाले ये ही लोग होते हैं। इन लोगों को अपने समान कोई नहीं दिखलाई देता है जबकि आध्यात्मिक महात्माओं के सांमने इनकी कोई स्थिति नहीं होती है। इस वर्ग के लोग चिदानंद और सच्चिदानन्द के अनुभूति और बोध से बिल्कुल ही वंचित होते हैं। चूँकि आनन्द सांसारिक सुखों से ऊँचे स्थान का होता है। इसीलिए ये आनन्द को ही चिदानन्द और सच्चिदानन्द भी मान बैठते हैं। ये लोग अध्यात्मिकों की, यहाँ तक कि अवतार की भी निन्दा या आलोचना अथवा विरोध किए बिना नहीं मानते हैं। जबकि ये स्वयं निन्दित होते हैं। ये लोग स्वयं अहंकारी और आसक्त होते हुये भी अध्यात्मिकों और अवतारी को ही अहंकारी और आसक्त घोषित करने लगते हैं। जब अवतारी अपने अवतरण की बात बताने और जनाने-दिखाने तथा पहचान कराने लगते हैं, तो ये सब इतने बड़े अहंकारी और जड़ी होते हैं कि अवतारी के अवतरण प्रक्रिया को जानने-समझने और पहचानने की अपेक्षा व्यंग कसने लगते हैं कि ये (अवतारी) स्व घोषित भगवान हैं, आदि-आदि कह-कह कर हँसते रहते हैं क्योकि ये सब रावणवंशी शैतान होते हैं। इन सबको कौन समझाये कि ‘भगवान या अवतारी’ स्व घोषित ही होता है, पर घोषित नहीं। दुनिया में कौन है जो भगवान की घोषणा करेगा। भगवान ही एक ऐसा आश्चर्यमय परमपुरुष होता है जिसकी जानकारी भी बिना उसी के किसी को होती ही नहीं, तो घोषणा कौन करेगा ? यही कारण है कि भगवान या अवतारी जब होगा तब स्व घोषित ही होगा, पर घोषित नहीं। विचारक, दार्शनिक, शास्त्रीय-महात्मागण आदि आनन्द वाले विषय क्षेत्र के अन्तर्गत ही आते हैं। जीव तथा जीव से सम्बंधित ।
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जीव से, जीव के लिए तथा जीव तक ही अथवा विचार द्वारा, विचार के लिए तथा विचार तक ही, इच्छित विषयानुकूल विचारों आदि से प्राप्त प्रसन्नता ही आनन्द है। सुख का विरोधी दुःख, दिन का विरोधी रात, सत्य का विरोधी असत्य, ग्रहण का विरोधी त्याग, आदि का विरोधी अन्त आदि-आदि सांसारिक वस्तुएं जड़ और चेतन तथा गुण और दोष आदि दो वस्तुओं और दो पद्धतियों जो आपस में विरोधी स्वभाव वाली होने के कारण द्विपक्षीय अथवा उभयपक्षीय होती हैं, परन्तु सांसारिकता से ऊपर उठकर ‘विचार के क्षेत्र’ में अपने शरीर को रख देने पर उभयपक्षीय गुण-स्वभाव समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि आनन्द का कोई विरोधी शब्द ही नहीं बना है। आनन्द हेतु व्यक्ति और वस्तु की आवश्यकता नहीं होती है। मात्र विचार से ही प्राप्त हो जाता है। इस वर्ग के लोग अहंकारी होते हैं क्योंकि ‘अहम्’ रूप जीव ही इसका सर्वे-सर्वा आभासित होता है। इस वर्ग के लोग बात तो ज्ञानी की तरह करते हैं परन्तु कर्म जड़ी और आसक्त का होता है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाले ये ही लोग होते हैं। इन लोगों को अपने समान कोई नहीं दिखलाई देता है जबकि आध्यात्मिक महात्माओं के सांमने इनकी कोई स्थिति नहीं होती है। इस वर्ग के लोग चिदानंद और सच्चिदानन्द के अनुभूति और बोध से बिल्कुल ही वंचित होते हैं। चूँकि आनन्द सांसारिक सुखों से ऊँचे स्थान का होता है। इसीलिए ये आनन्द को ही चिदानन्द और सच्चिदानन्द भी मान बैठते हैं। ये लोग अध्यात्मिकों की, यहाँ तक कि अवतार की भी निन्दा या आलोचना अथवा विरोध किए बिना नहीं मानते हैं। जबकि ये स्वयं निन्दित होते हैं। ये लोग स्वयं अहंकारी और आसक्त होते हुये भी अध्यात्मिकों और अवतारी को ही अहंकारी और आसक्त घोषित करने लगते हैं। जब अवतारी अपने अवतरण की बात बताने और जनाने-दिखाने तथा पहचान कराने लगते हैं, तो ये सब इतने बड़े अहंकारी और जड़ी होते हैं कि अवतारी के अवतरण प्रक्रिया को जानने-समझने और पहचानने की अपेक्षा व्यंग कसने लगते हैं कि ये (अवतारी) स्व घोषित भगवान हैं, आदि-आदि कह-कह कर हँसते रहते हैं क्योकि ये सब रावणवंशी शैतान होते हैं। इन सबको कौन समझाये कि ‘भगवान या अवतारी’ स्व घोषित ही होता है, पर घोषित नहीं। दुनिया में कौन है जो भगवान की घोषणा करेगा। भगवान ही एक ऐसा आश्चर्यमय परमपुरुष होता है जिसकी जानकारी भी बिना उसी के किसी को होती ही नहीं, तो घोषणा कौन करेगा ? यही कारण है कि भगवान या अवतारी जब होगा तब स्व घोषित ही होगा, पर घोषित नहीं। विचारक, दार्शनिक, शास्त्रीय-महात्मागण आदि आनन्द वाले विषय क्षेत्र के अन्तर्गत ही आते हैं। जीव तथा जीव से सम्बंधित ।
सुख (THE RELIEF)
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शरीर से, शरीर के लिए तथा शरीर तक अथवा इन्द्रियों द्वारा, इन्द्रियों के लिए तथा इन्द्रियों तक ही इच्छित विषयानुकूल इन्द्रियों, वस्तुओं और परिस्थितियों आदि से प्राप्त अनुकूलता ही प्रसन्नता या सुख होता है और प्रतिकूलता ही दुःख। यह शरीर या इन्द्रिय तथा वस्तु प्रधान होता है। इस वर्ग के लोगों को आनन्द, चिदानन्द की अनुभूति भी नहीं होती है और सच्चिदानन्द की जानकारी और बोध की बात तो इन लोगों को सुनने को भी नहीं मिलती है और अगर कहीं मिल भी गयी, तो ये ऐसे अभागे किस्म के लोग होते हैं कि कामिनी-कंचन के फँसाने अथवा व्यवस्था से इन्हे फुरसत ही नहीं मिलती है। यदि कहीं फुरसत भी मिल गयी, तो इन सबकी समझ में ही नहीं आती है। यदि समझ में आती भी है, तो ये इतने अधिक व्यसनी, लोभी, लालची और आसक्त होते हैं कि कामिनी और कंचन रूपी जड़-जगत् में फँसकर ये भी जड़ी हो जाते हैं। इनको अपना ही उत्थान करने में पीछे दिखाई देने लगता है कि परिवार की क्या दशा होगी, नौकरी समाप्त हो जाएगी आदि आदि। इन जड़ियों के लिए सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्द आदि में कोई अन्तर ही नहीं मालूम पड़ता है। कैसे मालूम पड़े ? जिसकी जानकारी ही नहीं उसका अन्तर कैसे मालूम हो? शिक्षित, विद्वान, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, मांत्रिक, तान्त्रिक, राजा, मन्त्री, अधिकारी, कर्मचारी तथा समस्त गृहस्थ वर्ग इसी में आते हैं। ये लोग सुख को ही आनन्द मान बैठते हैं। शरीर तथा शरीर से सम्बंधित ।
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शरीर से, शरीर के लिए तथा शरीर तक अथवा इन्द्रियों द्वारा, इन्द्रियों के लिए तथा इन्द्रियों तक ही इच्छित विषयानुकूल इन्द्रियों, वस्तुओं और परिस्थितियों आदि से प्राप्त अनुकूलता ही प्रसन्नता या सुख होता है और प्रतिकूलता ही दुःख। यह शरीर या इन्द्रिय तथा वस्तु प्रधान होता है। इस वर्ग के लोगों को आनन्द, चिदानन्द की अनुभूति भी नहीं होती है और सच्चिदानन्द की जानकारी और बोध की बात तो इन लोगों को सुनने को भी नहीं मिलती है और अगर कहीं मिल भी गयी, तो ये ऐसे अभागे किस्म के लोग होते हैं कि कामिनी-कंचन के फँसाने अथवा व्यवस्था से इन्हे फुरसत ही नहीं मिलती है। यदि कहीं फुरसत भी मिल गयी, तो इन सबकी समझ में ही नहीं आती है। यदि समझ में आती भी है, तो ये इतने अधिक व्यसनी, लोभी, लालची और आसक्त होते हैं कि कामिनी और कंचन रूपी जड़-जगत् में फँसकर ये भी जड़ी हो जाते हैं। इनको अपना ही उत्थान करने में पीछे दिखाई देने लगता है कि परिवार की क्या दशा होगी, नौकरी समाप्त हो जाएगी आदि आदि। इन जड़ियों के लिए सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्द आदि में कोई अन्तर ही नहीं मालूम पड़ता है। कैसे मालूम पड़े ? जिसकी जानकारी ही नहीं उसका अन्तर कैसे मालूम हो? शिक्षित, विद्वान, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, मांत्रिक, तान्त्रिक, राजा, मन्त्री, अधिकारी, कर्मचारी तथा समस्त गृहस्थ वर्ग इसी में आते हैं। ये लोग सुख को ही आनन्द मान बैठते हैं। शरीर तथा शरीर से सम्बंधित ।
आत्मतत्त्वम्
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‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह तीसरी शक्ति अर्थात् पूर्णतः सत्ता-सामर्थ्य-शक्ति प्रयोग-पद्धति है, जो मात्र परमेश्वर के लिए ‘सुरक्षित-कार्य-पद्धति’ होती है। सृष्टि के अन्तर्गत ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि किसी को भी यहाँ तक कि नारद, ब्रह्मा, शंकर जी, ईशु,, मुहम्मद साहब, गौतम बुद्ध, नानक, कबीर, महावीर जैन, आद्यशंकराचार्य, रामकृष्ण, विवेकानन्द, योगानन्द आदि किसी को भी ‘शक्ति-संचालन-प्रक्रिया’ के अन्तर्गत इस पद्धति की जानकारी नहीं थी क्योंकि केवल परम आकाश रूप परमधाम में वास करने वाले परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर का जब भू-मण्डल पर अवतरण होता है, तो एक मात्र उन्ही को इस पद्धति की यथार्थ जानकारी रहती है और मात्र वे ही इसके माध्यम से कार्य करते हैं क्योंकि उन्ही के अन्तर्गत समस्त देवगण, पृथ्वी आदि सृष्टि तथा वेद आदि समस्त विद्याएँ निहित रहती हैं, जो आवश्यकता अनुसार उन्ही के संकल्प से उत्पन्न होती रहती हैं जिसकी यथार्थतः समस्त जानकारियाँ ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ के अन्तर्गत उन्ही से मिलती है, किसी अन्य से नहीं। जड़-जगत्, समस्त जीव, जीवात्मा, आत्मा आदि समस्त सृष्टि की उत्पत्ति, यहाँ तक कि ‘आत्म-ज्योति’ रूप शब्द-शक्ति आदि की उत्पत्ति भी परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर से होती है तथा अंततः उन्ही में विलय भी हो जाती है। यह सारी जानकारी योग-साधना मार्ग अथवा मोहकम, मुतशाविहात् आदि इसी ‘तत्त्वज्ञान’ अथवा ‘हरुफ़मुकत्तआत्’ पद्धति में ही निहित रहती है, जिसको उत्कट जिज्ञासु मात्र ही श्रद्धा और पूर्ण समर्पण अथवा अल्लाहतला या दीन की राह पर मुसल्लम ईमान के साथ आत्म समर्पण के माध्यम से ही शान्तिमय ढंग से प्राप्त करते हैं। शेष लोगों में कुछ तो जड़ता-मूढ़ता वश देखते ही रह जाते हैं और कुछ इनके ‘दुष्ट-दलन-चक्र’ में पड़कर विनाश को प्राप्त होते हैं। अब विष्णु-राम-कृष्ण मात्र तीन ही इस वर्ग के हैं।
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‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह तीसरी शक्ति अर्थात् पूर्णतः सत्ता-सामर्थ्य-शक्ति प्रयोग-पद्धति है, जो मात्र परमेश्वर के लिए ‘सुरक्षित-कार्य-पद्धति’ होती है। सृष्टि के अन्तर्गत ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि किसी को भी यहाँ तक कि नारद, ब्रह्मा, शंकर जी, ईशु,, मुहम्मद साहब, गौतम बुद्ध, नानक, कबीर, महावीर जैन, आद्यशंकराचार्य, रामकृष्ण, विवेकानन्द, योगानन्द आदि किसी को भी ‘शक्ति-संचालन-प्रक्रिया’ के अन्तर्गत इस पद्धति की जानकारी नहीं थी क्योंकि केवल परम आकाश रूप परमधाम में वास करने वाले परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर का जब भू-मण्डल पर अवतरण होता है, तो एक मात्र उन्ही को इस पद्धति की यथार्थ जानकारी रहती है और मात्र वे ही इसके माध्यम से कार्य करते हैं क्योंकि उन्ही के अन्तर्गत समस्त देवगण, पृथ्वी आदि सृष्टि तथा वेद आदि समस्त विद्याएँ निहित रहती हैं, जो आवश्यकता अनुसार उन्ही के संकल्प से उत्पन्न होती रहती हैं जिसकी यथार्थतः समस्त जानकारियाँ ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ के अन्तर्गत उन्ही से मिलती है, किसी अन्य से नहीं। जड़-जगत्, समस्त जीव, जीवात्मा, आत्मा आदि समस्त सृष्टि की उत्पत्ति, यहाँ तक कि ‘आत्म-ज्योति’ रूप शब्द-शक्ति आदि की उत्पत्ति भी परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म या परमेश्वर से होती है तथा अंततः उन्ही में विलय भी हो जाती है। यह सारी जानकारी योग-साधना मार्ग अथवा मोहकम, मुतशाविहात् आदि इसी ‘तत्त्वज्ञान’ अथवा ‘हरुफ़मुकत्तआत्’ पद्धति में ही निहित रहती है, जिसको उत्कट जिज्ञासु मात्र ही श्रद्धा और पूर्ण समर्पण अथवा अल्लाहतला या दीन की राह पर मुसल्लम ईमान के साथ आत्म समर्पण के माध्यम से ही शान्तिमय ढंग से प्राप्त करते हैं। शेष लोगों में कुछ तो जड़ता-मूढ़ता वश देखते ही रह जाते हैं और कुछ इनके ‘दुष्ट-दलन-चक्र’ में पड़कर विनाश को प्राप्त होते हैं। अब विष्णु-राम-कृष्ण मात्र तीन ही इस वर्ग के हैं।
आत्म-ज्योति से ‘आत्म-शब्द’ को छोड़कर ज्योति
जैसे ही अलग हुई, सर्वप्रथम स्थान छोड़ते ही ‘शब्द-ब्रह्म’ (आत्मतत्त्वम्)
तथा ‘आत्म’ से अपने को ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज-पुंज’ (Supper
Fluid) रूप में बदल लिया और शब्द प्रधान न रहकर ‘रूप’ प्रधान होकर
‘शब्द-ब्रह्म’ रूप पिता तथा ‘आत्म’ शब्द रूप भ्राता से भी अलग हो गयी।
जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘शब्द’ के समस्त गुणों के प्रतिकूल ‘रूप’ विनाशशील।
‘आत्म’ शब्द अविनाशी है तो ‘रूप’
विनाशशील। ‘आत्म’ अपरिवर्तनशील है तो ‘रूप’ परिवर्तनशील है। ‘आत्म’ शब्द
स्थिर है, तो ज्योति-रूप भिन्न-भिन्न। ‘आत्म’ शब्द अखंडित है तो रूप
विखंडित।
आत्म-ज्योति से ज्योति पृथक होते ही एक दूसरे ‘प्रचण्ड
प्रवाहयुक्त अक्षय तेज पुंज’ रूप में परिवर्तित हो गयी। जिसका परिणाम यह
हुआ कि पृथकता और परिवर्तनशीलता इसका स्वाभाविक गुण हो गया। अपने स्वाभाविक
गुण रूप पृथकता के कारण ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’, ‘आत्म’
शब्द से टकराकर विखण्डित हो गयी, जिसके कारण अनेक ‘प्रवाह युक्त
तेज-पुंजों’ में परिवर्तित हो गयी। चूँकि विखण्डित समस्त पृथक हुए ‘प्रवाह
युक्त तेज पुंज’ ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ के अंश मात्र थे।
इसलिए ‘तेज शक्ति क्षमता’ भी अंशवत् ही होती गयी। पुनः ‘प्रवाहयुक्त तेज
पुंज’ भी अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण विखण्डित हो गयी, जिसकी
‘तेज शक्ति क्षमता’ इसकी अंशवत् होने लगी और ऐसे ही होते-होते ‘तेज-पुंज’
‘तेज क्षमता की कमी से द्रवीभूत होकर पेट्रोल, स्पिरिट, मिट्टी का तेल,
डीजल, मोबिल आदि पदार्थों में परिवर्तित होता गया। पुनः समय क्रम से क्षमता
क्रम की कमी होती गयी और वस्तुएं द्रव से भी घनीभूत रूप ठोस कोयला आदि में
परिवर्तित हो गईं।
यह बात भी अनिवार्यतः जान लेने की है कि विखण्डित अंशों में तेज कायम रहे, इसके लिए अंशों रूप केंद्रों द्वारा अपने-अपने अंशों को तेज की आपूर्ति होती रहती है। यह तेज जो आपूर्ति होती रहती है वही ‘लू’ अथवा ‘प्रवाहयुक्त तेज’ (Flue) भी कहलाता है, जिसे विज्ञान की भाषा में ‘इलेक्ट्रान’ कहा जाता है।
यह बात भी अनिवार्यतः जान लेने की है कि विखण्डित अंशों में तेज कायम रहे, इसके लिए अंशों रूप केंद्रों द्वारा अपने-अपने अंशों को तेज की आपूर्ति होती रहती है। यह तेज जो आपूर्ति होती रहती है वही ‘लू’ अथवा ‘प्रवाहयुक्त तेज’ (Flue) भी कहलाता है, जिसे विज्ञान की भाषा में ‘इलेक्ट्रान’ कहा जाता है।
आदि में, परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप में
स्थित शब्द-ब्रह्म या वचन या परमेश्वर के संकल्प से ‘आत्म’ शब्द छिटका जो
ज्योति के साथ था, जो आत्म-ज्योति कहलाया। चूँकि आदि के पूर्व में जब मात्र
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म ही था, जो अपने आपको
अज्ञानान्धकार रूप पर्दा डालकर सदा अपने को छिपाए रखता है, जिसका परिणाम यह
होता है कि कोई भी वहाँ बिना उसके ले जाने के, नहीं जा सकता है परन्तु
उससे उत्पन्न आत्म-ज्योति में से पुत्र रूप
‘आत्म’ शब्द अपने पैतृक मात्र ‘शब्द’ रूप में रह गया और पुत्री रूप ज्योति
पृथक हो गयी। चूँकि पैतृक पर रहने वाला ‘आत्म’ शब्द अपने पिता परमतत्त्वं
(आत्मतत्त्वम्) रूप ‘वचन’ के रूप में ‘शब्द’ रूप में ही रह गया। इसीलिए
पिता का सत्ता-सामर्थ्य रूप चेतनता अंशवत् पुत्र में ही रह गयी, जिसका
परिणाम यह हुआ कि पिता रूप शब्द-ब्रह्म के रूप ‘शब्द’ रूप में रह जाने के
कारण पिता के गुण-स्वभाव पुत्र में भी आए। पिता अमर है, तो पुत्र अविनाशी,
पिता रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ ‘एक’ है तो पुत्रगण एक रूप। पिता ‘वचन’ शाश्वत् है,
तो पुत्रगण स्थिर, पिता ‘शब्द-ब्रह्म’ सदा-सर्वदा कायम है, तो पुत्र भी
शब्द (आत्म) नाम ‘नाम’ भी जब तक पिता के नाम-रूप-गुण में रहता है, तो पिता
शब्द-ब्रह्म के साथ ही पुत्रवत् ‘आत्म’ शब्द भी कायम रहता है परन्तु वह
पुत्र ‘आत्म’ शब्द माता ‘रूप’ के साथ यदि जुट गया तो अगले पुत्र (उसका
पुत्र का पुत्र, पुत्र का पुत्र आदि इसी क्रम से आज तक) के आने तक तो
‘आत्म’ शब्द रहेगा, पुनः पुत्र का ‘आत्म’ शब्द (पुत्र का नाम) दर्ज हो
जाएगा। यही क्रम चलता हुआ आज तक पहुँच गया है अर्थात् ‘आत्म’ शब्द जैसे ही
अपना मूलतः ‘आत्म’ शब्द बदलकर रूपमय शब्द (शारीरिक नाम) में हो जाता है,
वैसे ही अपने विनाशकारी स्थान को प्राप्त हो जाता है।
सौर मण्डल के अन्तर्गत पृथ्वी भी एक गृह के रूप
में कायम हो गयी। चूँकि पृथ्वी भी सूर्य से ही उत्पन्न अथवा विखण्डित
क्रिया से पृथक होकर अन्य ग्रहों की भाँति यह भी सूर्य शब्द रूप पिता तथा
‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप माता के इर्द-गिर्द भ्रमण करने लगी। जिस
प्रकार पुत्र पिता और पुत्री माता प्रधान क्रम में रहते हैं अर्थात् पुत्र
पिता के गुण रूप एकरूपता और स्थिरता से युक्त रहते हुये पिता-पद्धति
(पैतृक) रूप सिद्धान्त पर स्वभावतः चलने
लगते हैं, और पुत्री माता के गुण पृथकता और परिवर्तनशीलता से युक्त रहते
हुये माता पद्धति (मातृक) रूप सिद्धान्त पर स्वभावतः चलने लगती है। ठीक इसी
प्रकार ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ जो अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता और
परिवर्तनशीलता के कारण पुनः विखण्डित हुआ जिसमें से नव ज्योतिष्छटाएँ पृथक
हुई। पृथकता के कारण जिस पर यह मानव शरीर विचरण करता है, इसका नाम पृथ्वी
पड़ा। चूँकि पृथ्वी शब्द से युक्त होने के कारण यह ‘पिण्ड’ (पृथ्वी) ने भी
एक परिवार बसा लिया। ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ रूप सूर्य से उत्पन्न और पृथक
होने वाली ‘ज्योति पुंज’ अथवा ‘तेज-पुंज’ रूप पृथ्वी भ्रमण करते हुये किस
प्रकार ‘तेज-पुंज’ ही ठोस रूप ‘पिण्ड’ का रूप ले लेती है अथवा पिण्ड रूप
में परिवर्तित हो जाती है, अब यह जानना-देखना और समझना है।
हंसो या सोsहं
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‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह दोहरी शक्ति-प्रयोग पद्धति है। समस्त योगी-यति-ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा अंशावतारी तक इसी पद्धति से कार्य करते हैं। सांसारिक लोग जब आनन्द युक्त ‘अहम्’ शब्दमय गतिविधियों से अलग पतित होकर ‘रूपमय’ ‘कामिनी-कंचन’ में फँसकर स्वयं को ‘शरीरमय’ मानते हुये सुखप्रधान शारीरिक पद्धतियों में फँसकर धन-दौलत, नौकरी, मकान, दुकान, बच्चे आदि व्यक्ति और वस्तुमय होकर आनन्द-शान्ति-शून्य पतित अवस्था रूप वस्तुमय रूप ले लेते हैं और आनन्द और शान्ति हेतु चारों तरफ नाना प्रकार से ‘कामिनी-कंचन’ रूप रूपमय पद्धतियों में दौड़ते हुये भी जब शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो पाती है, तब वह सांसारिक लोग योगी-महात्मा आदि के यहाँ पहुँचकर समस्त कामिनी-कंचन से दूर होने लगते हैं और उधर महात्माजन सभी लोगों को आज्ञा, आदेश और निर्देश आदि देकर वस्तु रूप संसार-कामिनी-कंचन के त्याग और अपने शरीर को महात्माओं की शरण में करने और स्वांस-प्रस्वांस साधना के माध्यम से ‘अहम्’ शब्द का ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति से मिलाकर हंसो-सोsहं शब्दमय तथा ध्यान द्वारा ज्योति में मिलाकर आनन्द और शान्ति से युक्त होकर कामिनी का त्याग तथा कंचन का महात्मा के चरणों में समर्पण कर-कर के आनन्द और शान्तिमय जीवात्मा रूप हंसो-सोsहं, शब्दमय होने का अभ्यास करते हैं, तो चिदानंद रूप तथा शरीर त्याग के बाद कल्याण रूप शिवलोक को प्राप्त होते हैं। संसार में साधना और ध्यान आदि से युक्त जितने भी साधक, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि हैं, इसी आध्यात्मिक मार्ग के पथिक होते हैं परन्तु बहुत से साधक आत्म-ज्योति को जान देख कर भी सांसारिक बने रहते हैं जिससे पथ-भ्रष्ट होकर समाज के बीच भ्रम को जन्म देते रहते हैं।
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‘शक्ति संचालन प्रक्रिया’ के अन्तर्गत यह दोहरी शक्ति-प्रयोग पद्धति है। समस्त योगी-यति-ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा अंशावतारी तक इसी पद्धति से कार्य करते हैं। सांसारिक लोग जब आनन्द युक्त ‘अहम्’ शब्दमय गतिविधियों से अलग पतित होकर ‘रूपमय’ ‘कामिनी-कंचन’ में फँसकर स्वयं को ‘शरीरमय’ मानते हुये सुखप्रधान शारीरिक पद्धतियों में फँसकर धन-दौलत, नौकरी, मकान, दुकान, बच्चे आदि व्यक्ति और वस्तुमय होकर आनन्द-शान्ति-शून्य पतित अवस्था रूप वस्तुमय रूप ले लेते हैं और आनन्द और शान्ति हेतु चारों तरफ नाना प्रकार से ‘कामिनी-कंचन’ रूप रूपमय पद्धतियों में दौड़ते हुये भी जब शान्ति और आनन्द की प्राप्ति नहीं हो पाती है, तब वह सांसारिक लोग योगी-महात्मा आदि के यहाँ पहुँचकर समस्त कामिनी-कंचन से दूर होने लगते हैं और उधर महात्माजन सभी लोगों को आज्ञा, आदेश और निर्देश आदि देकर वस्तु रूप संसार-कामिनी-कंचन के त्याग और अपने शरीर को महात्माओं की शरण में करने और स्वांस-प्रस्वांस साधना के माध्यम से ‘अहम्’ शब्द का ‘सः’ रूप आत्म-ज्योति से मिलाकर हंसो-सोsहं शब्दमय तथा ध्यान द्वारा ज्योति में मिलाकर आनन्द और शान्ति से युक्त होकर कामिनी का त्याग तथा कंचन का महात्मा के चरणों में समर्पण कर-कर के आनन्द और शान्तिमय जीवात्मा रूप हंसो-सोsहं, शब्दमय होने का अभ्यास करते हैं, तो चिदानंद रूप तथा शरीर त्याग के बाद कल्याण रूप शिवलोक को प्राप्त होते हैं। संसार में साधना और ध्यान आदि से युक्त जितने भी साधक, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया आदि हैं, इसी आध्यात्मिक मार्ग के पथिक होते हैं परन्तु बहुत से साधक आत्म-ज्योति को जान देख कर भी सांसारिक बने रहते हैं जिससे पथ-भ्रष्ट होकर समाज के बीच भ्रम को जन्म देते रहते हैं।
आदि में, परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप में
स्थित शब्द-ब्रह्म या वचन या परमेश्वर के संकल्प से ‘आत्म’ शब्द छिटका जो
ज्योति के साथ था, जो आत्म-ज्योति कहलाया। चूँकि आदि के पूर्व में जब मात्र
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म ही था, जो अपने आपको
अज्ञानान्धकार रूप पर्दा डालकर सदा अपने को छिपाए रखता है, जिसका परिणाम यह
होता है कि कोई भी वहाँ बिना उसके ले जाने के, नहीं जा सकता है परन्तु
उससे उत्पन्न आत्म-ज्योति में से पुत्र रूप
‘आत्म’ शब्द अपने पैतृक मात्र ‘शब्द’ रूप में रह गया और पुत्री रूप ज्योति
पृथक हो गयी। चूँकि पैतृक पर रहने वाला ‘आत्म’ शब्द अपने पिता परमतत्त्वं
(आत्मतत्त्वम्) रूप ‘वचन’ के रूप में ‘शब्द’ रूप में ही रह गया। इसीलिए
पिता का सत्ता-सामर्थ्य रूप चेतनता अंशवत् पुत्र में ही रह गयी, जिसका
परिणाम यह हुआ कि पिता रूप शब्द-ब्रह्म के रूप ‘शब्द’ रूप में रह जाने के
कारण पिता के गुण-स्वभाव पुत्र में भी आए। पिता अमर है, तो पुत्र अविनाशी,
पिता रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ ‘एक’ है तो पुत्रगण एक रूप। पिता ‘वचन’ शाश्वत् है,
तो पुत्रगण स्थिर, पिता ‘शब्द-ब्रह्म’ सदा-सर्वदा कायम है, तो पुत्र भी
शब्द (आत्म) नाम ‘नाम’ भी जब तक पिता के नाम-रूप-गुण में रहता है, तो पिता
शब्द-ब्रह्म के साथ ही पुत्रवत् ‘आत्म’ शब्द भी कायम रहता है परन्तु वह
पुत्र ‘आत्म’ शब्द माता ‘रूप’ के साथ यदि जुट गया तो अगले पुत्र (उसका
पुत्र का पुत्र, पुत्र का पुत्र आदि इसी क्रम से आज तक) के आने तक तो
‘आत्म’ शब्द रहेगा, पुनः पुत्र का ‘आत्म’ शब्द (पुत्र का नाम) दर्ज हो
जाएगा। यही क्रम चलता हुआ आज तक पहुँच गया है अर्थात् ‘आत्म’ शब्द जैसे ही
अपना मूलतः ‘आत्म’ शब्द बदलकर रूपमय शब्द (शारीरिक नाम) में हो जाता है,
वैसे ही अपने विनाशकारी स्थान को प्राप्त हो जाता है।
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** सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस***
09196001364 (kamal ji)
आत्मा और परमात्मा हैं। अब
जानना-देखना तो यह है कि ‘हम’ जीव शरीरमय होकर संसार के प्रति उन्मुख है
अथवा आत्मामय होकर परमात्मा के प्रति। यदि ‘हम’ शरीरमय होकर इस निम्नतम्
श्रेणी रूप संसार के प्रति उन्मुख रहता है, तब तो ‘हम’ जीव का अधःपतन
कहलाएगा और यदि ‘हम’ जीव आत्मामय होकर उच्चतम् एवं सर्वोत्तम श्रेणी रूप
परमात्मा के प्रति उन्मुख रहता है तब तो ‘हम’ जीव का उत्थान ही नहीं,
उद्धार भी कहलाएगा। अब इसी माध्यम से ‘हम’ जीव को स्वतः ही जान एवं देख
लेना चाहिए कि हमारी गति ऊर्ध्वमुखी है अथवा अधोमुखी। अगर अधोमुखी है तो
मानवता का सिद्धान्त यही कहता है कि तुरन्त ही अपने आप को ऊर्ध्वमुखी बना
लेना चाहिए। यदि स्वतः न बन सके तो किसी आध्यात्मिक महात्मा रूप महापुरुष
से आत्मामय तथा ‘तात्त्विक’ (युगावतार) रूप अवतारी रूप परमपुरुष की शरणागत
होकर उत्कट जिज्ञासा और श्रद्धापूर्वक पूर्णतः समर्पण भाव से परमब्रह्म
परमात्मा को यथार्थतः तत्त्वज्ञान-पद्धति से जान-देख व बात-चीत करते हुये
पहचान कर अपना सुधार एवं उद्धार कर-करा लेना चाहिए। यही मानव जीवन का परम
लक्ष्य होता है। जो जीव मानव शरीर पाकर भी अपने इस चरम एवं परमलक्ष्य रूप
परमेश्वर को नहीं प्राप्त कर लेता है, वही बार-बार जनम और मरण रूप चौरासी
लाख योनियों में गोता खाता रहता है। क्योंकि तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की
क्षमता एकमात्र मानव योनि को ही प्राप्त है, अन्य किसी योनि को नहीं। यही
कारण है कि ऊँचे से ऊँचे स्तर के देवता भी मानव योनि के लिए लालायित रहते
हैं, परन्तु देव दुर्लभ मानव योनि नहीं प्राप्त हो पाती है।
ो
यथार्थतः ‘तत्त्व-रूप’ में नहीं जान सके तो क्या अन्य योनि में जान सकते
हैं ? कभी नहीं। बिल्कुल असम्भव हो जाएगा और इससे बढ़कर ‘हम’ जीव का अधःपतन
क्या हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं। ‘हम’ जीव का सबसे बड़ा अधःपतन यही
होता है कि परमात्मा से बिछुड़ जाये, वंचित रह जाए, न मिल पाए अथवा मिलकर
भी कामिनी-कंचन रूप पारिवारिक एवं सांसारिक हमार-हमार करने वाले मीठे-जहर
रूप शत्रु-मण्डली के कारण छूट जाए। हालाँकि यह भी अकाट्य सत्य है कि
मीठे-जहर रूपी पारिवारिक एवं सांसारिक हमार-हमार करने वाली शत्रु-मण्डली
अपने तुच्छ स्वार्थों के वशीभूत होकर नाना प्रकार के सांसारिक प्रलोभनों को
दिखला-दिखला कर फँसाते रहेगी। अपनी क्षमता भर ‘हम’ जीव को अपने चंगुल से
निकलने नहीं देती है। ऐसी परिस्थिति में अब मात्र अपना उद्धार अन्य
महापुरुषों जैसे रत्नाकर डाकू ब्रह्मर्षि बाल्मीकी कब बना ? श्री रामचन्द्र
जी की रामायण कब बनी ? ध्रुव-प्रहलाद की अमर गाथा कब बनी ? शुकदेव अट्ठासी
हजार ऋषियों के अग्रणी कब बने ? उद्धव-गोपियों की अमर कथा कब बनी ?
काकभुशुंडि की अमर कहानी कब पूरी हुई ? जैन महावीर कब बने ? श्री हनुमान
जी, विभीषण आदि को अमरता की उपलब्धि कब हुई ? गौतम बुद्ध सिद्धार्थ से
बुद्ध कब बने ? आद्यशंकराचार्य कब बने ? ईशा मसीह कब बने ? मुहम्मद साहब
इस्लाम वाले लब बने ? नानक देव महापुरुष कब बने ? कबीर कब बने ? तुलसी,
तुलसीदास कब बने ? मीरा भक्त मीरा बाई कब बनी ? श्री रामकृष्ण परमहंस कब
बने ? नरेन्द्र स्वामी विवेकानन्द कब बने ? आदि-आदि कितने गिनाएँ, ये लोग
ऊँचे स्थान को कब प्राप्त कर पाए ? तो प्रत्येक के उत्तर में एक ही बात
आएगी कि जब कामिनी-कंचन रूप पारिवारिक एवं सांसारिक मीठे-जहर रूप
शत्रु-मण्डली से बच निकले तब ये लोग महापुरुष या अवतारी परमपुरुष बने।
उत्पत्ति :-
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आत्मा, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा या शब्द-ब्रह्म से छिटककर पृथक हुई ‘आत्म’ शब्द-सत्ता ही अपनी स्वतः की ज्योति से युक्त होने के कारण आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति ही है। यह आत्म-ज्योति ही शब्द-रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा से छिटककर अलग होकर शून्य आकाश में विचरण करते हुए जब किसी शरीर को खासकर मानव शरीर को प्राप्त कर उसमें प्रवेश करती है, तो तुरन्त गुण-दोष से युक्त होकर जीव रूप में परिवर्तित हो जाती है। पुनः गुण-दोष से युक्त होकर जीव मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से युक्त सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त होकर शरीर के द्वारा कर्म को करते तथा उसके फलरूप भोगों को भोगते हुए संसार में विचरण करता है। कर्म और भोगों के कारण पारिवारिक एवं सांसारिक जालों में फँस-फँस कर अपने मूल अस्तित्व रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा को तो भूल ही जाता है, साथ ही साथ ‘हम’ जीव यथार्थतः अपने ‘हम’ आत्म-ज्योति शब्द रूप आत्मरूप को भी भूलकर ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव से भी गिरकर शरीरमय होकर संसार-चक्र में चक्कर काटने अर्थात् जनम-मरण रूप संसार में फँस जाता है और यह तब तक फँसा रहता है, जब तक कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा का अपने परमआकाश रूप परमधाम से अवतरण होकर किसी शरीर को धारण कर अपने से बिछुड़े हुए आत्मा और जीवों को पुनः अपनी शरणागति प्रदान कर ‘हम’ जीव और आत्मा को स्वीकार नहीं कर लेता।
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आत्मा, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा या शब्द-ब्रह्म से छिटककर पृथक हुई ‘आत्म’ शब्द-सत्ता ही अपनी स्वतः की ज्योति से युक्त होने के कारण आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति ही है। यह आत्म-ज्योति ही शब्द-रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा से छिटककर अलग होकर शून्य आकाश में विचरण करते हुए जब किसी शरीर को खासकर मानव शरीर को प्राप्त कर उसमें प्रवेश करती है, तो तुरन्त गुण-दोष से युक्त होकर जीव रूप में परिवर्तित हो जाती है। पुनः गुण-दोष से युक्त होकर जीव मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार से युक्त सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त होकर शरीर के द्वारा कर्म को करते तथा उसके फलरूप भोगों को भोगते हुए संसार में विचरण करता है। कर्म और भोगों के कारण पारिवारिक एवं सांसारिक जालों में फँस-फँस कर अपने मूल अस्तित्व रूप परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा को तो भूल ही जाता है, साथ ही साथ ‘हम’ जीव यथार्थतः अपने ‘हम’ आत्म-ज्योति शब्द रूप आत्मरूप को भी भूलकर ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव से भी गिरकर शरीरमय होकर संसार-चक्र में चक्कर काटने अर्थात् जनम-मरण रूप संसार में फँस जाता है और यह तब तक फँसा रहता है, जब तक कि परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) रूप परमात्मा का अपने परमआकाश रूप परमधाम से अवतरण होकर किसी शरीर को धारण कर अपने से बिछुड़े हुए आत्मा और जीवों को पुनः अपनी शरणागति प्रदान कर ‘हम’ जीव और आत्मा को स्वीकार नहीं कर लेता।
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** सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस***
09196001364 (kamal ji)
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