Tuesday, November 27, 2012

 Love.
Do not fight with yourself.
You are as you are 
do not strive for change.
Do not swim in life, just float
like a leaf on the stream.
Keep away from SADHANAS, mere SADHANAS.
This is the only SADHANA.

Where is there to go?
What is there to become?
What is there to find?
What is, is here and now.
Please, stop and see!

What are the animal instincts?
What is low? and high?
Whatever is, is
-there is no high, no low.
What is animal?
What is divine?

So do not condemn,
do not praise,
nor condemn nor praise yourself:
all differences are of the mind.

In truth no differences exist.
There, God and animal are one and the same;
heaven and hell are just two sides of one coin;
SAMSARA and nirvana are two expressions of one unknown.

And do not think about what I have said;
if you think you will miss.
See. Just See.
OSHO 

इक ओँकार
सत् नाम्
कर्ता पुरख्
निर्भौउ
निर्वैर्
अकाल् मुरत्
अजूनी
सैभम्
गुर्प्रसाद्


Translation~~
 

There is only one God
His name is Truth
He is the creator
Sans fear
Sans enmity
Eternal
Unborn
Self effulgent
Realized by His divine grace



तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना।
तुम्‍हें मैं निर्भय करना चाहता हूं,
यह पृथ्‍वी परमात्‍मा के विपरीत नहीं है,
अन्‍यथा यह पैदा ही नहीं हो सकती थी।

यह जीवन उसी से बह रहा है,
अन्‍यथा यह आता कहां से।

और यह जीवन उसी में जा रहा है,
अन्‍यथा जाने की कोई जगह नहीं है।

इसलिए तुम द्वंद्व खड़ा मत करना, तुम फैलना।
तुम संसार में ही जड़ें डालना,
तुम आकाश में ही पंख फैलाना
तुम दोनों का विरोध तोड़ देना,
तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना।

तुम एक सीढ़ी बनना,
जो एक जमीन पर टिकी है–मजबूत जमीन पर,
और जो उस खुले आकाश में मुक्‍त है,
जहां टिकने की कोई जगह नहीं है,
ध्‍यान रखना , आकाश में सीढ़ी को कहां टिकाओगे,
टिकानी हो तो पृथ्‍वी पर ही टिकानी होगी।
दूसरी तरफ तो पृथ्‍वी पर ही टिकानी होगी।
उस तरफ तो अछोर आकाश है,
वहां टिकाने की भी जगह नहीं है।
वहां तो तुम बढ़ते जाओगे।
धीरे-धीरे सीढ़ी खो जाएगी,
तुम भी खो जाओगे।

–ओशो



वो बचपन का जमाना था
इक बचपन का जमाना था
जिसमेँ खुशियोँ का खजाना था

चाहत चाँद को पाने की थी
पर दिल तितली का दीवाना था

खबर न थी कुछ सुबह की
न शाम का ठिकाना था

थक हार के आना स्कूल से
पर खेलने भी जाना था

माँ की कहानी थी
परियोँ का फसाना था

बारिश मेँ कागज की नाव थी
हर मौसम सुहाना था

हर खेल मेँ साथी थे
हर रिश्ता निभाना था

गम की जुबान न होती थी
न जख्मोँ का पैमाना था

रोने की वजह न थी
न हँसने का बहाना था

क्योँ हो गये हम इतने बडे
इससे अच्छा वो बचपन का जमाना था 
Mubarak Raj

मन्दिर

रचना: परम्पुज्य सत्गुरु ओशो सिद्दार्थ
गीत: परम्पुज्य सत्गुरु ओशो प्रिया
मस्दिज, गुरु द्वेर मै, जा कबतक शिस झुकावोगे?
कब तक रमायान, गीता से, अप्ने मन को बहलावोगे?
कब खुद को शिस झुकावोगे, कब खुद गीता बन जावोगे?
आत्मनम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।

सास्त्रो को पढ्कर क्य होगा? सब्दो को रट्कर क्या होग?
जब तलक शेश है राग्-द्वैष, जब तलक बासाना, मोह षेश ।
जब तलक धर्म आचरन न हो, तब तलक न कोइ श्रमण अहो।
आचरन शररम गछामी, भज ओशो शररम गछमी।।

है काम, क्रोध, मद, लोभ लहर्,इर्ष्या, बिद्वेष, बिमोह लहर।
हर बिदा लहर, हर मेल लहर, धन, योवन का सब खेल लहर।
लहरो को जिस्ने पहचना, उस्ने ही सागर को जाना।
जागरण शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।

साक्छी धुनी बन जाने दो, इर्श्या-बिद्वेश करो स्वहाँ।
आनन्द्-धुप का धुन्वा उठे, खुशवु बन कर निकले आहा।
कुछ ऐसा ध्यान दिप बारो, घर आ जाये तिरथ सारा।
अ थ साक्छी शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।

कामना छोड्, बासना छोड्, कल्पना छोड् कर जाग अभी।
जो है उस्का स्विकार करो, अन्यथा हेतु मत भाग कभी।
छोडो त्रिष्णा बिश्रम करो, साक्छी होकर आरम करो।
बिस्रामम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।

माँ
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

अभी जिन्दा है माँ मेरी , मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई खवाब में आ जाती है

ऐ अँधेरे देख ले मुहं तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती

माँ के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

किसी के हिस्से घर किसी के हिस्से में दुकां आयी
माँ के हिस्सेमे ममता के सिवा कुछ न आयी

यूं तो जिन्दगी में बुलंदियों का मकाम छूआ
माँ ने जब गोद में लिया तो आसमान छूआ
'मुनव्वर राणा' 

  • गुरु आखिरी नहीं है
" गुरु आखिरी नहीं है; गुरु तो मार्ग है । 
अंततः तो गुरु हट जाएगा, 
खिड़की भी हट जाएगी 
आकाश ही रह जाएगा। 
गुरु के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना,
 बेशर्त होना सीखना, 
झुकना और अपने को मिटाना सीखना।
 मांगना मत ।
 मन बहुत मांग किए चला जाएगा,
 क्योंकि मन की पुरानी आदत है ।
 मन भिखमंगा है । 
सम्राट का मन भी भिखारी है ; वह भी मांगता है । "
 ♥_/\_♥ ओशो ♥_/\_♥

प्रिय आनंद मूर्ति,
प्रेम,

संकल्‍प के मार्ग में आती बाधाओं को प्रभु-प्रसाद समझना,
क्‍योंकि उनके बिना संकल्‍प के प्रगाढ़ होने का और कोई उपाय नहीं है।

राह के पत्‍थर प्रज्ञावान के लिए, अवरोध नहीं, सीढ़ियां ही सिद्ध होती हे।
अंतत, सब कुछ स्‍वयं पर ही निर्भर है।

अमृत जहर हो सकता है।
और जहर अमृत हो सकता है।

फूल कांटों में छिपे है।
कांटो को देख कर जो भाग जाता है,
वह व्‍यर्थ ही फूलों से वंचित रह जाता हे।

हीरे खदानों में दबे हे।
उनकी खोज में पहले तो कंकड़ पत्‍थर ही हाथ आते है।
लेकिन उनसे निराशा होना हीरों को सदा के लिए ही खोना है।

एक-एक पल कीमती है।
समय लौटकर नहीं आता है।
और खोये अवसर खोया जीवन बन जाते है।
अँधेरा जब घना हो तो जानना कि सूर्योदय निकट है।

रजनीश के प्रणाम
17—11—1970
(
प्रति : स्‍वामी आनंद मूर्ति, अहमदाबाद

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