Love.
Do not fight with yourself.
You are as you are
do not strive for change.
Do not fight with yourself.
You are as you are
do not strive for change.
यह जीवन उसी से बह रहा है,
अन्यथा यह आता कहां से।
और यह जीवन उसी में जा रहा है,
अन्यथा जाने की कोई जगह नहीं है।
इसलिए तुम द्वंद्व खड़ा मत करना, तुम फैलना।
तुम संसार में ही जड़ें डालना,
तुम आकाश में ही पंख फैलाना
तुम दोनों का विरोध तोड़ देना,
तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना।
तुम एक सीढ़ी बनना,
जो एक जमीन पर टिकी है–मजबूत जमीन पर,
और जो उस खुले आकाश में मुक्त है,
जहां टिकने की कोई जगह नहीं है,
ध्यान रखना , आकाश में सीढ़ी को कहां टिकाओगे,
टिकानी हो तो पृथ्वी पर ही टिकानी होगी।
दूसरी तरफ तो पृथ्वी पर ही टिकानी होगी।
उस तरफ तो अछोर आकाश है,
वहां टिकाने की भी जगह नहीं है।
वहां तो तुम बढ़ते जाओगे।
धीरे-धीरे सीढ़ी खो जाएगी,
तुम भी खो जाओगे।
–ओशो
खबर न थी कुछ सुबह की
न शाम का ठिकाना था
थक हार के आना स्कूल से
पर खेलने भी जाना था
माँ की कहानी थी
परियोँ का फसाना था
बारिश मेँ कागज की नाव थी
हर मौसम सुहाना था
हर खेल मेँ साथी थे
हर रिश्ता निभाना था
गम की जुबान न होती थी
न जख्मोँ का पैमाना था
रोने की वजह न थी
न हँसने का बहाना था
क्योँ हो गये हम इतने बडे
इससे अच्छा वो बचपन का जमाना था
अन्यथा यह आता कहां से।
और यह जीवन उसी में जा रहा है,
अन्यथा जाने की कोई जगह नहीं है।
इसलिए तुम द्वंद्व खड़ा मत करना, तुम फैलना।
तुम संसार में ही जड़ें डालना,
तुम आकाश में ही पंख फैलाना
तुम दोनों का विरोध तोड़ देना,
तुम दोनों के बीच सेतु बन जाना।
तुम एक सीढ़ी बनना,
जो एक जमीन पर टिकी है–मजबूत जमीन पर,
और जो उस खुले आकाश में मुक्त है,
जहां टिकने की कोई जगह नहीं है,
ध्यान रखना , आकाश में सीढ़ी को कहां टिकाओगे,
टिकानी हो तो पृथ्वी पर ही टिकानी होगी।
दूसरी तरफ तो पृथ्वी पर ही टिकानी होगी।
उस तरफ तो अछोर आकाश है,
वहां टिकाने की भी जगह नहीं है।
वहां तो तुम बढ़ते जाओगे।
धीरे-धीरे सीढ़ी खो जाएगी,
तुम भी खो जाओगे।
–ओशो
वो बचपन का जमाना था
इक बचपन का जमाना
था
जिसमेँ खुशियोँ का खजाना था
चाहत चाँद को पाने की थी
पर दिल तितली का दीवाना था
जिसमेँ खुशियोँ का खजाना था
चाहत चाँद को पाने की थी
पर दिल तितली का दीवाना था
खबर न थी कुछ सुबह की
न शाम का ठिकाना था
थक हार के आना स्कूल से
पर खेलने भी जाना था
माँ की कहानी थी
परियोँ का फसाना था
बारिश मेँ कागज की नाव थी
हर मौसम सुहाना था
हर खेल मेँ साथी थे
हर रिश्ता निभाना था
गम की जुबान न होती थी
न जख्मोँ का पैमाना था
रोने की वजह न थी
न हँसने का बहाना था
क्योँ हो गये हम इतने बडे
इससे अच्छा वो बचपन का जमाना था
Mubarak
Raj
मन्दिर
अंततः तो गुरु हट जाएगा,
खिड़की भी हट जाएगी
आकाश ही रह जाएगा।
गुरु के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना,
बेशर्त होना सीखना,
झुकना और अपने को मिटाना सीखना।
मांगना मत ।
मन बहुत मांग किए चला जाएगा,
क्योंकि मन की पुरानी आदत है ।
मन भिखमंगा है ।
सम्राट का मन भी भिखारी है ; वह भी मांगता है । "
♥_/\_♥ ओशो ♥_/\_♥
मन्दिर
रचना: परम्पुज्य सत्गुरु ओशो सिद्दार्थ
गीत: परम्पुज्य सत्गुरु ओशो प्रिया
गीत: परम्पुज्य सत्गुरु ओशो प्रिया
मस्दिज, गुरु द्वेर मै, जा कबतक शिस झुकावोगे?
कब तक रमायान, गीता से, अप्ने मन को बहलावोगे?
कब खुद को शिस झुकावोगे, कब खुद गीता बन जावोगे?
आत्मनम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
सास्त्रो को पढ्कर क्य होगा? सब्दो को रट्कर क्या होग?
जब तलक शेश है राग्-द्वैष, जब तलक बासाना, मोह षेश ।
जब तलक धर्म आचरन न हो, तब तलक न कोइ श्रमण अहो।
आचरन शररम गछामी, भज ओशो शररम गछमी।।
है काम, क्रोध, मद, लोभ लहर्,इर्ष्या, बिद्वेष, बिमोह लहर।
हर बिदा लहर, हर मेल लहर, धन, योवन का सब खेल लहर।
लहरो को जिस्ने पहचना, उस्ने ही सागर को जाना।
जागरण शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
साक्छी धुनी बन जाने दो, इर्श्या-बिद्वेश करो स्वहाँ।
आनन्द्-धुप का धुन्वा उठे, खुशवु बन कर निकले आहा।
कुछ ऐसा ध्यान दिप बारो, घर आ जाये तिरथ सारा।
अ थ साक्छी शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
कामना छोड्, बासना छोड्, कल्पना छोड् कर जाग अभी।
जो है उस्का स्विकार करो, अन्यथा हेतु मत भाग कभी।
छोडो त्रिष्णा बिश्रम करो, साक्छी होकर आरम करो।
बिस्रामम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
माँ
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
अभी जिन्दा है माँ मेरी , मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई खवाब में आ जाती है
ऐ अँधेरे देख ले मुहं तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती
माँ के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
किसी के हिस्से घर किसी के हिस्से में दुकां आयी
माँ के हिस्सेमे ममता के सिवा कुछ न आयी
यूं तो जिन्दगी में बुलंदियों का मकाम छूआ
माँ ने जब गोद में लिया तो आसमान छूआ
'मुनव्वर राणा'
कब तक रमायान, गीता से, अप्ने मन को बहलावोगे?
कब खुद को शिस झुकावोगे, कब खुद गीता बन जावोगे?
आत्मनम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
सास्त्रो को पढ्कर क्य होगा? सब्दो को रट्कर क्या होग?
जब तलक शेश है राग्-द्वैष, जब तलक बासाना, मोह षेश ।
जब तलक धर्म आचरन न हो, तब तलक न कोइ श्रमण अहो।
आचरन शररम गछामी, भज ओशो शररम गछमी।।
है काम, क्रोध, मद, लोभ लहर्,इर्ष्या, बिद्वेष, बिमोह लहर।
हर बिदा लहर, हर मेल लहर, धन, योवन का सब खेल लहर।
लहरो को जिस्ने पहचना, उस्ने ही सागर को जाना।
जागरण शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
साक्छी धुनी बन जाने दो, इर्श्या-बिद्वेश करो स्वहाँ।
आनन्द्-धुप का धुन्वा उठे, खुशवु बन कर निकले आहा।
कुछ ऐसा ध्यान दिप बारो, घर आ जाये तिरथ सारा।
अ थ साक्छी शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
कामना छोड्, बासना छोड्, कल्पना छोड् कर जाग अभी।
जो है उस्का स्विकार करो, अन्यथा हेतु मत भाग कभी।
छोडो त्रिष्णा बिश्रम करो, साक्छी होकर आरम करो।
बिस्रामम शररम गछामी, भज ओशो शररम गछामी।।
माँ
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
अभी जिन्दा है माँ मेरी , मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई खवाब में आ जाती है
ऐ अँधेरे देख ले मुहं तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती
माँ के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
किसी के हिस्से घर किसी के हिस्से में दुकां आयी
माँ के हिस्सेमे ममता के सिवा कुछ न आयी
यूं तो जिन्दगी में बुलंदियों का मकाम छूआ
माँ ने जब गोद में लिया तो आसमान छूआ
'मुनव्वर राणा'
- गुरु आखिरी नहीं है
अंततः तो गुरु हट जाएगा,
खिड़की भी हट जाएगी
आकाश ही रह जाएगा।
गुरु के पास प्रेम का पहला पाठ सीखना,
बेशर्त होना सीखना,
झुकना और अपने को मिटाना सीखना।
मांगना मत ।
मन बहुत मांग किए चला जाएगा,
क्योंकि मन की पुरानी आदत है ।
मन भिखमंगा है ।
सम्राट का मन भी भिखारी है ; वह भी मांगता है । "
♥_/\_♥ ओशो ♥_/\_♥
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