Saturday, November 17, 2012

ओशो प्रबचन संग्रह

" बदलाव का भय " ~ ओशो

Q. :- " मैं अकेला महसूस करता हूं, जो कि ठीक है, लेकिन मैं भ्रमित हूं। मैं नहीं जानता कि क्या हो रहा है। मेरे भीतर चीजें बदल रही हैं इसलिए कभी-कभी मैं आतंकित हो जाता हूं, कभी-कभी अस्थिर अहसास होते हैं। "

यह स्वाभाविक है। जब कभी तुम आतंकित महसूस करो, बस विश्रांत हो जाओ। इस सत्य को स्वीकार लो कि भय यहां है, लेकिन उसके बारे में कुछ भी मत करो। उसकी उपेक्षा करो, उसे किसी प्रकार का ध्यान मत दो। शरीर को देखो। वहां किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए। यदि शरीर में तनाव नहीं रहता तो भय स्वतः समाप्त हो जाता है। भय जड़ें जमाने के लिए शरीर में एक तरह की तनाव दशा बना देता है। यदि शरीर विश्रांत है, भय निश्चित ही समाप्त हो जाएगा। विश्रांत व्यक्ति भयभीत नहीं हो सकता है। तुम एक विश्रांत व्यक्ति को भयभीत नहीं कर सकते। यदि भय आता भी है, वह लहर की तरह आता है...वह जड़ें नहीं जमाएगा।
 

भय लहरों की तरह आता है और जाता है और तुम उससे अछूते बनते रहते हो, यह सुंदर है। जब वह तुम्हारे भीतर जड़ें जमा लेता है और तुम्हारे भीतर विकसित होने लगता है, तब यह फोड़ा बन जाता है, कैंसर का फोड़ा। तब वह तुम्हारे अंतस की बनावट को अपाहिज कर देता है।
तो जब कभी तुम आतंकित महसूस करो, एक चीज देखने की होती है कि शरीर तनावग्रस्त नहीं होना चाहिए। जमीन पर लेट जाओ और विश्रांत होओ, विश्रांत होना भय की विनाशक औषधि है; और वह आएगा और चला जाएगा। तुम बस देखते हो।

देखने में पसंद या नापंसद नहीं होनी चाहिए। तुम बस स्वीकारते हो कि यह ठीक है। दिन गरम है; तुम क्या कर सकते हो? शरीर से पसीना छूट रहा है...तुम्हें इससे गुजरना है। शाम करीब आ रही है, और शीतल हवाएं बहनी शुरू हो जाएंगी...इसलिए बस देखो और विश्रांत होओ।

एक बार तुम्हें इसकी कला आ जाती है, और यह तुम्हारे पास बहुत शीघ्र ही होगी कि यदि तुम विश्रांत होते हो, भय तुम्हें पकड़ नहीं सकता कि यह आता है और जाता है और तुम्हें बगैर भयभीत किए छोड़ देता है; तब तुम्हारे पास कुंजी आ जाती है। और यह आएगी। यह आएगी क्योंकि जितने हम बदलते हैं, उतना ही अधिक भय आएगा।

हर बदलाव भय पैदा करता है, क्योंकि हर बदलाव तुम्हें अपरिचित में डाल देता है, अजनबी संसार में डाल देता है। यदि कुछ भी नहीं बदलता है और हर चीज स्थिर रहती है, तुम्हारे को कभी भी भय नहीं पकड़ेगा। इसका अर्थ होता है, यदि हर चीज मृत हो, तुम डरोगे नहीं।

उदाहरण के लिए, तुम नीचे बैठे हो और वहां नीचे चट्टान है। तो कोई समस्या नहीं है , तुम चट्टान की तरफ देखोगे, और हर चीज ठीक है। अचानक चट्टान चलने लगे; तो तुम भयभीत हो जाते हो। जीवंतता! गति भय पैदा करती है; और यदि हर चीज अडोल है, वहां कोई भय नहीं है।

इसी कारण लोग डरते हैं, भयपूर्ण स्थितियों में जाते डरते हैं, जीवन को ऐसा जीते हैं कि बदलाव ना आए। हर चीज वैसी की वैसी बने रहे और लोग मृत ढर्रों का पालन करते हैं, इस बात से पूरी तरह बेखबर कि जीवन प्रवाह है। वह अपने ही बनाए एकांत टापू पर बना रहता है जहां कुछ भी नहीं बदलता। वही कमरा, वही फोटो, वही फर्नीचर, वही घर, वही आदतें, वही चप्पलें, सब कुछ वही का वही। एक ही ब्रांड की सिगरेट; दूसरी ब्रांड तुम पसंद नहीं करोगे। इसके बीच, इस एकरसता के बीच तुम सहज महसूस करते हो।

लोग लगभग अपनी कब्रों में जीते हैं। जिसे तुम सुविधाजनक और आरामदायक जीवन कहते हो वह और कुछ नहीं बस सूक्ष्म कब्र है। इसलिए जब तुम बदलना शुरू करते हो, जब तुम अपने भीतर की यात्रा शुरू करते हो, जब तुम अपने अंतस के जगत के अंतरिक्ष यात्री बनते हो, और हर चीज इतनी तेज बदल रही है कि हर क्षण भय के साथ कंप रहा है। तो अधिक से अधिक भय देखना होगा।

उसे वहां बने रहने दो। धीरे-धीरे तुम बदलाव का मजा लेने लगोगे इतना कि तुम किसी भी कीमत पर इसके लिए तैयार होओगे। बदलाव तुम्हें जीवन शक्ति देगा...अधिक जीवंतता, जोश, ऊर्जा देगा। तब तुम कुंड की तरह नहीं होओगे; सब तरफ से बंद, कोई हलन-चलन नहीं। तुम नदी की तरह बन जाओगे अज्ञात की तरफ प्रवाहित, समुद्र की तरफ जहां नदी विशाल हो जाती है। "
~ बी रियालिस्टिक: प्लान फॉर ए मिरैकल (ओशो के अनुरोध के अनुसार अब उपलब्ध नहीं है।)

जिसे कहते हम परिवार, जिसे कहते हम समाज–सब भ्रांतियां हैं; 

जिसे कहते हम परिवार, जिसे कहते हम समाज–सब भ्रांतियां हैं;  मन को भुलाने के उपाय हैं। और एक ही बात आदमी भुलाने की कोशिश करता है कि यहीं मेरा घर है, कहीं और नहीं। यही समझाने की कोशिश करता है : ‘‘यही मेरे प्रियजन हैं, यही मेरा सत्य है। यह देह, देह से जो दिखाई पड़ रहा है वह, यही संसार है; इसके पार और कुछ भी नहीं।’’ लेकिन टूट-टूट जाती है यह बात, खेल बनता नहीं। खिलौने खिलौने ही रहे जाते हैं, सत्य कभी बन नहीं पाते। धोखा हम बहुत देते हैं, लेकिन धोखा कभी सफल नहीं हो पाता। और शुभ है कि धोखा सफल नहीं होता, काश, धोखा सफल हो जाता तो हम सदा को भटक जाते ! फिर तो बुद्धत्व का कोई उपाय न रह जाता। फिर तो समाधि की कोई संभावना न रह जाती।

लाख उपाय करके भी टूट जाते हैं, इसलिए बड़ी चिंता पैदा होती है, बड़ा संताप होता है। मानते हो पत्नी मेरी है–और जानते हो भीतर से कि मेरी हो कैसे सकेगी ? मानते हो बेटा मेरा है–लेकिन जानते हो किसी तल पर, गहराई में कि सब मेरा-तेरा सपना है। तो झुठला लेते हो, समझा लेते हो, सांत्वना कर लेते हो, लेकिन भीतर उबलती रहती है आग। और भीतर एक बात तीर की तरह चुभी ही रहती है कि न मुझे मेरा पता है, न मुझे औरों का पता है। इस अजनबी जगह घर बनाया कैसे जा सकता है ?

जिस व्यक्ति को यह बोध आने लगा कि यह जगह ही अजनबी है, यहां परिचय हो नहीं सकता, हम किसी और देश के वासी हैं; जैसे ही यह बोध जगने लगा और तुमने हिम्मत की, और तुमने यहां के भूल-भुलावे में अपने को भटकाने के उपाय छोड़ दिए, और तुम जागने लगे पार के प्रति; वह जो दूसरा किनारा है, वह जो बहुत दूर कुहासे में छिपा किनारा है, उसकी पुकार तुम्हें सुनाई पड़ने लगी–तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है। धर्म ऐसी ही क्रांति का नाम है।


किनारा मनमोहक तो है यह, सपनों जैसा सुंदर है। बड़े आकर्षण हैं यहां, अन्यथा इतने लोग भटकते न। अनंत लोग भटकते हैं, कुछ गहरी सम्मोहन की क्षमता है इस किनारे में। इतने-इतने लोग भटकते हैं, अकारण ही न भटकते होंगे–कुछ लुभाता होगा मन को, कुछ पकड़ लेता होगा।

कभी-कभार कोई एक अष्टावक्र होता है, कभी कोई जागता; अधिक लोग तो सोए-सोए सपना देखते रहते हैं। इन सपनों में जरूर कुछ नशा होगा, इतना तो तय है। और नशा गहरा होगा कि जगाने वाले आते हैं, जगाने की चेष्टा करते हैं, चले जाते हैं–और आदमी करवट बदल कर फिर अपनी नींद में खो जाता है। आदमी जगाने वालों को भी धोखा दे जाता है। आदमी जगाने वालों से भी नींद का नया इंतजाम कर लेता है; उनकी वाणी से भी शामक औषधियां बना लेता है।
बुद्ध जगाने आते हैं; तुम अपनी नींद में ही बुद्ध को सुन लेते हो। नींद में और-और सपनों में तुम बुद्ध की वाणी को विकृत कर लेते हो; तुम मनचाहे अर्थ निकाल लेते हो; तुम अपने भाव डाल देते हो। जो बुद्ध ने कहा था, वह तो सुन ही नहीं पाते; जो तुम सुनना चाहते थे, वही सुन लेते हो–फिर करवट लेकर तुम सो जाते हो। तो बुद्धत्व भी तुम्हारी नींद में ही डूब जाता है, तुम उसे भी डुबा लेते हो।

लेकिन, कितने ही मनमोहक हों सपने, चिंता नहीं मिटती। कांटा चुभता जाता है, सालता है, पीड़ा घनी होती जाती है।
देखो लोगों के चेहरे, देखो लोगों के अंतरतम में–घाव ही घाव हैं ! खूब मलहम-पट्टी की है, लेकिन घाव मिटे। घावों के ऊपर फूल भी सजा लिये हैं, तो भी घाव नहीं मिटे। फूल रख लेने से घावों पर, घाव मिटते भी नहीं।
अपने में ही देखो। सब उपाय कर के तुमने देखे हैं। जो तुम कर सकते थे, कर लिया है। हार-हार गए हो बार-बार फिर भी एक जाग नहीं आती कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो हम कर रहे हैं वह हो ही नहीं सकता।

अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो; और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है–अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजा–तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
अगर तुमने माना कि तुम शरीर हो तो दूसरे तुम्हें शरीर से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। अगर तुमने माना कि तुम मन हो, तो दूसरे तुम्हें मन से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। यदि तुमने कभी जाना कि तुम आत्मा हो, तो ही तुम्हें दूसरे में भी आत्मा की किरण का आभास होगा।

हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो।
कम से कम भीतर की वर्णमाला तो पढ़ो भीतर के शास्त्र से तो परिचित होओ तो ही तुम दूसरे से भी शायद परिचित हो जाओ।
और मजा ऐसा है कि जिसने अपने को जाना, उसने पाया कि दूसरा है ही नहीं। अपने को जानते ही पता चला कि बस एक है, वही बहुत रूपों में प्रगट हुआ है। जिसने अपने को पहचाना उसे पता चला : परिधि हमारी अलग-अलग, केंद्र हमारा एक है। जैसे ही हम भीतर जाते हैं, वैसे ही हम एक होने लगते हैं। जैसे ही हम बाहर की तरफ आते हैं, वैसे ही अनेक होने लगते हैं। अनेक का अर्थ है : बाहर की यात्रा। एक का अर्थ है : अंतर्यात्रा।

तो जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा, दूसरे से परिचित होना चाहेगा...। पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है, स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है। हम मित्र बनाना चाहते हैं, हम परिवार बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं अकेले ने हों। अकेले होने में कितना भय लगता है ! कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां जब हम अकेले होते हैं। कैसी कठिन और दूभर–झेलना मुश्किल ! क्षण-क्षण ऐसे कटता है जैसे वर्ष कटते हों। समय बड़ा लंबा हो जाता है। संताप बहुत सघन हो जाता है, समय बहुत लंबा हो जाता है।

तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं ताकि यह अकेलापन मिटे। हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं ताकि यह अजनबीपन मिटे, किसी तरह टूटे यह अजनबीपन–लगे कि यह हमारा घर है !
सांसाकि व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं जो इस संसार में अपना घर बना रहा है। हमारा शब्द बड़ा प्यारा है। हम सांसारिक को ‘गृहस्थ’ कहते हैं। लेकिन तुमने उसका ऊपरी अर्थ ही सुना है। तुमने इतना ही जाना है कि जो घर में रहता है, वहा संसारी है। नहीं, घर में तो संन्यासी भी रहते हैं। छप्पर तो उन्हें भी चाहिए पड़ेगा। उस घर को चाहे आश्रम कहो, चाहे उस घर को मंदिर कहो, चाहे स्थानक कहो, मस्जिद कहो–इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं। घर तो उन्हें भी चाहिए होगा। नहीं, घर का भेद नहीं है, भेद कही गहरे में होगा।

संसारी मैं उसको कहता हूं, जो इस संसार में घर बना रहा है; जो सोचता है, यहां घर बन जाएगा; जो सोचता है कि हम यहां के वासी हो जाएंगे, हम किसी तरह उपाय कर लेंगे। और संन्यासी वही है जिसे यह बात समझ में आ गई है : यहां घर बनता ही नहीं। जैसे दो और दो पांच नहीं होते ऐसे उसे बात समझ में आ गई कि यहां घर बनता ही नहीं। तुम बनाओ, गिर-गिर जाता है। यहां जितने घर बनाओ, सभी ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। यहां तुम बनाओ कितने ही घर, सब जैसे रेत में बच्चे घर बनाते हैं, ऐसे सिद्ध होते हैं; हवा का झोंका आया नहीं कि गए। ऐसे मौत का झोंका आता है, सब विसर्जित हो जाता है। यहां घर कोई बना नहीं पाया।

" शाकाहारी होना " ~ ओशो

" आदमी को, स्वाभाविक रूप से, एक शाकाहारी होना चाहिए, क्योंकि पूरा शरीर शाकाहारी भोजन के लिए बना है। वैज्ञानिक इस तथ्य को मानते हैं कि मानव शरीर का संपूर्ण ढांचा दिखाता है कि आदमी गैर-शाकाहारी नहीं होना चाहिए। आदमी बंदरों से आया है। बंदर शाकाहारी हैं, पूर्ण शाकाहारी। अगर डार्विन सही है तो आदमी को शाकाहारी होना चाहिए।

अब जांचने के तरीके हैं कि जानवरों की एक निश्चित प्रजाति शाकाहारी है या मांसाहारी: यह आंत पर निर्भर करता है, आंतों की लंबाई पर। मांसा
हारी पशुओं के पास बहुत छोटी आंत होती है। बाघ, शेर इनके पास बहुत ही छोटी आंत है, क्योंकि मांस पहले से ही एक पचा हुआ भोजन है। इसे पचाने के लिये लंबी आंत की जरूरत नहीं है। पाचन का काम जानवर द्वारा कर दिया गया है। अब तुम पशु का मांस खा रहे हो। यह पहले से ही पचा हुआ है, लंबी आंत की कोई जरूरत नहीं है। आदमी की आंत सबसे लंबी है: इसका मतलब है कि आदमी शाकाहारी है। एक लंबी पाचनक्रिया की जरूरत है, और वहां बहुत मलमूत्र होगा जिसे बाहर निकालना होगा।

अगर आदमी मांसाहारी नहीं है और वह मांस खाता चला जाता है, तो शरीर पर बोझ पड़ता है। पूरब में, सभी महान ध्यानियों ने, बुद्ध, महावीर, ने इस तथ्य पर बल दिया है। अहिंसा की किसी अवधारणा की वजह से नहीं, वह गौण बात है, पर अगर तुम यथार्थतः गहरे ध्यान में जाना चाहते हो तो तुम्हारे शरीर को हल्का होने की जरूरत है, प्राकृतिक, निर्भार,प्रवाहित। तुम्हारे शरीर को बोझ हटाने की जरूरत है; और एक मांसाहारी का शरीर बहुत बोझिल होता है।

. जरा देखो, क्या होता है जब तुम मांस खाते हो: जब तुम एक पशु को मारते हो, क्या होता है पशु को, जब वह मारा जाता है? बेशक, कोई भी मारा जाना नहीं चाहता। जीवन स्वयं को लंबाना चाहता है, पशु स्वेच्छा से नहीं मर रहा है। अगर कोई तुम्हें मारता है, तुम स्वेच्छा से नहीं मरोगे। अगर एक शेर तुम पर कूदता है और तुमको मारता है, तुम्हारे मन पर क्या बीतेगी? वही होता है जब तुम एक शेर को मारते हो। वेदना, भय, मृत्यु, पीड़ा, चिंता, क्रोध, हिंसा, उदासी ये सब चीजें पशु को होती हैं। उसके पूरे शरीर पर हिंसा, वेदना, पीड़ा फैल जाती है। पूरा शरीर विष से भर जाता है, जहर से। शरीर की सब ग्रंथियां जहर छोड़ती हैं क्योंकि जानवर न चाहते हुए भी मर रहा है। और फिर तुम मांस खाते हो, वह मांस सारा विष वहन करता है जो कि पशु द्वारा छोड़ा गया है। पूरी ऊर्जा जहरीली है। फिर वे जहर तुम्हारे शरीर में चले जाते हैं।

वह मांस जो तुम खा रहे हो एक पशु के शरीर से संबंधित था। उसका वहां एक विशेष उद्देश्य था। चेतना का एक विशिष्ट प्रकार पशु-शरीर में बसता था। तुम जानवरों की चेतना की तुलना में एक उच्च स्तर पर हो, और जब तुम पशु का मांस खाते हो, तुम्हारा शरीर सबसे निम्न स्तर को चला जाता है, जानवर के निचले स्तर को। तब तुम्हारी चेतना और तुम्हारे शरीर के बीच एक अंतर मौजूद होता है, और एक तनाव पैदा होता है और चिंता पैदा होती है।

व्यक्ति को वही चीज़ें खानी चाहिए जो प्राकृतिक हैं, तुम्हारे लिए प्राकृतिक। फल, सब्जियां , मेवे आदि, खाओ जितना ज्यादा तुम खा सको। खूबसूरती यह है कि तुम इन चीजों को जरूरत से अधिक नहीं खा सकते। जो कुछ भी प्राकृतिक है हमेशा तुम्हें संतुष्टि देता है, क्योंकि यह तुम्हारे शरीर को तृप्त करता है, तुम्हें भर देता है। तुम परिपूर्ण महसूस करते हो। अगर कुछ चीज अप्राकृतिक है वह तुम्हें कभी पूर्णता का एहसास नहीं देती। आइसक्रीम खाते जाओ, तुमको कभी नहीं लगता है कि तुम तृप्त हो। वास्तव में जितना अधिक तुम खाते हो, उतना अधिक तुम्हें खाते रहने का मन करता है। यह खाना नहीं है। तुम्हारे मन को धोखा दिया जा रहा है। अब तुम शरीर की जरूरत के हिसाब से नहीं खा रहे हो; तुम केवल इसे स्वाद के लिए खा रहे हो। जीभ नियंत्रक बन गई है।

जीभ नियंत्रक नहीं होनी चाहिए, यह पेट के बारे में कुछ नहीं जानती। यह शरीर के बारे में कुछ भी नहीं जानती। जीभ का एक विशेष उद्देश्य है: खाने का स्वाद लेना। स्वाभाविक रूप से, जीभ को परखना होता है, केवल यही चीज है, कौन सा खाना शरीर के लिए है, मेरे शरीर के लिए और कौन सा खाना मेरे शरीर के लिए नहीं है। यह सिर्फ दरवाजे पर चौकीदार है; यह स्वामी नहीं है, और अगर दरवाजे पर चौकीदार स्वामी बन जाता है, तो सब कुछ अस्तव्यस्त हो जाएगा।

अब विज्ञापनदाता अच्छी तरह जानते हैं कि जीभ को बरगलाया जा सकता है, नाक को बरगलाया जा सकता है। और वे स्वामी नहीं हैं। हो सकता है तुम अवगत नहीं हो: भोजन पर दुनिया में अनुसंधान चलता रहता है, और वे कहते हैं कि अगर तुम्हारी नाक पूरी तरह से बंद कर दी जाए, और तुम्हारी आंखें बंद हों, और फिर तुम्हें खाने के लिए एक प्याज दिया जाए, तुम नहीं बता सकते कि तुम क्या खा रहे हो। तुम सेब और प्याज में अंतर नहीं कर सकते अगर नाक पूरी तरह से बंद हो क्योंकि आधा स्वाद गंध से आता है, नाक द्वारा तय किया जाता है, और आधा जीभ द्वारा तय किया जाता है। ये दोनों नियंत्रक हो गए हैं। अब वे जानते हैं कि : आइसक्रीम पौष्टिक है या नहीं यह बात नहीं है। उसमें स्वाद हो सकता है, उसमें कुछ रसायन हो सकते हैं जो जीभ को परितृप्त भले ही करें मगर शरीर के लिए आवश्यक नहीं होते।

आदमी उलझन में है, भैंसों से भी अधिक उलझन में। तुम भैंसों को आइसक्रीम खाने के लिए राजी नहीं कर सकते। कोशिश करो!

एक प्राकृतिक खाना...और जब मैं प्राकृतिक कहता हूं, मेरा मतलब है जो कि तुम्हारे शरीर की जरूरत है। एक बाघ की जरूरत अलग है, उसे बहुत ही हिंसक होना होता है। यदि तुम एक बाघ का मांस खाओ तो तुम हिंसक हो जाओगे, लेकिन तुम्हारी हिंसा कहां व्यक्त होगी? तुमको मानव समाज में जीना है, एक जंगल में नहीं। फिर तुमको हिंसा को दबाना होगा। फिर एक दुष्चक्र शुरू होता है।

जब तुम हिंसा को दबाते हो, तब क्या होता है? जब तुम क्रोधित, हिंसक महसूस करते हो, एक तरह की जहरीली ऊर्जा निकलती है, क्योंकि वह जहर एक स्थिति उत्पन्न करता है जहां तुम वास्तव में हिंसक हो सकते हो और किसी को मार सकते हो। वह ऊर्जा तुम्हारे हाथ की ओर बहती है; वह ऊर्जा तुम्हारे दांतों की ओर बहती है। यही वे दो स्थान हैं जहां से जानवर हिंसक होते हैं। आदमी जानवरों के साम्राज्य का हिस्सा है।

जब तुम गुस्सा होते हो, तो ऊर्जा निकलती है और यह हाथ और दांत तक आती है, जबड़े तक आती है, लेकिन तुम मानव समाज में जी रहे हो और क्रोधित होना हमेशा लाभदायक नहीं है। तुम एक सभ्य दुनिया में रहते हो और तुम एक जानवर की तरह बर्ताव नहीं कर सकते। यदि तुम एक जानवर की तरह व्यवहार करते हो, तो तुम्हें इसके लिए बहुत अधिक भुगतान करना पड़ेगा और तुम उतना देने को तैयार नहीं हो। तो फिर तुम क्या करते हो? तुम हाथ में क्रोध को दबा देते हो, तुम दांत में क्रोध को दबा देते हो, तुम एक झूठी मुस्कान चिपका लेते हो और तुम्हारे दांत क्रोध को इकट्ठा करते जाते हैं।

मैंने शायद ही कभी प्राकृतिक जबड़े के साथ लोगों को देखा है। वह प्राकृतिक नहीं होता, अवरुद्ध, कठोर क्योंकि उसमें बहुत ज्यादा गुस्सा है। यदि तुम किसी व्यक्ति के जबड़े को दबाओ, क्रोध निकाला जा सकता है। हाथ बदसूरत हो जाते हैं। वे मनोहरता खो देते हैं, वे लचीलापन खो देते हैं, क्योंकि बहुत अधिक गुस्सा वहां दबा है। जो लोग गहरी मालिश पर काम कर रहे हैं, उन्हें पता चला है कि जब तुम हाथ को गहराई से छूते हो, हाथ की मालिश करते हो, व्यक्ति क्रोधित होना शुरू होता है। कोई कारण नहीं है। तुम आदमी की मालिश कर रहे हो और अचानक वह गुस्से का अनुभव करने लगता है। यदि तुम जबड़े को दबाओ, व्यक्ति फिर गुस्सा हो जाता हैं। वे इकट्ठे किए हुए क्रोध को ढोते हैं। ये शरीर की अशुद्धताएं हैं: उन्हें निकालना ही है। अगर तुम उन्हें नहीं निकालोगे तो शरीर भारी रहेगा। "
~ The Essence of Yoga / दि एसेन्स ऑफ योग , प्रवचन #5

दूसरा प्रश्न : मैँ आपको पा रहा हूँ कि सब पा गया हूँ । हालांकि लोग कहते है कि मैँ पागल हो गया हूँ । भगवान , यह मुझे क्या हो गया है ?
ओशो : लोग ठीक ही कहते हैँ । तुम पागल हो गये हो । प्रेम पागलपन है । पर जिसने प्रेम जाना , उसके लिए सिर्फ प्रेम ही समझदारी रह जाती है । जिन्होँने प्रेम नहीँ जाना , उनके लिए प्रेम पागलपन है । उन्होँने स्वाद ही नहीँ चखा उस बात का । उन्हेँ धन पागलपन नहीँ है , पद पागलपन नही
ँ है, प्रेम पागलपन है । जिन्होँने प्रेम चखा , उनके लिए धन पागलपन है , उन्हेँ सब पागलपन है सिर्फ प्रेम ही एकमात्र बुद्धिमानी है

लोग पागल कहते हैँ , वे अपनी आत्मरक्षा मेँ कहते है । उनकी तुम चिँता मत करना । वह यह कह रहे हैँ कि हम पागल नहीँ हैँ । जब वे तुमसे कहते हैँ कि तुम पागल हो , तो वे इतना ही कहना चाह रहे हैँ कि हम पागल नहीँ है । इतने लोग पागल नहीँ हो सकते।

सृजनात्‍मकता ही प्रेम है, धर्म है—कथा यात्रा (ओशो)
एक महान सम्राट अपने घोड़े पर बैठ कर हर दिन सुबह शहर में घूमता था। यह सुंदर अनुभव था कि कैसे शहर विकसित हो रहा है, कैसे उसकी राजधानी अधिक से अधिक सुंदर हो रही है।

उसका सपना था कि उसे पृथ्‍वी की सबसे सुंदर जगह बनाया जाए। वह हमेशा अपने घोड़े को रोकता और एक बूढ़े व्‍यक्‍ति को देखता, वह एक सौ बीस साल का बूढ़ा रहा होगा जो बग़ीचे में काम करता रहता, बीज बोता, वृक्षों को पानी देता—ऐसे वृक्ष जिनको बड़ा होने में सैंकड़ो साल लगेंगे। ऐसे
वृक्ष जो चार हजार साल जीते है।

उसे बड़ी हैरानी होती: यह आदमी आधा कब्र में जा चुका है; किनके लिए यह बीज बो रहा है? वह कभी भी इन पर आये फूल और फलों को नहीं देख पायेगा। इसकी कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। कि वह अपनी मेहनत का फल देख पायेगा।
एक दिन वह अपने आपको रोक नहीं पाया। वह घोड़े से उतरा और उस बूढ़े व्‍यक्‍ति के पास जाकर उससे पूछने लगा: मैं हर दिन यहां से गुजरता हूं, और एक प्रश्‍न मेरे दिमाग में रोज आता है, अब यह लगभग असंभव हो गया कि मैं आपके कार्य को क्षण भर के लिए बाधा पहूंचाऊंगा। मैं जानना चाहता हूं कि आप किनके लिए ये बीज बो रहे है, ये वृक्ष तब तैयार होंगे, युवा होंगे, जब आप यहां नहीं होंगे।
बूढे व्‍यक्‍ति ने सम्राट की तरफ देखा और हंसा। फिर बोला; ‘’यदि यही तर्क मेरे बापदादाओं का होता तो मैं फल और फूलों से भरे इस सुंदर बग़ीचे से महरूम रह गया होता। हम पीढ़ी दर पीढ़ी माली है—मेरे पिता और बापदादाओं ने बीज बोए, मैं फल खा रहा हूं, मेरे बच्‍चों का क्‍या होगा? मेरे बच्‍चों के बच्‍चों का क्‍या होगा। यदि उनका भी विचार आप जैसा ही होता तो यहां कोई बग़ीचा नहीं होता। लोग दूर-दूर से इस बग़ीचे को देखने आते है क्‍योंकि मेरे पास ऐसे वृक्ष है जो हजारों साल पुराने है। मैं बस वही कर रहा हूं जो मैं कृतज्ञता से कर सकता हूं।
‘’और जहां तक बात बीज बोने की है……जब बसंत आता है, हर पत्‍ते को उगते देख कर मुझे इतना आनंद आता है कि मैं भूल ही जाता हूं कि मैं कितना बूढ़ा हूं। मैं उतना ही युवा हूं जितना कभी था। मैं युवा बना रहा क्‍योंकि मैं सतत सृजनात्‍मक बना रहा हूं। मैं उतना ही युवा हूं जितना कभी था। शायद इस लिए मैं इतना लंबा जीया, और मैं अब भी युवा हूं, ऐसा लगता है कि मृत्‍यु मेरे प्रति करणावान है क्‍योंकि मैं अस्‍तित्‍व के साथ चल रहा हूं। असतीत्व को मेरी कमी खुलेगी; अस्‍तित्‍व किसी दूसरे को मेरे स्‍थान पर नहीं ला पाएगा। शायद इसीलिए मैं अब भी जिंदा हूं। लेकिन आप युवा है और आप ऐसे प्रश्‍न पूछ रहे है जैसे कि कोई मर रहा हो। कारण यह है कि आप सृजनात्मक है।‘’
जीवन को प्रेम का एकमात्र ढंग है कि और अधिक जीवन का सृजन का सृजन करो, जीवन को और सुंदर बनाओ अधिक फलदार अधिक रसपूर्ण1 इसके पहले इस पृथ्‍वी को मत छोड़ो जब तक कि तुम इसे थोड़ा अधिक सुंदर न बना दो, जैसा इसे तुमने अपने जन्‍म के समय देखा था—यही एकमात्र धर्म है जो मैं जानता हूं। बाकी सारे धर्म नकली है।
मैं तुम्‍हें सृजनात्‍मकता का धर्म सिखाता हूं। और अधिक जीवन के सृजन करने से तुम रूपांतरित होओगे क्‍योंकि जो जीवन का निर्माण कर सकता है वह पहले ही परमात्‍मा का, भगवान का हिस्‍सा हो गया।
ओशो
दि मसाय
कामना का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी चाह।  

कामना के क्षीण होने का अर्थ है, जो है, उस पर पूर्णताः। जो नहीं है, उसकी चाह कामना है। जो है, उसके साथ पूरी तृप्ति, कामना से मुक्ति है।
कामना का अर्थ है, दौड़। जहां मैं खड़ा हूं, वहां नहीं है आनंद। जहां कोई और खड़ा है, वहां है आनंद। वहां मुझे पहुंचना है। और मजे की बात यह है कि जहां कोई और खड़ा है, और जहां मुझे आनंद मालूम पड़ता है, वह भी कहीं और पहुंचना चाहता है! वह भी वहां होने को राजी नहीं है। उसे भी वहां आनंद नहीं है। उसे भी कहीं और आनंद है।

कामना का अर्थ है, आनंद कहीं और है, समव्हेयर एल्स। उस जगह को छोड़कर जहां आप खड़े हैं, और कहीं भी हो सकता है आनंद। उस जगह नहीं है, जहां आप हैं। जो आप हैं, वहां आनंद नहीं है। कहीं भी हो सकता है पृथ्वी पर; पृथ्वी के बाहर, चांदत्तारों पर; लेकिन वहां नहीं है, जिस जगह को आप घेरते हैं। जिस होने की स्थिति में आप हैं, वह जगह आनंदरिक्त है--कामना का अर्थ है।
कामना से मुक्ति का अर्थ है, कहीं हो या न हो आनंद, जहां आप हैं, वहां पूरा है; जो आप हैं, वहां पूरा है। संतृप्ति की पराकाष्ठा कामना से मुक्ति है। इंचभर भी कहीं और जाने का मन नहीं है, तो कामना से मुक्त हो जाएंगे।
कामना के बीज, कामना के अंकुर, कामना के तूफान क्यों उठते हैं? क्या इसलिए कि सच में ही आनंद कहीं और है? या इसलिए कि जहां आप खड़े हैं, उस जगह से अपरिचित हैं?
अज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना इसलिए उठती है कि सुख कहीं और है। और अगर वहां तक जाना है, तो बिना कामना के मार्ग से जाइएगा कैसे? ज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना के अंधड़ इसलिए उठते हैं कि जहां आप हैं, जो आप हैं, उसका आपको कोई पता ही नहीं है। काश, आपको पता चल जाए कि आप क्या हैं, तो कामना ऐसे ही तिरोहित हो जाती है, जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।

सप्रेशन संयम नहीं है; दमन संयम नहीं है।
संयम जागरण है--होश, रिमेंबरिंग, स्मृति। इसको प्रयोग करके देखें।
प्रियजन है आपका कोई। हाथ हाथ में ले लेते हैं उसका प्रेम से। तब हाथ हाथ में रखें, आंख बंद कर लें, स्मरण करें, स्पर्श हो रहा है कि सिर्फ छू रहे हैं। बारीक है फासला, पर खयाल में आ जाएगा; दिखाई पड़ जाएगा। कभी लगेगा, स्पर्श कर रहे हैं। कभी लगेगा, छू रहे हैं। कभी लगेगा, दोनों काम एक साथ चल रहे हैं। और

ध्यान रहे, अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में पसीने के सिवाय अनुभव में और कुछ भी नहीं आएगा। अगर स्पर्श कर रहे हैं, तो कविता अनुभव में आएगी; पसीने का पता ही नहीं चलेगा।
अगर प्रियजन का हाथ हाथ में लेकर बैठे हैं और अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में ऊब जाएंगे। और मन होगा कि कब हाथ से हाथ छूटे अब। लेकिन अगर स्पर्श भी कर रहे हैं, तो ऐसा होगा कि कोई हाथ न छुड़ा दे। अब यह हाथ हाथ में ही रहा आए। अब यह हाथ हाथ से जुड़ ही जाए। कविता पैदा होगी, स्वप्न पैदा होगा, रोमांटिक, रोमांच का जगत शुरू होगा।
इसे देखते रहें और प्रयोग करते रहें, तो पहली घटना घट सकती है संयम की, अर्थात विषयों तक इंद्रियों का रस तिरोहित हो जाता है। विषय तक इंद्रियां जाती हैं उपयोग के लिए, भोग के लिए नहीं। सेतु टूट गया। तब जो व्यक्ति है, वह संयमी है। ऐसा संयमी व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, उपलब्ध हो जाता है।
दूसरा, कृष्ण कह रहे हैं, भोग करते हुए भी, भोग में होते हुए भी इंद्रियों को विषयों से बिना तोड़े हुए, छूना ही नहीं, स्पर्श करते हुए भी, ज्ञानीजन बाहर हो जाते हैं। उसकी प्रक्रिया और भी सूक्ष्म होगी, क्योंकि वह एक प्रतिशत के लिए है। यह अभी जो मैंने कहा, निन्यानबे प्रतिशत के लिए है। यह भी कठिन है। वह और भी कठिनतर है। स्पर्श करते हुए, इंद्रियों का उपयोग ही नहीं, भोग करते हुए। फिर क्या करें? फिर कैसे सेतु टूटेगा? भोग करते हुए भी, पूरा भोग करते हुए भी, जो भोग के क्षण में जाग सकता है; भोग के क्षण में...!
भोजन कर रहे हैं। स्वाद की तरंगें बह रही हैं। स्वाद में उतरा रहे, डूब रहे। ठीक उस क्षण में स्वाद के प्रति जो जाग जाए, देखे कि डूब रहा, उतरा रहा; भागता नहीं, तोड़ता नहीं; डूब रहा, उतरा रहा, स्वाद ले रहा, पूरी तरह ले रहा। पूरी तरह लूं और होश से भर जाऊं, तो अचानक दिखाई पड़ेगा, मैं भोक्ता नहीं हूं; भोग है; मैं द्रष्टा हूं। भोग है; मैं द्रष्टा हूं, भोक्ता नहीं हूं।
द्रष्टा का भोक्ता-भाव गिर जाता है। तो वह भोगता रहे! संगीत को सुनेगा; कान गदगद होंगे, आनंदातिरेक में नाचने लगेंगे। कान के भीतर तरंगें उठकर सुख देने लगेंगी। कान पूरी तरह रसमग्न हो जाएगा। स्पर्श करेगा ध्वनि को, संगीत को। लेकिन भीतर जो चेतना है, वह जागकर देखेगी: ऐसा हो रहा है; दिस इज़ हैपनिंग। और ऐसे स्मरण से कि ऐसा हो रहा है, तत्काल कोई गहरा सेतु टूट जाता है; जहां से भीतर की चेतना भोक्ता नहीं रह जाती, सिर्फ द्रष्टा रह जाती है।

संतुष्ट हो जाना भी बहुत कठिन है, फिर भी उतना कठिन नहीं, जितना द्वंद्व के बाहर हो जाना है। द्वंद्व क्या है?
सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं। कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं! लेकिन सारी मनुष्य-जाति का अनुभव यह है। और अब तो मनसशास्त्री इस अनुभव को बहुत प्रगाढ़ रूप से स्वीकार कर लिए हैं कि जिसे हम प्रेम करते
हैं, उसे ही घृणा करते हैं।

द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगा।
जिससे आप प्रेम करते हैं, उससे आप चौबीस घंटे प्रेम कर पाते हैं? नहीं कर पाते। घंटेभर प्रेम करते हैं, तो घंटेभर घृणा करते हैं। सुबह प्रेम करते हैं, तो सांझ घृणा करते हैं। सांझ लड़ते हैं, तो सुबह फिर दोस्ती कायम करते हैं। पूरे समय घृणा और प्रेम का धूप-छांव की तरह खेल चलता है।
जिसको आदर करते हैं, उसके ही प्रति मन में अनादर भी पालते हैं। मौके की तलाश में होते हैं, कब अनादर निकाल सकें। जिसको फूलमाला पहनाते हैं, किसी दिन उस पर पत्थर फेंकने की इच्छा भी मन में रहती है। वह इच्छा दबी हुई प्रतीक्षा करती है। फिर किसी दिन बहाना खोजकर वह इच्छा बाहर आती है। पत्थर भी फेंक लेते हैं।
हमारा मन प्रतिपल दोहरा है, डबल-बाइंड। इसलिए जो बुद्धिमान हैं, जैसे कि चाणक्य ने--जो कि चालाकों में, अधिकतम बुद्धिमान आदमियों में एक है--चाणक्य ने कहा है, राजाओं को सलाह दी है कि अपने मित्र को भी वह बात मत बताना, जो तुम शत्रु को नहीं बताना चाहते हो। क्यों? क्योंकि चाणक्य ने कहा, भरोसा कुछ भी नहीं है; जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है।
पश्चिम में चाणक्य का समानांतर एक आदमी हुआ, मैक्यावेली। वह भी चालाकों में इतना ही बुद्धिमान है। उसने कहा है, ध्यान रखना, जिस बात को तुम गुप्त नहीं रख सकते, तुम्हारा मित्र भी नहीं रख सकेगा। इसलिए मित्र को भूलकर मत बताना। क्योंकि जब तुम खुद ही गुप्त नहीं रख सके और मित्र को बताना पड़ा, तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम जिस बात को गुप्त नहीं रख सके, उसको तुम्हारा मित्र रख सकेगा। वह भी किसी को बता देगा। और फिर, जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है।
मैक्यावेली ने एक बात और कही; उसने यह कहा कि शत्रु के प्रति भी इस तरह की बातें मत कहना, जिन्हें कि कल लौटाना मुश्किल हो जाए। क्योंकि जो आज शत्रु है, वह कल मित्र हो सकता है। फिर कठिन होगा। फिर लौटाना मुश्किल होगा।
असल में शत्रु और मित्र दो चीजें नहीं हैं, एक ही साथ घटित होती हैं। आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं? बहुत मुश्किल है। अब तक तो नहीं हो सका पृथ्वी पर यह। बिना मित्र बनाए किसी को शत्रु बनाया जा सकता है? असंभव है। शत्रु बनाने के लिए भी मित्र की सीढ़ी से गुजरना ही पड़ता है। शत्रु बनाने के लिए भी पहले मित्र ही बनाना पड़ता है। तो ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिसको मित्र बनाया, अब उसके शत्रु बनने की संभावना घनीभूत हो गई।

विषाद से भरा हुआ चित्त आस्तिक नहीं हो सकता है।

विषाद से भरा हुआ चित्त आस्तिक नहीं हो सकता है। पीड़ा से भरा हुआ चित्त, दुख से भरा हुआ चित्त, फ्रस्ट्रेटेड चित्त आस्तिक नहीं हो सकता, क्योंकि आस्तिकता आती है अनुग्रह के भाव से, ग्रेटिटयूड से। और विषाद में अनुग्रह का भाव कैसे पैदा होगा? अनुग्रह का भाव तो आनंद में पैदा होता है। जब कोई आनंद से भरता है, तो अनुगृहीत होता है, तो ग्रेटिटयूड पैदा होता है।
सिमन वेल ने एक किताब लिखी है, ग्रेस एंड ग्रेविटी--प्रसाद
और गुरुत्वाकर्षण। बहुमूल्य है; इस सदी की बहुमूल्य किताबों में से एक है। सिमन वेल कहती है कि जैसे जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है, ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को अपनी तरफ खींचता है।

जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है। उसकी एक छिपी हुई ऊर्जा, शक्ति का नाम ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण है। दिखाई कहीं नहीं पड़ता, लेकिन पत्थर को फेंको ऊपर, वह नीचे आ जाता है। वृक्ष से फल गिरा, नीचे आ जाता है। दिखाई कहीं भी नहीं पड़ता।
हम सबको कहानी पता है कि न्यूटन एक बगीचे में बैठा है और सेव का फल गिरा है। और उसके मन में सवाल उठा कि फल गिरता है, तो नीचे ही क्यों आता है, ऊपर क्यों नहीं चला जाता? दाएं-बाएं क्यों नहीं चला जाता? ठीक नीचे ही क्यों चला आता है? चीजें गिरती हैं, तो नीचे क्यों आ जाती हैं? और तब उसे पहली दफा खयाल आया कि जमीन से कोई ऊर्जा, कोई शक्ति चीजों को अपनी तरफ खींचती है; कोई मैग्नेटिक, कोई चुंबकीय शक्ति चीजों को अपनी तरफ खींचती है। फिर ग्रेविटेशन सिद्ध हुआ। अभी भी दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन परिणाम दिखाई पड़ते हैं।
सिमन वेल कहती है, ठीक ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को अपनी तरफ खींचता है। उसके खींचने का जो ग्रेविटेशन है, उसका नाम ग्रेस, उसका नाम प्रसाद; अनुकंपा, अनुग्रह, जो भी हम नाम देना चाहें।
यह बड़े मजे की बात है कि जब फूल खिलता है, तो आकाश की तरफ उठता है। और जब मुरझाता है, सूखता है, तो जमीन की तरफ गिर जाता है। आदमी जीवित होता है, तो आकाश की तरफ उठा हुआ होता है। मर जाता है, तो जमीन में दफना दिया जाता है, मिट्टी में गिर जाता है। वृक्ष उठते हैं, जीवित होते हैं, तो आकाश की तरफ उठते हैं। फिर जराजीर्ण होते हैं, गिरते और मिट्टी में सो जाते हैं। ऊपर और नीचे। कुछ ऊपर की तरफ खींच रहा है, कुछ नीचे की तरफ खींच रहा है।
विषाद जब चित्त में होता है, तो आदमी का हृदय पत्थर की तरह हो जाता है, नीचे की तरफ गिरने लगता है। जब भी आप दुख में रहे हैं, तब आपने अनुभव किया होगा कि हृदय पर हजारों मनों का बोझ हो जाता है। फिर जमीन तो नीचे की तरफ खींचती है, लेकिन परमात्मा फिर ऊपर की तरफ खींचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। इसलिए दुख में आदमी मरना चाहता है। मरना चाहता है मतलब, जमीन के ग्रेविटेशन में दफन हो जाना चाहता है। दुख में आत्महत्या कर लेना चाहता है; मतलब, डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में लौट जाए, इसके लिए आतुर हो जाता है।
ठीक इससे उलटी घटना भी घटती है। जब कोई आनंद से भरता है, तो कांशसनेस अनटु कांशसनेस--मिट्टी में मिट्टी नहीं--परमात्मा में परमात्मा मिलने को आतुर हो जाता है। जब कोई फूल खिलता है आनंद का, तो ऊपर से अनुग्रह की वर्षा होने लगती है। वह खिली हुई फूल की पंखुड़ियों पर अमृत बरसने लगता है प्रभु के प्रसाद का। आनंद में मन खिल जाता है फूल की तरह।
इसलिए तो जिन्होंने भी अनुभव किया है परम आनंद का, वे कहेंगे कि मस्तिष्क में सहस्रदल कमल खिल जाता है। वह प्रतीक है, सिंबालिक है। वह केवल काव्य में प्रकट किया गया अनुभव है। मस्तिष्क के ऊपर खिल जाता है फूल हजारों पंखुड़ियों वाला; उस खिले हुए फूल में बरसा होने लगती है अनुग्रह की।
और जब कोई उतने आनंद से भरता है, तो परमात्मा को धन्यवाद दे पाता है। कहना चाहिए, धन्यवाद देने के लिए परमात्मा को स्वीकार कर पाता है। अनुग्रह फिर किसके प्रति प्रकट करे? जब भीतर आनंद की वर्षा होने लगे और हृदय का कोना-कोना नाच उठे और अंधकार विदा हो जाए और पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल जाए, फिर धन्यवाद किसके प्रति प्रकट करे? उस धन्यवाद को प्रकट करने के लिए परमात्मा को खोजना पड़ता है।
आनंद से भरा चित्त आस्तिक हो जाता है; दुख से भरा चित्त नास्तिक हो जाता है। नास्तिकता ग्रेविटेशन है। जमीन की ताकत नीचे की तरफ खींचती है। आस्तिकता ग्रेस, प्रसाद है, अनुग्रह है; ऊपर की तरफ ले जाता है।

मैं संन्यासी उस व्यक्ति को कहता हूं

मैं संन्यासी उस व्यक्ति को कहता हूं, जिससे यह स्वीकार किया कि मैं उत्तर दाय हूं अपने सारे दुखों के लिए। और जब यह कोई स्वीकार कर लेता है कि मैं उत्तरदायी हूं, तो आधी समस्या तो हल हो ही गयी। कुछ न किया और आधी मंजिल आ गयी। जैसे ही तुमने यह स्वीकार कर लिया मैं जिम्मेवार हूं अपने दुखों को तुम्हें दूसरी बात भी साफ हो गयी कि चाहूं तो अभी छोड़ दूं ये सारे दुख। और चाहूं तो जो ऊर्जा मैंने दुखों में नियोजित की है, वही ऊर्जा सुखों में नियोजित कर दूं। मेरे हाथ का खेल है।
एक सूफी फकीर जब मरा तो उसके शिष्यों ने पूछा कि हम वर्षों से आपको देख रहे हैं--कुछ तो ऐसे शिष्य थे जो पचास साल से उसके साथ थे--उन्होंने कहा कि एक बात हमें चकित करती रही है, बार-बार हम पूछते भी रहे, आप हंसते हैं और टाल जाते हैं, आपको हैं, आपको हमने कभी दुखी नहीं देखा, कभी उदास भी नहीं देखा। जब देखा तब ताजा। जब देखा तब फूला की तरह खिले हुए। जब देखा तब आनंदित क्या रज है इसका? उस फकीर ने कहा, अब तो मैं मर ही रहा हूं, तुम्हें राज बता देता हूं। आज से पचास साल पहले में बहुत दुखी आदमी था। तुम कुछ भी नहीं हो। तुम क्या खाक! मेरे दुख का कोई अंत नहीं था। मैं चौबीस घंटे दुख में सड़ रहा था। मेरा ढंग ही ऐसा था कि उसमें से दुख ही निकल सकता था। अगर मैं गुलाब के पास भी खड़ा होता तो कांटे गिनता था, फूल नहीं देखता था, और जो आदमी कांटे गिनेगा, उसके हाथ कांटों से बिंध जाएंगे; लहूलुहान हो जाएगा। और जिसके हाथ लहूलुहान हो जाएंगे, आंखें आंसुओं से भर जाएंगी; उसको क्या खाक फूल दिखाई पड़ेंगे! उसे फूल दिखाई भी पड़ जाएं तो भरोसा न आएगा। क्योंकि सवाल यह उठेगा कि हजारों, कांटों में फूल खिल कैसे सकता है? जरूर मुझे कुछ भ्रम हो रहा है।
उसे फकीर ने कहा कि मैं, लोग तो कहते हैं कि हर काली बदली में भी एक रजत-रेखा होती है, "एवरी क्लाउड हैज ए सिलवर लाईन', मगर मेरी अपनी और ही धारणा थी। मेरी धारणा यह थी कि जहां भी रजत-रेखा होती है, उसके आसपास एक महान काली बदली होती है। वह मेरे देखने का ढंग था। लोग कहते हैं कि दो दिनों के बीच एक रात होती है, अरे गुजर जाएगी! और मैं सोचता था कि यह किस मूर्ख ने दुनिया बनायी, कि दो रातों के बीच एक छोटा-सा दिन, जो आया और गया--और फिर अंधेरी रात है! मैं दुखों को ही खोजता था। मैं दुख ही चुनता था। इसलिए दुखी था।
फिर एक दिन सुबह मैं उठा और मैंने कहा, कब तक मैं दुखी रहूंगा? कब तक दुखी रहना है? और उस सुबह मुझे यह साफ हो गया कि यह मेरे हाथ मैं है। मेरा गणित गलत है। मेरा हिसाब गलत है। मैं नकारात्मक को ही सोचता हूं। मैं निराशा को ही चुनता हूं। निषेध ही मेरे चिंतन का आधार है, विधेय नहीं। उस सुबह मुझे यह साफ हो गया कि अगर मुझे दुखी रहना है तो मैं दुखी रह सकता हूं और अगर मुझे सुखी रहना है तो मैं सुखी रह सकता हूं। तो मैंने सोचा, आज प्रयोग करके देखूं, आज सुखी ही रहूंगा, जीवन को सुख के ढंग से देखूंगा। और वह आखिरी दिन था मेरे दुख का। उस दिन मैं पूरे चौबीस घंटे सुखी रहा। मैं हैरान हो गया। तब से हर रोज सुबह उठता हूं और अपने से कहता हूं कि बोल, क्या इरादा है? आज सुखी होना है कि दुखी? और हमेशा मैं सुख के पक्ष में ही निर्णय लेता हूं। किसको दुखी होना है! पचास साल हो गये उस बात को गये, अब तो दुख मुझे यूं लगता है जैसे कभी था ही नहीं। कोई दुखस्वप्न देखा हो, जो कब का खो गया। या जैसे किसी कहानी में बात पढ़ी हो, जिससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं।
मैं तुमसे यही कहना चाहता हूं। कोई तुम्हारा दुख मिटाएगा नहीं। तू इस भ्रांति को छोड़ दो
दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो कर्म भी छोड़ेंगे।
इसलिए दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने वाले संन्यासी। दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने वाले गृहस्थ; फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ देने वाले संन्यासी--
ये एक ही चीज के दो पहलू हैं। गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? तो छोड़ देता है।
कृष्ण बहुत तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर और फल की आकांक्षा छोड़ दे। आर्डुअस है, बड़ा सूक्ष्म है; पर बड़ा रूपांतरकारी है; बड़ा ट्रांसफाघमग है।
अगर एक आदमी ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो खूबी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में कुछ खूबी नहीं है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी खूबी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह तो गृहस्थ ही पीठ करके खड़ा हो गया; मन जरा भी नहीं बदला।
कृष्ण कहते हैं, कर्म तो तू कर, कर्ता मत रह जा। कृष्ण कहते हैं, गृहस्थ तो तू रह, और संन्यासी हो जा। और कहते हैं, ऐसा पूर्वपुरुषों ने भी किया है। यह सिर्फ भरोसे के लिए, आश्वासन के लिए--कि तू घबड़ा मत! ऐसा मत सोच कि ऐसा कभी नहीं किया गया है। ऐसा पहले भी किया गया है।
सच में ही इस पृथ्वी पर जो लोग ठीक से जाने हैं, उन्होंने कर्ता को छोड़ दिया और कर्म को जारी रखा है।
ठीक संन्यास: कर्ताहीन, कर्म-सहित। ठीक संन्यास: अहंकार-मुक्त, कर्म-संयुक्त। ठीक संन्यास: स्वयं को छोड़ देता, शेष सबको जारी रखता है। ऐसे ठीक-ठीक संन्यास की, सम्यक संन्यास की, ऐसे राइट रिनंसिएशन की कृष्ण अर्जुन को शिक्षा देते हैं

ओशो संध्या

हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली होअपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो; और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है–अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजा–तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
अगर तुमने माना कि तुम शरीर हो तो दूसरे तुम्हें शरीर से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। अगर तुमने माना कि तुम मन हो, तो दूसरे तुम्हें मन से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। यदि तुमने कभी जाना कि तुम आत्मा हो, तो ही तुम्हें दूसरे में भी आत्मा की किरण का आभास होगा।

हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो।

और मजा ऐसा है कि जिसने अपने को जाना, उसने पाया कि दूसरा है ही नहीं। अपने को जानते ही पता चला कि बस एक है, वही बहुत रूपों में प्रगट हुआ है। जिसने अपने को पहचाना उसे पता चला : परिधि हमारी अलग-अलग, केंद्र हमारा एक है। जैसे ही हम भीतर जाते हैं, वैसे ही हम एक होने लगते हैं। जैसे ही हम बाहर की तरफ आते हैं, वैसे ही अनेक होने लगते हैं। अनेक का अर्थ है : बाहर की यात्रा। एक का अर्थ है : अंतर्यात्रा।

तो जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा, दूसरे से परिचित होना चाहेगा...। पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है, स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है। हम मित्र बनाना चाहते हैं, हम परिवार बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं अकेले ने हों। अकेले होने में कितना भय लगता है ! कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां जब हम अकेले होते हैं। कैसी कठिन और दूभर–झेलना मुश्किल ! क्षण-क्षण ऐसे कटता है जैसे वर्ष कटते हों। समय बड़ा लंबा हो जाता है। संताप बहुत सघन हो जाता है, समय बहुत लंबा हो जाता है।

तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं ताकि यह अकेलापन मिटे। हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं ताकि यह अजनबीपन मिटे, किसी तरह टूटे यह अजनबीपन–लगे कि यह हमारा घर है !
सांसाकि व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं जो इस संसार में अपना घर बना रहा है। हमारा शब्द बड़ा प्यारा है। हम सांसारिक को ‘गृहस्थ’ कहते हैं। लेकिन तुमने उसका ऊपरी अर्थ ही सुना है। तुमने इतना ही जाना है कि जो घर में रहता है, वहा संसारी है। नहीं, घर में तो संन्यासी भी रहते हैं। छप्पर तो उन्हें भी चाहिए पड़ेगा। उस घर को चाहे आश्रम कहो, चाहे उस घर को मंदिर कहो, चाहे स्थानक कहो, मस्जिद कहो–इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं। घर तो उन्हें भी चाहिए होगा। नहीं, घर का भेद नहीं है, भेद कही गहरे में होगा।

संसारी मैं उसको कहता हूं, जो इस संसार में घर बना रहा है; जो सोचता है, यहां घर बन जाएगा; जो सोचता है कि हम यहां के वासी हो जाएंगे, हम किसी तरह उपाय कर लेंगे। और संन्यासी वही है जिसे यह बात समझ में आ गई है : यहां घर बनता ही नहीं। जैसे दो और दो पांच नहीं होते ऐसे उसे बात समझ में आ गई कि यहां घर बनता ही नहीं। तुम बनाओ, गिर-गिर जाता है। यहां जितने घर बनाओ, सभी ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। यहां तुम बनाओ कितने ही घर, सब जैसे रेत में बच्चे घर बनाते हैं, ऐसे सिद्ध होते हैं; हवा का झोंका आया नहीं कि गए। ऐसे मौत का झोंका आता है, सब विसर्जित हो जाता है। यहां घर कोई बना नहीं पाया।

ओशो, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदारियां

इसलिए जब मैंने कहा कि जो व्यक्ति पल-पल जीता है- न पीछे कि सोचता है, न आगे कि सोचता है काम के संबंध में-तो वह आगे कि भी नहीं सोचता और पीछे की भी नहीं सोचता, वही पल-पल जीता है। उसकी मानसिक ऊर्जा के विसर्जन का कोई उपाय नहीं रह जाता।

और भी एक मजे की बात है कि जो आदमी अतीत कि चिंता कम करता है, भविष्य कि चिंता कम करता है, जो सामने होता है उसी को करता है, उसी में पूरा डूबकर जीता है, उसकी जिन्दगी में तना
व, टेंशन कम हो जाते है। और जितना तनाव कम हो उतनी सेक्स की जरूरत कम हो जाती है। जितना तनाव ज्यादा हो उतनी सेक्स की जरुरत बढ़ जाती है, क्योंकि सेक्स रिलीफ का काम करने लगता है। वह तनाव को बिखेरने का काम करने लगता है।

अतीत और भविष्य की बहुत ज्यादा चिंतना तनावग्रस्त करती है, टेंशन पैदा करती है ।वर्तमान में जिए जाना तनाव मुक्त करता है। जो आदमी अपने बगीचे में गड्डा खोद रहा है तो गड्डा ही खोद रहा है। जो आदमी खाना खा रहा है तो खाना ही खा रहा है। जो आदमी सोने गया है तो सोने ही गया है, दफ्तर में है तो दफ्तर में है, घर में है तो घर में है, जिससे मिल रहा है उससे मिल रहा है, जिससे बिछुड़ गया है उससे बिछुड़ गया है। जो आदमी आगे-पीछे बहुत समेट कर नहीं चलता है, उसके चित्त पर इतने कम भार होते हैं कि उसकी काम की जरूरत निरंतर कम हो जाती है।

तो दो कारणों से मेने ऐसा कहा। एक तो चिंतन करने से काम के, मानसिक काम-ऊर्जा विनष्ट होती है। दूसरा, अतीत और भविष्य की कामनाओं में डूबे होने से तनाव इकठ्ठे होते है। और जब तनाव ज्यादा इकठ्ठे हो जाते है तो शरीर को अनिवार्य रूप से अपनी शक्ति कम करनी पड़ती है। शक्ति कम करके जो शिथिलता अनुभव होती है उस शिथिलता में विश्राम मालूम पड़ता है। शिथिलता को हम विश्राम समझे हुए हैं। थककर गिर जाते है तो सोचते हैं आराम हुआ। थक कर टूट जाते है तो लगता हैं अब सो जायें, अब चिता नहीं रही। चिंता के लिए भी शक्ति चाहिए। लेकिन चिंता ऐसी शक्ति हैं जो भंवर बन गई और जो पीड़ा देने लगी। अब उस शक्ति को बाहर फेंक देना पड़ेगा। उस शक्ति को हम निरंतर बाहर फेंक रहे हैं। और हमारे पास शक्ति को बाहर फेंकने का एक ही उपाय दिखाई पड़ता है। क्योंकि ऊपर जाने का तो हमारे मन में कोई ख्याल नहीं है निचे जाने का एकमात्र बंधा हुआ मार्ग है।

इसलिए जो व्यक्ति चिंता नहीं करता, अतीत की स्मृतियों में नहीं डूबा रहता, भविष्य की कल्पनाओं में नहीं डूबा रहता, जीता है अभी और यहीं वर्तमान में.... तो बहुत शीघ्र उस शक्ति का ऊपर प्रवाह शुरू हो जाता है। और जैसी धन्यता उस प्रवाह में अनुभव होती है वैसी जीवन में और कभी अनुभव नहीं होती।

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