Sunday, November 25, 2012

" ध्यान विधि : - ओशो

" ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है-जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय नहीं होता। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है। जैसे कि कोई दर्पण धूल से ढंका हो। हमारा मन एक सतत प्रवाह है- विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी स्मृतियां सरक रही हैं- रात-दिन एक अनवरत सिलसिला है। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है, स्वप्न चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। ठीक इससे उलटी अवस्था ध्यान की है।जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामनाएं सिर नहीं उठातीं, सारा ऊहापोह शांत हो जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं-वह परिपूर्ण मौन ध्यान है। और उसी परिपूर्ण मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है। जब मन नहीं होता, तब जो होता है वह ध्यान है। इसलिए मन के माध्यम से कभी ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं मन नहीं हूं। " 
~ ओशो ♥

 प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरुरी है ! रेचन तुम्हे सहयोगी होगा ! दस मिनट दौड़ लो, कूद लो ; उछल लो ; सारी उर्जा जो जम गई है , उसे फेंक दो , फिर बैठ जाओ ! जैसे तूफान के बाद की शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शारीर हलका हो जाता है , उसकी बैचनी खो जाती है ! पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नही ! वह मकान के बाहर की सीढ़ी है ! मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है ; दस मिनिट ओंकार की ध्वनि शरीर से , दस मिनिट ओंकार की ध्वनि मन से ! दस मिनिट ओंकार की ध्वनि तुम्हे नही करनी , वह अस्तित्व में हो ही रही है , तुम्हे सिर्फ सुननी है ! इसलिए मैं कहता हूँ -राम , कृष्ण , बुद्ध उतने ठीक नही होंगे , दूसरे चरण तक ले जाएंगे , तीसरे चरण तक नही ले जाएंगे ; क्योंकि जो तीसरे चरण में ध्वनि हो रही है , वह ओम की है ! लेकिन कभी-कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है ! ओम शुद्ध ध्वनि है ! अगर तुम राम को ही पकड़कर चलोगे तो तुम्हे राम भी सुनाई पड़ने लगेगा वहाँ , लेकिन वह आरोपण है ! और आरोपण का अर्थ है --मन थोडा जिंदा है ! हम वही जानना चाहते है , जो है ! हम वही देखना चाहते है , जो है ! हम मन को उसके उपर थोपना नही चाहते , रँग नही देना चाहते ! इसलिए मंत्र, महामंत्र तो ओंकार है ! बाकी सब मंत्र छोटे-छोटे है; ............ओशो ( शिव साधना )
Ø  Dynamic Meditation
The daily morning meditation at the ashram WHEN the sleep is broken, the whole nature becomes alive; the night has gone, the darkness is no more, the sun is coming up, and everything becomes conscious and alert. This is a meditation in which you have to be continuously alert, conscious, aware, whatsoever you do. Remain a witness. Don’t get lost. It is easy to get lost. While you are breathing you can forget. You can become one with the breathing so much that you can forget the witness. But then you miss the point. Breathe as fast, as deep as possible, bring your total energy to it, but still remain a witness. Observe what is happening, as if you are just a spectator, as if the whole thing is happening to somebody else, as if the whole thing is happening in the body and the consciousness is just centered and looking. This witnessing has to be carried in all the three steps. And when everything stops, and in the fourth step you have become completely inactive, frozen, then this alertness will come to its peak. The Dynamic Meditation lasts one hour and is in five stages. It can be done alone, but the energy will be more powerful if it is done in a group. It is an individual experience so you should remain oblivious of others around you and keep your eyes closed throughout, preferably using a blindfold. It is best to have an empty stomach and wear loose, comfortable clothing.
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Ø  First Stage: 10 minutes.
Breathe chaotically through the nose, concentrating always on the exhalation. The body will take care of the inhalation. Do this as fast and as hard as you possibly can – and then a little harder, until you literally become the breathing. Use your natural body movements to help you to build up your energy. Feel it building up, but don’t let go during the first stage.

Ø  Second Stage: 10 minutes.
Explode! Let go of everything that needs to be thrown out. Go totally mad, scream, shout, cry, jump, shake, dance, sing, laugh, and throw yourself around. Hold nothing back; keep your whole body moving. A little acting often helps to get you started. Never allow your mind to interfere with what is happening. Be total.

Ø  Third Stage: 10 minutes.
With raised arms, jump up and down shouting the mantra ‘HOO! HOO! HOO!’ as deeply as possible. Each time you land, on the flats of your feet, let the sound hammer deep into the sex centre. Give all you have, exhaust yourself totally.

          Ø Fourth Stage: 15 minutes.
Stop! Freeze where you are in whatever position you find yourself. Don't arrange the body in any way. A cough, a movement, anything will dissipate the energy flow and the effort will be lost. Be a witness to everything that is happening to you.

Ø  Fifth Stage: 15 minutes.
Celebrate and rejoice with music and dance, expressing your gratitude towards the whole. Carry your happiness with you throughout the day.

Ø  सिरविहीन होने के प्रयोग को--करके देखो
" जब हृदय सक्रिय हो जाता है, तो तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व, पूरी संरचना, पूरे तौर-तरीके को बदल डालता है, क्योंकि हृदय का अपना अलग मार्ग है... "
" पहला सूत्रः सिरविहीन होने का प्रयास करो। स्वयं के सिरविहीन होने की कल्पना करो; सिरविहीन होकर ही चलो। सुनने में यह अजीब लगता है, परंतु यह बहुत ही महत्वपूर्ण साधनाओं में से एक है। इसका प्रयोग करो, तब तुम जानोगे। चलो, और यह अनुभव करो जैसे कि तुम्हारा कोई सिर नहीं है। प्रारंभ में तो यह 'जैसेकि' ही होगा। यह बहुत अटपटा लगेगा। जब तुम्हें यह महसूस होगा कि तुम्हारा सिर ही नहीं है, तो बड़ा अटपटा और अजीब लगेगा। लेकिन धीरे-धीरे तुम हृदय में स्थित हो जाओगे।
एक नियम है। शायद तुमने देखा हो, जो व्यक्ति अंधा है उसके कान अधिक तत्पर, अधिक संगीतमय होते हैं। अंधे व्यक्ति अधिक संगीतमय होते हैं; संगीत के लिए उनकी अनुभूति गहनतर होती है। क्यों? जो उर्जा सामान्यतः आंखों से बहती है, अब उनसे तो बह नहीं सकती, तो वह एक भिन्न मार्ग चुन लेती है-वह कानों से बहने लगती है।
अंधे लोगों में स्पर्श के प्रति ज्यादा गहरी संवेदनशील होती है। यदि कोई अंधा व्यक्ति तुम्हें छुए, तो तुम्हें अंतर पता चलेगा, क्योंकि सामान्यतः छूने का बहुत-सा कार्य हम आंखों से ही कर लेते हैं: हम एक-दूसरे को आंखों से छू रहे हैं। एक अंधा व्यक्ति आंखों से नहीं छू सकता, तो उर्जा उसके हाथों से होकर बहती है। अंधा व्यक्ति आंखों वाले किसी भी व्यक्ति से अधिक सवेंदनशील होता है। कभी-कभी हो सकता है कि ऐसा न भी हो, परंतु सामान्य रूप से ऐसा ही होता है। यदि एक केंद्र न हो तो उर्जा दूसरे केंद्र से बहने लगती है।
तो इस प्रयोग को-सिरविहीन होने के प्रयोग को--करके देखो जो मैं बता रहा हूं, और अचानक तुम एक अद्भुत बात अनुभव करोगेः ऐसा होगा जैसे पहली बार तुम हृदय पर आए। सिरविहीन होकर चलो। ध्यान के लिए बैठो, अपनी आंखें बंद करो और बस यही अनुभव करो कि सिर नहीं है। महसूस करो, ''मेरा सिर विलीन हो गया है।'' प्रारंभ में तो 'जैसे कि' ही होगा, परंतु धीरे-धीरे तुम्हें लगेगा कि सिर सच में ही विलीन हो गया है। और जब तुम्हें लगेगा कि सिर विलीन हो गया है, तो तुम्हारा केंद्र हृदय पर आ जाएगा-तत्क्षण! तुम संसार को हृदय से देखोगे, बुद्धि से नहीं।
जब पहली बार पश्चिम के लोग जापान पहुंचे तो वे विश्वास नहीं कर पाए कि जापानी लोग पारंपरिक रूप से सदियों से यह सोचते रहे हैं कि वे पेट से सोचते हैं। यदि तुम किसी जापानी बच्चे से पूछो--यदि वह पाश्चात्य ढंग से शिक्षित नहीं हुआ है-कि ''तुम्हारा सोच-विचार कहां होता है?'' तो वह अपने पेट की ओर इशारा करेगा।
सदियां और सदियां बीत गई हैं, और जापान सिर के बिना जीता रहा है। यह मात्र एक धारणा है। यदि मैं तुमसे पूछूं, ''तुम्हारा सोच-विचार कहां चल रहा है?'' तो तुम सिर की ओर इशारा करोगे, लेकिन जापानी व्यक्ति पेट की ओर इशारा करेगा, सिर की ओर नहीं-यह भी एक कारण है कि जापानी मन इतना स्थिर, शांत और निश्चल है।
अब वह भी भंग हो गया है क्योंकि पश्चिम हर चीज पर फैल गया है। अब पूरब कहीं है ही नहीं। पूरब तो अब कुछ ही इक्का दुक्का लोगों में बच रहा है जो द्वीपों की तरह कहीं-कही मिल जाते हैं। भौगोलिक रूप से पूरब समाप्त हो गया है। अब तो पूरा विश्व ही पाश्चात्य है।
सिरविहीन होने का प्रयास करो। अपने स्नानगृह में दर्पण के सामने खड़े होकर ध्यान करो। अपनी आंखों में गहरे झांको और महसूस करो कि तुम हृदय से देख रहे हो। धीरे-धीरे हृदय-केंद्र सक्रिय हो जाएगा। और जब हृदय सक्रिय हो जाता है, तो तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व, पूरी संरचना, पूरे तौर-तरीके को बदल डालता है, क्योंकि हृदय का अपना अलग मार्ग है।
तो पहली बातः सिरविहीन होने का प्रयास करो। दूसरे, अधिक प्रेमपूर्ण होओ, क्योंकि प्रेम बुद्धि से नहीं हो सकता। अधिक प्रेमपूर्ण हो जाओ! यही कारण है, जब कोई प्रेम में होता है, उसकी बुद्धि छूट जाती है। लोग कहते हैं कि वह पागल हो गया है। यदि तुम प्रेम में पड़ो और पागल न हो जाओ, तो तुम वास्तव में प्रेम में नहीं हो। बुद्धि तो खोनी ही होगी।
यदि बुद्धि अप्रभावित रहे, और यथावत कार्य करती रहे, तो प्रेम संभव नहीं है, क्योंकि प्रेम के लिए तो हृदय के सक्रिय होने की जरूरत है-बुद्धि की नहीं। वह हृदय का कार्य है। "
  ♥_/\_♥ ओशो ♥_/\_♥
~ पुस्तकः ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति

Ø  ‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा। यह एक उदाहरण है।

‘’
बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।‘’
तुम्‍हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। लेकिन अगर तुम्‍हारा ध्‍यान मित्र पर है, हर्ष पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्‍हारा सारा ध्‍यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे। तुम पुरानी स्‍मृतियों को ताजा करने में लगे रहोगे। तब तुम इस हर्ष को चूक जाओगे। और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्‍हारे ह्रदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो। उसके साथ एक हो जाओ। और तब हर्ष से भरे हुए और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव के में केंद्रित हो जाओ।
अन्‍य अनेक स्‍थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई उर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्‍यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्‍हारे सारे शरीर पर, तुम्‍हारे पूरे अस्‍तित्‍व पर फैल जाएगा। और बस दर्शन ही मत बने रहो। उसमे विलीन हो जाओ।
ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते है, जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो, सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्‍हें भी चूक जाते हो। क्‍योंकि तुम विषय केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्‍नता आती है। सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।
किसी मित्र से मिलने हो, स्‍वभावत: लगता है कि सुख मित्र से आ रहा है। मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। सुख सदा तुम्‍हारे भीतर है। मित्र तो सिर्फ परिस्‍थिति निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया। और उसने तुम्‍हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया।
यह नियम सुख के लिए ही नहीं। सब चीजों के लिए है; क्रोध, शोक, संताप, सुख, सब पर लागू होता है। ऐसा ही है। दूसरे केवल परिस्‍थिति बनाते है जिसमे जो तुम्‍हारे भीतर छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं है। वे तुम्‍हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते है। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्‍हें घटित हो रहा है। वह सदा है। मित्र का मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमे अव्‍यक्‍त व्‍यक्‍त हो रहा है। अप्रकट हो गया।
जब भी यह सुख घटित हो, उसके आंतरिक भाव में स्‍थित रहो और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्‍हारी दृष्‍टि भिन्‍न हो जाएगी। नकारात्‍मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्‍यक्‍ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो, उसे अपने भीतर पूरी तरह घटित होने दो।
उसे तर्क-संगत बनाने की चेष्‍टा मत करो। यह मत कहो कि इस व्‍यक्‍ति ने क्रोध करवाया। उस व्‍यक्‍ति की निंदा मत करो। वह तो निर्मित मात्र है। उसका उपकार मानों कि उसने तुम्‍हारे भीतर दमित भावों को प्रकट होने का मौका दिया। उसने तुम पर कहीं चोट की। और वहां से घाव छिपा पडा था। अब तुम्‍हें उस घाव का पता चल गया है। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।
विधायक या नकारात्‍मक, किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुम में भारी परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव नकारात्‍मक है तो उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्‍त हो जाओगे। और अगर भाव विधायक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन यह क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और नकारात्‍मक और विधायक भावों का भेद भी यही है। अगर तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्‍मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और वह भाव फैलकर तुम्‍हारे तन-प्राण पर छा जाता है तो समझना कि वह विधायक भाव है। दोनों मामलों में बोध अलग-अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा
तुम उससे मुक्‍त हो सकते हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे एक हो जाते हो। बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।
मेरे लिए यही कसौटी है। अगर कोई वृति बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्‍त हो वह पुण्‍य है। पुण्‍य और पाप सामाजिक धारणाएं नहीं है। वे आंतरिक उपलब्‍धियां है।
अपने बोध को जगाओं, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाये हो। दीए के जलते ही अंधकार विदा हो जाएगा। प्रकाश के आने से अँधेरा नहीं हो जाता है। क्‍योंकि वस्‍तुत: अँधेरा नहीं था। अंधकार प्रकाश का आभाव है। वह प्रकाश की अनुपस्‍थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी। प्रकट हो जायेगी। प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें, दीवारें विलीन नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थी, तुम उन्‍हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने से अंधकार विदा हो गया लेकिन उसके साथ ही जो यथार्थ था वह प्रकट हो गया। बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्‍मक हैधृणा, क्रोध, दुःख, हिंसावह विसर्जित हो जाएगा और उसके साथ ही प्रेम, हर्ष, आनंद जैसी विधायक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।
इसलिए ‘’बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—3
Ø  प्रत्येक ध्यान के शीघ्र बाद करुणावान  रहो
करुणावान व्यक्ति सर्वाधिक धनी होता है, वह सृष्टि के शिखर पर विराजमान है। उसकी कोई परिधि नहीं, कोई सीमा नहीं। वह बस देता है और अपनी रास्ते चला जाता है। वह तुम्हारे धन्यवाद की भी प्रतीक्षा नहीं करता। वह अत्यंत प्रेम से अपनी उर्जा को बांटता है। इसी को मैं स्वास्थ्य्प्रद कहता हूं।

बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे: प्रत्येक ध्यान के शीघ्र बाद करुणावान हो रहो, क्योंकि जब तुम ध्यान करते हो तो प्रेम बढ़ता है, हृदय प्रेम से भर जाता है। प्रत्येक ध्यान के बाद संपूर्ण संसार के लिये करुणा से भर जाओ ताकि तुम अपना प्रेम बांट सको और अपनी ऊर्जा को वातावरण में संप्रेषित कर सको और उस ऊर्जा का दूसरे इस्तेमाल कर सकें।
मैं भी तुमसे कहना चाहूंगा: प्रत्येक ध्यान के बाद जब तुम उत्सव मना रहे हो तो करुणावान हो रहो। ऐसा महसूस करो कि तुम्हारी ऊर्जा लोगों तक वैसे पहुंचे जैसे उन्हें जरूरत है। तुम बस इसे संप्रेषित कर दो! तुम भारमुक्त हो जाओगे, तुम अत्यंत विश्रांत महसूस करोगे, तुम अत्यंत शांत और स्थिर अनुभव करोगे और जो तरंगे तुमने संप्रेषित की हैं बहुत लोगों की सहायता करेंगी।हमेशा अपना ध्यान करुणा से समाप्त करो।
और करुणा बेशर्त होती है। तुम केवल उन लोगों के लिये ही करुणावान नहीं हो सकते जो तुम्हारे प्रति मैत्रीपूर्ण हैं, जो तुमसे संबंधित हैं।करुणा में सब सम्मिलित हैं...आंतरिक रूप में सब सम्मिलित हैं।तो यदि तुम अपने पड़ोसी के लिये करुणावान नहीं हो सकते तो ध्यान के बारे में सब भूल जाओ, क्योंकि इसका व्यक्ति विशेष से कुछ लेना-देना नहीं। इसका तुम्हारी आंतरिक अवस्था से कुछ लेना-देना नहीं। करुणा हो जाओ! बेशर्त,बिना किसी के प्रति,किसी व्यक्ति विशेष के लिये नहीं।तब तुम इस दु:ख भरे संसार के लिये एक स्वास्थ्य प्रदान करने वाली शक्ति बन जाते हो। "
Ø  दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो। अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो; और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव हैअपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजातो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
Ø   " शांत प्रयोग सफल नहीं होता.........
" शांत प्रयोग सफल नहीं होता। क्योंकि आप भीतर इतने अशांत है कि जब आप आँख बंद करके बैठते हैं तो सिवाय अशांति के भीतर और कुछ भी नहीं होता। वह जो भीतर
अशांति है, वह चक्कर जोर से मारने लगती है। जब आप शांत होकर बैठते हैं, तब आपको सिवाय भीतर के उपद्रव के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता।इसलिए, उचित तो यह है कि वह जो भीतर का उपद्रव है, उसे भी बाहर निकल जाने दें। हिम्मत से उसको भी बह जाने दें। उसके बह जाने पर, जैसे तूफान के बाद एक शांति आ जाती है, वैसी शांति आपको अनुभव होगी। तूफान तो धीरे-धीरे विलीन हो जाएगा और शांति स्थिर हो जाएगी।
यह कीर्तन का प्रयोग कैथार्सिस है। इसमें जो नाच रहे हैं लोग, कूद रहे हैं लोग, ये उनके भीतर के वेग हैं, जो निकल रहे हैं। इन वेगों के निकल जाने के बाद भीतर परम शून्यता का अनुभव होता है। उसी शून्यता से द्वार मिलता है और हम अनंत की यात्रा पर निकल जाते हैं। "
Ø  सहज योग
सहज योग सबसे कठिन योग है; क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सहज का मतलब क्या होता है? सहज का मतलब होता है: जो हो रहा है उसे होने दें, आप बाधा न बनें। अब एक आदमी नग्न हो गया, वह उसके लिए सहज हो सकता है, लेकिन बड़ा कठिन हो गया। सहज का अर्थ होता है: हवा-पानी की तरह हो जाएं, बीच में बुद्धि से बाधा न डालें; जो हो रहा है उसे होने दें।
बुद्धि बाधा डालती है, असहज होना शुरू हो जाता है। जैसे ही हम तय करते हैं, क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए, बस हम असहज होना शुरू हो जाते हैं। जब हम उसी के लिए राजी हैं जो होता है, उसके लिए राजी हैं, तभी हम सहज हो पाते हैं।
तो इसलिए पहली बात समझ लें कि सहज योग सबसे ज्यादा कठिन है। ऐसा मत सोचना कि सहज योग बहुत सरल है। ऐसी भ्रांति है कि सहज योग बड़ी सरल साधना है। तो कबीर का लोग वचन दोहराते रहते हैं: साधो, सहज समाधि भली। भली तो है, पर बड़ी कठिन है। क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन आदमी के लिए कोई दूसरी बात ही नहीं है। क्योंकि आदमी इतना असहज हो चुका है, इतना दूर जा चुका है सहज होने से कि उसे असहज होना ही आसान, सहज होना मुश्किल हो गया है। पर फिर कुछ बातें समझ लेनी चाहिए, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह सहज योग ही है।
सहज योग कहता है: अगर तुम चोर हो तो तुम जानो कि तुम चोर हो--जानते हुए चोरी करो, लेकिन इस आशा में नहीं कि कल अचोर हो जाओगे। यह इतने जोर से छाती में तलवार की तरह चुभ जाएगी कि मैं चोर हूं, कि इसमें जीना असंभव हो जाएगा एक क्षण भी। क्रांति अभी हो जाएगी, यहीं हो जाएगी।
Ø  ये भी ध्यानमे रखे   
जिस तरह चुम्बक , लोहे को अपनी ऑर खींचता है ,उसी तरह स्वाभाव भी अपने जैसे स्वभाव को अपनी ऑर खींचता है।  ये एक प्रकृति का ही नियम है।  हरेक प्राणी के लिए सरीर छोड़ ने से पूर्व उसके अनुसार  गर्भ तैयार रहता है । जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही  गर्भ मिलता है । जहाँ किसी हिंस्रक - योनी मैं यैसा गर्भ  तैयार होगा , जहां उसकी सभी अतृप्त वासना की पूर्ति  के सारे साधन हों। जो मनुष्य अपनी हर मन की इच्छा की पूर्ति चाहता है। वो मनुष्य अपनी उन अतृप्त वासना के अनुसार ही पुनह  उत्त्पन्न होता है परन्तु जिसने भी आत्मा साक्षात्कार कर लिया है उस पूर्ण हुयी इच्छा वाले मनुष्य की समस्त कामनाएं उसी के सरीर मैं ही विलीन हो जाती है। ऑर वो मुक्त हो जाता है   जैसे की कहवत है की " अंत समय जो मति सो गति "।
  • ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह
ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह, वह नारे लगाते हुए नहीं आता । वह बहुत ही चुपचाप आता है.... यदि हम व्यस्त हैं, तो वह प्रतीक्षा करता है । और लौट जाता है ।

तो एक बात तय कर लें कि कुछ समय रोज शांत बैठें और उसकी प्रतीक्षा करें । कुछ मत करें, बस आंखें बंद करके शांत बैठ जाएं- गहन प्रतीक्षा में, एक प्रतीक्षारत् हृदय के साथ, एक खुले हृदय के साथ.... यदि कुछ न घटे तो निराश न हों । कुछ न घटे तो भी बैठना अपने आप में विश्रामदायी है । वह हमें शांत करता है, स्वस्थ करता है, तरोताजा करता है और हमें जड़ों से जोड़ता है । लेकिन धीरे-धीरे झलकें मिलने लगती हैं और एक तालमेल बैठने लगता है । हम किसी विशेष स्थिति में, विशेष कमरे में, विशेष स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं, तो झलकें ज्यादा-ज्यादा आती हैं । वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं, वे तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से आती हैं । लेकिन जब अंतर्चेतना जानती है कि बाह्य चेतना उसके लिए प्रतीक्षारत है, तो मिलन की संभावना बढ़ जाती है ।

किसी वृक्ष के नीचे बस बैठ जाएं । हवा चल रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट हो रही है । हवा आपको छू रही है, आपके आसपास बह रही है, आपको छूकर गुजर रही है । लेकिन हवा को सिर्फ अपने आसपास ही मत गुजरने दें, उसे अपने भीतर से होकर भी गुजरने दें, अपने भीतर से बहने दें । अपनी आंखें बंद कर लें और महसूस करें कि जैसे हवा वृक्षों से होकर गुजरती है और पत्तों की सरसराहट होती है, वैसे ही आप भी एक वृक्ष की भांति हैं, खुले और हवा आपसे होकर बह रही है- आसपास से नहीं बल्कि सीधे आपसे होकर बह रही है ।

बगीचे में बैठे हुए बस भाव करें कि आप गायब हो रहे हैं. बस देखें कि जब आप दुनिया से विदा हो जाते हैं, जब आप यहां मौजूद नहीं रहते, जब आप एकदम मिट जाते हैं, तो दुनिया कैसी लगती है. बस एक सेकेंड के लिए न होने का प्रयोग करके देखें.

अपने ही घर में ऐसे हो जाएं जैसे कि नहीं हैं. यह बहुत ही सुंदर ध्यान है. चौबीस घंटे में आप इसे कई बार कर सकते हैं- सिर्फ आधा सेकेंड भी काफी है. आधा सेकेंड के लिए एकदम खो जाएं-

आप नहीं हैं और दुनिया चल रही है. जैसे-जैसे हम इस तथ्य के प्रति और-और सजग होते हैं, तो हम अपने अस्तित्व के एक और आयाम के प्रति सजग होते हैं, जो लंबे समय से, जन्मों-जन्मों से उपेक्षित रहा है. और वह आयाम है स्वीकार भाव का. हम चीजों को सहज होने देते हैं, एक द्वार बन जाते हैं. चीजें हमारे बिना भी होती हैं.
सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो ! यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है !
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, बड़ा समाज-विरोधी ! क्योंकि समाज जीता ही
इसी आधार पर है कि दूसरे अपने है; जाति के लोग अपने हैं; देश के लोग अपने हैं; मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा परिवार; मेरे का सारा खेल है ! समाज जीता है 'मेरे' की धारणा पर ! इसलिए धर्म समाज विरोधी तत्व है ! धर्म समाज से छुटकारा है, दूसरे से छुटकार
ा है ! और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं ! उपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा ! क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने है, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ कि बात है !
यह स्वार्थ कि बात नहीं है ! अगर यह तुम्हें ख्याल आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा !



यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है !
सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो ! यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है !
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है, बड़ा समाज-विरोधी ! क्योंकि समाज जीता ही इसी आधार पर है कि दूसरे अपने है; जाति के लोग अपने हैं; देश के लोग अपने हैं; मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा परिवार; मेरे का सारा खेल है ! समाज जीता है 'मेरे' की धारणा पर ! इसलिए धर्म समाज विरोधी तत्व है ! धर्म समाज से छुटकारा है, दूसरे से छुटकारा है ! और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं ! उपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा ! क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने है, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ कि बात है !
यह स्वार्थ कि बात नहीं है ! अगर यह तुम्हें ख्याल आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा !
    
व्यस्त  लोगों के लिये ध्यान : टकटकी लगाकर देखना पहला चरण : दूसरे का अवलोकन करो 
"बैठ जायें और एक दूसरे की आखों में देखें (बेहतर
होगा पलकें कम से कम झपकें, एक कोमल टकटकी)
बिना सोचे गहरे, और गहरे देखें। "यदि आप सोचते नहीं, यदि आप केवल आंखों के भीतर
टकटकी लगाकर देखते हैं तो शीघ्र ही तरंगें विलीन
हो जायेंगी और सागर प्रकट होगा। यदि आप आंखों में
गहरे देख सकते हैं तो आप अनुभव करेंगे कि व्यक्ति विलीन
हो गया है, मुखड़ा मिट गया। एक सागरीय घटना पीछे
छिपी है और यह व्यक्ति बस उस गहराई का लहराना था, कुछ अनजाने की, कुछ छुपे हुए की एक
तरंग।" "पहले तुम यह किसी व्यक्ति के साथ करो क्योंकि तुम
इस तरह की तरंग के अधिक नज़दीक हो। फिर
जानवरों के साथ करो-थोड़ा सा दूर। फिर पेड़ों के
पास जाओ- थोड़ी सी और दूर की तरंग; फिर
चट्टानों के पास। दूसरा चरण: सागरीय चेतना
"शीघ्र ही आपको अपने चारों ओर सागरीय
चेतना का बोध होगा। तब आप देखेंगे कि आप भी एक
तरंग हैं; आपका अहंकार भी एक तरंग है। "उस अहंकार के पीछे, उस अनाम के पीछे वह एक
छिपा है। केवल तरंगे उठती हैं, सागर वैसा ही रहता है।
अनेक पैदा होते हैं लेकिन वह एक वैसा ही रहता है।"
Try with small things, and you will understand. 
Tomorrow when you go for a morning walk, enjoy the walk -- the birds in the trees and the sun rays and the clouds and the wind. Enjoy, and still remember that you are a mirror; you are reflecting the clouds and the trees and the birds and the people.

This self-remembering Buddha calls sammasati -- right mindfulness. Krishnamurti calls it 'choiceless awareness', the Upanishads call it 'witnessing', Gurdjieff calls it 'self-remembering', but they all mean the same. But it does not mean that you have to become indifferent; if you become indifferent you lose the opportunity to self-remember.

Go on a morning walk and still remember that you are not it You are not the walker but the watcher And slowly slowly you will have the taste of it -- it is a taste, it comes slowly. And it is the most delicate phenomenon in the world; you cannot get it in a hurry. Patience is needed.

Eat, taste the food, and still remember that you are the watcher. In the beginning it will create a little trouble in you because you have not done these two things together. In the beginning, I know, if you start watching you will feel like stopping eating, or if you start eating you will forget watching.

Our consciousness is one-way -- right now, as it is -- it goes only towards the target. But it can become two-way: it can eat and yet watch. You can remain settled in your center and you can see the storm around you; you can become the center of the cyclone. And that is the greatest miracle that can happen to a human being, because that brings freedom, liberation, truth, God, bliss, benediction. **Osho
***
ग्रंथियों का पता लगाने का एक प्रयोग -:
किसी दिन आधा घंटे को सप्ताह में एक एकांत कमरे मैं बंद हो जाएँ, और आपका शरीर जो करना चाहे, करने दें। हो सकता है शरीर आपका नाचे, हो सकता है आप कूदें,हो सकता है आप चिल्लाएं।यह हो सकता है।और तब आपको पता चलेगा कि यह क्या हो रहा है। ये सारी ग्रंथियां हैं, जो दबी हुई हैं और मौजूद हैं।और निकलना चाहती है,लेकिन समाज नहीं निकलने देता, और आप भी नहीं निकलने देते हैं।ऐसा शरीर बहुत-सी ग्रंथियों का घर बना हुआ है।
और जो शरीर ग्रंथियों से भरा हुआ है,वह शरीर शुद्ध नहीं होता, वह भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। तो योग का पहला चरण होता है शरीर-शुद्धि। और शरीर- शुद्धि का पहला चरण है,शरीर कि ग्रंथियों का विसर्जन। तो नई ग्रंथियां तो बनाएं नहीं,और पुरानी ग्रंथियां विसर्जन करने का उपाय करें।और उसके उपाय के लिए जरुरी है कि सप्ताह में एक बार,दो बार अकेले कमरे में बंद हो जाएँ और शरीर जैसा करना चाहे, करने दें। चिल्लाएं, नाचें, कूदें, और आप हैरान होंगे,आधा घंटे कि उस उछल- कूद के बाद आप बहुत रिलेक्स्ड,बहुत शांत,बहुत स्वस्थ अनुभव करेंगे।                                                                                                                                      ****ओशो ध्यान सुत्र *****
An experiment to detect glands -:
Secluded room half an hour a day a week I go off and do what your body wants to do. Maybe your body, dance, maybe you jump, maybe you shout. It could be., And then you will know what it is. These glands, which are muffled exist., And wants to leave, but society does not get, and you do not get. The body - has been the home of many glands.
And the body is full of glands, the body is not pure, it can not penetrate. The first stage is the sum of the body - purification. And body - is the first stage of purification, the glands of the body immersion. If you create a new glands, and chronic glands measures to immersion., And that it is essential to measure once a week, twice and body wants to go off alone in a room, let. Shout, dance, jump, and you will be surprised, that half-hour romp Rileksd after you very, very quiet, very healthy experience. osho...dhyan sutra
ध्यान -:पूर्णिमा का चाँद --
रात पूरे चाँद के नीचे बैठकर देखा, कभी टकटकी लगाकर आकाश में पूर्णिमा के चाँद को देखा।कुछ तुम्हारे भीतर भी आंदोलित होने लगता है।वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य सबसे पहले समुद्र में ही पैदा हुआ। पहला रूप जीवन का मछली है।हिन्दुओं की बात ठीक मालूम होती है कि परमात्मा का पहला अवतार मत्स्य अवतार,मछली का अवतार।वैज्ञानिक विकासवाद भी इसे स्वीकार करता है। और उसके आधार हैं।अब भी मनुष्य के शरीर में जल का अनुपात अस्सी प्रतिशत है।उसमे वे ही रासायनिक द्रव्य हैं जो सागर के जल में हैं।
तुम्हारे भीतर साधारण जल नहीं है,ठीक समुद्र का जल है।माँ के पेट में भी,बच्चा जब पैदा होता है तो माँ के पेट में समुद्र के जल जैसी अवस्था होती है।छोटा सा कुंड बन जाता है समुद्र के जल का,उसी में बच्चा तैरता।पहले मछली की तरह...।
पूर्णिमा का चाँद जब होता है तो तुमने सागर में उत्तुंग लहरें उठती देखीं,और तुम भी तो अस्सी pratishat सागर का जल हो।पूरे चाँद को देखकर तुम्हारे भीतर भी तरंगे उठती होंगीं, उठती हैं।यह जानकार तुम हैरान होओगे कि सर्वाधिक लोग पागल पूर्णिमा की रात को होते हैं।सर्वाधिक लोग बुद्धत्व को भी उपलब्ध पूर्णिमा की रात्रि को होते हैं।
पूर्णिमा की रात बड़ी अद्भुत है।
अगर चाँद का इतना प्रभाव होता है,इतने दूर चाँद का इतना प्रभाव होता है कि किसी को पागल कर दे, कि किसी को बुद्धत्व को पहुंचा दे।
तो क्या उन लोगों की हम बात करें जिनके भीतर का चाँद प्रगट हो गया हो,जिनके भीतर की बदलियाँ कट गई हों, जो भीतर पूर्ण गए हों, जिन्होंने चैतन्य की पूर्णता को पा लिया हो।वे ही सतगुरु हैं उनके भीतर से प्रार्थना का जन्म होता है।,,गुरु परताप साध की संगति                                                                                             ..ओशो....
  Note -: Full moon -
Sit under the full moon night, never seen, gaze at the moon saw the full moon in the sky. Seems to be something stirred within you. Scientists say that people born in the sea. The first form of life fish. Hindus believe there is precisely the point of the first embodiment of the divine incarnation of fish, the fish incarnation. Scientific theory accepts it. And its base. Now eighty percent the proportion of water in the human body. Moreover, they have the same chemical substance in the waters of the ocean.
Within you is not ordinary water, sea water is fine. Mother in the stomach, when the child is born in the womb of the mother's condition, such as sea water. Becomes small pool of sea water, in the same baby floats. before the fish ....
When the full moon is up, then you saw the waves in the ocean, lofty, and you also get eighty pratishat ocean waters. Saw the moon rising waves will have within you, rise. It you will be amazed to know that most people crazy moon occur on the night. enlightenment Most people are also available on the night of the full moon.
Is a wonderful full moon night.
So the effect of the moon is the moon so far that anyone crazy enough to give effect, that you have brought to enlightenment.
So what do we deal with those inner moon have been revealed, which may have been cut within Bdliaँ, which have been concluded within, who have attained perfection of consciousness. They pray to the birth of their Satguru is.,, maintaining the consistency of master partap                              ... osho.....
"त्राटक-एकटक देखने की विधि"
यदी आप लंबे समय तक कुछ महिनो के लिए, प्रतिदीन एक घंटा ज्योत की लौ को अपलक देखते रहे तो आपकी तीसरी आंख पूरी तरह सक्रिय हो जाती है। आप अधिक प्रकाशपूर्ण, अधिक सजग अनुभव करते है। त्राटक शब्द जीस मूल से आता है उसका अर्थ है:आंसु। तो आपकी ज्योत की लौ को तबतक अपलक देखते रहेना है जबतक आंखो से आंसु न बहने लगे। एकटक देखते रहे बिना पलक जपकाए आपकी तीसरी आंख सक्रिय होने लगेगी। एकटक देखने की विधि असल मे कीसी विषय मे संबधीत नही है। इसका संबध देखने मात्र से है। क्योकी आप जब बिना पलक जपकाए एकटक देखते है तब आप एकाग्र हो जाते है। और मन का स्वभाव है भटकना। यदी आप एकटक देखे रहे है,जरा भी हिले डूले बिना, तो मन अवश्य ही मुश्किल मे पड जाएगा। मन का स्वभाव है एक विषय से दुसरे विषय पर भटकने का। निरंतर भटकते रहेने का। यदी आप अंधेरेको प्रकाश को या किसी भी चीज को एकटक देखते रहे है, यदी आप बीलकुल एकाग्र हो,तो मन का भटकाव रुक जाता है। क्योकी मन भटगेगा तो आपके मन की द्रष्टि एकाग्र न रह पायेगी और आप विषय को चुकते रहेंगे। जब मन कही और चला जाएगा तो आप भूल जाएंगे।आप स्मरण नही रख पायेगेँ कि आप क्या देख रहे थे। भौतिक रुप से विषय वही होगा लेकीन आपके लीए वह विलिन हो चुका होगा। क्योकी आप वहा नही है-आप विचारो मे भटक गए है। एकटक देखना यानी त्राटक का अर्थ है-अपनी चेतना को भटकने न देना। केवल आपकी आंखे ही नही बल्कि आपका पूरा अस्तित्व आंखो के द्रारा एकाग्र हो। आप बस देख रहे हैँ-निष्कंप। इतनी गहराइ से देखना आपको पूरी तरह से बदल जाएगा। वह एक ध्यान हो जाएगा।
 

"भगवान् शिव की वाणी : विज्ञानं भैरव तंत्र : तंत्र-सूत्र—विधि—36" ~ओशो 

 " देखने के संबंध में सातवीं विधि : किसी विषय को देखो, फिर धीरे-धीरे उससे अपनी दृष्‍टि हटा लो, और फिर धीरे-धीरे उससे अपने विचार हटा लो। तब। "
‘’किसी विषय को देखो……….।‘’

किसी फूल को देखो। लेकिन याद रहे कि इस देखने का अर्थ क्‍या है। केवल देखो, विचार मत करो। मुझे यह बार-बार कहने की जरूरत नहीं है। तुम सदा स्‍मरण रखो कि देखने का देखना भर है; विचार मत करो। अगर तुम सोचते हो तो वह देखना नहीं है; तब तुमने सब कुछ दूषित कर दिया। यह शुद्ध देखना है महज देखना।

‘’किसी विषय को देखा…….।‘’

किसी फूल को देखो। गुलाब को देखा।

‘’फिर धीरे-धीरे उससे अपनी दृष्‍टि हटा लो।‘’

पहले फूल को देखा, विचार हटाकर देखो। और जब तुम्‍हें लगे कि मन में कोई विचार नहीं बचा सिर्फ फूल बचा है। तब हल्‍के-हल्‍के अपनी आंखों को फूल से अलग करो। धीरे-धीर फूल तुम्‍हारी दृष्‍टि से ओझल हो जाएगा। पर उसका विंब तुम्‍हारे साथ रहेगा। विषय तुम्‍हारी दृष्‍टि से ओझल हो जाएगा। तुम दृष्‍टि हटा लोगे। अब बाहरी फूल तो नहीं रहा; लेकिन उसका प्रतिबिंब तुम्‍हारी चेतना के दर्पण में बना रहेगा।

‘’किसी विषय को देखा, फिर धीरे-धीरे उससे अपनी दृष्‍टि हटा लो, और फिर धीरे-धीरे उससे अपने विचार हटा लो। अब।‘’

तो पहल बाहरी विषय से अपने को अलग करो। तब भीतरी छवि बची रहेगी; वह गुलाब का विचार होगा। अब उस विचार को भी अलग करो। यह कठिन होगा। यह दूसरा हिस्‍सा कठिन है। लेकिन अगर पहले हिस्‍से को ठीक ढंग से प्रयोग में ला सको जिस ढंग से वह कहा गया है, तो यह दूसरा हिस्‍सा उतना कठिन नहीं होगा। पहले विषय से अपनी दृष्‍टि को हटाओं। और तब आंखें बद कर लो। और जैसे तुमने विषय से अपनी दृष्‍टि अलग की वैसे ही अब उसकी छवि से अपने विचार को, अपने को अलग कर लो। अपने को अलग करो; उदासीन हो जाओ। भीतर भी उसे मत देखो; भाव करो कि तुम उससे दूर हो। जल्‍दी ही छवि भी विलीन हो जाएगी।

पहले विषय विलीन होता है, फिर छवि विलीन होती है। और जब छवि विलीन होती है, शिव कहते है, ‘’तब, तब तुम एकाकी रह जाते हो। उस एकाकीपन में उस एकांत में व्‍यक्‍ति स्‍वयं को उपलब्‍ध होता है, वह अपने केंद्र पर आता है, वह अपने मूल स्‍त्रोत पर पहुंच जाता है।

यह एक बहुत बढ़िया ध्‍यान है। तुम इसे प्रयोग में ला सकते हो। किसी विषय को चुन लो। लेकिन ध्‍यान रहे कि रोज-रोज वही विषय रहे। ताकि भीतर एक ही प्रतिबिंब बने और एक ही प्रतिबिंब से तुम्‍हें अपने को अलग करना पड़े। इसी विधि के प्रयोग के लिए मंदिरों में मूर्तियां रखी गई थी। मूर्तियां बची है, विधि खो गई।

तुम किसी मंदिर में जाओ और इस विधि का प्रयोग करो। वहां महावीर या बुद्ध या राम या कृष्‍ण किसी की भी मूर्ति को देखो। मूर्ति को निहारो। मूर्ति पर अपने को एकाग्र करो। अपने संपूर्ण मन को मूर्ति पर इस भांति केंद्रित करो कि उसकी छवि तुम्‍हारे भीतर साफ-साफ अंकित हो जाए। फिर अपनी आंखों को मूर्ति से अलग करो और आंखों को बंद करो। उसके बाद छवि को भी अलग करो, मन से उसे बिलकुल पोंछ दो। तब वहां तुम अपने समग्र एकाकीपन में, अपनी समग्र शुद्धता में, अपनी समग्र निर्दोषता में प्रकट हो जाओगे।

उसे पा लेना ही मुक्‍त है। उसे पा लेना ही सत्‍य है। "

ஜ۩۞۩ஜ ॐॐॐ ओशो ॐॐॐ ஜ۩۞۩ஜ
  •   ध्वनि के केंद्र में स्नान करो
ध्वनि के केंद्र में स्नान करो, मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो। या कानों में अंगुली डाल कर नादों के नाद, अनाहत को सुनो।

इस विधि का प्रयोग कई ढंग से किया जा सकता है। एक ढंग यह है कि कहीं भी बैठ कर इसे शुरू कर दो। ध्वनियां तो सदा मौजूद हैं। चाहे बाजार हो या हिमालय की गुफा, ध्वनियां सब जगह हैं। चुप होकर बैठ जाओ।

और ध्वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है, एक बड़ी खूबी है। जहां भी, जब भी कोई ध्वनि होगी, तुम उसके केंद्र होगे। सभी ध्वनियां तुम्हारे पास आती हैं, चाहे वे कहीं से आएं, किसी दिशा से आएं। आंख के साथ, देखने के साथ यह बात नहीं है। दृष्टि रेखाबद्ध है। मैं तुम्हें देखता हूं तो मुझसे तुम तक एक रेखा खिंच जाती है। लेकिन ध्वनि वर्तुलाकार है; वह रेखाबद्ध नहीं है। सभी ध्वनियां वर्तुल में आती हैं और तुम उनके केंद्र हो। तुम जहां भी हो, तुम सदा ध्वनि के केंद्र हो। ध्वनियों के लिए तुम सदा परमात्मा हो--समूचे ब्रह्मांड का केंद्र। हरेक ध्वनि वर्तुल में तुम्हारी तरफ यात्रा कर रही है।

यह विधि कहती है: "ध्वनि के केंद्र में स्नान करो।' अगर तुम इस विधि का प्रयोग कर रहे हो तो तुम जहां भी हो वहीं आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा ब्रह्मांड ध्वनियों से भरा है। तुम भाव करो कि हरेक ध्वनि तुम्हारी ओर बही आ रही है। और तुम उसके केंद्र हो। यह भाव भी कि मैं केंद्र हूं तुम्हें गहरी शांति से भर देगा। सारा ब्रह्मांड परिधि बन जाता है और तुम उसके केंद्र होते हो। और हर चीज, हर ध्वनि तुम्हारी तरफ बह रही है। "मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्वनि में स्नान कर रहे हो।'

अगर तुम किसी जलप्रपात के किनारे खड़े हो तो वहीं आंख बंद करो और अपने चारों ओर से ध्वनि को अपने ऊपर बरसते हुए अनुभव करो। और भाव करो कि तुम उसके केंद्र हो।

अपने को केंद्र समझने पर यह जोर क्या है? क्योंकि केंद्र में कोई ध्वनि नहीं है; केंद्र ध्वनि-शून्य है। यही कारण है कि तुम्हें ध्वनि सुनाई पड़ती है; अन्यथा नहीं सुनाई पड़ती। ध्वनि ही ध्वनि को नहीं सुन सकती। अपने केंद्र पर ध्वनि-शून्य होने के कारण तुम्हें ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। केंद्र तो बिलकुल ही मौन है, शांत है। इसीलिए तुम ध्वनि को अपनी ओर आते, अपने भीतर प्रवेश करते, अपने को घेरते हुए सुनते हो।

अगर तुम खोज लो कि यह केंद्र कहां है, तुम्हारे भीतर वह जगह कहां है जहां सब ध्वनियां बह कर आ रही हैं तो अचानक सब ध्वनियां विलीन हो जाएंगी और तुम निर्ध्वनि में, ध्वनि-शून्यता में प्रवेश कर जाओगे। अगर तुम उस केंद्र को महसूस कर सको जहां सब ध्वनियां सुनी जाती हैं तो अचानक चेतना मुड़ जाती है। एक क्षण तुम निर्ध्वनि से भरे संसार को सुनोगे और दूसरे ही क्षण तुम्हारी चेतना भीतर की ओर मुड़ जाएगी और तुम बस ध्वनि को, मौन को सुनोगे जो जीवन का केंद्र है। और एक बार तुमने उस ध्वनि को सुन लिया तो कोई भी ध्वनि तुम्हें विचलित नहीं कर सकती। वह तुम्हारी ओर आती है; लेकिन वह तुम तक पहुंचती नहीं है। वह सदा तुम्हारी ओर बह रही है; लेकिन वह कभी तुम तक पहुंच नहीं पाती। एक बिंदु है जहां कोई ध्वनि नहीं प्रवेश करती है; वह बिंदु तुम हो।
 
चक्रमण सुमिरन:
चक्रमण सुमिरन एक वरदान है. इसे गौतम बुद्ध ने आविष्कृत किया था इसके मूल स्वरूप में. यह एक ऐसी विधि है जिसमे व्यायाम, प्राणायाम. भक्ति, स्मरण, ध्यान, ऊर्जा ग्रहण, आदि विधाओं का सुंदर समन्वय है. सद्गुरु त्रिविर की अपार करुणा से यह ओशो धारा साधकों के लिए उपलब्ध है. इसकी महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है की प्रत्येक समाधि में सद्गुरु स्वयं प्रत्येक साधक को इसके लिए प्रशिक्षित करते हैं.
सद्गुरु का आग्रह है की यदि किसी दिन सुमिरन छूट जाए तो भी प्रयास होना चाहिए की चक्रमण न छूते.
एक दिन चक्रमण सुमिरन के छूटने से ७ दिन पीछे हो जाती है साधना.
इतनी महिमा से युक्त चक्रमण सुमिरन के लाभ आइये जाने क्या क्या हैं?
__________--
चक्रमण सुमिरन के लाभ-

१. स्वांस गहरी होने से प्राणायाम के समस्त लाभ मिलते हैं.
- फेफड़ों में ऑक्सीजन की प्रचुर आपूर्ति हो जाने से फेफड़ो से सम्बंधित विकार जैसे अस्थमा, दमा, खांसी, स्वांस रोग, काफ, सर्दी जुकाम, निमोनिया आदि रोग नही होते.

२. प्राण की आपूर्ति रक्त में प्रचुर मात्रा में हो जाने से व्याधियां दूर हो जाती हैं क्यूँ की प्राण की कमी से ही व्याधिया होती हैं.

३. रक्त व त्वचा सम्बन्धी व्याधियां नही होती.. क्यूँ की एक घंटे का स्वांस प्रयोग समस्त रक्त का शुद्धिकरण कर देता है.
अतः. रक्त विकार नही होते और यदि हों तो ठीक हो जाते हैं.

४ सौन्दर्य वर्धक है ये. प्राणों का संचार शरीर व नशों के समस्त अवरोध और ग्रंथियों को खोल देता है. ग्रंथियां खुलने से शरीर व मन में समस्वरता आ जाती है और सौन्दर्य आ जाता है.

५. ह्रदय रोगों में तेज चलना और गहरी स्वांश लाभकारी हैं. स्वांस से धमनियों को हलकी मसाज मिलती रहती है जिससे अवरोध खुल जाते हैं. ह्रदय रोगों की आशंका समाप्त हो जाती है.

६. चक्रों में अवरोध बड़े कष्टकारी हो जाते हैं कभी कभी. चक्रमण से यह अवरोध खुल जाते हैं. चक्र सक्रीय हो जाते हैं और साधक निर्भार हो जाता है.

७. नेत्र ज्योति बढती है क्यूँ की प्राण स्तर बढने से सबसे पहले नेत्र ठीक होते हैं.
चक्रमण के समय मुद्रा लगाने से प्राणों का संचार तीव्रतम हो जाता है. थोड़े ही दिनों में साधक का चश्मा हट जाता है.

८. सुमिरन से साधक एक तादात्म्य को प्राप्त होता है और परम सत्ता से नाद व नूर के माध्यम से ऐक्य का अनुभव करता है. सुमिरन भक्ति की अग्नि में घी की तरह है जो इसे और प्रज्ज्वलित करती है.

९. चक्रमण सुमिरन उच्च व निम्न रक्तचाप में बहुत लाभ दायक है. क्यूँ की मन व शरीर के तल पर यह समवेत कार्य करता है. यह मेरा स्वानुभव है. १ माह में मेरा उच्च रक्तचाप ठीक हो गया.

१०. कैंसर का प्रमुख कारण है कोशिकाओं को ऑक्सीजन की निरंतर आपूर्ति न हो पाना, यह अभी शोध से प्रकाश में आया है.
सुमिरन से कैंसर की संभावना नही रहती.

११. अन, तन और आत्मा में समस्वरता आती है और साधक परमात्मा से एकाकार हो जाता है. जगत से प्रेम हो जाता है. मन अहोभाव से आपूरित हो जाता है. अहोभाव जीवन की शैली हो जाती है.

१२. साधक धीरे धीरे परमात्मा से एकाकार हो जाता है.
  • अपनी श्वास का स्मरण रखें
"अगर तुम अपनी सांस पर काबू पा सको तो अपनी भावनाओं पर काबू पा सकोगे। अवचेतन सांस की लय को बदलता रहता है, अत: अगर तुम इस लय के प्रति और उसमें होने वाले सतत बदलाव के बारे में होश से भर जाओगे तो तुम अपनी अवचेतन जड़ों के बारे में, अवचेतन की गतिविधि के बारे में सजग हो जाओगे।"
दि न्यू एल्केमी

1) जब भी स्मरण हो, दिन भर गहरी सांस लो, जोर से नहीं वरन धीमी और गहरी; और शिथिलता अनुभव करो, तनाव नहीं।

2) अपनी सांस को देखो, उसका निरीक्षण करो। जब सांस बाहर जाए, उसके साथ जाओ; जब सांस भीतर आए, उसके साथ भीतर आओ। अगर तुम अपनी सांस को देख सको तो वह गहरी, शांत और लयबद्ध होगी। सांस का अनुसरण करके तुम बिलकुल अलग हो जाओगे, क्योंकि सांस के इस सतत अहसास से तुम तुम्हारे मन से दूर हो जाओगे। जो ऊर्जा सामान्यतया सोच-विचार में घूमती है वह देखने में घूमने लगेगी। यह ध्यान की कीमिया है --जो ऊर्जा सोचने में उलझी हुई है उसे निरीक्षण में परिवर्तित करना। कैसे विचारक न होकर द्रष्टा होना। लेकिन अपनी सांस को देखना सहजता से करो, उसे एक काम मत बनाओ।
3) अपनी सांस को जीवन और मृत्यु, दोनों के प्रति एक साथ होश रखने के लिए उपयोग में लाओ। जब सांस बाहर जाती है तब वह मृत्यु से जुड़ी होती है; जब भीतर आती है तब जीवन से। हर प्रश्वास के साथ तुम मरते हो, हर श्वास के साथ तुम जन्मते हो।
जीवन और मृत्यु दो अलग, विभक्त चीजें नहीं हैं , वे एक ही हैं। और प्रति पल दोनों ही मौजूद रहती हैं। तो यह स्मरण रखो: जब तुम्हारी सांस बाहर जाए, अनुभव करो कि तुम मर रहे हो। घबड़ाओ मत। अगर तुम घबड़ाओगे तो सांस विचलित होगी। उसे स्वीकार करो: बाहर जाती सांस मृत्यु है और मृत्यु सुंदर है, वह रिलैक्स करती है।"
 
 

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