"
ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है-जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय
नहीं होता। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, कामनाओं से
आच्छादित रहती है। जैसे कि कोई दर्पण धूल से ढंका हो। हमारा मन एक सतत
प्रवाह है- विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी स्मृतियां सरक
रही हैं- रात-दिन एक अनवरत सिलसिला है। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है,
स्वप्न चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। ठीक इससे उलटी अवस्था ध्यान की है।जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामनाएं सिर नहीं उठातीं, सारा ऊहापोह शांत
हो जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं-वह परिपूर्ण मौन ध्यान है। और
उसी परिपूर्ण मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है। जब मन नहीं होता, तब
जो होता है वह ध्यान है। इसलिए मन के माध्यम से कभी ध्यान तक नहीं पहुंचा
जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं मन नहीं हूं। "
प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरुरी है ! रेचन तुम्हे सहयोगी होगा ! दस मिनट दौड़ लो, कूद लो ; उछल लो ; सारी उर्जा जो जम गई है , उसे फेंक दो , फिर बैठ जाओ ! जैसे तूफान के बाद की शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शारीर हलका हो जाता है , उसकी बैचनी खो जाती है ! पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नही ! वह मकान के बाहर की सीढ़ी है ! मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है ; दस मिनिट ओंकार की ध्वनि शरीर से , दस मिनिट ओंकार की ध्वनि मन से ! दस मिनिट ओंकार की ध्वनि तुम्हे नही करनी , वह अस्तित्व में हो ही रही है , तुम्हे सिर्फ सुननी है ! इसलिए मैं कहता हूँ -राम , कृष्ण , बुद्ध उतने ठीक नही होंगे , दूसरे चरण तक ले जाएंगे , तीसरे चरण तक नही ले जाएंगे ; क्योंकि जो तीसरे चरण में ध्वनि हो रही है , वह ओम की है ! लेकिन कभी-कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है !
Ø Dynamic
Meditation
The daily morning meditation at the
ashram WHEN
the sleep is broken, the whole nature becomes alive; the night has gone, the
darkness is no more, the sun is coming up, and everything becomes conscious and
alert. This is a meditation in which you have to be continuously alert,
conscious, aware, whatsoever you do. Remain a witness. Don’t get lost. It is
easy to get lost. While you are breathing you can forget. You can become one
with the breathing so much that you can forget the witness. But then you miss
the point. Breathe as fast, as deep as possible, bring your total energy to it,
but still remain a witness. Observe what is happening, as if you are just a
spectator, as if the whole thing is happening to somebody else, as if the whole
thing is happening in the body and the consciousness is just centered and
looking. This witnessing has to be carried in all the three steps. And when
everything stops, and in the fourth step you have become completely inactive,
frozen, then this alertness will come to its peak. The Dynamic Meditation lasts
one hour and is in five stages. It can be done alone, but the energy will be
more powerful if it is done in a group. It is an individual experience so you
should remain oblivious of others around you and keep your eyes closed
throughout, preferably using a blindfold. It is best to have an empty stomach
and wear loose, comfortable clothing.
Ø First Stage: 10 minutes.
Breathe chaotically through the
nose, concentrating always on the exhalation. The body will take care of the
inhalation. Do this as fast and as hard as you possibly can – and then a little
harder, until you literally become the breathing. Use your natural body
movements to help you to build up your energy. Feel it building up, but don’t
let go during the first stage.
Ø Second Stage: 10 minutes.
Explode! Let go of everything that
needs to be thrown out. Go totally mad, scream, shout, cry, jump, shake, dance,
sing, laugh, and throw yourself around. Hold nothing back; keep your whole body
moving. A little acting often helps to get you started. Never allow your mind
to interfere with what is happening. Be total.
Ø Third Stage: 10 minutes.
With raised arms, jump up and down
shouting the mantra ‘HOO! HOO! HOO!’ as deeply as possible. Each time you land,
on the flats of your feet, let the sound hammer deep into the sex centre. Give
all you have, exhaust yourself totally.
Ø
Fourth Stage: 15 minutes.
Stop! Freeze where you are in
whatever position you find yourself. Don't arrange the body in any way. A
cough, a movement, anything will dissipate the energy flow and the effort will
be lost. Be a witness to everything that is happening to you.
Ø Fifth Stage: 15 minutes.
Celebrate and rejoice with music and
dance, expressing your gratitude towards the whole. Carry your happiness with you
throughout the day.
Ø सिरविहीन
होने के प्रयोग को--करके देखो
" जब हृदय सक्रिय हो जाता है, तो तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व, पूरी संरचना, पूरे तौर-तरीके को बदल डालता है, क्योंकि हृदय का अपना अलग मार्ग
है... "
"
पहला सूत्रः
सिरविहीन होने का प्रयास करो। स्वयं के सिरविहीन होने की कल्पना करो; सिरविहीन होकर ही चलो। सुनने में यह अजीब
लगता है, परंतु यह बहुत ही महत्वपूर्ण साधनाओं में से एक है। इसका प्रयोग करो, तब तुम जानोगे। चलो,
और यह अनुभव करो
जैसे कि तुम्हारा कोई सिर नहीं है। प्रारंभ में तो यह 'जैसेकि'
ही होगा। यह बहुत
अटपटा लगेगा। जब तुम्हें यह महसूस होगा कि
तुम्हारा सिर ही
नहीं है, तो बड़ा अटपटा और अजीब लगेगा। लेकिन
धीरे-धीरे तुम हृदय में स्थित हो जाओगे।
एक नियम है। शायद तुमने देखा हो, जो व्यक्ति अंधा है उसके कान अधिक तत्पर, अधिक संगीतमय होते हैं। अंधे व्यक्ति
अधिक संगीतमय होते
हैं; संगीत के लिए उनकी अनुभूति गहनतर होती
है। क्यों? जो उर्जा सामान्यतः आंखों से बहती है, अब उनसे तो बह नहीं सकती, तो वह एक भिन्न मार्ग चुन लेती है-वह कानों से बहने लगती है।
अंधे लोगों
में स्पर्श के
प्रति ज्यादा गहरी संवेदनशील होती है। यदि कोई अंधा व्यक्ति तुम्हें छुए, तो तुम्हें अंतर पता चलेगा, क्योंकि सामान्यतः छूने का
बहुत-सा कार्य हम
आंखों से ही कर लेते हैं: हम एक-दूसरे को आंखों से छू रहे हैं। एक अंधा व्यक्ति आंखों से नहीं छू सकता,
तो उर्जा उसके
हाथों से होकर बहती है। अंधा व्यक्ति आंखों वाले किसी
भी व्यक्ति से अधिक सवेंदनशील होता
है। कभी-कभी हो
सकता है कि ऐसा न भी हो, परंतु सामान्य रूप से ऐसा ही होता है। यदि एक केंद्र न हो तो उर्जा दूसरे
केंद्र से बहने लगती है।
तो इस प्रयोग को-सिरविहीन होने के प्रयोग को--करके देखो जो
मैं बता रहा हूं,
और अचानक तुम एक
अद्भुत बात अनुभव करोगेः ऐसा होगा जैसे पहली बार तुम हृदय पर आए। सिरविहीन होकर चलो। ध्यान के लिए बैठो, अपनी आंखें बंद करो और
बस यही अनुभव करो
कि सिर नहीं है। महसूस करो, ''मेरा सिर विलीन हो गया है।''
प्रारंभ में तो 'जैसे कि' ही होगा,
परंतु धीरे-धीरे
तुम्हें लगेगा कि सिर सच में ही विलीन हो गया है। और जब
तुम्हें लगेगा कि सिर विलीन हो गया
है, तो तुम्हारा केंद्र हृदय पर आ जाएगा-तत्क्षण! तुम संसार को हृदय से देखोगे,
बुद्धि से नहीं।
जब पहली बार पश्चिम के लोग जापान पहुंचे तो वे विश्वास नहीं कर पाए कि जापानी लोग
पारंपरिक रूप से सदियों से यह
सोचते रहे हैं कि
वे पेट से सोचते हैं। यदि तुम किसी जापानी बच्चे से पूछो--यदि वह पाश्चात्य ढंग से शिक्षित नहीं हुआ है-कि ''तुम्हारा सोच-विचार कहां होता है?'' तो वह अपने पेट की ओर इशारा करेगा।
सदियां और सदियां बीत गई हैं,
और जापान सिर के
बिना जीता रहा है। यह मात्र
एक धारणा है। यदि
मैं तुमसे पूछूं, ''तुम्हारा सोच-विचार कहां चल रहा है?'' तो तुम सिर की ओर इशारा करोगे,
लेकिन जापानी
व्यक्ति पेट की ओर इशारा करेगा,
सिर की ओर नहीं-यह
भी एक कारण है कि जापानी मन इतना स्थिर,
शांत और निश्चल है।
अब वह भी भंग हो गया है क्योंकि पश्चिम हर चीज पर फैल गया है। अब पूरब कहीं है ही नहीं। पूरब
तो अब कुछ ही इक्का दुक्का लोगों
में बच रहा है जो
द्वीपों की तरह कहीं-कही मिल जाते हैं। भौगोलिक रूप से पूरब समाप्त हो गया है। अब तो पूरा विश्व ही पाश्चात्य है।
सिरविहीन होने का प्रयास करो। अपने स्नानगृह में दर्पण के
सामने खड़े होकर ध्यान करो। अपनी आंखों में गहरे झांको और
महसूस करो कि तुम हृदय से देख रहे
हो। धीरे-धीरे
हृदय-केंद्र सक्रिय हो जाएगा। और जब हृदय सक्रिय हो जाता है, तो तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व, पूरी संरचना, पूरे तौर-तरीके को बदल डालता है,
क्योंकि हृदय का
अपना अलग मार्ग है।
तो पहली बातः
सिरविहीन होने का
प्रयास करो। दूसरे, अधिक प्रेमपूर्ण होओ, क्योंकि प्रेम बुद्धि से नहीं हो सकता। अधिक प्रेमपूर्ण
हो जाओ! यही कारण है, जब कोई प्रेम में होता है, उसकी बुद्धि छूट जाती है। लोग कहते हैं
कि वह पागल हो गया है। यदि तुम प्रेम में पड़ो और पागल न
हो जाओ, तो तुम वास्तव में प्रेम में नहीं हो। बुद्धि तो खोनी ही होगी।
यदि बुद्धि अप्रभावित रहे, और यथावत कार्य करती रहे, तो प्रेम संभव नहीं है, क्योंकि प्रेम के लिए तो हृदय के
सक्रिय होने की
जरूरत है-बुद्धि की नहीं। वह हृदय का कार्य है। "
♥_/\_♥ ओशो ♥_/\_♥
~ पुस्तकः ध्यानयोग प्रथम और अंतिम मुक्ति
Ø ‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से
मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
उस हर्ष में
प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा। यह एक उदाहरण है।
‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।‘’
‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।‘’
तुम्हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत
दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से,
आह्लाद से भर जाते
हो। लेकिन अगर तुम्हारा ध्यान मित्र पर है, हर्ष पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्हारा सारा ध्यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे। तुम पुरानी
स्मृतियों को ताजा करने में लगे
रहोगे। तब तुम इस
हर्ष को चूक जाओगे। और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्हारे ह्रदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस
करो। उसके साथ एक हो जाओ। और तब
हर्ष से भरे हुए
और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव के में केंद्रित हो जाओ।
अन्य अनेक स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग
रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव
करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई उर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्हारे सारे शरीर पर, तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर फैल जाएगा।
और बस दर्शन ही मत बने रहो। उसमे विलीन हो जाओ।
ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते है,
जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो, सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्हें भी चूक जाते हो। क्योंकि तुम विषय केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्नता आती है। सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।
किसी मित्र
से मिलने हो, स्वभावत: लगता है कि सुख मित्र से आ रहा है। मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है।
सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र
तो सिर्फ परिस्थिति
निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया। और उसने तुम्हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया।
यह नियम
सुख के लिए ही
नहीं। सब चीजों के लिए है; क्रोध,
शोक, संताप, सुख,
सब पर लागू होता है। ऐसा ही है। दूसरे केवल
परिस्थिति बनाते है जिसमे जो
तुम्हारे भीतर
छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं है। वे तुम्हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते है। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्हें घटित हो रहा है। वह सदा है। मित्र का
मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमे अव्यक्त व्यक्त हो रहा है। अप्रकट हो गया।
जब भी यह सुख घटित हो,
उसके आंतरिक भाव में स्थित रहो और तब जीवन
में सभी चीजों के प्रति तुम्हारी
दृष्टि भिन्न हो
जाएगी। नकारात्मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्यक्ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो,
उसे अपने भीतर
पूरी तरह घटित होने दो।
उसे तर्क-संगत
बनाने की चेष्टा
मत करो। यह मत कहो कि इस व्यक्ति ने क्रोध करवाया। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो निर्मित मात्र है। उसका उपकार मानों कि उसने तुम्हारे भीतर दमित भावों को प्रकट
होने का मौका दिया। उसने तुम पर
कहीं चोट की। और
वहां से घाव छिपा पडा था। अब तुम्हें उस घाव का पता चल गया है। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।
विधायक या नकारात्मक,
किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुम में भारी
परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव
नकारात्मक है तो
उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्त हो जाओगे। और अगर भाव विधायक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन यह क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और
नकारात्मक और विधायक भावों का भेद
भी यही है। अगर
तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और
वह भाव फैलकर तुम्हारे तन-प्राण
पर छा जाता है तो
समझना कि वह विधायक भाव है। दोनों मामलों में बोध अलग-अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा
तुम उससे
मुक्त हो सकते
हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे
एक हो जाते हो।
बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।
मेरे लिए यही कसौटी
है। अगर कोई वृति
बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्त हो
वह पुण्य है। पुण्य और पाप
सामाजिक धारणाएं
नहीं है। वे आंतरिक उपलब्धियां है।
अपने बोध को
जगाओं, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाये हो। दीए के जलते ही अंधकार विदा हो
जाएगा। प्रकाश के आने से अँधेरा नहीं हो
जाता है। क्योंकि
वस्तुत: अँधेरा नहीं था। अंधकार प्रकाश का आभाव है। वह प्रकाश की अनुपस्थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी। प्रकट हो जायेगी।
प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें,
दीवारें विलीन
नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थी,
तुम उन्हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने
से अंधकार विदा हो गया लेकिन उसके
साथ ही जो यथार्थ
था वह प्रकट हो गया। बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्मक है—धृणा,
क्रोध, दुःख, हिंसा—वह विसर्जित हो जाएगा और उसके साथ ही प्रेम,
हर्ष, आनंद जैसी विधायक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।
इसलिए ‘’बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर
जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
विज्ञान भैरव तंत्र,
भाग—3
Ø प्रत्येक
ध्यान के शीघ्र बाद करुणावान रहो
करुणावान व्यक्ति सर्वाधिक धनी होता है, वह सृष्टि के शिखर पर विराजमान है। उसकी कोई परिधि नहीं, कोई सीमा नहीं। वह बस देता है और अपनी
रास्ते चला जाता है। वह तुम्हारे धन्यवाद की भी प्रतीक्षा
नहीं करता। वह अत्यंत प्रेम से अपनी
उर्जा को बांटता
है। इसी को मैं स्वास्थ्य्प्रद कहता हूं।
बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे: प्रत्येक ध्यान के शीघ्र बाद करुणावान हो रहो, क्योंकि जब तुम ध्यान करते हो तो प्रेम बढ़ता है, हृदय प्रेम से भर जाता है। प्रत्येक ध्यान के बाद संपूर्ण संसार के लिये करुणा से भर जाओ ताकि तुम अपना प्रेम बांट सको और अपनी ऊर्जा को वातावरण में संप्रेषित कर सको और उस ऊर्जा का दूसरे इस्तेमाल कर सकें।
बुद्ध अपने शिष्यों से कहा करते थे: प्रत्येक ध्यान के शीघ्र बाद करुणावान हो रहो, क्योंकि जब तुम ध्यान करते हो तो प्रेम बढ़ता है, हृदय प्रेम से भर जाता है। प्रत्येक ध्यान के बाद संपूर्ण संसार के लिये करुणा से भर जाओ ताकि तुम अपना प्रेम बांट सको और अपनी ऊर्जा को वातावरण में संप्रेषित कर सको और उस ऊर्जा का दूसरे इस्तेमाल कर सकें।
मैं भी तुमसे कहना चाहूंगा: प्रत्येक ध्यान के बाद जब तुम
उत्सव मना रहे हो तो करुणावान हो रहो। ऐसा महसूस करो कि
तुम्हारी ऊर्जा लोगों तक वैसे
पहुंचे जैसे
उन्हें जरूरत है। तुम बस इसे संप्रेषित कर दो! तुम भारमुक्त हो जाओगे,
तुम अत्यंत
विश्रांत महसूस करोगे, तुम अत्यंत शांत और स्थिर अनुभव करोगे और जो तरंगे तुमने संप्रेषित की
हैं बहुत लोगों की सहायता
करेंगी।हमेशा अपना
ध्यान करुणा से समाप्त करो।
और करुणा बेशर्त
होती है। तुम केवल
उन लोगों के लिये ही करुणावान नहीं हो सकते जो तुम्हारे प्रति मैत्रीपूर्ण हैं, जो तुमसे संबंधित हैं।करुणा में सब
सम्मिलित हैं...आंतरिक रूप में सब सम्मिलित हैं।तो
यदि तुम अपने पड़ोसी के लिये
करुणावान नहीं हो
सकते तो ध्यान के बारे में सब भूल जाओ,
क्योंकि इसका व्यक्ति विशेष से कुछ लेना-देना नहीं।
इसका तुम्हारी आंतरिक अवस्था से कुछ
लेना-देना नहीं।
करुणा हो जाओ! बेशर्त,बिना किसी के प्रति,किसी व्यक्ति विशेष के लिये नहीं।तब तुम इस दु:ख भरे
संसार के लिये एक स्वास्थ्य प्रदान
करने वाली शक्ति
बन जाते हो। "
Ø दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम
अपने को देखते हो।
हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते
हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो। अपरिचित,
अपरिचित ही रहेगा।
अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो;
और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है–अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम
जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे।
अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं
झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे,
तुमने अपने की
केंद्र को नहीं खोजा–तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे
जितना तुम अपने को
देखते हो।
Ø " शांत प्रयोग सफल नहीं
होता.........
" शांत प्रयोग सफल नहीं होता। क्योंकि आप
भीतर इतने अशांत है कि जब आप आँख
बंद करके बैठते
हैं तो सिवाय अशांति के भीतर और कुछ भी नहीं होता। वह जो भीतर
अशांति है, वह चक्कर जोर से मारने लगती है। जब आप
शांत होकर बैठते हैं, तब आपको सिवाय भीतर के उपद्रव के और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता।इसलिए, उचित तो यह है कि वह जो भीतर का उपद्रव
है, उसे भी बाहर निकल जाने दें। हिम्मत से उसको भी बह जाने दें।
उसके बह जाने पर, जैसे तूफान के बाद एक शांति आ जाती है, वैसी शांति आपको अनुभव होगी। तूफान तो
धीरे-धीरे विलीन हो जाएगा और शांति स्थिर हो जाएगी।
यह कीर्तन का प्रयोग
कैथार्सिस है।
इसमें जो नाच रहे हैं लोग, कूद रहे हैं लोग, ये उनके भीतर के वेग हैं,
जो निकल रहे हैं।
इन वेगों के निकल जाने के बाद भीतर परम शून्यता का अनुभव होता है। उसी शून्यता से द्वार मिलता है और हम अनंत की यात्रा पर निकल जाते हैं। "
Ø सहज
योग
सहज योग सबसे कठिन योग है; क्योंकि सहज होने से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं। सहज का
मतलब क्या होता है? सहज का मतलब होता है: जो हो रहा है उसे होने दें,
आप बाधा न बनें।
अब एक आदमी नग्न हो गया, वह उसके लिए सहज हो सकता है, लेकिन बड़ा कठिन हो गया। सहज का अर्थ होता है: हवा-पानी की तरह हो जाएं, बीच में बुद्धि से बाधा न डालें; जो हो रहा है उसे होने दें।
बुद्धि बाधा डालती है,
असहज होना शुरू हो
जाता है। जैसे ही हम तय करते हैं, क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए,
बस हम असहज होना शुरू हो जाते हैं। जब हम उसी के लिए राजी हैं जो होता है, उसके लिए राजी हैं, तभी हम सहज हो पाते हैं।
तो इसलिए पहली बात समझ लें कि सहज योग सबसे ज्यादा कठिन है।
ऐसा मत सोचना कि सहज योग बहुत सरल है। ऐसी भ्रांति है
कि सहज योग बड़ी सरल साधना है। तो
कबीर का लोग वचन
दोहराते रहते हैं: साधो, सहज समाधि भली। भली तो है, पर बड़ी कठिन है। क्योंकि सहज होने से
ज्यादा कठिन आदमी के लिए कोई दूसरी बात
ही नहीं है।
क्योंकि आदमी इतना असहज हो चुका है,
इतना दूर जा चुका
है सहज होने से कि उसे असहज होना ही आसान, सहज होना मुश्किल हो गया है। पर फिर कुछ बातें समझ लेनी चाहिए, क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह सहज योग ही
है।
सहज योग कहता है: अगर तुम चोर हो तो तुम जानो कि तुम चोर
हो--जानते हुए चोरी करो,
लेकिन इस आशा में
नहीं कि कल अचोर हो जाओगे। यह इतने जोर से छाती में तलवार की तरह चुभ जाएगी कि मैं चोर हूं,
कि इसमें जीना
असंभव हो जाएगा एक क्षण भी। क्रांति अभी हो जाएगी, यहीं हो जाएगी।
Ø ये भी
ध्यानमे रखे
जिस तरह चुम्बक , लोहे को अपनी ऑर खींचता है ,उसी तरह स्वाभाव भी अपने जैसे
स्वभाव को अपनी ऑर
खींचता है। ये एक प्रकृति का ही नियम है। हरेक प्राणी
के लिए सरीर छोड़ ने से पूर्व उसके अनुसार गर्भ तैयार रहता है । जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही गर्भ मिलता है । जहाँ किसी हिंस्रक -
योनी मैं यैसा गर्भ
तैयार होगा , जहां उसकी सभी अतृप्त वासना की पूर्ति
के सारे साधन हों। जो मनुष्य अपनी हर मन की
इच्छा की पूर्ति
चाहता है। वो मनुष्य अपनी उन अतृप्त वासना के
अनुसार ही पुनह उत्त्पन्न होता है । परन्तु जिसने भी आत्मा साक्षात्कार कर
लिया है ।
उस पूर्ण हुयी
इच्छा वाले मनुष्य की समस्त कामनाएं उसी के सरीर मैं ही विलीन हो जाती है। ऑर वो मुक्त हो जाता है ।
जैसे की कहवत है
की " अंत समय जो मति
सो गति "।
- ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह
ध्यान आता है, एक फुसफुसाहट की तरह, वह नारे लगाते हुए नहीं आता ।
वह बहुत ही चुपचाप आता है.... यदि हम व्यस्त हैं, तो वह प्रतीक्षा करता है । और लौट जाता
है ।
तो एक बात तय कर लें कि कुछ समय रोज शांत बैठें और उसकी प्रतीक्षा करें । कुछ मत करें, बस आंखें बंद करके शांत बैठ जाएं- गहन प्रतीक्षा में, एक प्रतीक्षारत् हृदय के साथ, एक खुले हृदय के साथ.... यदि कुछ न घटे तो निराश न हों । कुछ न घटे तो भी बैठना अपने आप में विश्रामदायी है । वह हमें शांत करता है, स्वस्थ करता है, तरोताजा करता है और हमें जड़ों से जोड़ता है । लेकिन धीरे-धीरे झलकें मिलने लगती हैं और एक तालमेल बैठने लगता है । हम किसी विशेष स्थिति में, विशेष कमरे में, विशेष स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं, तो झलकें ज्यादा-ज्यादा आती हैं । वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं, वे तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से आती हैं । लेकिन जब अंतर्चेतना जानती है कि बाह्य चेतना उसके लिए प्रतीक्षारत है, तो मिलन की संभावना बढ़ जाती है ।
किसी वृक्ष के नीचे बस बैठ जाएं । हवा चल रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट हो रही है । हवा आपको छू रही है, आपके आसपास बह रही है, आपको छूकर गुजर रही है । लेकिन हवा को सिर्फ अपने आसपास ही मत गुजरने दें, उसे अपने भीतर से होकर भी गुजरने दें, अपने भीतर से बहने दें । अपनी आंखें बंद कर लें और महसूस करें कि जैसे हवा वृक्षों से होकर गुजरती है और पत्तों की सरसराहट होती है, वैसे ही आप भी एक वृक्ष की भांति हैं, खुले और हवा आपसे होकर बह रही है- आसपास से नहीं बल्कि सीधे आपसे होकर बह रही है ।
तो एक बात तय कर लें कि कुछ समय रोज शांत बैठें और उसकी प्रतीक्षा करें । कुछ मत करें, बस आंखें बंद करके शांत बैठ जाएं- गहन प्रतीक्षा में, एक प्रतीक्षारत् हृदय के साथ, एक खुले हृदय के साथ.... यदि कुछ न घटे तो निराश न हों । कुछ न घटे तो भी बैठना अपने आप में विश्रामदायी है । वह हमें शांत करता है, स्वस्थ करता है, तरोताजा करता है और हमें जड़ों से जोड़ता है । लेकिन धीरे-धीरे झलकें मिलने लगती हैं और एक तालमेल बैठने लगता है । हम किसी विशेष स्थिति में, विशेष कमरे में, विशेष स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं, तो झलकें ज्यादा-ज्यादा आती हैं । वे कहीं बाहर से नहीं आती हैं, वे तुम्हारे अंतर्तम केंद्र से आती हैं । लेकिन जब अंतर्चेतना जानती है कि बाह्य चेतना उसके लिए प्रतीक्षारत है, तो मिलन की संभावना बढ़ जाती है ।
किसी वृक्ष के नीचे बस बैठ जाएं । हवा चल रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट हो रही है । हवा आपको छू रही है, आपके आसपास बह रही है, आपको छूकर गुजर रही है । लेकिन हवा को सिर्फ अपने आसपास ही मत गुजरने दें, उसे अपने भीतर से होकर भी गुजरने दें, अपने भीतर से बहने दें । अपनी आंखें बंद कर लें और महसूस करें कि जैसे हवा वृक्षों से होकर गुजरती है और पत्तों की सरसराहट होती है, वैसे ही आप भी एक वृक्ष की भांति हैं, खुले और हवा आपसे होकर बह रही है- आसपास से नहीं बल्कि सीधे आपसे होकर बह रही है ।
आप नहीं हैं और दुनिया चल रही है. जैसे-जैसे हम इस तथ्य के प्रति और-और
सजग होते हैं, तो हम अपने अस्तित्व के एक और आयाम के प्रति सजग होते हैं,
जो लंबे समय से, जन्मों-जन्मों से उपेक्षित रहा है. और वह आयाम है स्वीकार
भाव का. हम चीजों को सहज होने देते हैं, एक द्वार बन जाते हैं. चीजें हमारे
बिना भी होती हैं.
यह स्वार्थ कि बात नहीं है ! अगर यह तुम्हें ख्याल आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा ! ा है ! और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं ! उपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा ! क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने है, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ कि बात है !
सिर्फ तुम ही तुम्हारे हो ! यह पहला सूत्र, मेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है !
ग्रंथियों का पता लगाने का एक प्रयोग -:
ध्यान -:पूर्णिमा का चाँद --
Note -: Full moon -
"त्राटक-एकटक देखने की विधि"
यह स्वार्थ कि बात नहीं है ! अगर यह तुम्हें ख्याल आ जाए, तो ही तुम्हारे जीवन में परार्थ और परमार्थ पैदा होगा ! ा है ! और धर्म कहता है कि तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भी नहीं ! उपर से देखने पर बड़ा स्वार्थी वचन मालूम पड़ेगा ! क्योंकि यह तो यह बात हुई कि बस हम ही अपने है, तो तत्क्षण हमें लगता है यह तो स्वार्थ कि बात है !
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