Thursday, March 28, 2013
Sunday, March 17, 2013
Love Is a Door - OSHO
"If there is passion in love, then love will become hell. If there is
attachment in love, then love will be a prison. If love is passionless
it will become heaven. If love is without attachment then love itself is
the divine.
"Love has both possibilities. You can have
passion and attachment in love: then it is as if you have tied a stone
around the neck of the bird of love so
that it cannot fly. Or as if you have put the bird of love in a golden
cage. However precious the cage may be – it may be studded with diamonds
and jewels – a cage is still a cage and it will destroy the bird's
capacity to fly.
"When you remove passion and attachment from
love, when your love is pure, innocent, formless, when you give in love
and don't demand, when love is only a giving, when love is an emperor,
not a beggar; when you are happy because someone has accepted your love
and you don't trade love, you ask nothing in return, then you are
liberating this bird of love into the open sky. Then you are
strengthening its wings. Then this bird can set out on the journey to
the infinite.
"Love has made people fall and love has made
people rise high. It all depends on what you have done with love. Love
is a very mysterious phenomenon. It is a door – on one side is
suffering, on the other side is bliss; on one side is hell, on the other
side is heaven; on one side is sansara, the wheel of life and death, on
the other side is liberation. Love is a door.
"If you have only
known a love full of passion and attachment, then when Jesus says, "God
is love," you will not be able to understand it. When Sahajo starts
singing songs of love you will become very uneasy: "This makes no sense!
I have also loved but I got back only misery. In the name of love I
reaped only a crop of thorns, no flowers ever blossomed for me." The
other love will seem to be imaginary. The love which becomes devotion,
which becomes prayer, which becomes liberation, will look like just a
play of words.
"You have also known love – but whenever you
knew love you knew only a love full of passion and attachment. Your love
was not really love. Your love was only a curtain to hide the passion,
attachment and sex. On the outside you called it love, inside it was
something else. What did you long for when you were in love with a woman
or a man? – your longing was sexual and love was only the outside
decoration.
Osho, Showering without Clouds, Talk #2
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- ओशो
जॉर्ज
बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- एक तुम जो चाहो वह न मिले
और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं कि पहले से
बड़ा है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं।
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।
और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो। मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्भुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।
मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।
तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।
दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम- मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं।
मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।
जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।
रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।
बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।
किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।
एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।
दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।
और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो। मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।
तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्भुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।
लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।
मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।
तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।
दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।
यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!
लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।
जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।
दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।
मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम- मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट भी न मिला।
मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।
मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।
" मुक्त यौन-संबंध तुम्हारी रुग्ण कुत्सित धारणा " ~ ओशो
" पूछा है: यदि आप कल इस प्रश्न का जवाब दे देते तो में अपना पूना आना सफल समझूंगा… अब उनका प्रश्न सुनिये—
"मुक्त यौन-संबंध के अंतर्गत क्या पिता पुत्री ओर मां बेटे के बीच भी यौन संबंध हो सकता है? यदि नहीं क्यों नहीं?"
"यह प्रश्न उन्होंने इतनी बार पूछा है कि मुझे शक है, तुम्हें अपनी मां से यौन-संबंध करना है कि अपनी बेटी से, किससे करना चाहते हो। ये प्रश्न तुम ने इतनी बार क्यों पूछ रहे हो। और यही प्रश्न हेतु है उन्हें पूना लाने का। तो जरूर यह मामला निजी होना चाहिए। व्यक्तिगत होना चाहिए। किससे तुम्हें यौन संबंध करना हे—मां से कि अपनी बेटी से? सीधी-सीधी बात क्यों नहीं पूछते फिर, इसको इतना तात्विक रंग देने की क्या जरूरत है। कम से कम ईमानदार प्रश्न तो पूँछों इतनी ईमानदारी, इतना साहस तो होना चाहिए।
मां-बेटे का संबंध या बेटी और बाप का संबंध अवैज्ञानिक है। उससे जो बच्चे पैदा होंगे वे अपंग होंगे, लंगड़े होंगे। लूले होंगे। बुद्धिहीन होंगे। इसका कोई धर्मसे संबंध नहीं है। यह सत्य दुनिया के लोगों को बहुत पहले पता चल चुका है। सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसाक वैज्ञानिक रूप दे रहा है। भाई बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्य कण इतने समान होते है कि उनमें तनाव नहीं होता। उनमें खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फुफ्फुस होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा। स्वस्थ होगा, बलशाली होगा। मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजें जाते है। जिलों गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार पाँच पीढ़ियों का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए; जापनी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, इरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर ही करनी है जितनी दूर हो उतना अच्छा।
और अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे है। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है। क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते है। अंग्रेज सांड का वीर्य अणु बुलाते है। भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते कि गऊ माता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह। गऊ माता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती। लाज-संकोच नहीं। मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।
इसलिए पशुओं की नसलें सुधरती जा रही है, खासकर पश्चिम में तो पशुओं की नसलें बहुत सुधर गई है। कल्पनातीत,साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दूनिया में नहीं थी। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाते है। हर बार। आने वाले बच्चे और ज्यादा स्वास्थ और भी स्वारथ होते जाते है। कुत्ते की नसलों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी नहीं थे दुनियां में। रूस में फलों में क्रांति हो गई हे। कयोंकि फलों के साथ भी यही प्रयोग कर रहे है। आज रूस के पास जैसे फल है, दुनिया में किसी के पास नहीं है। उनके फल बड़े है, ज्यादा रस भरे है, ज्यादा पौष्टिक हे। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो।
यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता चल गया था। मगर स्वामी शांता नंद सरस्वती को अभी तक पता नहीं है। और वे समझते है कि बड़े आधुनिक आदमी है, रूढ़ियों के बड़े विरोधी है। इसलिए भाई-बहन का विवाह का निषिद्ध था। निषिद्ध रहना चाहिए। असल में चचेरे भाई बहनों से भी विवाह निषिद्ध होना चाहिए। मुसलमानों में होता है, ठीक नहीं है। दक्षिण भारत में होता है। ठीक नहीं है। अवैज्ञानिक है। और मां-बेटे का विवाह तो एकदम ही मूढता पूर्ण हे, एक दम अवैज्ञानिक है। क्योंकि वह तो इतने करीब का रिश्ता हो जाएगा की जो बच्चे पैदा होंगे, बिलकुल गोबर गणेश होंगे। हां गोबर-गणेश चाहिए तो बात अलग हे।
लेकिन यह प्रश्न तुम्हारे भीतर इतना क्यों तुम्हें परेशान किए हुए है? इसमें जरूर कोई निजी मामला है, जिसको तुम्हारी कहने की हिम्मत नहीं है। और बात तुम बड़ी बहादुरी की कर रहे हो। बात ऐसी कर रह हो जैस कि मुझे चुनौती दे रहे हो इस प्रश्न को पूछने तुम पूना आए। बड़े शुद्ध धार्मिक आदमी मालूम पड़ते हो। ऋषि-महार्षियों में तुम्हारी गिनती होनी चाहिए।
थोड़ा सोचा होओ गे, तुम्हारी बैटी बदनाम होगी। कुछ न कुछ मामला गड़बड़ का है। और तुम चाहते हो कि मेरा सर्मथन मिल जाये। शायद इस लिए तुमने सन्यास लिया है।
तुम्हारा संन्यास झूठा और थोथा है। तुम यहां संन्यास लेने इसीलिए आ गय हो, मेरा सन्यास लेने, कि तुमको आशा होगी की मैं तो सब तरह की स्वतंत्रता देता हूं। इसलिए इस बात की भी स्वतंत्रता दे दूँगा।
ऐसे कुछ लोग है, एक सज्जन आ गए थे। वे इसीलिए संन्यास लिए कि उनको अपनी बहन से प्रेम है। संन्यास लेने के बाद……दोनों ने संन्यास ले लिया। फिर कहा कि अब आपको हम कह दें कि यह मेरी बहन है और सब लोग हमारे विरोध में है। इसलिए हम आपकी शरण आए है। इसलिए हमने संन्यास लिया है।
मैंने कहा: इसलिए संन्यास लेने की क्या जरूरत थी? अब यह संन्यास सिर्फ एक आवरण हुआ तुम्हें बचाने का। और तुम जाकर प्रचार करना कि मैं तुम्हारे समर्थन में हूं। मेरे दुश्मन मुझे जितना नुकसान पहुंचाते है। उससे ज्यादा नुकसान तुम तरह के लोग मुझे पहुंचाते है। तुम ही हो असली उपद्रव की जड़।
अब उस आदमी की इच्छा यह है कि मैं आशीर्वाद दे दूँ कि शादी हो जानी चाहिए बहन-भाई की। मैंने कहा-: यह तो गलत है। तुम चाहे संन्यास लो चाहे न लो मगर यह बात गलत है। और तुमने जिस कारण से संन्यास लिया यह तो बिलकुल ही गलत है। सिर्फ तुम आपने पाप को छिपाना चाहते हो—संन्यास की आड़ में।
लोग सोचते है कि मैं हर तरह की चीज के लिए राज़ी हो जाऊँगा। इस भूल में मत रहना। जरूर मैं स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं। मुक्त यौन में भी लोग गलत अर्थ ले लेते है। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं होता, जो तुम्हारे मन में बैठा हुआ है। कुछ भारतीय यहां आते है—सिर्फ इसीलिए कि वे सोचते है यहां मुक्त यौन , तुम गलती में हो। यहां की सन्यासिनियों तुम्हारी इस तरह की पिटाई करेंगी कि तुम्हें जिंदगी भर भूलेगी नहीं। ये कोई भारतीय नारिया नहीं है कि घुंघट डाल कर और चुपचाप चला जाएंगी। कि कौन झगड़ा करे, कौन फसाद करे,कोई क्या कहेगा। यह तुम्हारी अच्छी तरह से पिटाई करेंगी। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं है।
मुझे रोज-रोज शिकायतें आती है। पाश्चात्य सन्यासिनियों की, कि भारतीय किसी तरह के लोग है। कोहनी ही मार देंगे कुछ नहीं तो। मौका मिल जाए तो धक्का ही लगा देंगे।
मैं उनसे कहता हूं: दया करों इन पर, ये ऋषि-मुनियों की संतान है। और अब ये बेचारे क्या करें, ऋषि-मुनि सब अमरीका चले गये। महर्षि महेश योगी, चित्रभानु, योगी भजन, सब ऋषि मुनि तो अमरीका चले गए संतान यहाँ छोड़ गए। उल्लू मर गए। औलाद छोड़ गए।
और ये ऋषि मुनि अमरीका क्यों चलें गए। ये बेचारे यहां बैठे-बैठे रहा तक रहे थे तुम्हारी ऊरवसियों कि मेनकाओं की। आती नहीं कोई, न जाने क्या हो इंद्रको नियम तो नहीं बदल दिया सो, उन उर्वशीयों के पास हॉलीवुड।
इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों को मेरा कोई समर्थन नहीं है। मां-बेटे के संबंध की बात ही नहीं उठती। ये भी तुम्हारे रूग्ण ओर दमित वासनाओं के कारण ये उपद्रव खड़े हो रहे है। नहीं तो कौन मां-बेटे को प्रेम करने की सूझेगी। किस बेटे के साथ मां यौन संबंध बनाना चाहेंगी। या कौन बेटा अपनी मां के साथ यौन-संबंध बनाना चाहेगा। या कौन पिता अपनी ही बैटी से यौन संबंध बनाना चाहेगा? जब सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद होते है और तुम्हारे जीवन में कहीं कोई निकास नहीं होता है, तो इस तरह की गलतियां शुरू होती हे। क्योंकि यह सुविधापूर्ण है। अब बेटी तो असहाय है। बाप के ऊपर निर्भर है, तुम उसे सता सकते हो। दूसरे की बेटी को छेड़खानी करके दिखाओं तो पड़ो गे मुसीबत में।
बिलकुल बुद्धि हीनता की बात तुम पूछ रहे हो। कारण न तो धार्मिक है मेरे विरोध का, न परंपरागत है, न संस्कारगत हे, सिर्फ वैज्ञानिक है। अगर तुम उत्सुक हो तो संतति-शस्त्र के विज्ञान को समझने की कोशिश करो। शास्त्र उपलब्ध है। विज्ञान ने बड़ी खोजें कर ली है। विज्ञान का सीधा सा सिद्धांत है: स्त्री और पुरूष के जीवाणु जितने दूर के हों, उतने ही बच्चे के लिए हितकर होगा—उतना ही बच्चा स्वस्थ होगा, सुंदर होगा, दीर्घजीवी होगा । प्रतिभाशाली होगा। और जितने करीब के होंगे उतनी ही लचर पचर होगा। दीन हीन होगा।
भारत की दीन हीनता में यह भी एक कारण है। भारत के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे। अब जैनों की कुल संख्या तीस लाख है। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर ने तीस जोड़ों को संन्यास दिया होता तो तीस लाख की संख्या हो जाती। तीस जोड़े काफ़ी थे। तो अब जैनों का सारा संबंध जैनों से ही होगा। और जैनों में भी, श्वेतांबर का श्वेतांबर से और दिगंबर का दिगंबर से। और सब श्वेतांबर से नहीं तेरा पंथी का तेरा पंथी से और स्थानक वासी का स्थानक वासी से। और छोटे-छोटे टुकड़े है। संख्या हजारों में रह जाती है। और उन्हीं के भीतर गोल-गोल घूमते रहते है लोग। छोटे-छोटे तालाब है और उन्हीं के भीतर लोग बच्चे पैदा करते रहते है। इससे कचरा पैदा होता है। सारी दुनिया में सबसे ज्यादा कचरा इस भारत में है। फिर तुम रोते हो कि यह अब कचरे का क्यों पैदा हो रहा है। तुम खुद इस के जिम्मेदार हो।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं; कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे। और देशस्थ -देशस्थ से, और कोंकणस्थ -कोंकणस्थ से। और स्वास्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां हे। मुझे तो अभी तक नहीं मिला। कोई भी। और असल में, स्वस्थ हो उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण है।
और यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातियां अपने-अपने धेरे में जी रही हे। यहीं बच्चे पैदा करना, कचड़ -बचड़ वही होती रहेगी। थोड़ा-बहुत बचाव करेंगे। मगर कितना बचाव करोगे। जिससे भी शादी करोगे। दो चार पाँच पीढ़ी पहले उससे तुम्हारे भाई-बहन का संबंध रहा होगा। दो चार पाँच पीढ़ी ज्यादा से ज्यादा कर सकते हो। इससे ज्यादा नहीं बचा सकते। जितना छोटा समाज होगा उतना बचाव करना कठिन हो जायेगा। जितना छोटा समाज होगा, उतनी संतति में पतन होगा। थोड़ा मुक्त होओ। ब्राह्मण को विवाह करने दो जैन से जैन को विवाह करने दो हरिजन से हरिजन को विवाह करेने दो मुसलमान से, मुसलमान को विवाह करने दो ईसाई से। तोड़ो ये सारी सीमाएं। निकालों एक बार इस कुप से। देखो फिर उँची संतति को।
और तुम सीमाएं तोड़ने की बात तो दुर, तुम और ही सुगम रास्ता बता रहे हो। गजब की बात बता रहे हो स्वामी शांता नंद सरस्वती जी। कि कहां जाना दूर और घर की बात घर में ही रखो। घर की संपदा घर में ही रखो। अपनी बेटी से ही शादी कर लो, कि अपनी मां से ही शादी कर लो। इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न को पूछने तुम पूना आए हो? अब दे दिया मैंने उत्तर, अब हो गए तुम सफल, हुआ तुम्हारा जीवन कृतार्थ, अब जाओ भैया ! "
~ ओशो , रहिमन धागा प्रेम का, प्रश्न-पांचवां, प्रवचन—5
"मुक्त यौन-संबंध के अंतर्गत क्या पिता पुत्री ओर मां बेटे के बीच भी यौन संबंध हो सकता है? यदि नहीं क्यों नहीं?"
"यह प्रश्न उन्होंने इतनी बार पूछा है कि मुझे शक है, तुम्हें अपनी मां से यौन-संबंध करना है कि अपनी बेटी से, किससे करना चाहते हो। ये प्रश्न तुम ने इतनी बार क्यों पूछ रहे हो। और यही प्रश्न हेतु है उन्हें पूना लाने का। तो जरूर यह मामला निजी होना चाहिए। व्यक्तिगत होना चाहिए। किससे तुम्हें यौन संबंध करना हे—मां से कि अपनी बेटी से? सीधी-सीधी बात क्यों नहीं पूछते फिर, इसको इतना तात्विक रंग देने की क्या जरूरत है। कम से कम ईमानदार प्रश्न तो पूँछों इतनी ईमानदारी, इतना साहस तो होना चाहिए।
मां-बेटे का संबंध या बेटी और बाप का संबंध अवैज्ञानिक है। उससे जो बच्चे पैदा होंगे वे अपंग होंगे, लंगड़े होंगे। लूले होंगे। बुद्धिहीन होंगे। इसका कोई धर्मसे संबंध नहीं है। यह सत्य दुनिया के लोगों को बहुत पहले पता चल चुका है। सदियों से पता रहा है। विज्ञान तो अब इसाक वैज्ञानिक रूप दे रहा है। भाई बहन का संबंध भी अवैज्ञानिक है। इसका कोई नैतिकता से संबंध नहीं है। सीधी सी बात इतनी है कि भाई और बहन दोनों के वीर्य कण इतने समान होते है कि उनमें तनाव नहीं होता। उनमें खिंचाव नहीं होता। इसलिए उनसे जो व्यक्ति पैदा होगा, वह फुफ्फुस होगा; उसमें खिंचाव नहीं होगा, तनाव नहीं होगा, उसमें ऊर्जा नहीं होगी। जितने दूर का नाता होगा, उतना ही बच्चा सुंदर होगा। स्वस्थ होगा, बलशाली होगा। मेधावी होगा। इसलिए फिक्र की जाती रही कि भाई बहन का विवाह न हो। दूर संबंध खोजें जाते है। जिलों गोत्र का भी नाता न हो, तीन-चार पाँच पीढ़ियों का भी नाता न हो। क्योंकि जितने दूर का नाता हो, उतना ही बच्चे के भीतर मां और पिता के जो वीर्याणु और अंडे का मिलन होगा, उसमें दूरी होगी तो उस दूरी के कारण ही व्यक्तित्व में गरिमा होती है।
इसलिए मैं इस पक्ष में हूं कि भारतीय को भारतीय से विवाह नहीं करना चाहिए; जापनी से करे, चीनी से करे, तिब्बती से करे, इरानी से करे, जर्मन से करे, भारतीय से न करे। क्योंकि जब दूर ही करनी है जितनी दूर हो उतना अच्छा।
और अब तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुकी है बात। पशु-पक्षियों के लिए हम प्रयोग भी कर रहे है। लेकिन आदमी हमेशा पिछड़ा हुआ होता है। क्योंकि उसकी जकड़ रूढ़िगत होती है। अगर हमको अच्छी गाय की नस्ल पैदा करनी है तो हम बाहर से वीर्य-अणु बुलाते है। अंग्रेज सांड का वीर्य अणु बुलाते है। भारतीय गाय के लिए। और कभी नहीं सोचते कि गऊ माता के साथ क्या कर रहे हो तुम यह। गऊ माता और अंग्रेज पिता, शर्म नहीं आती। लाज-संकोच नहीं। मगर उतने ही स्वस्थ बच्चे पैदा होंगे। उतनी ही अच्छी नस्ल होगी।
इसलिए पशुओं की नसलें सुधरती जा रही है, खासकर पश्चिम में तो पशुओं की नसलें बहुत सुधर गई है। कल्पनातीत,साठ-साठ लीटर दूध देने वाली गायें कभी दूनिया में नहीं थी। और उसका कुल कारण यह है कि दूर-दूर के वीर्याणु को मिलाते जाते है। हर बार। आने वाले बच्चे और ज्यादा स्वास्थ और भी स्वारथ होते जाते है। कुत्ते की नसलों में इतनी क्रांति हो गई है कि जैसे कुत्ते कभी नहीं थे दुनियां में। रूस में फलों में क्रांति हो गई हे। कयोंकि फलों के साथ भी यही प्रयोग कर रहे है। आज रूस के पास जैसे फल है, दुनिया में किसी के पास नहीं है। उनके फल बड़े है, ज्यादा रस भरे है, ज्यादा पौष्टिक हे। और सारी तरकीब एक है: जितनी ज्यादा दूरी हो।
यह सीधा सा सत्य आदिम समाज को भी पता चल गया था। मगर स्वामी शांता नंद सरस्वती को अभी तक पता नहीं है। और वे समझते है कि बड़े आधुनिक आदमी है, रूढ़ियों के बड़े विरोधी है। इसलिए भाई-बहन का विवाह का निषिद्ध था। निषिद्ध रहना चाहिए। असल में चचेरे भाई बहनों से भी विवाह निषिद्ध होना चाहिए। मुसलमानों में होता है, ठीक नहीं है। दक्षिण भारत में होता है। ठीक नहीं है। अवैज्ञानिक है। और मां-बेटे का विवाह तो एकदम ही मूढता पूर्ण हे, एक दम अवैज्ञानिक है। क्योंकि वह तो इतने करीब का रिश्ता हो जाएगा की जो बच्चे पैदा होंगे, बिलकुल गोबर गणेश होंगे। हां गोबर-गणेश चाहिए तो बात अलग हे।
लेकिन यह प्रश्न तुम्हारे भीतर इतना क्यों तुम्हें परेशान किए हुए है? इसमें जरूर कोई निजी मामला है, जिसको तुम्हारी कहने की हिम्मत नहीं है। और बात तुम बड़ी बहादुरी की कर रहे हो। बात ऐसी कर रह हो जैस कि मुझे चुनौती दे रहे हो इस प्रश्न को पूछने तुम पूना आए। बड़े शुद्ध धार्मिक आदमी मालूम पड़ते हो। ऋषि-महार्षियों में तुम्हारी गिनती होनी चाहिए।
थोड़ा सोचा होओ गे, तुम्हारी बैटी बदनाम होगी। कुछ न कुछ मामला गड़बड़ का है। और तुम चाहते हो कि मेरा सर्मथन मिल जाये। शायद इस लिए तुमने सन्यास लिया है।
तुम्हारा संन्यास झूठा और थोथा है। तुम यहां संन्यास लेने इसीलिए आ गय हो, मेरा सन्यास लेने, कि तुमको आशा होगी की मैं तो सब तरह की स्वतंत्रता देता हूं। इसलिए इस बात की भी स्वतंत्रता दे दूँगा।
ऐसे कुछ लोग है, एक सज्जन आ गए थे। वे इसीलिए संन्यास लिए कि उनको अपनी बहन से प्रेम है। संन्यास लेने के बाद……दोनों ने संन्यास ले लिया। फिर कहा कि अब आपको हम कह दें कि यह मेरी बहन है और सब लोग हमारे विरोध में है। इसलिए हम आपकी शरण आए है। इसलिए हमने संन्यास लिया है।
मैंने कहा: इसलिए संन्यास लेने की क्या जरूरत थी? अब यह संन्यास सिर्फ एक आवरण हुआ तुम्हें बचाने का। और तुम जाकर प्रचार करना कि मैं तुम्हारे समर्थन में हूं। मेरे दुश्मन मुझे जितना नुकसान पहुंचाते है। उससे ज्यादा नुकसान तुम तरह के लोग मुझे पहुंचाते है। तुम ही हो असली उपद्रव की जड़।
अब उस आदमी की इच्छा यह है कि मैं आशीर्वाद दे दूँ कि शादी हो जानी चाहिए बहन-भाई की। मैंने कहा-: यह तो गलत है। तुम चाहे संन्यास लो चाहे न लो मगर यह बात गलत है। और तुमने जिस कारण से संन्यास लिया यह तो बिलकुल ही गलत है। सिर्फ तुम आपने पाप को छिपाना चाहते हो—संन्यास की आड़ में।
लोग सोचते है कि मैं हर तरह की चीज के लिए राज़ी हो जाऊँगा। इस भूल में मत रहना। जरूर मैं स्वतंत्रता का पक्षपाती हूं। मुक्त यौन में भी लोग गलत अर्थ ले लेते है। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं होता, जो तुम्हारे मन में बैठा हुआ है। कुछ भारतीय यहां आते है—सिर्फ इसीलिए कि वे सोचते है यहां मुक्त यौन , तुम गलती में हो। यहां की सन्यासिनियों तुम्हारी इस तरह की पिटाई करेंगी कि तुम्हें जिंदगी भर भूलेगी नहीं। ये कोई भारतीय नारिया नहीं है कि घुंघट डाल कर और चुपचाप चला जाएंगी। कि कौन झगड़ा करे, कौन फसाद करे,कोई क्या कहेगा। यह तुम्हारी अच्छी तरह से पिटाई करेंगी। मुक्त यौन का यह अर्थ नहीं है।
मुझे रोज-रोज शिकायतें आती है। पाश्चात्य सन्यासिनियों की, कि भारतीय किसी तरह के लोग है। कोहनी ही मार देंगे कुछ नहीं तो। मौका मिल जाए तो धक्का ही लगा देंगे।
मैं उनसे कहता हूं: दया करों इन पर, ये ऋषि-मुनियों की संतान है। और अब ये बेचारे क्या करें, ऋषि-मुनि सब अमरीका चले गये। महर्षि महेश योगी, चित्रभानु, योगी भजन, सब ऋषि मुनि तो अमरीका चले गए संतान यहाँ छोड़ गए। उल्लू मर गए। औलाद छोड़ गए।
और ये ऋषि मुनि अमरीका क्यों चलें गए। ये बेचारे यहां बैठे-बैठे रहा तक रहे थे तुम्हारी ऊरवसियों कि मेनकाओं की। आती नहीं कोई, न जाने क्या हो इंद्रको नियम तो नहीं बदल दिया सो, उन उर्वशीयों के पास हॉलीवुड।
इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों को मेरा कोई समर्थन नहीं है। मां-बेटे के संबंध की बात ही नहीं उठती। ये भी तुम्हारे रूग्ण ओर दमित वासनाओं के कारण ये उपद्रव खड़े हो रहे है। नहीं तो कौन मां-बेटे को प्रेम करने की सूझेगी। किस बेटे के साथ मां यौन संबंध बनाना चाहेंगी। या कौन बेटा अपनी मां के साथ यौन-संबंध बनाना चाहेगा। या कौन पिता अपनी ही बैटी से यौन संबंध बनाना चाहेगा? जब सब तरफ से द्वार-दरवाजे बंद होते है और तुम्हारे जीवन में कहीं कोई निकास नहीं होता है, तो इस तरह की गलतियां शुरू होती हे। क्योंकि यह सुविधापूर्ण है। अब बेटी तो असहाय है। बाप के ऊपर निर्भर है, तुम उसे सता सकते हो। दूसरे की बेटी को छेड़खानी करके दिखाओं तो पड़ो गे मुसीबत में।
बिलकुल बुद्धि हीनता की बात तुम पूछ रहे हो। कारण न तो धार्मिक है मेरे विरोध का, न परंपरागत है, न संस्कारगत हे, सिर्फ वैज्ञानिक है। अगर तुम उत्सुक हो तो संतति-शस्त्र के विज्ञान को समझने की कोशिश करो। शास्त्र उपलब्ध है। विज्ञान ने बड़ी खोजें कर ली है। विज्ञान का सीधा सा सिद्धांत है: स्त्री और पुरूष के जीवाणु जितने दूर के हों, उतने ही बच्चे के लिए हितकर होगा—उतना ही बच्चा स्वस्थ होगा, सुंदर होगा, दीर्घजीवी होगा । प्रतिभाशाली होगा। और जितने करीब के होंगे उतनी ही लचर पचर होगा। दीन हीन होगा।
भारत की दीन हीनता में यह भी एक कारण है। भारत के लोच-पोच आदमियों में यह भी एक कारण है। क्योंकि जैन सिर्फ जैनों के साथ ही विवाह करेंगे। अब जैनों की कुल संख्या तीस लाख है। महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हो गए। अगर महावीर ने तीस जोड़ों को संन्यास दिया होता तो तीस लाख की संख्या हो जाती। तीस जोड़े काफ़ी थे। तो अब जैनों का सारा संबंध जैनों से ही होगा। और जैनों में भी, श्वेतांबर का श्वेतांबर से और दिगंबर का दिगंबर से। और सब श्वेतांबर से नहीं तेरा पंथी का तेरा पंथी से और स्थानक वासी का स्थानक वासी से। और छोटे-छोटे टुकड़े है। संख्या हजारों में रह जाती है। और उन्हीं के भीतर गोल-गोल घूमते रहते है लोग। छोटे-छोटे तालाब है और उन्हीं के भीतर लोग बच्चे पैदा करते रहते है। इससे कचरा पैदा होता है। सारी दुनिया में सबसे ज्यादा कचरा इस भारत में है। फिर तुम रोते हो कि यह अब कचरे का क्यों पैदा हो रहा है। तुम खुद इस के जिम्मेदार हो।
ब्राह्मण सिर्फ ब्राह्मणों से शादी करेंगे। और वह भी सभी ब्राह्मणों से नहीं; कान्यकुब्ज ब्राह्मण कान्यकुब्ज से करेंगे। और देशस्थ -देशस्थ से, और कोंकणस्थ -कोंकणस्थ से। और स्वास्थ ब्राह्मण तो मिलते ही कहां हे। मुझे तो अभी तक नहीं मिला। कोई भी। और असल में, स्वस्थ हो उसी को ब्राह्मण कहना चाहिए। स्वयं में स्थित हो, वही ब्राह्मण है।
और यह जो भारत की दुर्गति है, उसमें एक बुनियादी कारण यह भी है कि यहां सब जातियां अपने-अपने धेरे में जी रही हे। यहीं बच्चे पैदा करना, कचड़ -बचड़ वही होती रहेगी। थोड़ा-बहुत बचाव करेंगे। मगर कितना बचाव करोगे। जिससे भी शादी करोगे। दो चार पाँच पीढ़ी पहले उससे तुम्हारे भाई-बहन का संबंध रहा होगा। दो चार पाँच पीढ़ी ज्यादा से ज्यादा कर सकते हो। इससे ज्यादा नहीं बचा सकते। जितना छोटा समाज होगा उतना बचाव करना कठिन हो जायेगा। जितना छोटा समाज होगा, उतनी संतति में पतन होगा। थोड़ा मुक्त होओ। ब्राह्मण को विवाह करने दो जैन से जैन को विवाह करने दो हरिजन से हरिजन को विवाह करेने दो मुसलमान से, मुसलमान को विवाह करने दो ईसाई से। तोड़ो ये सारी सीमाएं। निकालों एक बार इस कुप से। देखो फिर उँची संतति को।
और तुम सीमाएं तोड़ने की बात तो दुर, तुम और ही सुगम रास्ता बता रहे हो। गजब की बात बता रहे हो स्वामी शांता नंद सरस्वती जी। कि कहां जाना दूर और घर की बात घर में ही रखो। घर की संपदा घर में ही रखो। अपनी बेटी से ही शादी कर लो, कि अपनी मां से ही शादी कर लो। इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न को पूछने तुम पूना आए हो? अब दे दिया मैंने उत्तर, अब हो गए तुम सफल, हुआ तुम्हारा जीवन कृतार्थ, अब जाओ भैया ! "
~ ओशो , रहिमन धागा प्रेम का, प्रश्न-पांचवां, प्रवचन—5
Saturday, March 2, 2013
विपश्यना ध्यान की उड़ान " ~ ओशो
# प्रश्न— " प्यारे ओशो, कल प्रथम बार मैंने शिविर में विपश्यना ध्यान
किया। इतनी उड़ान अनुभव हुई, कृपया विपश्यना के बारे में प्रकाश डालें। "
'ओशो':- " ईश्वर समर्पण। विपश्यना मनुष्य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व हे। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे, इहि पस्सिको; आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी। दिखाने की जो प्रकिया थी उसका नाम था विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है। अपनी आती जाती श्वास के प्रति साक्षी भाव। श्वास जीवन है। श्वास से तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जूड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है। मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण अपरिहार्य रूप से शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोंगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का ओर कोई उपाय नहीं है। जो श्वास को देखेगा,वह श्वास से भिन्न हो गया। और जो श्वास से भिन्न हो गया। वह शरीर से भी भिन्न हो गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटों, श्वास से छूटों, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊँचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊँचाइयों है जगत में न कोई गहराइयों है जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है। करूणा में दूसरे ढंग से चलती है। दौड़ने में वह दूसरे ढंग से चलती है। आहिस्ता चलने में वह दूसरे ढंग से चलती है। चित ज्वर ग्रस्त होता है; एक ढंग ये चलती है। तनाव से भरा होता है, तो एक ढंग से चलती है। और चित शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलों, श्वास बदल जाती है। श्वास को बदल लो भाव बदल जाते है। जरा कोशिश करना। क्रोध आये,अगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। क्रोध उठेगा भी तो गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए श्वास को आंदोलित होना होगा । श्वास आंदोलित हो तो भीतर को केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो। चेतना आंदोलित हो तो जुड़ गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलों, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर। भाव शांत है। कोई तरंग नहीं है चित पर। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ। श्वास बड़ी शांत हो गई। श्वास में एक रस हो गया,एक स्वाद….एक छंद बंध गया। श्वास संगीत पूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले….ख्याल रखना प्राणयाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है। विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांशा है। जैसी है—उबड़-खाबड़ है। अच्छी बुरी है। तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरती हे, जैसी है।
बुद्ध कहते है, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारे हाथ छोटे है। तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलों। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा तुम तो बैठ जाओ,श्वास तो चल ही रही है। जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे?
आई एक बड़ी तरंग तो देखोगें और नहीं आई तरंग तो देखोगें। राह पर निकली कारें बसें तो देखोगें; गाय भैंस निकली तो देखोगें। जो भी है जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांशा आरोपित मत करना। शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते रहो, श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आँख के सामने से हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल ही नहीं है। आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे है, निष्पक्ष देख रहे है। श्वास की तरंग धीरे-धीरे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रूक जाना….अनुभव करो। उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली फेफड़े सुकड़े लगे अनुभव करो उस सुड़कने को फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उतप्त श्वास नासा पुटों से बाहर जाती है। फिर क्षण भर सब ठहर जाता है। फिर नया स्वास आयी।
यह पड़ाव है, श्वास का भीतर आना,क्षण भर श्वास का भीतर ठहरना। फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण भर फिर श्वास का बाहर ठहरना। फिर नई श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने को कोई भी बात नहीं बस देखो। यहीं विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित के सारे रोग तिरोहित हो जाते है। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं,इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते। ही मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे। मगर गूंगे को गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुन सुनाओगे भीतर ही भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे। नाचो गे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह नहीं पाओगे।
ईश्वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने; इतनी उड़ान अनुभव हुई। अब विपस्सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगी। बस में बैठे ट्रेन में सफर करते। कार में यात्रा करते। राह के किनारे। दुकान पर, बाजार में घर में, बिस्तर पर लेटे। लिखते, पढ़ते खोते नहाते…किसी को पता भी न चले। क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चरण करना है। न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे……इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जायेगी उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अद्भुत आमंत्रण को समझोगे; इहि पस्सिको, आओ और देख लो।
बुद्ध कहते है: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते है; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते है। इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्ति दायी हे। मान्यताएं हिंदू बना देती है। मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है। जैन बना देती है। बौद्ध बना देती है। दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान,न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्मा मय हो। ओर वही अनुभव पाना है। वहीं अनुभव पाने योग्य है। "
~ ओशो , 'मरौ हे जोगी मरौ' प्रवचनमाला से संकलित ♥...
'ओशो':- " ईश्वर समर्पण। विपश्यना मनुष्य जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपश्यना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपश्यना अपूर्व हे। विपश्यना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना।
बुद्ध कहते थे, इहि पस्सिको; आओ और देखो। बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है दुनिया में जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है।
बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रकिया थी। दिखाने की जो प्रकिया थी उसका नाम था विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा सरल प्रयोग है। अपनी आती जाती श्वास के प्रति साक्षी भाव। श्वास जीवन है। श्वास से तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जूड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है। मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण अपरिहार्य रूप से शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोंगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का ओर कोई उपाय नहीं है। जो श्वास को देखेगा,वह श्वास से भिन्न हो गया। और जो श्वास से भिन्न हो गया। वह शरीर से भी भिन्न हो गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटों, श्वास से छूटों, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊँचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊँचाइयों है जगत में न कोई गहराइयों है जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है। करूणा में दूसरे ढंग से चलती है। दौड़ने में वह दूसरे ढंग से चलती है। आहिस्ता चलने में वह दूसरे ढंग से चलती है। चित ज्वर ग्रस्त होता है; एक ढंग ये चलती है। तनाव से भरा होता है, तो एक ढंग से चलती है। और चित शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है।
श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलों, श्वास बदल जाती है। श्वास को बदल लो भाव बदल जाते है। जरा कोशिश करना। क्रोध आये,अगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। क्रोध उठेगा भी तो गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए श्वास को आंदोलित होना होगा । श्वास आंदोलित हो तो भीतर को केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित हो। चेतना आंदोलित हो तो जुड़ गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलों, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखने नदी तट पर। भाव शांत है। कोई तरंग नहीं है चित पर। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ। श्वास बड़ी शांत हो गई। श्वास में एक रस हो गया,एक स्वाद….एक छंद बंध गया। श्वास संगीत पूर्ण हो गयी।
विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले….ख्याल रखना प्राणयाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है। विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांशा है। जैसी है—उबड़-खाबड़ है। अच्छी बुरी है। तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरती हे, जैसी है।
बुद्ध कहते है, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारे हाथ छोटे है। तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलों। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया। बुद्ध ने तो कहा तुम तो बैठ जाओ,श्वास तो चल ही रही है। जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे?
आई एक बड़ी तरंग तो देखोगें और नहीं आई तरंग तो देखोगें। राह पर निकली कारें बसें तो देखोगें; गाय भैंस निकली तो देखोगें। जो भी है जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांशा आरोपित मत करना। शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते रहो, श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आँख के सामने से हमारा उससे कुछ लेना देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल ही नहीं है। आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे है, निष्पक्ष देख रहे है। श्वास की तरंग धीरे-धीरे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण भर सब रूक जाना….अनुभव करो। उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली फेफड़े सुकड़े लगे अनुभव करो उस सुड़कने को फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उतप्त श्वास नासा पुटों से बाहर जाती है। फिर क्षण भर सब ठहर जाता है। फिर नया स्वास आयी।
यह पड़ाव है, श्वास का भीतर आना,क्षण भर श्वास का भीतर ठहरना। फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण भर फिर श्वास का बाहर ठहरना। फिर नई श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने को कोई भी बात नहीं बस देखो। यहीं विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित के सारे रोग तिरोहित हो जाते है। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं,इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते। ही मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे। मगर गूंगे को गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुन सुनाओगे भीतर ही भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे। नाचो गे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह नहीं पाओगे।
ईश्वर समर्पण, ठीक ही हुआ। कहा तुमने; इतनी उड़ान अनुभव हुई। अब विपस्सना के सूत्र को पकड़ लो। अब इसी सूत्र के सहारे चल पड़ो। और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होगी। बस में बैठे ट्रेन में सफर करते। कार में यात्रा करते। राह के किनारे। दुकान पर, बाजार में घर में, बिस्तर पर लेटे। लिखते, पढ़ते खोते नहाते…किसी को पता भी न चले। क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चरण करना है। न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे……इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जायेगी उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अद्भुत आमंत्रण को समझोगे; इहि पस्सिको, आओ और देख लो।
बुद्ध कहते है: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते है; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते है। इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्ति दायी हे। मान्यताएं हिंदू बना देती है। मुसलमान बना देती है, ईसाई बना देती है। जैन बना देती है। बौद्ध बना देती है। दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान,न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्मा मय हो। ओर वही अनुभव पाना है। वहीं अनुभव पाने योग्य है। "
~ ओशो , 'मरौ हे जोगी मरौ' प्रवचनमाला से संकलित ♥...
Friday, March 1, 2013
मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है
अल्बर्ट आइंस्टीन ने खोज की और निश्चित ही यह सही होगी, क्योंकि
अंतरिक्ष के बारे में इस व्यक्ति ने बहुत कठोर परिश्रम किया था। उसकी खोज
बहुत गजब की है। उसने स्वयं ने कई महीनों तक इस खोज को अपने मन में रखी
और विज्ञान जगत को इसकी सूचना नहीं दी क्योंकि उसे भय था कि कोई उस पर
विश्वास नहीकरेगा। खोज ऐसी थी कि लोग सोचेंगे कि वह पागल हो गया है। परंतु
खोज इतनी महत्वपूर्ण थी की उसने अपनी बदनामी की कीमत पर जग जाहिर करने का तय किया।
खोज यह थी कि गुरुत्वाकर्षण के बाहर तुम्हारी उम्र बढ़नी रूक जाती है।
यदि आदमी दूर के किसी ग्रह पर जाए और उसे वहां तक पहुंचने में तीस साल लगे
और फिर तीस साल में नीचे आये, और जब उसने पृथ्वी को छोड़ा था उसकी उम्र
तीस साल थी, तब यदि तुम सोचो कि जब वह पुन: आए तब वह नब्बे साल का होगा,
तो तुम गलत हो, वह अब भी तीस साल का ही होगा। उसके सभी दोस्त और संगी साथी
कब्र में जा चुके होंगे। शायद एक या दो अब भी जिंदा हो परंतु उनका एक पैर
कब्र में होगा। परंतु वह उतना ही जवान होगा जितना तब था जब उसने जमीन को
छोड़ा था।
जिस क्षण तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर जाते हो, उम्र की
प्रक्रिया रूक जाती है। उम्र बढ़ रही है तुम्हारे शरीर पर एक निश्चित
दबाव के कारण। जमीन लगातार तुम्हें खींच रही है और तुम इस खिंचाव से लड़
रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा इस खींच रही है और तुम इस खिंचाव से लड़ रहे हो।
तुम्हारी ऊर्जा इस खिंचाव सक बाधित होती है। व्यय होती है। परंतु एक बार
जब तुम इस जमीन के गुरुत्वाकर्षण से बहार हो जाते हो तुम वैसे ही बने रहते
हो जैसे हो। तुम अपने समसामयिक लोगों को नहीं पाओगे, तुम वह फैशन नहीं
पाओगे जो तुमने छोड़ी थी। तुम पाओगे कि साठ साल बीत गये।
परंतु
गुरुत्वाकर्षण के बाहर होने की अनुभूति ध्यान में भी पाई जा सकती है—ऐसा
होता है। और यह कई लोगों को भटका देती है। अपनी बंद आँखो के साथ जब तुम
पूरी तरह से मौन हो तुम गुरुत्वाकर्षण के बाहर हो। परंतु मात्र तुम्हारा
मौन गुरुत्वाकर्षण के बाहर है, तुम्हारा शरीर नहीं। परंतु उस क्षण में जब
तुम अपने मौन से एकाकार होते हो, तुम महसूस करते हो कि तुम ऊपर उठ रहे हो।
इसे योग में ‘’हवा में उड़ना’’ कहते है।
और बिना आंखे खोले
तुम्हें लगेगा कि यह मात्र लगता ही नहीं बल्कि तुम्हारा शरीर मौन
गुरुत्वाकर्षण के बाहर है—यह एक सच्चा अनुभव है। परंतु अभी भी तुम शरीर के
साथ एकाकार हो। तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा शरीर उठ रहा है। यदि तुम
आँख खोलोगे तो पाओगे कि तुम उसी आसन में जमीन पर बैठे हो।
ओशो
दि न्यू डॉन
" ओशो अमृत पत्र: ध्यान की गहराई के साथ ही संन्यास-चेतना का आगमन "
" मेरे प्रिय,
प्रेम, बहुमूल्य है तुम्हारा अनुभव।
जो चाहते थे वही हुआ है।
द्वार खुला है—जन्मों-जन्मों से बंद पड़ा द्वार।
इसलिए पीड़ा स्वभाविक है।
नया जन्म हुआ है तुम्हारा।
इसलिए, प्रसव से गुजरना पड़ा है।
भय जरा भी मन में न लाना।
भय हो तो मेरे स्मरण करना।
स्मरण के साथ ही भय तिरोहित हो जायेगा।
मेरी आंखे सदा ही तुम्हारी ओर हैं।
जो भी सहायता आवश्यकता होगी,
वह तत्काल पहुंच जाएगी।
आनंद भी बाढ़ की भांति आता है।
उससे भी न घबराना।
जब भी आनंद बढ़े तभी बस,
प्रभु को धन्यवाद देना और शांत रहना।
जब संन्यास का भाव बढ़ेगा।
उससे भी चिंतित मत होना।
अब तो संन्यास स्वयं ही आ जायेगा।
आ ही रहा है।
बादल तो घिर ही गए हैं।
बस, अब वर्षा होने को ही है।
और ह्रदय की धरती तो सदा से ही प्यासी है। "
~ रजनीश के प्रणाम
25—1—1971
(प्रति : श्री सेवंतीलाल सी. शाह, अब स्वामी आनंद मुनि, अहमदाबाद गुजरात)
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