" मेरे प्रिय,
प्रेम, सोच-विचार कैसा?
क्षण का भी तो भरोसा नहीं है।
समय तो प्रतिपल हाथ से चुकता ही जाता है।
और मृत्यु न पूछकर आती है।
न बताकर ही।
फिर संन्यास का अर्थ है :सहज जीवन।
वह आरोपण नहीं; विपरीत समस्त आरोपणों से मुक्ति है।
संन्यास तुम्हारा निर्णय भी नहीं है।
वह तो तुम से ही छुटकारा जो है।
संन्यास संकल्प नहीं, समर्पण है। "
~ रजनीश के प्रणाम
22—1—1971
(प्रति : श्री शिव, अब स्वामी अगेह भारती, जबलपुर, म. प्र.)
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