पहली कोटि, जिससे सौ मैं निन्यानबे लोग
परिचित हैं--काम का अर्थ है, दूसरे से लेना लेकिन देना नहीं। वासना लेती
है, देती नहीं। मांगती है, प्रत्युत्तर
नहीं देती। वासना शोषण है। अगर देने का बहाना करना पड़े तो करती है। या
देने का दिखावा भी करना पड़े तो भी करती है। क्योंकि मिलेगा नहीं। तो
तुम्हारा जो प्रेम है वह दिखावा है। वस्तुतः तुम देना नहीं चाहते, तुम लेना
चाहते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें कोई प्रेम नहीं करता। मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है, कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। सवाल यह है, कि तुम किसी को प्रेम करते हो?
इसका उन्हें खयाल ही नहीं है। इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया। वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं। इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो। कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता। पत्नियां मेरे पास आती हैं वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते, पति आते हैं वे कहते हैं, पत्नियां प्रेम नहीं करतीं।
काम-वासना मांगती है। देना नहीं चाहती। काम-वासना कृपण है।इकट्ठा करती है, बांटना नहीं चाहती। शोषण है।
और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों, तो बड़ी अढ़न हो जाती है। दोनों ही भिखारी हैं। दोनों मांग रहे हैं। देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, कि मैं दे रहा हूं। लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है? इसलिए काम-वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा। उसमें सुख नहीं हो सकता। उसमें सुख की संभावना ही हनीं है।
जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है, उसके तीन रूप हैं। पहला काम, जिसमें तुम मांगते हो और भिखारी होते हो। और देने से डरते हो, देते नहीं। या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो, ताकि मिल सके। अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है। वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं। वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है। लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के। मछली आटा पकड़ने आएगी, कांटे में फंसेंगी।
तुम अगर देते हो तो बस इतना ही, कि आटा बन जाए। दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में। पर मजा यह है, कि दूसरा भी मछलीमार है। उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है। और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में, तो उसको तुम विवाह कहते हो। दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया।
इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है--जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया। लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है। इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं? असंभव। तुम नीम के बीज बोते हो और आम की अपेक्षा करते हो। यह नहीं होगा। यह नहीं हो सकता है।
दूसरा रूप है, प्रेम का अर्थ है जितना लेना, उतना देना। वह सीधा-साफ-सुथरा सौदा है। काम शोषण है, प्रेम शोषण नहीं है। वह जितना लेता है उतना देता है। हिसाब साफ है। इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ अशांति, चित, संताप। प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। एक संतुलन होता है जीवन में। जितना लिया, उतना दिया। जितना दिया, उतना पा लिया, हिसाब-किताब साफ होता है।
प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती। एक गहरी मित्रता होती है। सब साफ है। लेना देना बाकी नहीं है। क्रोध भी नहीं है। क्योंकि जितना दिया, उतना पाया। कुछ विषाद भी नहीं है। न कुछ लेने को है, न कुछ देने को है। हिसाब-किताब साफ है। प्रेमी साफ-सुथरे होते हैं।
ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ। पति पत्नी के बीच कभी घटती है, मुश्किल से घटती है। क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है। लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है। और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी, तो वे भी मित्र हो जाते हैं। उनके बीच पति-पत्नी का संबंध नहीं रह जाता। एक मैत्री का संबंध हो जाता है, जहां कोई विषाद नहीं है। न कोई मन में पश्चात्ताप है। न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया।
प्रेम का तीसरा रूप है, भक्ति। जिसमें सिर्फ भक्त देता है। लेने की बात ही नहीं करता। काम से ठीक उलटी है भक्ति। और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम। कामी दुखी होता है। भक्त आनंदित होता है। प्रेमी शांत होता है। इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना।
भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है। दूसरा विरोधी छोर है। वहां भक्त देता है, सब देता है। अपने को पूरा दे देता है। कुछ बचाता ही नहीं पीछे। इसी को तो हम समर्पण कहते हैं। अपने को भी नहीं बचाता। देनेवाले को भी बचाता। उसको भी दे डालता है।
और मांगता कुछ भी नहीं। न बैकुंठ मांगता है, न स्वर्ग मांगता है। मांगता कुछ भी नहीं। मांग उठी, कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है। काम हो जाती है। अगर उतना भी दिया जितना परमात्मा देता है, तो भी भक्ति भक्ति नहीं है, प्रेम ही हो जाती है। भक्ति तो तभी भक्ति है जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है।
ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं। भक्त को जितना मिलता है उतना किसी को नहीं मिलता। उसी को मिलता है। लेकिन उसकी मांग नहीं है। छिपी हुई मांग भी नहीं है। वह सिर्फ उड़ेल देता है। अपने को पूरा दे देता है। और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है। लेकिन वह परिणाम है। वह उसकी आकांक्षा नहीं है। वह उसने कभी चाहा न था।
इसलिए भक्त सदा कहता है, कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला। अनुग्रह से मिला। मैंने कभी मांगा न था। उसने दिया है। मैं अपात्र था। फिर भी उसने भर दिया मुझे। मेरे पात्र को पूरा कर दिया है। मैं योग्य न था। मेरी क्या योग्यता थी? उसने स्वीकार किया, यह भी काफी था। वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता? कोई अपील न थी। क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी। भक्त अपने को दे देता है। समग्र भाव से, परिपूर्ण भाव से।
और जितना अपने को दे देता है, उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है। बहुत पा लेता है। अनंत पा लेता है। सब पा लेता है, जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है, जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, सब उसे मिल जाता है। वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें कोई प्रेम नहीं करता। मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है, कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। सवाल यह है, कि तुम किसी को प्रेम करते हो?
इसका उन्हें खयाल ही नहीं है। इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया। वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं। इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो। कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता। पत्नियां मेरे पास आती हैं वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते, पति आते हैं वे कहते हैं, पत्नियां प्रेम नहीं करतीं।
काम-वासना मांगती है। देना नहीं चाहती। काम-वासना कृपण है।इकट्ठा करती है, बांटना नहीं चाहती। शोषण है।
और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों, तो बड़ी अढ़न हो जाती है। दोनों ही भिखारी हैं। दोनों मांग रहे हैं। देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, कि मैं दे रहा हूं। लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है? इसलिए काम-वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा। उसमें सुख नहीं हो सकता। उसमें सुख की संभावना ही हनीं है।
जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है, उसके तीन रूप हैं। पहला काम, जिसमें तुम मांगते हो और भिखारी होते हो। और देने से डरते हो, देते नहीं। या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो, ताकि मिल सके। अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है। वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं। वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है। लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के। मछली आटा पकड़ने आएगी, कांटे में फंसेंगी।
तुम अगर देते हो तो बस इतना ही, कि आटा बन जाए। दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में। पर मजा यह है, कि दूसरा भी मछलीमार है। उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है। और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में, तो उसको तुम विवाह कहते हो। दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया।
इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है--जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया। लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है। इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं? असंभव। तुम नीम के बीज बोते हो और आम की अपेक्षा करते हो। यह नहीं होगा। यह नहीं हो सकता है।
दूसरा रूप है, प्रेम का अर्थ है जितना लेना, उतना देना। वह सीधा-साफ-सुथरा सौदा है। काम शोषण है, प्रेम शोषण नहीं है। वह जितना लेता है उतना देता है। हिसाब साफ है। इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ अशांति, चित, संताप। प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। एक संतुलन होता है जीवन में। जितना लिया, उतना दिया। जितना दिया, उतना पा लिया, हिसाब-किताब साफ होता है।
प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती। एक गहरी मित्रता होती है। सब साफ है। लेना देना बाकी नहीं है। क्रोध भी नहीं है। क्योंकि जितना दिया, उतना पाया। कुछ विषाद भी नहीं है। न कुछ लेने को है, न कुछ देने को है। हिसाब-किताब साफ है। प्रेमी साफ-सुथरे होते हैं।
ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ। पति पत्नी के बीच कभी घटती है, मुश्किल से घटती है। क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है। लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है। और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी, तो वे भी मित्र हो जाते हैं। उनके बीच पति-पत्नी का संबंध नहीं रह जाता। एक मैत्री का संबंध हो जाता है, जहां कोई विषाद नहीं है। न कोई मन में पश्चात्ताप है। न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया।
प्रेम का तीसरा रूप है, भक्ति। जिसमें सिर्फ भक्त देता है। लेने की बात ही नहीं करता। काम से ठीक उलटी है भक्ति। और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम। कामी दुखी होता है। भक्त आनंदित होता है। प्रेमी शांत होता है। इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना।
भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है। दूसरा विरोधी छोर है। वहां भक्त देता है, सब देता है। अपने को पूरा दे देता है। कुछ बचाता ही नहीं पीछे। इसी को तो हम समर्पण कहते हैं। अपने को भी नहीं बचाता। देनेवाले को भी बचाता। उसको भी दे डालता है।
और मांगता कुछ भी नहीं। न बैकुंठ मांगता है, न स्वर्ग मांगता है। मांगता कुछ भी नहीं। मांग उठी, कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है। काम हो जाती है। अगर उतना भी दिया जितना परमात्मा देता है, तो भी भक्ति भक्ति नहीं है, प्रेम ही हो जाती है। भक्ति तो तभी भक्ति है जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है।
ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं। भक्त को जितना मिलता है उतना किसी को नहीं मिलता। उसी को मिलता है। लेकिन उसकी मांग नहीं है। छिपी हुई मांग भी नहीं है। वह सिर्फ उड़ेल देता है। अपने को पूरा दे देता है। और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है। लेकिन वह परिणाम है। वह उसकी आकांक्षा नहीं है। वह उसने कभी चाहा न था।
इसलिए भक्त सदा कहता है, कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला। अनुग्रह से मिला। मैंने कभी मांगा न था। उसने दिया है। मैं अपात्र था। फिर भी उसने भर दिया मुझे। मेरे पात्र को पूरा कर दिया है। मैं योग्य न था। मेरी क्या योग्यता थी? उसने स्वीकार किया, यह भी काफी था। वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता? कोई अपील न थी। क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी। भक्त अपने को दे देता है। समग्र भाव से, परिपूर्ण भाव से।
और जितना अपने को दे देता है, उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है। बहुत पा लेता है। अनंत पा लेता है। सब पा लेता है, जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है, जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, सब उसे मिल जाता है। वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है।
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