Saturday, June 22, 2013

प्रेम की तीन कोटियां हैं।

पहली कोटि, जिससे सौ मैं निन्यानबे लोग परिचित हैं--काम का अर्थ है, दूसरे से लेना लेकिन देना नहीं। वासना लेती है, देती नहीं। मांगती है, प्रत्युत्तर नहीं देती। वासना शोषण है। अगर देने का बहाना करना पड़े तो करती है। या देने का दिखावा भी करना पड़े तो भी करती है। क्योंकि मिलेगा नहीं। तो तुम्हारा जो प्रेम है वह दिखावा है। वस्तुतः तुम देना नहीं चाहते, तुम लेना चाहते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें कोई प्रेम नहीं करता। मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है, कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। सवाल यह है, कि तुम किसी को प्रेम करते हो?
इसका उन्हें खयाल ही नहीं है। इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया। वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं। इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो। कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता। पत्नियां मेरे पास आती हैं वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते, पति आते हैं वे कहते हैं, पत्नियां प्रेम नहीं करतीं।
काम-वासना मांगती है। देना नहीं चाहती। काम-वासना कृपण है।इकट्ठा करती है, बांटना नहीं चाहती। शोषण है।

और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों, तो बड़ी अढ़न हो जाती है। दोनों ही भिखारी हैं। दोनों मांग रहे हैं। देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, कि मैं दे रहा हूं। लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है? इसलिए काम-वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा। उसमें सुख नहीं हो सकता। उसमें सुख की संभावना ही हनीं है।
जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है, उसके तीन रूप हैं। पहला काम, जिसमें तुम मांगते हो और भिखारी होते हो। और देने से डरते हो, देते नहीं। या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो, ताकि मिल सके। अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है। वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं। वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है। लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के। मछली आटा पकड़ने आएगी, कांटे में फंसेंगी।
तुम अगर देते हो तो बस इतना ही, कि आटा बन जाए। दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में। पर मजा यह है, कि दूसरा भी मछलीमार है। उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है। और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में, तो उसको तुम विवाह कहते हो। दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया।
इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है--जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया। लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है। इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं? असंभव। तुम नीम के बीज बोते हो और आम की अपेक्षा करते हो। यह नहीं होगा। यह नहीं हो सकता है।

दूसरा रूप है, प्रेम का अर्थ है जितना लेना, उतना देना। वह सीधा-साफ-सुथरा सौदा है। काम शोषण है, प्रेम शोषण नहीं है। वह जितना लेता है उतना देता है। हिसाब साफ है। इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ अशांति, चित, संताप। प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। एक संतुलन होता है जीवन में। जितना लिया, उतना दिया। जितना दिया, उतना पा लिया, हिसाब-किताब साफ होता है।

प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती। एक गहरी मित्रता होती है। सब साफ है। लेना देना बाकी नहीं है। क्रोध भी नहीं है। क्योंकि जितना दिया, उतना पाया। कुछ विषाद भी नहीं है। न कुछ लेने को है, न कुछ देने को है। हिसाब-किताब साफ है। प्रेमी साफ-सुथरे होते हैं।

ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ। पति पत्नी के बीच कभी घटती है, मुश्किल से घटती है। क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है। लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है। और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी, तो वे भी मित्र हो जाते हैं। उनके बीच पति-पत्नी का संबंध नहीं रह जाता। एक मैत्री का संबंध हो जाता है, जहां कोई विषाद नहीं है। न कोई मन में पश्चात्ताप है। न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया।

प्रेम का तीसरा रूप है, भक्ति। जिसमें सिर्फ भक्त देता है। लेने की बात ही नहीं करता। काम से ठीक उलटी है भक्ति। और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम। कामी दुखी होता है। भक्त आनंदित होता है। प्रेमी शांत होता है। इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना।
भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है। दूसरा विरोधी छोर है। वहां भक्त देता है, सब देता है। अपने को पूरा दे देता है। कुछ बचाता ही नहीं पीछे। इसी को तो हम समर्पण कहते हैं। अपने को भी नहीं बचाता। देनेवाले को भी बचाता। उसको भी दे डालता है।
और मांगता कुछ भी नहीं। न बैकुंठ मांगता है, न स्वर्ग मांगता है। मांगता कुछ भी नहीं। मांग उठी, कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है। काम हो जाती है। अगर उतना भी दिया जितना परमात्मा देता है, तो भी भक्ति भक्ति नहीं है, प्रेम ही हो जाती है। भक्ति तो तभी भक्ति है जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है।
ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं। भक्त को जितना मिलता है उतना किसी को नहीं मिलता। उसी को मिलता है। लेकिन उसकी मांग नहीं है। छिपी हुई मांग भी नहीं है। वह सिर्फ उड़ेल देता है। अपने को पूरा दे देता है। और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है। लेकिन वह परिणाम है। वह उसकी आकांक्षा नहीं है। वह उसने कभी चाहा न था।

इसलिए भक्त सदा कहता है, कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला। अनुग्रह से मिला। मैंने कभी मांगा न था। उसने दिया है। मैं अपात्र था। फिर भी उसने भर दिया मुझे। मेरे पात्र को पूरा कर दिया है। मैं योग्य न था। मेरी क्या योग्यता थी? उसने स्वीकार किया, यह भी काफी था। वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता? कोई अपील न थी। क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी। भक्त अपने को दे देता है। समग्र भाव से, परिपूर्ण भाव से।
और जितना अपने को दे देता है, उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है। बहुत पा लेता है। अनंत पा लेता है। सब पा लेता है, जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है, जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, सब उसे मिल जाता है। वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है।

Friday, June 21, 2013

नए शरीरों को ग्रहण करती है, वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा –ओशो

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।

और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।


वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढ़ा हो? ऐसा जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया?
नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है--ऐसा मुझे पता चल रहा है।
नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं।
कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है?
पिछले महायुद्ध में एक बहुत अदभुत घटना घटी। फ्रांस में एक अस्पताल में एक आदमी भरती हुआ--युद्ध में बहुत आहत, चोट खाकर। उसका पूरा का पूरा पैर जख्मी हो गया। अंगूठे में उसे भयंकर पीड़ा है। चीखता है, चिल्लाता है, बेहोश हो जाता है। होश आता है, फिर चीखता और चिल्लाता है। रात उसे डाक्टरों ने बेहोश करके घुटने से नीचे का पूरा पैर काट डाला। क्योंकि उसके पूरे शरीर के विषाक्त हो जाने का डर था।
चौबीस घंटे बाद वह होश में आया। होश में आते ही उसने चीख मारी। उसने कहा, मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है! अंगूठा अब था ही नहीं। पास खड़ी नर्स हंसी और उसने कहा, जरा सोचकर कहिए। सच, अंगूठे में दर्द हो रहा है? उसने कहा, क्या मजाक कर रहा हूं? अंगूठे में मुझे बहुत भयंकर दर्द हो रहा है। कंबल पड़ा है उसके पैर पर, उसे दिखाई तो पड़ता नहीं।
उस नर्स ने कहा, और जरा सोचिए, थोड़ा भीतर खोज-बीन करिए। उसने कहा, खोज-बीन की बात क्या है, दर्द इतना साफ है। नर्स ने कंबल उठाया और कहा, देखिए अंगूठा कहां है? अंगूठा तो नहीं था। आधा पैर ही नहीं था। पर उस आदमी ने कहा कि देख तो रहा हूं कि अंगूठा नहीं है, आधा पैर भी कट गया है, लेकिन दर्द फिर भी मुझे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो एक मुश्किल की बात हो गई। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों के सामने भी पहली दफा ऐसा सवाल आया था। जो अंगूठा नहीं है, उसमें दर्द कैसे हो सकता है? लेकिन फिर जांच-पड़ताल की, तो पता चला कि हो सकता है। जो अंगूठा नहीं है, उसमें भी दर्द हो सकता है। यह बड़ी मेटााफिजिकल बात हो गई, यह तो बड़ा अध्यात्म हो गया। डाक्टरों ने पूरी जांच-पड़ताल की, तो लिखा कि वह आदमी ठीक कह रहा है, दर्द उसे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो उस आदमी ने भी कहा कि क्या मजाक कर रहे हैं! पहले उन्होंने उससे कहा था, क्या मजाक कर रहे हो? फिर उस आदमी ने कहा कि कैसी मजाक कर रहे हैं! मैं जरूर किसी भ्रम में पड़ गया होऊंगा। लेकिन आप भी कहते हैं कि दर्द हो सकता है उस अंगूठे में, जो नहीं है! तो डाक्टरों ने कहा, हो सकता है। क्योंकि दर्द अंगूठे में होता है, पता कहीं और चलता है। अंगूठे और पता चलने की जगह में बहुत फासला है। जहां पता चलता है, वह चेतना है। जहां दर्द होता है, वह अंगूठा है। दर्द से चेतना तक संदेश लाने के लिए जिन स्नायुओं का काम रहता है, भूल से वे स्नायु अभी तक खबर दे रहे हैं कि दर्द हो रहा है।
जब अंगूठे में दर्द होता है, तो उससे जुड़े हुए स्नायुओं के तंतु कंपने शुरू हो जाते हैं। कंपन से ही वे खबर पहुंचाते हैं। जैसे टिक-टिक, टिक-टिक से टेलिग्राफ में खबर पहुंचाई जाती है, ऐसा ही कंपित होकर वे स्नायु खबर पहुंचाते हैं। कई हेड आफिसेज से गुजरती है वह खबर आपके मस्तिष्क तक आने में। फिर मस्तिष्क चेतना तक खबर पहुंचाता है। इसमें कई ट्रांसफार्मेशन होते हैं। कई कोड लैंग्वेज बदलती हैं। कई बार कोड बदलता है, क्योंकि इन सबकी भाषा अलग-अलग है।
तो कुछ ऐसा हुआ कि अंगूठा तो कट गया, लेकिन जो संदेशवाहक नाड़ियां खबर ले जा रही थीं, वे कंपती ही रहीं। वे कंपती रहीं, तो संदेश पहुंचता रहा। संदेश पहुंचता रहा और मस्तिष्क कहता रहा कि अंगूठे में दर्द हो रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है कि हम एक आदमी के पूरे शरीर को अलग कर लें और सिर्फ मस्तिष्क को निकाल लें? अब तो हो जाता है। पूरे शरीर को अलग किया जा सकता है। मस्तिष्क को बचाया जा सकता है, अकेले मस्तिष्क को। अगर एक आदमी को हम बेहोश करें और उसके पूरे शरीर को अलग करके उसके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में रख लें और अगर मस्तिष्क से हम पूछ सकें कि तुम्हारा शरीर के बाबत क्या खयाल है? तो वह कहेगा कि सब ठीक है। कहीं कोई दर्द नहीं हो रहा है। शरीर है ही नहीं। वह कहेगा, सब ठीक है।
शरीर का जो बोध है, वह कृष्ण कहते हैं, वस्त्र की भांति है। लेकिन वस्त्र ऐसा, जिससे हम इतने चिपट गए हैं कि वह वस्त्र नहीं रहा, हमारी चमड़ी हो गया। इतने जोर से चिपट गए हैं, इतना तादात्म्य है जन्मों-जन्मों का, कि शरीर ही मैं हूं, ऐसी ही हमारी पकड़ हो गई है। जब तक यह शरीर और मेरे बीच डिस्टेंस, फासला पैदा नहीं होता, तब तक कृष्ण का यह सूत्र समझ में नहीं आएगा कि जीर्ण वस्त्रों की भांति...।
यह, थोड़े-से प्रयोग करें, तो खयाल में आने लगेगा। बहुत ज्यादा प्रयोग नहीं, बहुत थोड़े-से प्रयोग। सत्य तो यही है, जो कहा जा रहा है। असत्य वह है, जो हम माने हुए हैं। लेकिन माने हुए असत्य वास्तविक सत्यों को छिपा देते हैं। माना हुआ है हमने, वह हमारी मान्यता है। और बचपन से हम सिखाते हैं और मान्यताएं घर करती चली जाती हैं।
हमने माना हुआ है कि मैं शरीर हूं। शरीर सुंदर होता है, तो हम मानते हैं, मैं सुंदर हूं। शरीर स्वस्थ होता है, तो हम मानते हैं, मैं स्वस्थ हूं। शरीर को कुछ होता है, तो हम मैं के साथ एक करके मानते हैं। फिर यह प्रतीति गहरी होती चली जाती है, यह स्मृति सघन हो जाती है। फिर शरीर वस्त्र नहीं रह जाता, हम ही वस्त्र हो जाते हैं।
एक मेरे मित्र हैं। वृद्ध हैं, सीढ़ियों से पैर फिसल पड़ा उनका। पैर में बहुत चोट पहुंची। कोई पचहत्तर साल के वृद्ध हैं। गया उनके गांव तो लोगों ने कहा, तो मैं उन्हें देखने गया। बहुत कराहते थे और डाक्टरों ने तीन महीने के लिए उनको बिस्तर पर सीधा बांध रखा था। और कहा कि तीन महीने हिलना-डुलना नहीं। सक्रिय आदमी हैं, पचहत्तर साल की उम्र में भी बिना भागे-दौड़े उन्हें चैन नहीं। तीन महीने तो उनको ऐसा अनंत काल मालूम होने लगा।
मैं मिलने गया, तो कोई छह-सात दिन हुए थे। रोने लगे। हिम्मतवर आदमी हैं। कभी आंख उनकी आंसुओं से भरेगी, मैंने सोचा नहीं था। एकदम असहाय हो गए और कहा कि इससे तो बेहतर है, मैं मर जाता। ये तीन महीने इस तरह बंधे हुए! यह तो बिलकुल नर्क हो गया। यह मैं न गुजार सकूंगा। मुझसे बोले, मेरे लिए प्रार्थना करिए कि भगवान मुझे उठा ही ले। अब जरूरत भी क्या है। अब काफी जी भी लिया। अब ये तीन महीने इस खाट पर बंधे-बंधे ज्यादा कठिन हो जाएंगे। तकलीफ भी बहुत है, पीड़ा भी बहुत है।
मैंने उनसे कहा, छोटा-सा प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और पहला तो यह काम करें कि तकलीफ कहां है, एक्जेक्ट पिन प्वाइंट करें कि तकलीफ कहां है। वे बोले, पूरे पैर में तकलीफ है। मैंने कहा कि थोड़ा आंख बंद करके खोज-बीन करें, सच में पूरे पैर में तकलीफ है?
क्योंकि आदमी को एग्जाजरेट करने की, बढ़ाने की आदत है। न तो इतनी तकलीफ होती है, न इतना सुख होता है। हम सब बढ़ाकर देखते हैं। आदमी के पास मैग्नीफाइंग माइंड है। उसके पास--जैसे कि कांच होता है न, चीजों को बड़ा करके बता देता है--ऐसी खोपड़ी है। हर चीज को बड़ा करके देखता है। कोई फूलमाला पहनाता है, तो वह समझता है कि भगवान हो गए। कोई जरा हंस देता है, तो वह समझता है कि गए, सब इज्जत पानी में मिल गई। मैग्नीफाइंग ग्लास का काम उसका दिमाग करता है।
मैंने कहा, जरा खोजें। मैं नहीं मानता कि पूरे पैर में दर्द हो सकता है। क्योंकि पूरे पैर में होता, तो पूरे शरीर में दिखाई पड़ता। जरा खोजें।
आंख बंद करके उन्होंने खोजना शुरू किया। पंद्रह मिनट बाद मुझसे कहा कि हैरानी की बात है। दर्द जितनी जगह फैला हुआ दिखाई पड़ता था, इतनी जगह है नहीं। बस, घुटने के ठीक पास मालूम पड़ता है। मैंने कहा, कितनी जगह घेरता होगा? उन्होंने कहा कि जैसे कोई एक बड़ी गेंद के बराबर जगह। मैंने कहा, और थोड़ा खोजें। और थोड़ा खोजें। उन्होंने फिर आंख बंद कर ली। और अब तो आश्वस्त थे, क्योंकि दर्द इतना सिकुड़ा कि सोचा भी नहीं था कि मन ने इतना फैलाया होगा। और खोजा। पंद्रह मिनट मैं बैठा रहा। वे खोजते चले गए।
फिर उन्होंने आंख नहीं खोली। चालीस मिनट, पैंतालीस मिनट--और उनका चेहरा मैं देख रहा हूं; और उनका चेहरा बदलता जा रहा है। कोई सत्तर मिनट बाद उन्होंने आंख खोली और कहा, आश्चर्य है कि वह तो ऐसा रह गया, जैसे कोई सुई चुभाता हो इतनी जगह में। फिर मैंने कहा, फिर क्या हुआ? आपको जवाब देना था; मुझे जल्दी जाना है; मैं सत्तर मिनट से बैठा हुआ हूं; आप आंख नहीं खोले। उन्होंने कहा कि जब वह इतना सिकुड़ गया कि ऐसा लगने लगा कि बस, एक जरा-सा बिंदु जहां पिन चुभाई जा रही हो, वहीं दर्द है, तो मैं उसे और गौर से देखने लगा। मैंने सोचा, जो इतना सिकुड़ सकता है, वह खो भी सकता है। और ऐसे क्षण आने लगे कि कभी मुझे लगे कि नहीं है। और कभी लगे कि है, कभी लगे कि खो गया। और एक क्षण लगे कि सब ठीक है, और एक क्षण लगे कि वापस आ गया।
फिर मैंने कहा कि फिर भी मुझे खबर कर देनी थी, तो मैं जाता। उन्होंने कहा, लेकिन एक और नई घटना घटी, जिसके लिए मैं सोच ही नहीं रहा था। वह घटना यह घटी कि जब मैंने इतने गौर से दर्द को देखा, तो मुझे लगा कि दर्द कहीं बहुत दूर है और मैं कहीं बहुत दूर हूं। दोनों के बीच बड़ा फासला है। तो मैंने कहा, अब ये तीन महीने इसका ही ध्यान करते रहें। जब भी दर्द हो, फौरन आंख बंद करें और ध्यान में लग जाएं।
तीन महीने बाद वे मुझे मिले तो उन्होंने पैर पकड़ लिए। फिर रोए, लेकिन अब आंसू आनंद के थे। और उन्होंने कहा, भगवान की कृपा है कि मरने के पहले तीन महीने खाट पर लगा दिया, अन्यथा मैं कभी आंख बंद करके बैठने वाला आदमी नहीं हूं। लेकिन इतना आनंद मुझे मिला है कि मैं जीवन में सिर्फ इसी घटना के लिए अनुगृहीत हूं परमात्मा का।
मैंने कहा, क्या हुआ आपको? उन्होंने कहा, यह दर्द को मिटाते-मिटाते मुझे पता चला कि दर्द तो जैसे दीवार पर हो रहा है घर की और मैं तो घर का मालिक हूं, बहुत अलग!
शरीर को भीतर से जानना पड़े, फ्राम दि इंटीरियर। हम अपने शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ फ्राम दि विदाउट, बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार दिखाई पड़ती है।
इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है।
और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।
लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा; यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती।
तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले जा रहे हैं।
ओशो,  गीता,chapter -2

खुजराहो -- आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स

तंत्र ने सेक्‍स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोणार्क के मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो की मूर्तियों देखी। तो आपको दो बातें अदभुत अनुभव होंगी। पहली तो बात यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उन में जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अग्‍ली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देख कर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है; कुछ गंदा है, कुछ बुरा है। बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति, एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स को जिन लोगों ने अनुभव किया था, उन शिल्‍पियों से निर्मित करवाई गई है।

उन प्रतिमाओं के चेहरों पर……आप एक सेक्‍स से भरे हुए आदमी को देखें, उसकी आंखें देखें,उसका चेहरा देखें, वह घिनौना, घबराने वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी। जो घबराने वाली और डराने वाली होगी। प्‍यारे से प्‍यारे आदमी को, अपने निकटतम प्‍यारे से प्‍यारे व्‍यक्‍ति को भी स्‍त्री जब सेक्‍स से भरा हुआ पास आता हुआ देखती है तो उसे दुश्‍मन दिखाई पड़ता है, मित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्‍यारी से प्‍यारी स्‍त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्‍स से भरा हुआ आता हुआ दिखाई देगा तो उसे आसे भीतर नरक दिखाई पड़ेगा, स्‍वर्ग नहीं दिखाई पड़ सकता।

लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देखकर ऐसा लगता है, जैसे बुद्ध का चेहरा हो, महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्‍की-सी शांति की झलक छूट जाएगी और कुछ भी नहीं। और एक आश्‍चर्य आपको अनुभव होगा।

आप सोचते होंगे कि नंगी तस्‍वीरें और मूर्तियां देखकर आपके भीतर कामुकता पैदा होगी,तो मैं आपसे कहता हूं, फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चले जाएं। खजुराहो पृथ्‍वी पर इस समय अनूठी चीज है। अध्यात मिक जगत में उस से उत्‍तम इस समय हमारे पास और कोई धरोहर उस के मुकाबले नहीं बची है।

लेकिन हमारे कई निति शास्‍त्री पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिटटी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्‍योंकि उनको देखने से वासना पैदा हो सकती है। मैं हैरान हो गया।

खजुराहो के मंदिर जिन्‍होंने बनाए थे, उनका ख्‍याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्‍य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्‍जेक्‍ट फार मेडि़टेशन रहीं हजारों वर्ष तक वे प्रतिमाएं ध्‍यान के लिए आब्‍जेक्‍ट का काम करती रही। जो लोग अति कामुक थ, उन्‍हें खजुराहो के मंदिर के पास भेजकर उन पर ध्‍यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्‍यान करों—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हाँ जाओ।

अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठ कर ध्‍यानमग्‍न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।

खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।

बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है, उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ, न कोई प्रयोजन है। वे निपट गँवारी के सबूत है। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण है।

जिस आदमी का भी मन सेक्‍स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन पर ध्‍यान करे और वह हल्‍का लौटेगा शांत लोटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्‍स को आध्‍यात्‍मिक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन इस मुल्‍क के नीति शास्त्री और मारल प्रीचर्स है उन दुष्‍टों ने उनकी बात को समाज तक पहुंचने नहीं दिया। वह मेरी बात भी पहुंचने देना नहीं चाहते है। मेरा चारों तरफ विरोध को कोई और कारण थोड़े ही है। लेकिन मैं न इन राजनितिगों से डरता हूं और न इन नीतिशास्‍त्रीयों से। जो सच है वो में कहता रहूंगा। उस की चाहे मुझे कुछ भी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़े।

–ओशो (संभोग से समाधि की ओर, प्रवचन—06).