Tuesday, October 7, 2014

FREE IDM REGISTRATION

OLD METHOD:


Step 1: the Latest IDM from Here or If you already have IDM installed Update it by going to Help then to check for Updates.If you don't wanna update your version, Just click on Registration.



Step2: After you click on registration, Now a new dialog window will appear that is asking for FirsName, Last Name, Address and Serial .


Step3: Now Enter you name, last name, email address and in field of Serial Key enter any of the following Keys:



RLDGN-OV9WU-5W589-6VZH1

HUDWE-UO689-6D27B-YM28M

UK3DV-E0MNW-MLQYX-GENA1

398ND-QNAGY-CMMZU-ZPI39

GZLJY-X50S3-0S20D-NFRF9

W3J5U-8U66N-D0B9M-54SLM

EC0Q6-QN7UH-5S3JB-YZMEK

UVQW0-X54FE-QW35Q-SNZF5

FJJTJ-J0FLF-QCVBK-A287M



And click on ok to register.



Step4: After you click ok, it will show an error that you have registered IDM using fake serial key and IDM will exit. Now here the hack starts.



Step5: Now Go to C:/ then Windows the System32 then Drivers and then etc.





Note : For Windows 7 , due to security reasons you will not be able to save hosts file.

so follow this steps :

First of all go to C:/ drive then go to Windows Folder and then go to System32 folder and then go to Drivers folder and then go to Etc Folder, in the Etc folder you will see the hosts file.





Step6 (windows 7 or vista): Now right click on hosts file and go to its , then go to security tab and then select your admin account, just below u will see an edit button (in front of change permissions), Now give the full control and write and read rights and then click on apply and then click on Ok, now u will be able to edit the hosts file and save changes in it.





Step7 (windows 7 or vista): For more Details Go To: ( How to edit Windows 7 or Vista Hosts File)


Open with Notepad



Now copy the below lines of code and add to hosts file as shown above box :



127.0.0.1 tonec.com

127.0.0.1 www.tonec.com

127.0.0.1 registeridm.com

127.0.0.1 www.registeridm.com

127.0.0.1 secure.registeridm.com

127.0.0.1 internetdownloadmanager.com

127.0.0.1 www.internetdownloadmanager.com

127.0.0.1 secure.internetdownloadmanager.com

127.0.0.1 mirror.internetdownloadmanager.com

127.0.0.1 mirror2.internetdownloadmanager.com



After adding these piece of code, save the notepad file. And exit from there.
Picture Showing saved IDM Codes in Hosts File


Now start your download manager, and now you IDM has been converted to full version and specially when you update next time, your registration will not expire.




That means it will remain full version for life time and you can update it without any problem in .



 This is the Picture proof of Successfully Hacked IDM:

Picture Showing Fully Registered Latest IDM



I hope you are now able to convert your Trial version of IDM into Full Version. If you have any problem in this tutorial on

Saturday, June 22, 2013

प्रेम की तीन कोटियां हैं।

पहली कोटि, जिससे सौ मैं निन्यानबे लोग परिचित हैं--काम का अर्थ है, दूसरे से लेना लेकिन देना नहीं। वासना लेती है, देती नहीं। मांगती है, प्रत्युत्तर नहीं देती। वासना शोषण है। अगर देने का बहाना करना पड़े तो करती है। या देने का दिखावा भी करना पड़े तो भी करती है। क्योंकि मिलेगा नहीं। तो तुम्हारा जो प्रेम है वह दिखावा है। वस्तुतः तुम देना नहीं चाहते, तुम लेना चाहते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें कोई प्रेम नहीं करता। मैं उनसे पूछता हूं कि यह कोई सवाल ही नहीं है, कि तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता। सवाल यह है, कि तुम किसी को प्रेम करते हो?
इसका उन्हें खयाल ही नहीं है। इस पर उन्होंने विचार ही नहीं किया। वे कहते हैं कि इस पर हमने सोचा ही नहीं। इसको तो तुम मान ही बैठे हो कि तुम प्रेम करते हो। कठिनाई यह है कि दूसरा तुम्हें प्रेम नहीं करता। पत्नियां मेरे पास आती हैं वे कहती हैं कि पति प्रेम नहीं करते, पति आते हैं वे कहते हैं, पत्नियां प्रेम नहीं करतीं।
काम-वासना मांगती है। देना नहीं चाहती। काम-वासना कृपण है।इकट्ठा करती है, बांटना नहीं चाहती। शोषण है।

और जब दो व्यक्ति, दोनों ही कामातुर हों, तो बड़ी अढ़न हो जाती है। दोनों ही भिखारी हैं। दोनों मांग रहे हैं। देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। और दोनों यह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, कि मैं दे रहा हूं। लेकिन यह धोखा कितनी देर चल सकता है? इसलिए काम-वासना से जुड़े लोगों का जीवन अनिवार्य रूपेण दुखपूर्ण हो जाएगा। उसमें सुख नहीं हो सकता। उसमें सुख की संभावना ही हनीं है।
जिस ऊर्जा का नाम प्रेम है, उसके तीन रूप हैं। पहला काम, जिसमें तुम मांगते हो और भिखारी होते हो। और देने से डरते हो, देते नहीं। या देने का का सिर्फ दिखावा करते हो, ताकि मिल सके। अगर थोड़ा बहुत कभी देना पड़ता है तो वह ऐसा ही जैसा कि मछली पकड़ने वाला कांटे में थोड़ा आटा लगा देता है। वह कोई मछली का पेट भरने को नहीं। वह कोई मछली को भोजन देने के लिए तैयारी नहीं कर रहा है। लेकिन कांटा चुभेगा नहीं बिना आटे के। मछली आटा पकड़ने आएगी, कांटे में फंसेंगी।
तुम अगर देते हो तो बस इतना ही, कि आटा बन जाए। दूसरा व्यक्ति फंस जाए तुम्हारे जाल में। पर मजा यह है, कि दूसरा भी मछलीमार है। उसने भी आटा कांटे पर लगा रखा है। और जब दोनों के कांटे फंस जाते हैं दोनों के मुंह में, तो उसको तुम विवाह कहते हो। दोनों ने एक दूसरे को धोखा दे दिया।
इसलिए जीवन भर क्रोध बना रहता है--जीवन भर कि दूसरे न धोखा दे दिया। लेकिन वही पीड़ा दूसरी की भी है। इस क्रोध में कैसे आनंद के फूल लग सकते हैं? असंभव। तुम नीम के बीज बोते हो और आम की अपेक्षा करते हो। यह नहीं होगा। यह नहीं हो सकता है।

दूसरा रूप है, प्रेम का अर्थ है जितना लेना, उतना देना। वह सीधा-साफ-सुथरा सौदा है। काम शोषण है, प्रेम शोषण नहीं है। वह जितना लेता है उतना देता है। हिसाब साफ है। इसलिए प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। कामी शांति को उपलब्ध नहीं होते, सिर्फ अशांति, चित, संताप। प्रेमी आनंद को तो उपलब्ध नहीं हो सकते लेकिन शांति को उपलब्ध होते हैं। एक संतुलन होता है जीवन में। जितना लिया, उतना दिया। जितना दिया, उतना पा लिया, हिसाब-किताब साफ होता है।

प्रेमियों के बीच में कलह नहीं होती। एक गहरी मित्रता होती है। सब साफ है। लेना देना बाकी नहीं है। क्रोध भी नहीं है। क्योंकि जितना दिया, उतना पाया। कुछ विषाद भी नहीं है। न कुछ लेने को है, न कुछ देने को है। हिसाब-किताब साफ है। प्रेमी साफ-सुथरे होते हैं।

ऐसी घटना अक्सर मित्रों के बीच घटती है । इसलिए मित्र बड़े शांत होते हैं मित्रों के साथ। पति पत्नी के बीच कभी घटती है, मुश्किल से घटती है। क्योंकि वहां काम ज्यादा प्रगाढ़ है। लेकिन दो मित्रों के बीच अक्सर घटती है। और अगर दो प्रेमी हो पति पत्नी, तो वे भी मित्र हो जाते हैं। उनके बीच पति-पत्नी का संबंध नहीं रह जाता। एक मैत्री का संबंध हो जाता है, जहां कोई विषाद नहीं है। न कोई मन में पश्चात्ताप है। न यह खयाल है कि किसी ने किसी को धोखा दिया।

प्रेम का तीसरा रूप है, भक्ति। जिसमें सिर्फ भक्त देता है। लेने की बात ही नहीं करता। काम से ठीक उलटी है भक्ति। और काम और भक्ति के बीच में है प्रेम। कामी दुखी होता है। भक्त आनंदित होता है। प्रेमी शांत होता है। इस पूरी बात को ठीक से समझ लेना।
भक्ति काम से बिलकुल उलटी घटना है। दूसरा विरोधी छोर है। वहां भक्त देता है, सब देता है। अपने को पूरा दे देता है। कुछ बचाता ही नहीं पीछे। इसी को तो हम समर्पण कहते हैं। अपने को भी नहीं बचाता। देनेवाले को भी बचाता। उसको भी दे डालता है।
और मांगता कुछ भी नहीं। न बैकुंठ मांगता है, न स्वर्ग मांगता है। मांगता कुछ भी नहीं। मांग उठी, कि भक्ति तत्क्षण पतित हो जाती है। काम हो जाती है। अगर उतना भी दिया जितना परमात्मा देता है, तो भी भक्ति भक्ति नहीं है, प्रेम ही हो जाती है। भक्ति तो तभी भक्ति है जब अशेष भाव से भक्त अपने को पूरा उड़ेल देता है।
ऐसा नहीं है कि भक्त को मिलता नहीं। भक्त को जितना मिलता है उतना किसी को नहीं मिलता। उसी को मिलता है। लेकिन उसकी मांग नहीं है। छिपी हुई मांग भी नहीं है। वह सिर्फ उड़ेल देता है। अपने को पूरा दे देता है। और परिणाम में परमात्मा पूरा उसे मिल जाता है। लेकिन वह परिणाम है। वह उसकी आकांक्षा नहीं है। वह उसने कभी चाहा न था।

इसलिए भक्त सदा कहता है, कि परमात्मा की अनुकंपा से मिला। अनुग्रह से मिला। मैंने कभी मांगा न था। उसने दिया है। मैं अपात्र था। फिर भी उसने भर दिया मुझे। मेरे पात्र को पूरा कर दिया है। मैं योग्य न था। मेरी क्या योग्यता थी? उसने स्वीकार किया, यह भी काफी था। वह इनकार भी कर देता तो मैं कहां अपील करने जाता? कोई अपील न थी। क्योंकि मेरी कोई योग्यता ही नहीं थी। भक्त अपने को दे देता है। समग्र भाव से, परिपूर्ण भाव से।
और जितना अपने को दे देता है, उतना ही परिपूर्ण परमात्मा उस पर बरस उठता है। बहुत पा लेता है। अनंत पा लेता है। सब पा लेता है, जो इस अस्तित्व में पाने योग्य है, जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, सब उसे मिल जाता है। वह इस अस्तित्व का शिखर हो जाता है।

Friday, June 21, 2013

नए शरीरों को ग्रहण करती है, वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा –ओशो

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। २२।।

और यदि तू कहे कि मैं तो शरीरों के वियोग का शोक करता हूं, तो यह भी उचित नहीं है; क्योंकि जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर, दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।


वस्त्रों की भांति, जीर्ण हो गए वस्त्रों की भांति शरीर को छोड़ती है आत्मा, नए शरीरों को ग्रहण करती है। लेकिन वस्त्रों की भांति! हमने कभी अपने शरीर को वस्त्र की भांति अनुभव किया? ऐसा जिसे हमने ओढ़ा हो? ऐसा जिसे हमने पहना हो? ऐसा जो हमारे बाहर हो? ऐसा जिसके हम भीतर हों? कभी हमने वस्त्र की तरह शरीर को अनुभव किया?
नहीं, हमने तो अपने को शरीर की तरह ही अनुभव किया है। जब भूख लगती है, तो ऐसा नहीं लगता कि भूख लगी है--ऐसा मुझे पता चल रहा है। ऐसा लगता है, मुझे भूख लगी। जब सिर में दर्द होता है, तो ऐसा नहीं लगता है कि सिर में दर्द हो रहा है--ऐसा मुझे पता चल रहा है।
नहीं, ऐसा लगता है, मेरे सिर में दर्द हो रहा है, मुझे दर्द हो रहा है। तादात्म्य, आइडेंटिटी गहरी है। ऐसा नहीं लगता कि मैं और शरीर ऐसा कुछ दो हैं। ऐसा लगता है, शरीर ही मैं हूं।
कभी आंख बंद करके यह देखा, शरीर की उम्र पचास वर्ष हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके दो क्षण सोचा, शरीर की उम्र पचास साल हुई, मेरी कितनी उम्र है? कभी आंख बंद करके चिंतन किया कि शरीर का तो ऐसा चेहरा है, मेरा कैसा चेहरा है? कभी सिर में दर्द हो रहा हो तो आंख बंद करके खोज-बीन की कि यह दर्द मुझे हो रहा है या मुझसे कहीं दूर हो रहा है?
पिछले महायुद्ध में एक बहुत अदभुत घटना घटी। फ्रांस में एक अस्पताल में एक आदमी भरती हुआ--युद्ध में बहुत आहत, चोट खाकर। उसका पूरा का पूरा पैर जख्मी हो गया। अंगूठे में उसे भयंकर पीड़ा है। चीखता है, चिल्लाता है, बेहोश हो जाता है। होश आता है, फिर चीखता और चिल्लाता है। रात उसे डाक्टरों ने बेहोश करके घुटने से नीचे का पूरा पैर काट डाला। क्योंकि उसके पूरे शरीर के विषाक्त हो जाने का डर था।
चौबीस घंटे बाद वह होश में आया। होश में आते ही उसने चीख मारी। उसने कहा, मेरे अंगूठे में बहुत दर्द हो रहा है! अंगूठा अब था ही नहीं। पास खड़ी नर्स हंसी और उसने कहा, जरा सोचकर कहिए। सच, अंगूठे में दर्द हो रहा है? उसने कहा, क्या मजाक कर रहा हूं? अंगूठे में मुझे बहुत भयंकर दर्द हो रहा है। कंबल पड़ा है उसके पैर पर, उसे दिखाई तो पड़ता नहीं।
उस नर्स ने कहा, और जरा सोचिए, थोड़ा भीतर खोज-बीन करिए। उसने कहा, खोज-बीन की बात क्या है, दर्द इतना साफ है। नर्स ने कंबल उठाया और कहा, देखिए अंगूठा कहां है? अंगूठा तो नहीं था। आधा पैर ही नहीं था। पर उस आदमी ने कहा कि देख तो रहा हूं कि अंगूठा नहीं है, आधा पैर भी कट गया है, लेकिन दर्द फिर भी मुझे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो एक मुश्किल की बात हो गई। चिकित्सक बुलाए गए। चिकित्सकों के सामने भी पहली दफा ऐसा सवाल आया था। जो अंगूठा नहीं है, उसमें दर्द कैसे हो सकता है? लेकिन फिर जांच-पड़ताल की, तो पता चला कि हो सकता है। जो अंगूठा नहीं है, उसमें भी दर्द हो सकता है। यह बड़ी मेटााफिजिकल बात हो गई, यह तो बड़ा अध्यात्म हो गया। डाक्टरों ने पूरी जांच-पड़ताल की, तो लिखा कि वह आदमी ठीक कह रहा है, दर्द उसे अंगूठे में हो रहा है।
तब तो उस आदमी ने भी कहा कि क्या मजाक कर रहे हैं! पहले उन्होंने उससे कहा था, क्या मजाक कर रहे हो? फिर उस आदमी ने कहा कि कैसी मजाक कर रहे हैं! मैं जरूर किसी भ्रम में पड़ गया होऊंगा। लेकिन आप भी कहते हैं कि दर्द हो सकता है उस अंगूठे में, जो नहीं है! तो डाक्टरों ने कहा, हो सकता है। क्योंकि दर्द अंगूठे में होता है, पता कहीं और चलता है। अंगूठे और पता चलने की जगह में बहुत फासला है। जहां पता चलता है, वह चेतना है। जहां दर्द होता है, वह अंगूठा है। दर्द से चेतना तक संदेश लाने के लिए जिन स्नायुओं का काम रहता है, भूल से वे स्नायु अभी तक खबर दे रहे हैं कि दर्द हो रहा है।
जब अंगूठे में दर्द होता है, तो उससे जुड़े हुए स्नायुओं के तंतु कंपने शुरू हो जाते हैं। कंपन से ही वे खबर पहुंचाते हैं। जैसे टिक-टिक, टिक-टिक से टेलिग्राफ में खबर पहुंचाई जाती है, ऐसा ही कंपित होकर वे स्नायु खबर पहुंचाते हैं। कई हेड आफिसेज से गुजरती है वह खबर आपके मस्तिष्क तक आने में। फिर मस्तिष्क चेतना तक खबर पहुंचाता है। इसमें कई ट्रांसफार्मेशन होते हैं। कई कोड लैंग्वेज बदलती हैं। कई बार कोड बदलता है, क्योंकि इन सबकी भाषा अलग-अलग है।
तो कुछ ऐसा हुआ कि अंगूठा तो कट गया, लेकिन जो संदेशवाहक नाड़ियां खबर ले जा रही थीं, वे कंपती ही रहीं। वे कंपती रहीं, तो संदेश पहुंचता रहा। संदेश पहुंचता रहा और मस्तिष्क कहता रहा कि अंगूठे में दर्द हो रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है कि हम एक आदमी के पूरे शरीर को अलग कर लें और सिर्फ मस्तिष्क को निकाल लें? अब तो हो जाता है। पूरे शरीर को अलग किया जा सकता है। मस्तिष्क को बचाया जा सकता है, अकेले मस्तिष्क को। अगर एक आदमी को हम बेहोश करें और उसके पूरे शरीर को अलग करके उसके मस्तिष्क को प्रयोगशाला में रख लें और अगर मस्तिष्क से हम पूछ सकें कि तुम्हारा शरीर के बाबत क्या खयाल है? तो वह कहेगा कि सब ठीक है। कहीं कोई दर्द नहीं हो रहा है। शरीर है ही नहीं। वह कहेगा, सब ठीक है।
शरीर का जो बोध है, वह कृष्ण कहते हैं, वस्त्र की भांति है। लेकिन वस्त्र ऐसा, जिससे हम इतने चिपट गए हैं कि वह वस्त्र नहीं रहा, हमारी चमड़ी हो गया। इतने जोर से चिपट गए हैं, इतना तादात्म्य है जन्मों-जन्मों का, कि शरीर ही मैं हूं, ऐसी ही हमारी पकड़ हो गई है। जब तक यह शरीर और मेरे बीच डिस्टेंस, फासला पैदा नहीं होता, तब तक कृष्ण का यह सूत्र समझ में नहीं आएगा कि जीर्ण वस्त्रों की भांति...।
यह, थोड़े-से प्रयोग करें, तो खयाल में आने लगेगा। बहुत ज्यादा प्रयोग नहीं, बहुत थोड़े-से प्रयोग। सत्य तो यही है, जो कहा जा रहा है। असत्य वह है, जो हम माने हुए हैं। लेकिन माने हुए असत्य वास्तविक सत्यों को छिपा देते हैं। माना हुआ है हमने, वह हमारी मान्यता है। और बचपन से हम सिखाते हैं और मान्यताएं घर करती चली जाती हैं।
हमने माना हुआ है कि मैं शरीर हूं। शरीर सुंदर होता है, तो हम मानते हैं, मैं सुंदर हूं। शरीर स्वस्थ होता है, तो हम मानते हैं, मैं स्वस्थ हूं। शरीर को कुछ होता है, तो हम मैं के साथ एक करके मानते हैं। फिर यह प्रतीति गहरी होती चली जाती है, यह स्मृति सघन हो जाती है। फिर शरीर वस्त्र नहीं रह जाता, हम ही वस्त्र हो जाते हैं।
एक मेरे मित्र हैं। वृद्ध हैं, सीढ़ियों से पैर फिसल पड़ा उनका। पैर में बहुत चोट पहुंची। कोई पचहत्तर साल के वृद्ध हैं। गया उनके गांव तो लोगों ने कहा, तो मैं उन्हें देखने गया। बहुत कराहते थे और डाक्टरों ने तीन महीने के लिए उनको बिस्तर पर सीधा बांध रखा था। और कहा कि तीन महीने हिलना-डुलना नहीं। सक्रिय आदमी हैं, पचहत्तर साल की उम्र में भी बिना भागे-दौड़े उन्हें चैन नहीं। तीन महीने तो उनको ऐसा अनंत काल मालूम होने लगा।
मैं मिलने गया, तो कोई छह-सात दिन हुए थे। रोने लगे। हिम्मतवर आदमी हैं। कभी आंख उनकी आंसुओं से भरेगी, मैंने सोचा नहीं था। एकदम असहाय हो गए और कहा कि इससे तो बेहतर है, मैं मर जाता। ये तीन महीने इस तरह बंधे हुए! यह तो बिलकुल नर्क हो गया। यह मैं न गुजार सकूंगा। मुझसे बोले, मेरे लिए प्रार्थना करिए कि भगवान मुझे उठा ही ले। अब जरूरत भी क्या है। अब काफी जी भी लिया। अब ये तीन महीने इस खाट पर बंधे-बंधे ज्यादा कठिन हो जाएंगे। तकलीफ भी बहुत है, पीड़ा भी बहुत है।
मैंने उनसे कहा, छोटा-सा प्रयोग करें। आंख बंद कर लें और पहला तो यह काम करें कि तकलीफ कहां है, एक्जेक्ट पिन प्वाइंट करें कि तकलीफ कहां है। वे बोले, पूरे पैर में तकलीफ है। मैंने कहा कि थोड़ा आंख बंद करके खोज-बीन करें, सच में पूरे पैर में तकलीफ है?
क्योंकि आदमी को एग्जाजरेट करने की, बढ़ाने की आदत है। न तो इतनी तकलीफ होती है, न इतना सुख होता है। हम सब बढ़ाकर देखते हैं। आदमी के पास मैग्नीफाइंग माइंड है। उसके पास--जैसे कि कांच होता है न, चीजों को बड़ा करके बता देता है--ऐसी खोपड़ी है। हर चीज को बड़ा करके देखता है। कोई फूलमाला पहनाता है, तो वह समझता है कि भगवान हो गए। कोई जरा हंस देता है, तो वह समझता है कि गए, सब इज्जत पानी में मिल गई। मैग्नीफाइंग ग्लास का काम उसका दिमाग करता है।
मैंने कहा, जरा खोजें। मैं नहीं मानता कि पूरे पैर में दर्द हो सकता है। क्योंकि पूरे पैर में होता, तो पूरे शरीर में दिखाई पड़ता। जरा खोजें।
आंख बंद करके उन्होंने खोजना शुरू किया। पंद्रह मिनट बाद मुझसे कहा कि हैरानी की बात है। दर्द जितनी जगह फैला हुआ दिखाई पड़ता था, इतनी जगह है नहीं। बस, घुटने के ठीक पास मालूम पड़ता है। मैंने कहा, कितनी जगह घेरता होगा? उन्होंने कहा कि जैसे कोई एक बड़ी गेंद के बराबर जगह। मैंने कहा, और थोड़ा खोजें। और थोड़ा खोजें। उन्होंने फिर आंख बंद कर ली। और अब तो आश्वस्त थे, क्योंकि दर्द इतना सिकुड़ा कि सोचा भी नहीं था कि मन ने इतना फैलाया होगा। और खोजा। पंद्रह मिनट मैं बैठा रहा। वे खोजते चले गए।
फिर उन्होंने आंख नहीं खोली। चालीस मिनट, पैंतालीस मिनट--और उनका चेहरा मैं देख रहा हूं; और उनका चेहरा बदलता जा रहा है। कोई सत्तर मिनट बाद उन्होंने आंख खोली और कहा, आश्चर्य है कि वह तो ऐसा रह गया, जैसे कोई सुई चुभाता हो इतनी जगह में। फिर मैंने कहा, फिर क्या हुआ? आपको जवाब देना था; मुझे जल्दी जाना है; मैं सत्तर मिनट से बैठा हुआ हूं; आप आंख नहीं खोले। उन्होंने कहा कि जब वह इतना सिकुड़ गया कि ऐसा लगने लगा कि बस, एक जरा-सा बिंदु जहां पिन चुभाई जा रही हो, वहीं दर्द है, तो मैं उसे और गौर से देखने लगा। मैंने सोचा, जो इतना सिकुड़ सकता है, वह खो भी सकता है। और ऐसे क्षण आने लगे कि कभी मुझे लगे कि नहीं है। और कभी लगे कि है, कभी लगे कि खो गया। और एक क्षण लगे कि सब ठीक है, और एक क्षण लगे कि वापस आ गया।
फिर मैंने कहा कि फिर भी मुझे खबर कर देनी थी, तो मैं जाता। उन्होंने कहा, लेकिन एक और नई घटना घटी, जिसके लिए मैं सोच ही नहीं रहा था। वह घटना यह घटी कि जब मैंने इतने गौर से दर्द को देखा, तो मुझे लगा कि दर्द कहीं बहुत दूर है और मैं कहीं बहुत दूर हूं। दोनों के बीच बड़ा फासला है। तो मैंने कहा, अब ये तीन महीने इसका ही ध्यान करते रहें। जब भी दर्द हो, फौरन आंख बंद करें और ध्यान में लग जाएं।
तीन महीने बाद वे मुझे मिले तो उन्होंने पैर पकड़ लिए। फिर रोए, लेकिन अब आंसू आनंद के थे। और उन्होंने कहा, भगवान की कृपा है कि मरने के पहले तीन महीने खाट पर लगा दिया, अन्यथा मैं कभी आंख बंद करके बैठने वाला आदमी नहीं हूं। लेकिन इतना आनंद मुझे मिला है कि मैं जीवन में सिर्फ इसी घटना के लिए अनुगृहीत हूं परमात्मा का।
मैंने कहा, क्या हुआ आपको? उन्होंने कहा, यह दर्द को मिटाते-मिटाते मुझे पता चला कि दर्द तो जैसे दीवार पर हो रहा है घर की और मैं तो घर का मालिक हूं, बहुत अलग!
शरीर को भीतर से जानना पड़े, फ्राम दि इंटीरियर। हम अपने शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ फ्राम दि विदाउट, बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार दिखाई पड़ती है।
इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है।
और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।
लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा; यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती।
तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले जा रहे हैं।
ओशो,  गीता,chapter -2

खुजराहो -- आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स

तंत्र ने सेक्‍स को स्प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोणार्क के मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो की मूर्तियों देखी। तो आपको दो बातें अदभुत अनुभव होंगी। पहली तो बात यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उन में जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अग्‍ली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देख कर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है; कुछ गंदा है, कुछ बुरा है। बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति, एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स को जिन लोगों ने अनुभव किया था, उन शिल्‍पियों से निर्मित करवाई गई है।

उन प्रतिमाओं के चेहरों पर……आप एक सेक्‍स से भरे हुए आदमी को देखें, उसकी आंखें देखें,उसका चेहरा देखें, वह घिनौना, घबराने वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी। जो घबराने वाली और डराने वाली होगी। प्‍यारे से प्‍यारे आदमी को, अपने निकटतम प्‍यारे से प्‍यारे व्‍यक्‍ति को भी स्‍त्री जब सेक्‍स से भरा हुआ पास आता हुआ देखती है तो उसे दुश्‍मन दिखाई पड़ता है, मित्र नहीं दिखाई पड़ता। प्‍यारी से प्‍यारी स्‍त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्‍स से भरा हुआ आता हुआ दिखाई देगा तो उसे आसे भीतर नरक दिखाई पड़ेगा, स्‍वर्ग नहीं दिखाई पड़ सकता।

लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देखकर ऐसा लगता है, जैसे बुद्ध का चेहरा हो, महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्‍की-सी शांति की झलक छूट जाएगी और कुछ भी नहीं। और एक आश्‍चर्य आपको अनुभव होगा।

आप सोचते होंगे कि नंगी तस्‍वीरें और मूर्तियां देखकर आपके भीतर कामुकता पैदा होगी,तो मैं आपसे कहता हूं, फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चले जाएं। खजुराहो पृथ्‍वी पर इस समय अनूठी चीज है। अध्यात मिक जगत में उस से उत्‍तम इस समय हमारे पास और कोई धरोहर उस के मुकाबले नहीं बची है।

लेकिन हमारे कई निति शास्‍त्री पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिटटी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्‍योंकि उनको देखने से वासना पैदा हो सकती है। मैं हैरान हो गया।

खजुराहो के मंदिर जिन्‍होंने बनाए थे, उनका ख्‍याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्‍य हो जाएगा। वे प्रतिमाएं आब्‍जेक्‍ट फार मेडि़टेशन रहीं हजारों वर्ष तक वे प्रतिमाएं ध्‍यान के लिए आब्‍जेक्‍ट का काम करती रही। जो लोग अति कामुक थ, उन्‍हें खजुराहो के मंदिर के पास भेजकर उन पर ध्‍यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्‍यान करों—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हाँ जाओ।

अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठ कर ध्‍यानमग्‍न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।

खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।

बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है, उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है, न कोई अर्थ, न कोई प्रयोजन है। वे निपट गँवारी के सबूत है। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूर अर्थपूर्ण है।

जिस आदमी का भी मन सेक्‍स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन पर ध्‍यान करे और वह हल्‍का लौटेगा शांत लोटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्‍स को आध्‍यात्‍मिक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन इस मुल्‍क के नीति शास्त्री और मारल प्रीचर्स है उन दुष्‍टों ने उनकी बात को समाज तक पहुंचने नहीं दिया। वह मेरी बात भी पहुंचने देना नहीं चाहते है। मेरा चारों तरफ विरोध को कोई और कारण थोड़े ही है। लेकिन मैं न इन राजनितिगों से डरता हूं और न इन नीतिशास्‍त्रीयों से। जो सच है वो में कहता रहूंगा। उस की चाहे मुझे कुछ भी कीमत क्‍यों न चुकानी पड़े।

–ओशो (संभोग से समाधि की ओर, प्रवचन—06).

Saturday, April 27, 2013

सम्भोग से समाधिकी और --ओशो

chapter-2

संभोग: अहं-शून्यता की झलक
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सुबह, अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुक कर उसने देखा, पत्थरों से भरा हुआ एक झोला पड़ा था। उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया, वह सुबह सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज उग आए, वह अपना जाल फेंके और मछलियां पकड़े। वह जो झोला उसे पड़ा हुआ मिल गया था, जिसमें पत्थर थे, वह एक-एक पत्थर निकाल कर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्नाटे में उन पत्थरों के गिरने की छपाक की आवाज सुनता, फिर दूसरा पत्थर फेंकता।

धीरे-धीरे सुबह का सूरज निकला, रोशनी हुई। तब तक उसने झोले के सारे पत्थर फेंक दिए थे, सिर्फ एक पत्थर उसके हाथ में रह गया था। सूरज की रोशनी में देखते से ही जैसे उसके हृदय की धड़कन बंद हो गई, सांस रुक गई। उसने जिन्हें पत्थर समझ कर फेंक दिया था, वे हीरे-जवाहरात थे! लेकिन अब तो अंतिम हाथ में बचा था टुकड़ा और वह पूरे झोले को फेंक चुका था। वह रोने लगा, चिल्लाने लगा। इतनी संपदा उसे मिल गई थी कि अनंत जन्मों के लिए काफी थी, लेकिन अंधेरे में, अनजान, अपरिचित, उसने उस सारी संपदा को पत्थर समझ कर फेंक दिया था।

लेकिन फिर भी वह मछुआ सौभाग्यशाली था, क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने के पहले सूरज निकल आया था और उसे दिखाई पड़ गया था कि उसके हाथ में हीरा है। साधारणतः सभी लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं होते हैं। जिंदगी बीत जाती है, सूरज नहीं निकलता, सुबह नहीं होती, रोशनी नहीं आती और सारे जीवन के हीरे हम पत्थर समझ कर फेंक चुके होते हैं।

जीवन एक बड़ी संपदा है, लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है! जीवन क्या है, यह भी पता नहीं चल पाता और हम उसे फेंक देते हैं! जीवन में क्या छिपा था--कौन से राज, कौन सा रहस्य, कौन सा स्वर्ग, कौन सा आनंद, कौन सी मुक्ति--उस सबका कोई भी अनुभव नहीं हो पाता और जीवन हमारे हाथ से रिक्त हो जाता है!

इन आने वाले तीन दिनों में जीवन की संपदा पर ये थोड़ी सी बातें मुझे कहनी हैं। लेकिन जो लोग जीवन की संपदा को पत्थर मान कर बैठ गए हैं, वे कभी आंख खोल कर देख पाएंगे कि जिन्हें उन्होंने पत्थर समझा है वे हीरे-माणिक हैं, यह बहुत कठिन है। और जिन लोगों ने जीवन को पत्थर मान कर फेंकने में ही समय गंवा दिया है, अगर आज उनसे कोई कहने जाए कि जिन्हें तुम पत्थर समझ कर फेंक रहे थे वहां हीरे-मोती भी थे, तो वे नाराज होंगे, क्रोध से भर जाएंगे। इसलिए नहीं कि जो बात कही गई वह गलत है, बल्कि इसलिए कि यह बात इस बात का स्मरण दिलाती है कि उन्होंने बहुत सी संपदा फेंक दी है।

लेकिन चाहे हमने कितनी ही संपदा फेंक दी हो, अगर एक क्षण भी जीवन का शेष है तो फिर भी हम कुछ बचा सकते हैं और कुछ जान सकते हैं और कुछ पा सकते हैं। जीवन की खोज में कभी भी इतनी देर नहीं होती कि कोई आदमी निराश होने का कारण पाए।

लेकिन हमने यह मान ही लिया है--अंधेरे में, अज्ञान में--कि जीवन में कुछ भी नहीं है सिवाय पत्थरों के! जो लोग ऐसा मान कर बैठ गए हैं, उन्होंने खोज के पहले ही हार स्वीकार कर ली है।

मैं इस हार के संबंध में, इस निराशा के संबंध में, इस मान ली गई पराजय के संबंध में सबसे पहली चेतावनी यह देना चाहता हूं कि जीवन मिट्टी और पत्थर नहीं है। जीवन में बहुत कुछ है। जीवन के मिट्टी-पत्थर के बीच भी बहुत कुछ छिपा है। अगर खोजने वाली आंखें हों, तो जीवन से वह सीढ़ी भी निकलती है जो परमात्मा तक पहुंचती है।

इस शरीर में भी--जो देखने पर हड्डी, मांस और चमड़ी से ज्यादा नहीं है--वह छिपा है जिसका हड्डी, मांस और चमड़ी से कोई भी संबंध नहीं है। इस साधारण सी देह में भी--जो आज जन्मती है, कल मर जाती है और मिट्टी हो जाती है--उसका वास है जो अमृत है, जो कभी जन्मता नहीं और कभी समाप्त भी नहीं होता है। रूप के भीतर अरूप छिपा है; और दृश्य के भीतर अदृश्य का वास है; और मृत्यु के कुहासे में अमृत की ज्योति छिपी हुई है। मृत्यु के धुएं में अमृत की लौ भी छिपी हुई है, वह फ्लेम, वह ज्योति भी छिपी हुई है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है।

लेकिन हम धुएं को देख कर ही वापस लौट आते हैं और ज्योति को नहीं खोज पाते हैं। या जो लोग थोड़ी हिम्मत करते हैं, वे धुएं में ही खो जाते हैं और ज्योति तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह यात्रा कैसे हो सकती है कि हम धुएं के भीतर छिपी हुई ज्योति को जान सकें, शरीर के भीतर छिपी हुई आत्मा को पहचान सकें, प्रकृति के भीतर छिपे हुए परमात्मा के दर्शन कर सकें? यह कैसे हो सकता है? उस संबंध में ही तीन चरणों में मुझे बात करनी है।

पहली बात, हमने जीवन के संबंध में ऐसे दृष्टिकोण बना लिए हैं, हमने जीवन के संबंध में ऐसी धारणाएं बना ली हैं, हमने जीवन के संबंध में ऐसा फलसफा खड़ा कर रखा है कि उस दृष्टिकोण और धारणा के कारण ही जीवन के सत्य को देखने से हम वंचित रह जाते हैं। हमने मान ही लिया है कि जीवन क्या है--बिना खोजे, बिना पहचाने, बिना जिज्ञासा किए। हमने जीवन के संबंध में कोई निश्चित बात ही समझ रखी है।

हजारों वर्षों से हमें एक ही बात मंत्र की तरह पढ़ाई जा रही है कि जीवन असार है, जीवन व्यर्थ है, जीवन दुख है। सम्मोहन की तरह हमारे प्राणों पर यह मंत्र दोहराया गया है कि जीवन व्यर्थ है, जीवन असार है, जीवन दुख है, जीवन छोड़ देने योग्य है। यह बात, सुन-सुन कर धीरे-धीरे हमारे प्राणों में पत्थर की तरह मजबूत होकर बैठ गई है। इस बात के कारण जीवन असार दिखाई पड़ने लगा है, जीवन दुख दिखाई पड़ने लगा है। इस बात के कारण जीवन ने सारा आनंद, सारा प्रेम, सारा सौंदर्य खो दिया है। मनुष्य एक कुरूपता बन गया है। मनुष्य एक दुख का अड्डा बन गया है।

और जब हमने यह मान ही लिया है कि जीवन व्यर्थ है, असार है, तो उसे सार्थक बनाने की सारी चेष्टा भी बंद हो गई हो तो आश्चर्य नहीं है। अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन एक कुरूपता है, तो उसके भीतर सौंदर्य की खोज कैसे हो सकती है? और अगर हमने यह मान ही लिया है कि जीवन सिर्फ छोड़ देने योग्य है, तो जिसे छोड़ ही देना है, उसे सजाना, उसे खोजना, उसे निखारना, इसकी कोई भी जरूरत नहीं है।

हम जीवन के साथ वैसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसा कोई आदमी स्टेशन पर विश्रामालय के साथ व्यवहार करता है, वेटिंग रूम के साथ व्यवहार करता है। वह जानता है कि क्षण भर हम इस वेटिंग रूम में ठहरे हुए हैं, क्षण भर बाद छोड़ देना है, इस वेटिंग रूम से प्रयोजन क्या है? अर्थ क्या है? वह वहां मूंगफली के छिलके भी डालता है, पान भी थूक देता है, गंदा भी करता है और फिर भी सोचता है, मुझे क्या प्रयोजन है? क्षण भर बाद मुझे चले जाना है।

जीवन के संबंध में भी हम इसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं। जहां से हमें क्षण भर बाद चले जाना है, वहां सुंदर और सत्य की खोज और निर्माण करने की जरूरत क्या है?

लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, जिंदगी जरूर हमें छोड़ कर चले जाना है, लेकिन जो असली जिंदगी है, उसे हमें कभी भी छोड़ने का कोई उपाय नहीं है। हम यह घर छोड़ देंगे, यह स्थान छोड़ देंगे; लेकिन जो जिंदगी का सत्य है, वह सदा हमारे साथ होगा, वह हम स्वयं हैं। स्थान बदल जाएंगे, मकान बदल जाएंगे, लेकिन जिंदगी? जिंदगी हमारे साथ होगी। उसके बदलने का कोई उपाय नहीं।

और सवाल यह नहीं है कि जहां हम ठहरे थे उसे हमने सुंदर किया था, जहां हम रुके थे वहां हमने प्रीतिकर हवा पैदा की थी, जहां हम दो क्षण को ठहरे थे वहां हमने आनंद का गीत गाया था। सवाल यह नहीं है कि वहां आनंद का गीत हमने गाया था। सवाल यह है कि जिसने आनंद का गीत गाया था, उसने भीतर आनंद की और बड़ी संभावनाओं के द्वार खोल लिए; जिसने उस मकान को सुंदर बनाया था, उसने और बड़े सौंदर्य को पाने की क्षमता उपलब्ध कर ली है; जिसने दो क्षण उस वेटिंग रूम में भी प्रेम के बिताए थे, उसने और बड़े प्रेम को पाने की पात्रता अर्जित कर ली है।

हम जो करते हैं, उसी से हम निर्मित होते हैं। हमारा कृत्य अंततः हमें निर्मित करता है, हमें बनाता है। हम जो करते हैं, वही धीरे-धीरे हमारे प्राण और हमारी आत्मा का निर्माता हो जाता है। जीवन के साथ हम क्या कर रहे हैं, इस पर निर्भर करेगा कि हम कैसे निर्मित हो रहे हैं। जीवन के साथ हमारा क्या व्यवहार है, इस पर निर्भर होगा कि हमारी आत्मा किन दिशाओं में यात्रा करेगी, किन मार्गों पर जाएगी, किन नये जगतों की खोज करेगी।

जीवन के साथ हमारा व्यवहार हमें निर्मित करता है--यह अगर स्मरण हो, तो शायद जीवन को असार, व्यर्थ मानने की दृष्टि हमें भ्रांत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन को दुखपूर्ण मानने की बात गलत मालूम पड़े, तो शायद हमें जीवन से विरोधी रुख अधार्मिक मालूम पड़े।

लेकिन अब तक धर्म के नाम पर जीवन का विरोध ही सिखाया गया है। सच तो यह है कि अब तक का सारा धर्म मृत्युवादी है, जीवनवादी नहीं। उसकी दृष्टि में, मृत्यु के बाद जो है वही महत्वपूर्ण है, मृत्यु के पहले जो है वह महत्वपूर्ण नहीं है! अब तक के धर्म की दृष्टि में मृत्यु की पूजा है, जीवन का सम्मान नहीं! जीवन के फूलों का आदर नहीं, मृत्यु के कुम्हला गए, जा चुके, मिट गए फूलों की कब्रों की प्रशंसा और श्रद्धा है! अब तक का सारा धर्म चिंतन करता है कि मृत्यु के बाद क्या है--स्वर्ग, मोक्ष! मृत्यु के पहले क्या है, उससे आज तक के धर्म को जैसे कोई संबंध नहीं रहा।

और मैं आपसे कहना चाहता हूं: मृत्यु के पहले जो है, अगर हम उसे ही सम्हालने में असमर्थ हैं, तो मृत्यु के बाद जो है उसे हम सम्हालने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते। मृत्यु के पहले जो है, अगर वही व्यर्थ छूट जाता है, तो मृत्यु के बाद कभी भी सार्थकता की कोई गुंजाइश, कोई पात्रता हम अपने में पैदा नहीं कर सकेंगे। मृत्यु की तैयारी भी, इस जीवन में जो आज पास है, मौजूद है, उसके द्वारा करनी है। मृत्यु के बाद भी अगर कोई लोक है, तो उस लोक में हमें उसी का दर्शन होगा, जो हमने जीवन में अनुभव किया है और निर्मित किया है। लेकिन जीवन को भुला देने की, जीवन को विस्मरण कर देने की बात ही अब तक कही गई है।

मैं आपसे कहना चाहता हूं: जीवन के अतिरिक्त न कोई परमात्मा है, न हो सकता है।

मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं: जीवन को साध लेना ही धर्म की साधना है और जीवन में ही परम सत्य को अनुभव कर लेना मोक्ष को उपलब्ध कर लेने की पहली सीढ़ी है। जो जीवन को ही चूक जाता है, वह और सब भी चूक जाएगा, यह निश्चित है।

लेकिन अब तक का रुख उलटा रहा है। वह रुख कहता है, जीवन को छोड़ो। वह रुख कहता है, जीवन को त्यागो। वह यह नहीं कहता कि जीवन में खोजो। वह यह नहीं कहता कि जीवन को जीने की कला सीखो। वह यह भी नहीं कहता कि जीवन को जीने के ढंग पर निर्भर करता है कि जीवन कैसा मालूम पड़ेगा। अगर जीवन अंधकारपूर्ण मालूम पड़ता है, तो वह जीने का गलत ढंग है। यही जीवन आनंद की वर्षा भी बन सकता है, अगर जीने का सही ढंग उपलब्ध हो जाए।

धर्म को मैं जीने की कला कहता हूं। वह आर्ट ऑफ लिविंग है।

धर्म जीवन का त्याग नहीं, जीवन की गहराइयों में उतरने की सीढ़ियां है।

धर्म जीवन की तरफ पीठ कर लेना नहीं, जीवन की तरफ पूरी तरह आंख खोलना है।

धर्म जीवन से भागना नहीं, जीवन को पूरा आलिंगन में लेने का नाम है।

धर्म है जीवन का पूरा साक्षात्कार।

यही शायद कारण है कि आज तक के धर्म में सिर्फ बूढ़े लोग ही उत्सुक रहे हैं। मंदिरों में जाएं, चर्चों में, गिरजाघरों में, गुरुद्वारों में--और वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां युवा दिखाई नहीं पड़ते, वहां छोटे बच्चे दिखाई नहीं पड़ते। क्या कारण है? एक ही कारण है। अब तक का हमारा धर्म सिर्फ बूढ़े का धर्म है। उन लोगों का धर्म है, जिनकी मौत करीब आ गई, और अब जो मौत से भयभीत हो गए हैं और मौत के बाद के चिंतन के संबंध में आतुर हैं और जानना चाहते हैं कि मौत के बाद क्या है।

जो धर्म मौत पर आधारित है, वह धर्म पूरे जीवन को कैसे प्रभावित कर सकेगा? जो धर्म मौत का चिंतन करता है, वह पृथ्वी को धार्मिक कैसे बना सकेगा? वह नहीं बना सका। पांच हजार वर्षों की धार्मिक शिक्षा के बाद भी पृथ्वी रोज अधार्मिक से अधार्मिक होती चली गई है। मंदिर हैं, मस्जिद हैं, चर्च हैं, पुजारी हैं, पुरोहित हैं, संन्यासी हैं, लेकिन पृथ्वी धार्मिक नहीं हो सकी है और नहीं हो सकेगी, क्योंकि धर्म का आधार ही गलत है। धर्म का आधार जीवन नहीं है, धर्म का आधार मृत्यु है। धर्म का आधार खिलते हुए फूल नहीं हैं, कब्रें हैं। जिस धर्म का आधार मृत्यु है, वह धर्म अगर जीवन के प्राणों को स्पंदित न कर पाता हो तो आश्चर्य क्या है? जिम्मेवारी किसकी है?

मैं इन तीन दिनों में जीवन के धर्म के संबंध में ही बात करना चाहता हूं और इसलिए पहला सूत्र समझ लेना जरूरी है। और इस सूत्र के संबंध में आज तक छिपाने की, दबाने की, भूल जाने की सारी चेष्टा की गई है; लेकिन जानने और खोजने की नहीं! और उस भूलने और विस्मृत कर देने की चेष्टा के दुष्परिणाम सारे जगत में व्याप्त हो गए हैं।

मनुष्य के सामान्य जीवन में केंद्रीय तत्व क्या है--परमात्मा? आत्मा? सत्य?

नहीं! मनुष्य के प्राणों में, सामान्य मनुष्य के प्राणों में, जिसने कोई खोज नहीं की, जिसने कोई यात्रा नहीं की, जिसने कोई साधना नहीं की, उसके प्राणों की गहराई में क्या है--प्रार्थना? पूजा?

नहीं, बिलकुल नहीं! अगर हम सामान्य मनुष्य की जीवन-ऊर्जा में खोज करें, उसकी जीवन-शक्ति को हम खोजने जाएं, तो न तो वहां परमात्मा दिखाई पड़ेगा, न पूजा, न प्रार्थना, न ध्यान। वहां कुछ और ही दिखाई पड़ेगा। और जो दिखाई पड़ेगा, उसे भुलाने की चेष्टा की गई है, उसे जानने और समझने की नहीं!

वहां क्या दिखाई पड़ेगा अगर हम आदमी के प्राणों को चीरें और फाड़ें और वहां खोजें? आदमी को छोड़ दें, अगर आदमी से इतर जगत की भी हम खोज-बीन करें, तो वहां प्राणों की गहराइयों में क्या मिलेगा? अगर हम एक पौधे की जांच-बीन करें, तो क्या मिलेगा? एक पौधा क्या कर रहा है?

एक पौधा पूरी चेष्टा कर रहा है नये बीज उत्पन्न करने की। एक पौधे के सारे प्राण, सारा रस, नये बीज इकट्ठे करने, जन्मने की चेष्टा कर रहा है।

एक पक्षी क्या कर रहा है? एक पशु क्या कर रहा है?

अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जाएं तो हम पाएंगे: सारी प्रकृति में एक ही, एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है और वह क्रिया है सतत सृजन की क्रिया। वह क्रिया है क्रिएशन की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनरुज्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को सम्हाल रहे हैं, फल बीज को सम्हाल रहे हैं। बीज क्या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा, फिर फूल बनेगा, फिर फल बनेगा। अगर हम सारे जीवन को देखें, तो जीवन जन्मने की एक अनंत क्रिया का नाम है। जीवन एक ऊर्जा है, जो स्वयं को पैदा करने के लिए सतत संलग्न है और सतत चेष्टाशील है।

आदमी के भीतर भी वही है। आदमी के भीतर उस सतत सृजन की चेष्टा का नाम हमने सेक्स दे रखा है, काम दे रखा है। इस नाम के कारण उस ऊर्जा को एक गाली मिल गई, एक अपमान। इस नाम के कारण एक निंदा का भाव पैदा हो गया है। मनुष्य के भीतर भी जीवन को जन्म देने की सतत चेष्टा चल रही है। हम उसे सेक्स कहते हैं, हम उसे काम की शक्ति कहते हैं।

लेकिन काम की शक्ति क्या है?

समुद्र की लहरें आकर टकरा रही हैं समुद्र के तट से हजारों-लाखों वर्षों से। लहरें चली आती हैं, टकराती हैं, लौट जाती हैं। फिर आती हैं, टकराती हैं, लौट जाती हैं। जीवन भी हजारों वर्षों से अनंत-अनंत लहरों में टकरा रहा है। जरूर जीवन कहीं उठना चाहता है। ये समुद्र की लहरें, जीवन की ये लहरें कहीं ऊपर पहुंचना चाहती हैं; लेकिन किनारों से टकराती हैं और नष्ट हो जाती हैं। फिर नई लहरें आती हैं, टकराती हैं और नष्ट हो जाती हैं। यह जीवन का सागर इतने अरबों वर्षों से टकरा रहा है, संघर्ष ले रहा है, रोज उठता है, गिर जाता है। क्या होगा प्रयोजन इसके पीछे? जरूर इसके पीछे कोई वृहत्तर ऊंचाइयां छूने का आयोजन चल रहा है। जरूर इसके पीछे कुछ और गहराइयां जानने का प्रयोजन चल रहा है। जरूर जीवन की सतत प्रक्रिया के पीछे कुछ और महानतर जीवन पैदा करने का प्रयास चल रहा है।

मनुष्य को जमीन पर आए बहुत दिन नहीं हुए, कुछ लाख वर्ष हुए। उसके पहले मनुष्य नहीं था, लेकिन पशु थे। पशुओं को आए हुए भी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ। एक जमाना था कि पशु भी नहीं थे, लेकिन पौधे थे। पौधों को आए भी बहुत समय नहीं हुआ। एक समय था कि पौधे भी नहीं थे, पत्थर थे, पहाड़ थे, नदियां थीं, सागर था।

पत्थर, पहाड़, नदियों की वह जो दुनिया थी, वह किस बात के लिए पीड़ित थी?

वह पौधों को पैदा करना चाहती थी। पौधे धीरे-धीरे पैदा हुए। जीवन ने एक नया रूप लिया। पृथ्वी हरियाली से भर गई। फूल खिले।

लेकिन पौधे भी अपने में तृप्त नहीं थे। वे सतत जीवन को जन्म देते रहे। उनकी भी कोई चेष्टा चल रही थी। वे पशुओं को, पक्षियों को जन्म देना चाहते थे।

पशु-पक्षी पैदा हुए। हजारों-लाखों वर्षों तक पशु-पक्षियों से भरा हुआ था यह जगत। लेकिन मनुष्य का कोई पता न था। पशुओं और पक्षियों के प्राणों के भीतर निरंतर मनुष्य भी निवास कर रहा था, पैदा होने की चेष्टा कर रहा था। फिर मनुष्य पैदा हुआ। अब मनुष्य किसलिए है?

मनुष्य निरंतर नये जीवन को पैदा करने के लिए आतुर है। हम उसे सेक्स कहते हैं, हम उसे काम की वासना कहते हैं, लेकिन उस वासना का मूल अर्थ क्या है? मूल अर्थ इतना है: मनुष्य अपने पर समाप्त नहीं होना चाहता, आगे भी जीवन को पैदा करना चाहता है। लेकिन क्यों? क्या मनुष्य के प्राणों में, मनुष्य से ऊपर किसी सुपरमैन को, किसी महामानव को पैदा करने की कोई चेष्टा चल रही है?

निश्चित ही चल रही है। निश्चित ही मनुष्य के प्राण इस चेष्टा में संलग्न हैं कि मनुष्य से श्रेष्ठतर जीवन जन्म पा सके, मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी आविर्भूत हो सके। नीत्शे से लेकर अरविंद तक, पतंजलि से लेकर बर्ट्रेंड रसेल तक, सारे मनुष्यों के प्राणों में एक कल्पना एक सपने की तरह बैठी रही है कि मनुष्य से बड़ा प्राणी कैसे पैदा हो सके!

लेकिन मनुष्य से बड़ा प्राणी पैदा कैसे होगा? हमने तो हजारों वर्ष से इस पैदा होने की कामना को ही निंदित कर रखा है। हमने तो सेक्स को सिवाय गाली के आज तक दूसरा कोई सम्मान नहीं दिया। हम तो बात करने में भयभीत होते हैं। हमने तो सेक्स को इस भांति छिपा कर रख दिया है जैसे वह है ही नहीं, जैसे उसका जीवन में कोई स्थान नहीं है। जब कि सच्चाई यह है कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण मनुष्य के जीवन में और कुछ भी नहीं है। लेकिन उसको छिपाया है, उसको दबाया है। दबाने और छिपाने से मनुष्य सेक्स से मुक्त नहीं हो गया, बल्कि मनुष्य और भी बुरी तरह से सेक्स से ग्रसित हो गया। दमन उलटे परिणाम लाया है।

शायद आपमें से किसी ने एक फ्रेंच वैज्ञानिक कुए के एक नियम के संबंध में सुना होगा। वह नियम है: लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। कुए ने एक नियम ईजाद किया है, विपरीत परिणाम का नियम। हम जो करना चाहते हैं, हम इस ढंग से कर सकते हैं कि जो हम परिणाम चाहते थे, उससे उलटा परिणाम हो जाए।

एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है, चौड़ा रास्ता है, एक छोटा सा पत्थर रास्ते के किनारे पड़ा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है कि मैं कहीं उस पत्थर से न टकरा जाऊं। अब इतना चौड़ा रास्ता है कि अगर आंख बंद करके भी वह चलाए, तो पत्थर से टकराना आसान बात नहीं है। इसके सौ में एक ही मौके हैं कि वह पत्थर से टकराए। इतने चौड़े रास्ते पर कहीं से भी निकल सकता है। लेकिन वह देख कर घबराता है--कहीं मैं पत्थर से टकरा न जाऊं! और जैसे ही वह घबराता है--मैं पत्थर से न टकरा जाऊं--सारा रास्ता विलीन हो गया, सिर्फ पत्थर ही दिखाई पड़ने लगता है उसको। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की तरफ मुड़ने लगता है। वह हाथ-पैर से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर को ही देखने लगती है। और एक सम्मोहित, हिप्नोटाइज्ड आदमी की तरह वह पत्थर की तरफ खिंचा जाता है और जाकर पत्थर से टकरा जाता है। नया साइकिल सीखने वाला उसी से टकरा जाता है जिससे बचना चाहता है! लैंप पोस्ट से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता, तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्खड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया?

कुए कहता है, हमारी चेतना का एक नियम है--लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट। हम जिस चीज से बचना चाहते हैं, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते हैं।

पांच हजार वर्षों से आदमी सेक्स से बचना चाह रहा है और परिणाम इतना हुआ है कि गली-कूचे, हर जगह, जहां भी आदमी जाता है, वहीं सेक्स से टकरा जाता है। वह लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।

क्या कभी आपने यह सोचा कि आप चित्त को जहां से बचाना चाहते हैं, चित्त वहीं आकर्षित हो जाता है, वहीं निमंत्रित हो जाता है! जिन लोगों ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है। मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है। और आज भी हम भयभीत होते हैं कि सेक्स की बात न की जाए! क्यों भयभीत होते हैं? भयभीत इसलिए होते हैं कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जाएंगे।

मैं आपको कहना चाहता हूं, यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वस्थ बातचीत करने में समर्थ हो जाएंगे। जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।

जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है, मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है, लेकिन सेक्स को समझ कर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर। उस ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जान कर उससे मुक्त हो सकता है। आंखें बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंख बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है, तो वे पागल हैं। मरुस्थल में शुतुरमुर्ग भी ऐसा ही सोचता है। दुश्मन हमले करते हैं तो शुतुरमुर्ग रेत में सिर छिपा कर खड़ा हो जाता है और सोचता है कि जब दुश्मन मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा तो दुश्मन नहीं है। लेकिन यह तर्क--शुतुरमुर्ग को हम क्षमा भी कर सकते हैं, आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता।

सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है आज तक। वह सोचता है, आंख बंद कर लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया।

अगर आंख बंद कर लेने से चीजें मिटती होतीं, तो बहुत आसान थी जिंदगी, बहुत आसान होती दुनिया। आंखें बंद करने से कुछ मिटता नहीं, बल्कि जिस चीज के संबंध में हम आंखें बंद करते हैं, हम प्रमाण देते हैं कि हम उससे भयभीत हो गए हैं, हम डर गए हैं। वह हमसे ज्यादा मजबूत है, उससे हम जीत नहीं सकते हैं, इसलिए हम आंख बंद करते हैं। आंख बंद करना कमजोरी का लक्षण है।

और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य-जाति आंख बंद करके बैठ गई है। न केवल आंख बंद करके बैठ गई है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम सारे जगत में ज्ञात हैं।

अगर सौ आदमी पागल होते हैं, तो उसमें से अट्ठानबे आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते हैं। अगर हजारों स्त्रियां हिस्टीरिया से परेशान हैं, तो उसमें सौ में से निन्यानबे स्त्रियों के हिस्टीरिया के, मिरगी के, बेहोशी के पीछे सेक्स की मौजूदगी है, सेक्स का दमन मौजूद है। अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत, इतना दुखी और पीड़ित है, तो इस पीड़ित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है, उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते हैं।

अगर हम मनुष्य का साहित्य उठा कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आए या चंद्रलोक से या मंगल ग्रह से कभी कोई यात्री आए और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविताएं पढ़े, हमारे चित्र देखे, तो बहुत हैरान हो जाएगा। वह हैरान हो जाएगा यह जान कर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स ही सेक्स पर क्यों केंद्रित है? आदमी की सारी कविताएं सेक्सुअल क्यों हैं? आदमी की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्स पर क्यों खड़े हैं? आदमी की हर किताब के ऊपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? आदमी की हर फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है? वह आदमी बहुत हैरान होगा; अगर कोई मंगल से आकर हमें इस हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचेगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा, बातचीत करेगा, तो बहुत हैरान हो जाएगा। आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की। सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा! और उसका सारा व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है! वह मंगल ग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बातचीत कभी नहीं की जाती जिस चीज की, उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा रही हैं?

आदमी को हमने परवर्ट किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। ब्रह्मचर्य की बात हम करते हैं। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाए, फिर उसे रूपांतरित करने के प्रयोग भी किए जा सकते हैं। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की, संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रुग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है! यह मनुष्य इतना रुग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था; इतना विषाक्त भी न था, इतना पायज़नस भी न था, इतना दुखी भी न था।

मैं एक अस्पताल के पास से निकलता था। मैंने एक तख्ते पर अस्पताल की एक सूचना लिखी हुई पढ़ी। लिखा था उस तख्ती पर--एक आदमी को बिच्छू ने काटा, उसका इलाज किया गया, वह एक दिन में ठीक होकर घर वापस चला गया है। एक दूसरे आदमी को सांप ने काटा था, उसका तीन दिन में इलाज किया गया, वह स्वस्थ होकर घर वापस लौट गया है। उस पर तीसरी सूचना थी कि एक और आदमी को पागल कुत्ते ने काट लिया था। उसका दस दिन से इलाज हो रहा है। वह काफी ठीक हो गया है और शीघ्र ही उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद है। और उस पर एक चौथी सूचना भी थी कि एक आदमी को एक आदमी ने काट लिया था। उसे कई सप्ताह हो गए, वह बेहोश है, और उसके ठीक होने की भी कोई उम्मीद नहीं है! मैं बहुत हैरान हुआ। आदमी का काटा हुआ इतना जहरीला हो सकता है?

लेकिन अगर हम आदमी की तरफ देखेंगे तो दिखाई पड़ेगा--आदमी के भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो जाने का पहला सूत्र यह है कि हमने आदमी के निसर्ग को, उसकी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्ती तोड़ने की चेष्टा की है। मनुष्य के भीतर जो शक्ति है, उस शक्ति को रूपांतरित करने की, ऊंचा ले जाने की, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गए हैं। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है और धक्के दे रही है। वह आदमी को किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है। और इसीलिए जरा सा मौका मिल जाता है, तो आपको पता है सबसे पहली बात क्या होती है?

अगर एक हवाई जहाज गिर पड़े तो आपको सबसे पहले, उस हवाई जहाज में अगर पायलट हो और आप उसके पास जाएं, उसकी लाश के पास, तो आपको पहला प्रश्न क्या उठेगा मन में? क्या आपको खयाल आएगा--यह हिंदू है या मुसलमान? नहीं। क्या आपको खयाल आएगा कि यह भारतीय है कि चीनी? नहीं। आपको पहला खयाल आएगा--यह आदमी है या औरत? पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा--यह स्त्री है या पुरुष? क्या आपको खयाल है इस बात का कि यह प्रश्न क्यों सबसे पहले खयाल में आता है? भीतर दबा हुआ सेक्स है। उस सेक्स के दमन की वजह से बाहर स्त्रियां और पुरुष अतिशय उभर कर दिखाई पड़ते हैं।

क्या आपने कभी सोचा? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते हैं, जाति भूल सकते हैं, चेहरा भूल सकते हैं। अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं--कि आपका नाम क्या था, आपका चेहरा क्या था, आपकी जाति क्या थी, उम्र क्या थी, आप किस पद पर थे--सब भूल सकता हूं, लेकिन कभी आपको खयाल आया कि आप यह भी भूल सके हैं कि जिससे आप मिले थे, वह आदमी था या औरत? कभी आप भूल सके इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरुष है या स्त्री? कभी पीछे यह संदेह उठा मन में कि वह स्त्री है या पुरुष? नहीं, यह बात आप कभी भी नहीं भूल सके होंगे। क्यों लेकिन? जब सारी बातें भूल जाती हैं तो यह क्यों नहीं भूलता?

हमारे भीतर मन में कहीं सेक्स बहुत अतिशय होकर बैठा है। वह चौबीस घंटे उबल रहा है। इसलिए सब बात भूल जाती है, लेकिन यह बात नहीं भूलती। हम सतत सचेष्ट हैं।

यह पृथ्वी तब तक स्वस्थ नहीं हो सकेगी, जब तक आदमी और स्त्रियों के बीच यह दीवार और यह फासला खड़ा हुआ है। यह पृथ्वी तब तक कभी भी शांत नहीं हो सकेगी, जब तक भीतर उबलती हुई आग है और उसके ऊपर हम जबरदस्ती बैठे हुए हैं। उस आग को रोज दबाना पड़ता है। उस आग को प्रतिक्षण दबाए रखना पड़ता है। वह आग हमको भी जला डालती है, सारा जीवन राख कर देती है। लेकिन फिर भी हम विचार करने को राजी नहीं होते--यह आग क्या थी?

और मैं आपसे कहता हूं, अगर हम इस आग को समझ लें तो यह आग दुश्मन नहीं है, दोस्त है। अगर हम इस आग को समझ लें तो यह हमें जलाएगी नहीं, हमारे घर को गरम भी कर सकती है सर्दियों में, और हमारी रोटियां भी पका सकती है, और हमारी जिंदगी के लिए सहयोगी और मित्र भी हो सकती है। लाखों साल तक आकाश में बिजली चमकती थी। कभी किसी के ऊपर गिरती थी और जान ले लेती थी। कभी किसी ने सोचा भी न था कि एक दिन घर में पंखा चलाएगी यह बिजली। कभी यह रोशनी करेगी अंधेरे में, यह किसी ने सोचा नहीं था। आज? आज वही बिजली हमारी साथी हो गई है। क्यों? बिजली की तरफ हम आंख मूंद कर खड़े हो जाते तो हम कभी बिजली के राज को न समझ पाते और न कभी उसका उपयोग कर पाते। वह हमारी दुश्मन ही बनी रहती। लेकिन नहीं, आदमी ने बिजली के प्रति दोस्ताना भाव बरता। उसने बिजली को समझने की कोशिश की, उसने प्रयास किए जानने के। और धीरे-धीरे बिजली उसकी साथी हो गई। आज बिना बिजली के क्षण भर जमीन पर रहना मुश्किल मालूम होगा।

मनुष्य के भीतर बिजली से भी बड़ी ताकत है सेक्स की।

मनुष्य के भीतर अणु की शक्ति से भी बड़ी शक्ति है सेक्स की।

कभी आपने सोचा लेकिन, यह शक्ति क्या है और कैसे हम इसे रूपांतरित करें? एक छोटे से अणु में इतनी शक्ति है कि हिरोशिमा का पूरा का पूरा एक लाख का नगर भस्म हो सकता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि मनुष्य के काम की ऊर्जा का एक अणु एक नये व्यक्ति को जन्म देता है? उस व्यक्ति में गांधी पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में महावीर पैदा हो सकता है, उस व्यक्ति में बुद्ध पैदा हो सकते हैं, क्राइस्ट पैदा हो सकता है। उससे आइंस्टीन पैदा हो सकता है और न्यूटन पैदा हो सकता है। एक छोटा सा अणु एक मनुष्य की काम-ऊर्जा का, एक गांधी को छिपाए हुए है। गांधी जैसा विराट व्यक्तित्व जन्म पा सकता है।

लेकिन हम सेक्स को समझने को राजी नहीं! लेकिन हम सेक्स की ऊर्जा के संबंध में बात करने की हिम्मत जुटाने को राजी नहीं! कौन सा भय हमें पकड़े हुए है कि जिससे सारे जीवन का जन्म होता है उस शक्ति को हम समझना नहीं चाहते? कौन सा डर है? कौन सी घबराहट है?

मैंने पिछली बंबई की सभा में इस संबंध में कुछ बात की थी, तो बड़ी घबराहट फैल गई। मुझे बहुत से पत्र पहुंचे कि आप इस तरह की बातें मत कहें! इस तरह की बात ही मत करें! मैं बहुत हैरान हुआ कि इस तरह की बात क्यों न की जाए? अगर शक्ति है हमारे भीतर तो उसे जाना क्यों न जाए? उसे क्यों न पहचाना जाए? और बिना जाने-पहचाने, बिना उसके नियम समझे, हम उस शक्ति को और ऊपर कैसे ले जा सकते हैं! पहचान से हम उसको जीत भी सकते हैं, बदल भी सकते हैं। लेकिन बिना पहचाने तो हम उसके हाथ में ही मरेंगे और सड़ेंगे, और कभी उससे मुक्त नहीं हो सकते।

जो लोग सेक्स के संबंध में बात करने की मनाही करते हैं, वे ही लोग पृथ्वी को सेक्स के गङ्ढे में डाले हुए हैं, यह मैं आपसे कहना चाहता हूं। जो लोग घबराते हैं और जो समझते हैं धर्म का सेक्स से कोई संबंध नहीं, वे खुद तो पागल हैं ही, वे सारी पृथ्वी को भी पागल बनाने में सहयोगी हो रहे हैं।

धर्म का संबंध मनुष्य की ऊर्जा के ट्रांसफार्मेशन से है। धर्म का संबंध मनुष्य की शक्ति को रूपांतरित करने से है। धर्म चाहता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व में जो छिपा है, वह श्रेष्ठतम रूप से अभिव्यक्त हो जाए। धर्म चाहता है कि मनुष्य का जीवन निम्न से उच्च की एक यात्रा बने, पदार्थ से परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन यह चाह तभी पूरी हो सकती है...हम जहां जाना चाहते हैं उस स्थान को समझना उतना उपयोगी नहीं, जितना उस स्थान को समझना उपयोगी है जहां हम खड़े हैं; क्योंकि वहीं से यात्रा शुरू करनी पड़ती है।

सेक्स है फैक्ट, सेक्स जो है वह तथ्य है मनुष्य के जीवन का। और परमात्मा? परमात्मा अभी दूर है। सेक्स हमारे जीवन का तथ्य है। इस तथ्य को समझ कर हम परमात्मा के सत्य तक यात्रा कर भी सकते हैं। लेकिन इसे बिना समझे एक इंच आगे नहीं जा सकते, कोल्हू के बैल की तरह इसी के आस-पास घूमते रहेंगे, इसी के आस-पास घूमते रहेंगे।

मैंने जो पिछली सभा में कुछ बातें कहीं तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे हम जीवन की वास्तविकता को समझने की भी तैयारी नहीं दिखाते! तो फिर हम और क्या कर सकते हैं? और आगे क्या हो सकता है? फिर ईश्वर, परमात्मा की सारी बातें सांत्वना की, कोरी सांत्वना की बातें हैं और झूठी हैं। क्योंकि जीवन के परम सत्य, चाहे कितने ही नग्न हों, उन्हें जानना ही पड़ेगा, समझना ही पड़ेगा।

तो पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि मनुष्य का जन्म सेक्स से होता है। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व सेक्स के अणुओं से बना हुआ है। मनुष्य का सारा प्राण सेक्स की ऊर्जा से भरा हुआ है। जीवन की ऊर्जा अर्थात काम की ऊर्जा। यह जो काम की ऊर्जा है, यह जो सेक्स इनर्जी है, यह क्या है? यह क्यों हमारे जीवन को इतने जोर से आंदोलित करती है? क्यों हमारे जीवन को इतना प्रभावित करती है? क्यों हम घूम-घूम कर सेक्स के आस-पास, इर्द-गिर्द ही चक्कर लगाते हैं और समाप्त हो जाते हैं? कौन सा आकर्षण है इसका?

हजारों साल से ऋषि-मुनि इनकार कर रहे हैं, लेकिन आदमी प्रभावित नहीं हुआ मालूम पड़ता है। हजारों साल से वे कह रहे हैं कि मुख मोड़ लो इससे! दूर हट जाओ इससे! सेक्स की कल्पना और कामना छोड़ दो! चित्त से निकाल डालो ये सारे सपने! लेकिन आदमी के चित्त से ये सपने निकले नहीं हैं। निकल भी नहीं सकते हैं इस भांति। बल्कि मैं तो इतना हैरान हुआ हूं--इतना हैरान हुआ हूं मैं--वेश्याओं से भी मिला हूं, लेकिन वेश्याओं ने मुझसे सेक्स की बात नहीं की! उन्होंने आत्मा-परमात्मा के संबंध में पूछताछ की। और मैं साधु-संन्यासियों से भी मिलता हूं। वे जब भी अकेले में मिलते हैं, तो सिवाय सेक्स के और किसी बात के संबंध में पूछताछ नहीं करते। मैं बहुत हैरान हुआ! मैं हैरान हुआ हूं इस बात को जान कर कि साधु-संन्यासियों को, जो निरंतर इसके विरोध में बोल रहे हैं, वे खुद भी चित्त के तल पर वहीं ग्रसित हैं, वहीं परेशान हैं! तो जनता में आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं, लेकिन भीतर उनके भी समस्या वही है। होगी भी। स्वाभाविक है, क्योंकि हमने उस समस्या को समझने की ही चेष्टा नहीं की है। हमने उस ऊर्जा के नियम भी नहीं जानने चाहे। और हमने कभी यह भी नहीं पूछा कि मनुष्य का इतना आकर्षण क्यों है? कौन सिखाता है सेक्स आपको?

सारी दुनिया तो सिखाने के विरोध में सारे उपाय करती है। मां-बाप चेष्टा करते हैं कि बच्चे को पता न चल जाए। शिक्षक चेष्टा करते हैं। धर्म-शास्त्र चेष्टा करते हैं। कहीं कोई स्कूल नहीं, कहीं कोई यूनिवर्सिटी नहीं। लेकिन आदमी अचानक एक दिन पाता है कि सारे प्राण काम की आतुरता से भर गए हैं! यह कैसे हो जाता है? बिना सिखाए यह कैसे हो जाता है? सत्य की शिक्षा दी जाती है, प्रेम की शिक्षा दी जाती है, उसका तो कोई पता नहीं चलता। इस सेक्स का इतना प्रबल आकर्षण, इतना नैसर्गिक केंद्र क्या है? जरूर इसमें कोई रहस्य है और इसे समझना जरूरी है। तो शायद हम इससे मुक्त भी हो सकते हैं।

पहली बात तो यह कि मनुष्य के प्राणों में सेक्स का जो आकर्षण है, वह वस्तुतः सेक्स का आकर्षण नहीं है। मनुष्य के प्राणों में जो कामवासना है, वह वस्तुतः काम की वासना नहीं है। इसलिए हर आदमी काम के कृत्य के बाद पछताता है, दुखी होता है, पीड़ित होता है। सोचता है कि इससे मुक्त हो जाऊं, यह क्या है? लेकिन शायद आकर्षण कोई दूसरा है। और वह आकर्षण बहुत रिलीजस, बहुत धार्मिक अर्थ रखता है। वह आकर्षण यह है कि मनुष्य के सामान्य जीवन में सिवाय सेक्स की अनुभूति के वह कभी भी अपने गहरे से गहरे प्राणों में नहीं उतर पाता है। और किसी क्षण में कभी गहरे नहीं उतरता है। दुकान करता है, धंधा करता है, यश कमाता है, पैसे कमाता है, लेकिन एक अनुभव काम का, संभोग का, उसे गहरे से गहरे ले जाता है। और उसकी गहराई में दो घटनाएं घटती हैं।

एक--संभोग के अनुभव में अहंकार विसर्जित हो जाता है, ईगोलेसनेस पैदा हो जाती है। एक क्षण के लिए अहंकार नहीं रह जाता, एक क्षण को यह याद भी नहीं रह जाता कि मैं हूं। क्या आपको पता है, धर्म के श्रेष्ठतम अनुभव में मैं बिलकुल मिट जाता है, अहंकार बिलकुल शून्य हो जाता है! सेक्स के अनुभव में क्षण भर को अहंकार मिटता है। लगता है कि हूं या नहीं। एक क्षण को विलीन हो जाता है मेरापन का भाव।

दूसरी घटना घटती है: एक क्षण के लिए समय मिट जाता है, टाइमलेसनेस पैदा हो जाती है।

जीसस ने कहा है समाधि के संबंध में: देयर शैल बी टाइम नो लांगर। समाधि का जो अनुभव है, वहां समय नहीं रह जाता। वह कालातीत है। समय बिलकुल विलीन हो जाता है। न कोई अतीत है, न कोई भविष्य--शुद्ध वर्तमान रह जाता है।

सेक्स के अनुभव में यह दूसरी घटना घटती है--न कोई अतीत रह जाता है, न कोई भविष्य। समय मिट जाता है, एक क्षण के लिए समय विलीन हो जाता है।

ये धार्मिक अनुभूति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं--ईगोलेसनेस, टाइमलेसनेस। ये दो तत्व हैं, जिनकी वजह से आदमी सेक्स की तरफ आतुर होता है और पागल होता है। वह आतुरता स्त्री के शरीर के लिए नहीं है पुरुष की, न पुरुष के शरीर के लिए स्त्री की है। वह आतुरता शरीर के लिए बिलकुल भी नहीं है। वह आतुरता किसी और ही बात के लिए है। वह आतुरता है--अहंकार-शून्यता का अनुभव, समय-शून्यता का अनुभव। लेकिन समय-शून्य और अहंकार-शून्य होने के लिए आतुरता क्यों है? क्योंकि जैसे ही अहंकार मिटता है, आत्मा की झलक उपलब्ध होती है। जैसे ही समय मिटता है, परमात्मा की झलक उपलब्ध होती है।

एक क्षण को होती है यह घटना, लेकिन उस एक क्षण के लिए आदमी कितनी ही ऊर्जा, कितनी ही शक्ति खोने को तैयार है! शक्ति खोने के कारण पछताता है बाद में कि शक्ति क्षीण हुई, शक्ति का अपव्यय हुआ। और उसे पता है कि शक्ति जितनी क्षीण होती है, मौत उतनी करीब आती है।

कुछ पशुओं में तो एक ही संभोग के बाद नर की मृत्यु हो जाती है। कुछ कीड़े तो एक ही संभोग कर पाते हैं और संभोग करते ही करते समाप्त हो जाते हैं। अफ्रीका में एक मकड़ा होता है। वह एक ही संभोग कर पाता है और संभोग की हालत में ही मर जाता है। इतनी ऊर्जा क्षीण हो जाती है।

मनुष्य को यह अनुभव में आ गया बहुत पहले कि सेक्स का अनुभव शक्ति को क्षीण करता है, जीवन-ऊर्जा कम होती है और धीरे-धीरे मौत करीब आती है। पछताता है आदमी। लेकिन इतना पछताने के बाद फिर पाता है कि कुछ घड़ियों के बाद फिर वही आतुरता है। निश्चित ही इस आतुरता में कुछ और अर्थ है जो समझ लेना जरूरी है।

सेक्स की आतुरता में कोई रिलीजस अनुभव है, कोई आत्मिक अनुभव है। उस अनुभव को अगर हम देख पाएं तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते हैं। अगर उस अनुभव को हम न देख पाएं तो हम सेक्स में ही जीएंगे और मर जाएंगे। उस अनुभव को अगर हम देख पाएं...अंधेरी रात है और अंधेरी रात में बिजली चमकती है। बिजली की चमक अगर हमें दिखाई पड़ जाए और बिजली को अगर हम समझ लें, तो अंधेरी रात को हम मिटा भी सकते हैं। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि अंधेरी रात के कारण बिजली चमकती है, तो फिर हम अंधेरी रात को और घना करने की कोशिश करेंगे, ताकि बिजली चमके।

सेक्स की घटना में बिजली चमकती है एक। वह सेक्स से अतीत है, ट्रांसेंड करती है, पार से आती है। उस पार के अनुभव को अगर हम पकड़ लें, तो हम सेक्स के ऊपर उठ सकते हैं, अन्यथा नहीं। लेकिन जो लोग सेक्स के विरोध में खड़े हो जाते हैं, वे अनुभव को समझ भी नहीं पाते कि वह अनुभव क्या है। वे कभी यह ठीक विश्लेषण भी नहीं कर पाते कि हमारी आतुरता किस चीज के लिए है।

मैं आपसे कहना चाहता हूं कि संभोग का इतना आकर्षण क्षणिक समाधि के लिए है। और संभोग से आप उस दिन मुक्त होंगे, जिस दिन आपको समाधि बिना संभोग के मिलना शुरू हो जाएगी। उसी दिन संभोग से आप मुक्त हो जाएंगे, सेक्स से मुक्त हो जाएंगे। क्योंकि एक आदमी हजार रुपये खोकर थोड़ा सा अनुभव पाता हो; और कल हम उसे बता दें कि रुपये खोने की कोई जरूरत नहीं, इस अनुभव की तो खदानें भरी पड़ी हैं, तुम चलो इस रास्ते से और उस अनुभव को पा लो। तो फिर वह हजार रुपये खोकर उस अनुभव को खरीदने बाजार में नहीं जाएगा।

सेक्स जिस अनुभूति को लाता है, अगर वह अनुभूति किन्हीं और मार्गों से उपलब्ध हो सके, तो आदमी का चित्त सेक्स की तरफ बढ़ना अपने आप बंद हो जाता है। उसका चित्त एक नई दिशा लेना शुरू कर देता है। इसलिए मैं कहता हूं, जगत में समाधि का पहला अनुभव मनुष्य को सेक्स के अनुभव से ही उपलब्ध हुआ है।

लेकिन वह बहुत मंहगा अनुभव है, वह अति मंहगा अनुभव है। और दूसरे कारण हैं कि वह अनुभव कभी एक क्षण से ज्यादा गहरा नहीं हो सकता। एक क्षण को झलक मिलेगी और हम वापस अपनी जगह पर लौट आते हैं। एक क्षण को किसी लोक में उठ जाते हैं, किसी गहराई पर, किसी पीक एक्सपीरिएंस पर, किसी शिखर पर पहुंचना होता है। और हम पहुंच भी नहीं पाते और वापस गिर जाते हैं। जैसे समुद्र की एक लहर आकाश में उठती है--उठ भी नहीं पाती पहुंच भी नहीं पाती, हवाओं में, सिर उठा भी नहीं पाती और गिरना शुरू हो जाता है। ठीक हमारा सेक्स का अनुभव: बार-बार शक्ति को इकट्ठा करके हम उठने की चेष्टा करते हैं--किसी गहरे जगत में, किसी ऊंचे जगत में--एक क्षण को हम उठ भी नहीं पाते और सब लहर बिखर जाती है, हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते हैं। और उतनी शक्ति और ऊर्जा को गंवा देते हैं।

लेकिन अगर सागर की लहर बर्फ का पत्थर बन जाए, जम जाए और बर्फ हो जाए, तो फिर उसे नीचे गिरने की कोई जरूरत नहीं है। आदमी का चित्त जब तक सेक्स की तरलता में बहता है, तब तक वापस उठता है, गिरता है; उठता है, गिरता है; सारा जीवन यही करता है। और जिस अनुभव के लिए इतना तीव्र आकर्षण है--ईगोलेसनेस के लिए, अहंकार शून्य हो जाए और मैं आत्मा को जान लूं; समय मिट जाए और मैं उसको जान लूं जो इटरनल है, जो टाइमलेस है; उसको जान लूं जो समय के बाहर है, अनंत और अनादि है--उसे जानने की चेष्टा में सारा जगत सेक्स के केंद्र पर घूमता रहता है।

लेकिन अगर हम इस घटना के विरोध में खड़े हो जाएं सिर्फ, तो क्या होगा? तो क्या हम उस अनुभव को पा लेंगे जो सेक्स से एक झलक की तरह दिखाई पड़ता था?

नहीं, अगर हम सेक्स के विरोध में खड़े हो जाते हैं तो सेक्स ही हमारी चेतना का केंद्र बन जाता है, हम सेक्स से मुक्त नहीं होते, उससे बंध जाते हैं। वह लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट काम शुरू कर देता है। फिर हम उससे बंध गए। फिर हम भागने की कोशिश करते हैं। और जितनी हम कोशिश करते हैं, उतने ही बंधते चले जाते हैं।

एक आदमी बीमार था और बीमारी कुछ उसे ऐसी थी कि दिन-रात उसे भूख लगती थी। सच तो यह है, उसे बीमारी कुछ भी न थी। भोजन के संबंध में उसने कुछ विरोध की किताबें पढ़ ली थीं। उसने पढ़ लिया था कि भोजन पाप है, उपवास पुण्य है। कुछ भी खाना हिंसा करना है। जितना वह यह सोचने लगा कि भोजन करना पाप है, उतना ही भूख को दबाने लगा; जितना भूख को दबाने लगा, उतनी भूख असर्ट करने लगी, जोर से प्रकट होने लगी। तो वह दो-चार दिन उपवास करता था और एक दिन पागल की तरह कुछ भी खा जाता था। जब कुछ भी खा लेता था तो बहुत दुखी होता था, क्योंकि फिर खाने की तकलीफ झेलनी पड़ती थी। फिर पश्चात्ताप में दो-चार दिन उपवास करता था और फिर कुछ भी खा लेता था। आखिर उसने तय किया कि यह घर रहते हुए नहीं हो सकेगा ठीक, मुझे जंगल चले जाना चाहिए।

वह पहाड़ पर गया। एक हिल स्टेशन पर जाकर एक कमरे में रहा। घर के लोग भी परेशान हो गए थे। उसकी पत्नी ने यह सोच कर कि शायद वह पहाड़ पर अब जाकर भोजन की बीमारी से मुक्त हो जाएगा, उसने खुशी में बहुत से फूल उसे पहाड़ पर भिजवाए--कि मैं बहुत खुश हूं कि तुम शायद पहाड़ से अब स्वस्थ होकर वापस लौटोगे; मैं शुभकामना के रूप में ये फूल तुम्हें भेज रही हूं।

उस आदमी का वापस तार आया। उसने तार में लिखा--मेनी थैंक्स फॉर दि फ्लावर्स, दे आर सो डिलीशियस। उसने तार किया कि बहुत धन्यवाद फूलों के लिए, बड़े स्वादिष्ट हैं।

वह फूलों को खा गया, वहां पहाड़ पर जो फूल उसको भेजे गए थे! अब कोई आदमी फूलों को खाएगा, इसका हम खयाल नहीं कर सकते। लेकिन जो आदमी भोजन से लड़ाई शुरू कर देगा, वह फूलों को खा सकता है।

आदमी सेक्स से लड़ाई शुरू किया, और उसने क्या-क्या सेक्स के नाम पर खाया, इसका आपने कभी हिसाब लगाया? आदमी को छोड़ कर, सभ्य आदमी को छोड़ कर, होमोसेक्सुअलिटी कहीं है? जंगल में आदिवासी रहते हैं, उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की है कि होमोसेक्सुअलिटी जैसी चीज भी हो सकती है--कि पुरुष और पुरुष के साथ संभोग कर सकते हैं, यह भी हो सकता है! यह कल्पना के बाहर है। मैं आदिवासियों के पास रहा हूं और उनसे मैंने कहा कि सभ्य लोग इस तरह भी करते हैं। वे कहने लगे, हमारे विश्वास के बाहर है। यह कैसे हो सकता है?

लेकिन अमेरिका में उन्होंने आंकड़े निकाले हैं--पैंतीस प्रतिशत लोग होमोसेक्सुअल हैं! और बेल्जियम और स्वीडन और हालैंड में होमोसेक्सुअल्स के क्लब हैं, सोसाइटीज हैं, अखबार निकलते हैं। और वे सरकार से यह दावा करते हैं कि होमोसेक्सुअलिटी के ऊपर से कानून उठा दिया जाना चाहिए, क्योंकि चालीस प्रतिशत लोग जिसको मानते हैं, तो इतनी बड़ी माइनारिटी के ऊपर हमला है यह आपका। हम तो मानते हैं कि होमोसेक्सुअलिटी ठीक है, इसलिए हमको हक होना चाहिए।

कोई कल्पना नहीं कर सकता कि यह होमोसेक्सुअलिटी कैसे पैदा हो गई? सेक्स के बाबत लड़ाई का यह परिणाम है। जितना सभ्य समाज है, उतनी वेश्याएं हैं! कभी आपने यह सोचा कि ये वेश्याएं कैसे पैदा हो गईं? किसी आदिवासी गांव में जाकर वेश्या खोज सकते हैं आप? आज भी बस्तर के गांव में वेश्या खोजनी मुश्किल है। और कोई कल्पना में भी मानने को राजी नहीं होता कि ऐसी स्त्रियां हो सकती हैं जो कि अपनी इज्जत बेचती हों, अपना संभोग बेचती हों। लेकिन सभ्य आदमी जितना सभ्य होता चला गया, उतनी वेश्याएं बढ़ती चली गईं। क्यों?

यह फूलों को खाने की कोशिश शुरू हुई है। और आदमी की जिंदगी में कितने विकृत रूप से सेक्स ने जगह बनाई है, इसका अगर हम हिसाब लगाने चलेंगे तो हम हैरान रह जाएंगे कि यह आदमी को क्या हुआ है? इसका जिम्मा किस पर है, किन लोगों पर है?

इसका जिम्मा उन लोगों पर है, जिन्होंने आदमी को सेक्स को समझना नहीं, लड़ना सिखाया है। जिन्होंने सप्रेशन सिखाया है, जिन्होंने दमन सिखाया है। दमन के कारण सेक्स की शक्ति जगह-जगह से फूट कर गलत रास्तों से बहनी शुरू हो गई है। सारा समाज पीड़ित और रुग्ण हो गया है।

इस रुग्ण समाज को अगर बदलना है, तो हमें यह स्वीकार कर लेना होगा कि काम की ऊर्जा है, काम का आकर्षण है। क्यों है काम का आकर्षण? काम के आकर्षण का जो बुनियादी आधार है, उस आधार को अगर हम पकड़ लें, तो मनुष्य को हम काम के जगत से ऊपर उठा सकते हैं। और मनुष्य निश्चित काम के जगत के ऊपर उठ जाए, तो ही राम का जगत शुरू होता है।

खजुराहो के मंदिर के सामने मैं खड़ा था और दस-पांच मित्रों को लेकर वहां गया था। खजुराहो के मंदिर के चारों तरफ की दीवाल पर तो मैथुन-चित्र हैं, कामवासनाओं की मूर्तियां हैं। मेरे मित्र कहने लगे कि मंदिर के चारों तरफ यह क्या है? मैंने उनसे कहा, जिन्होंने यह मंदिर बनाया था, वे बड़े समझदार लोग थे। उनकी मान्यता यह थी कि जीवन की बाहर की परिधि पर काम है। और जो लोग अभी काम से उलझे हैं, उनको मंदिर में भीतर प्रवेश का कोई हक नहीं है।

फिर मैं अपने मित्रों को कहा, भीतर चलें! फिर उन्हें भीतर लेकर गया। वहां तो कोई काम-प्रतिमा न थी, वहां भगवान की मूर्ति थी। वे कहने लगे, भीतर कोई प्रतिमा नहीं है! मैंने उनसे कहा कि जीवन की बाहर की परिधि पर कामवासना है। जीवन की बाहर की परिधि, दीवाल पर कामवासना है। जीवन के भीतर भगवान का मंदिर है। लेकिन जो अभी कामवासना से उलझे हैं, वे भगवान के मंदिर में प्रवेश के अधिकारी नहीं हो सकते, उन्हें अभी बाहर की दीवाल का ही चक्कर लगाना पड़ेगा। जिन लोगों ने यह मंदिर बनाया था, वे बड़े समझदार लोग थे। यह मंदिर एक मेडिटेशन सेंटर था। यह मंदिर एक ध्यान का केंद्र था। जो लोग आते थे, उनसे वे कहते थे, बाहर पहले मैथुन के ऊपर ध्यान करो, पहले सेक्स को समझो! और जब सेक्स को पूरी तरह समझ जाओ और तुम पाओ कि मन उससे मुक्त हो गया है, तब तुम भीतर आ जाना। फिर भीतर भगवान से मिलना हो सकता है।

लेकिन धर्म के नाम पर हमने सेक्स को समझने की स्थिति पैदा नहीं की, सेक्स की शत्रुता पैदा कर दी! सेक्स को समझो मत, आंख बंद कर लो, और घुस जाओ भगवान के मंदिर में आंख बंद करके।

आंख बंद करके कभी कोई भगवान के मंदिर में जा सका है? और आंख बंद करके अगर आप भगवान के मंदिर में पहुंच भी गए, तो बंद आंख में आपको भगवान दिखाई नहीं पड़ेंगे, जिससे आप भाग कर आए हैं वही दिखाई पड़ता रहेगा, आप उसी से बंधे रह जाएंगे।

शायद कुछ लोग मेरी बातें सुन कर समझते हैं कि मैं सेक्स का पक्षपाती हूं। मेरी बातें सुन कर शायद लोग समझते हैं कि मैं सेक्स का प्रचार करना चाहता हूं। अगर कोई ऐसा समझता हो तो उसने मुझे कभी सुना ही नहीं है, ऐसा उससे कह देना। इस समय पृथ्वी पर मुझसे ज्यादा सेक्स का दुश्मन आदमी खोजना मुश्किल है। और उसका कारण यह है कि मैं जो बात कह रहा हूं, अगर वह समझी जा सकी, तो मनुष्य-जाति को सेक्स के ऊपर उठाया जा सकता है, अन्यथा नहीं। और जिन थोथे लोगों को हमने समझा है कि वे सेक्स के दुश्मन थे, वे सेक्स के दुश्मन नहीं थे। उन्होंने सेक्स में आकर्षण पैदा कर दिया, सेक्स से मुक्ति पैदा नहीं की। सेक्स में आकर्षण पैदा हो गया विरोध के कारण।

मुझसे एक आदमी ने कहा है कि जिस चीज का विरोध न हो, उसको करने में कोई रस ही नहीं रह जाता। चोरी के फल खाने जितने मधुर और मीठे होते हैं, उतने बाजार से खरीदे गए फल कभी नहीं होते। इसीलिए अपनी पत्नी उतनी मधुर कभी नहीं मालूम पड़ती, जितनी पड़ोसी की पत्नी मालूम पड़ती है। वे चोरी के फल हैं, वे वर्जित फल हैं। और सेक्स को हमने एक ऐसी स्थिति दे दी, एक ऐसा चोरी का जामा पहना दिया, एक ऐसे झूठ के लिबास में छिपा दिया, ऐसी दीवालों में खड़ा कर दिया, कि उसने हमें तीव्र रूप से आकर्षित कर लिया है।

बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि जब मैं छोटा बच्चा था, विक्टोरियन जमाना था, स्त्रियों के पैर भी दिखाई नहीं पड़ते थे। वे कपड़े पहनती थीं, जो जमीन पर घिसटता था और पैर नहीं दिखाई पड़ता था। अगर कभी किसी स्त्री का अंगूठा दिख जाता था, तो आदमी आतुर होकर अंगूठा देखने लगता था और कामवासना जग जाती थी! और रसेल कहता है कि अब स्त्रियां करीब-करीब आधी नंगी घूम रही हैं और उनका पैर पूरा दिखाई पड़ता है, लेकिन कोई असर नहीं होता!

तो रसेल ने लिखा है कि इससे यह सिद्ध होता है कि हम जिन चीजों को जितना ज्यादा छिपाते हैं, उन चीजों में उतना ही कुत्सित आकर्षण पैदा होता है।

अगर दुनिया को सेक्स से मुक्त करना है, तो बच्चों को ज्यादा देर तक घर में नग्न रहने की सुविधा होनी चाहिए। जब तक बच्चे घर में नग्न खेल सकें--लड़के और लड़कियां--उन्हें नग्न खेलने देना चाहिए। ताकि वे एक-दूसरे के शरीर से भली-भांति परिचित हो जाएं और कल रास्तों पर उनको किसी स्त्री को धक्का देने की कोई जरूरत न रह जाए। ताकि वे एक-दूसरे के शरीर से इतने परिचित हो जाएं कि किसी किताब पर नंगी औरत की तस्वीर छापने की कोई जरूरत न रह जाए। वे शरीर से इतने परिचित हों कि शरीर का कुत्सित आकर्षण विलीन हो सके।

लेकिन बड़ी उलटी दुनिया है। जिन लोगों ने शरीर को ढांक कर, छिपा कर खड़ा किया है, उन्हीं लोगों ने शरीर को इतना आकर्षित बना दिया है, यह हमारे खयाल में नहीं आता! जिन लोगों ने शरीर को जितना ढांक कर छिपा दिया है, शरीर को उतना ही हमारे मन में चिंतन का विषय बना दिया है, यह हमारे खयाल में नहीं आता।

बच्चे नग्न होने चाहिए, देर तक नग्न खेलने चाहिए, लड़के और लड़कियां एक-दूसरे को नग्नता में देखना चाहिए, ताकि उनके पीछे कोई भी पागलपन न रह जाए और उनके इस पागलपन का जीवन भर रोग उनके भीतर न चलता रहे। लेकिन वह रोग चल रहा है। और उस रोग को हम बढ़ाते चले जाते हैं। और उस रोग के फिर हम नये-नये रास्ते खोजते हैं।

गंदी किताबें छपती हैं, जो लोग गीता के कवर में भीतर रख कर पढ़ते हैं। बाइबिल में दबा लेते हैं, और पढ़ते हैं। ये गंदी किताबें...तो हम कहते हैं, ये गंदी किताबें बंद होनी चाहिए! लेकिन हम यह कभी नहीं पूछते कि गंदी किताबें पढ़ने वाला आदमी पैदा क्यों हो गया है? हम कहते हैं, नंगी तस्वीरें दीवारों पर नहीं लगनी चाहिए! लेकिन हम कभी नहीं पूछते कि नंगी तस्वीरें कौन आदमी देखने को आता है?

वही आदमी आता है जो स्त्रियों के शरीर को देखने से वंचित रह गया है। एक कुतूहल जाग गया है--क्या है स्त्री का शरीर? और मैं आपसे कहता हूं, वस्त्रों ने स्त्री के शरीर को जितना सुंदर बना दिया है, उतना सुंदर स्त्री का शरीर है नहीं। वस्त्रों में ढांक कर शरीर छिपा नहीं है और उघड़ कर प्रकट हुआ है। यह सारी की सारी चिंतना हमारी विपरीत फल ले आई है।

इसलिए आज एक बात आपसे कहना चाहता हूं पहले दिन की चर्चा में, वह यह--सेक्स क्या है? उसका आकर्षण क्या है? उसकी विकृति क्यों पैदा हुई है? अगर हम ये तीन बातें ठीक से समझ लें, तो मनुष्य का मन इनके ऊपर उठ सकता है। उठना चाहिए। उठने की जरूरत है।

लेकिन उठने की चेष्टा गलत परिणाम लाई है; क्योंकि हमने लड़ाई खड़ी की है, हमने मैत्री खड़ी नहीं की। दुश्मनी खड़ी की है, सप्रेशन खड़ा किया है, दमन किया है; समझ पैदा नहीं की।

अंडरस्टैंडिंग चाहिए, सप्रेशन नहीं। समझ चाहिए। जितनी गहरी समझ होगी, मनुष्य उतना ही ऊपर उठता है। जितनी कम समझ होगी, उतना ही मनुष्य दबाने की कोशिश करता है। और दबाने के कभी भी कोई सफल परिणाम, सुफल परिणाम, स्वस्थ परिणाम उपलब्ध नहीं होते।

मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी ऊर्जा है काम। लेकिन काम पर रुक नहीं जाना है; काम को राम तक ले जाना है। सेक्स को समझना है, ताकि ब्रह्मचर्य फलित हो सके। सेक्स को जानना है, ताकि हम सेक्स से मुक्त हो सकें और ऊपर उठ सकें।

लेकिन शायद ही, आदमी जीवन भर अनुभव से गुजरता है, शायद ही उसने समझने की कोशिश की हो कि संभोग के भीतर समाधि का क्षण भर का अनुभव है। वही अनुभव खींच रहा है। वही अनुभव आकर्षित कर रहा है। वही अनुभव पुकार दे रहा है कि आओ। ध्यानपूर्वक उस अनुभव को जान लेना है कि कौन सा अनुभव मुझे आकर्षित कर रहा है? कौन मुझे खींच रहा है?

और मैं आपसे कहता हूं, उस अनुभव को पाने के सुगम रास्ते हैं। ध्यान, योग, सामायिक, प्रार्थना, सब उस अनुभव को पाने के मार्ग हैं। लेकिन वही अनुभव हमें आकर्षित कर रहा है, यह सोच लेना, जान लेना जरूरी है।

एक मित्र ने मुझे लिखा कि आपने ऐसी बातें कहीं, कि मां के साथ बेटी बैठी थी, वह सुन रही है! बाप के साथ बेटी बैठी है, वह सुन रही है! ऐसी बातें सबके सामने नहीं करनी चाहिए।

मैंने उनसे कहा, आप बिलकुल पागल हैं। अगर मां समझदार होगी, तो इसके पहले कि बेटी सेक्स की दुनिया में उतर जाए, उसे सेक्स के संबंध में अपने सारे अनुभव समझा देगी। ताकि वह अनजान, अधकच्ची, अपरिपक्व सेक्स के गलत रास्तों पर न चली जाए। अगर बाप योग्य है और समझदार है, तो अपने बेटे को और अपनी बेटी को अपने सारे अनुभव बता देगा। ताकि बेटे और बेटियां गलत रास्तों पर न चले जाएं, जीवन उनके विकृत न हो जाएं।

लेकिन मजा यह है कि न बाप का कोई गहरा अनुभव है, न मां का कोई गहरा अनुभव है। वे खुद भी सेक्स के तल से ऊपर नहीं उठ सके। इसलिए घबराते हैं कि कहीं सेक्स की बात सुन कर बच्चे भी इसी तल में न उलझ जाएं। लेकिन मैं उनसे पूछता हूं, आप किसकी बात सुन कर उलझे थे? आप अपने आप उलझ गए थे, बच्चे भी अपने आप उलझ जाएंगे। यह हो भी सकता है कि अगर उन्हें समझ दी जाए, विचार दिया जाए, बोध दिया जाए, तो शायद वे अपनी ऊर्जा को व्यर्थ करने से बच सकें, ऊर्जा को बचा सकें, रूपांतरित कर सकें।

रास्ते के किनारे पर कोयले का ढेर लगा होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोयला ही हजारों साल में हीरा बन जाता है। कोयले और हीरे में कोई रासायनिक फर्क नहीं है, कोई केमिकल भेद नहीं है। कोयले के भी परमाणु वही हैं जो हीरे के हैं; कोयले का भी रासायनिक-भौतिक संगठन वही है जो हीरे का है। हीरा कोयले का ही रूपांतरित, बदला हुआ रूप है। हीरा कोयला ही है।

मैं आपसे कहना चाहता हूं कि सेक्स कोयले की तरह है, ब्रह्मचर्य हीरे की तरह है। लेकिन वह कोयले का ही बदला हुआ रूप है। वह कोयले का दुश्मन नहीं है हीरा। वह कोयले की ही बदलाहट है। वह कोयले का ही रूपांतरण है। वह कोयले को ही समझ कर नई दिशाओं में ले गई यात्रा है। सेक्स का विरोध नहीं है ब्रह्मचर्य, सेक्स का ही रूपांतरण है, ट्रांसफार्मेशन है। और जो सेक्स का दुश्मन है, वह कभी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं हो सकता है।

ब्रह्मचर्य की दिशा में जाना हो--और जाना जरूरी है, क्योंकि ब्रह्मचर्य का मतलब क्या है? ब्रह्मचर्य का इतना मतलब है: वह अनुभव उपलब्ध हो जाए, जो ब्रह्म की चर्या जैसा है। जैसा भगवान का जीवन हो, वैसा जीवन उपलब्ध हो जाए। ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म की चर्या, ब्रह्म जैसा जीवन। परमात्मा जैसा अनुभव उपलब्ध हो जाए।

वह हो सकता है अपनी शक्तियों को समझ कर रूपांतरित करने से।

आने वाले दो दिनों में, कैसे रूपांतरित किया जा सकता है सेक्स, कैसे रूपांतरित हो जाने के बाद काम राम के अनुभव में बदल जाता है, वह मैं आपसे बात करूंगा। और तीन दिन तक चाहूंगा कि बहुत गौर से सुन लेंगे, ताकि मेरे संबंध में कोई गलतफहमी पीछे आपको पैदा न हो जाए। और जो भी प्रश्न हों--ईमानदारी से और सच्चे--उन्हें लिख कर दे देंगे, ताकि आने वाले पिछले दो दिनों में मैं उनकी आप से सीधी-सीधी बात कर सकूं। किसी प्रश्न को छिपाने की जरूरत नहीं है। जो जिंदगी में सत्य है, उसे छिपाने का कोई कारण नहीं है। किसी सत्य से मुकरने की जरूरत नहीं है। जो सत्य है, वह सत्य है--चाहे हम आंख बंद करें, चाहें आंख खुली रखें।

और एक बात मैं जानता हूं, धार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं जो जीवन के सारे सत्यों को सीधा साक्षात्कार करने की हिम्मत रखता है। जो इतने कमजोर, काहिल और नपुंसक हैं कि जीवन के तथ्यों का सामना भी नहीं कर सकते, उनके धार्मिक होने की कोई उम्मीद कभी नहीं हो सकती है।

ये आने वाले चार दिनों के लिए निमंत्रण देता हूं। क्योंकि ऐसे विषय पर यह बात है कि शायद ऋषि-मुनियों से आशा नहीं रही है कि ऐसे विषयों पर वे बात करेंगे। शायद आपको सुनने की आदत भी नहीं होगी। शायद आपका मन डरेगा। लेकिन फिर भी मैं चाहूंगा कि इन पांच दिनों में आप ठीक से सुनने की कोशिश करेंगे। यह हो सकता है कि काम की समझ आपको राम के मंदिर के भीतर प्रवेश दिला दे। आकांक्षा मेरी यही है। परमात्मा करे वह आकांक्षा पूरी हो।



मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
***ओशो**(सम्भोग से समाधिकी और)

Thursday, April 18, 2013

" हमारी अंत:प्रज्ञा से जुड़ना " ~ ओशो

" जब तुम पूरी तरह जगे होते हो, एक स्थानांतरण घटित होता है: मस्तिष्क के बाएं क्षेत्र से ऊर्जा दाएं क्षेत्र की ओर प्रवाहित होने लगती है। जब तुम पूरी तरह सजग होते हो, तुम अंतर्ज्ञान से भरने लगते हो, तुम्हें झलकें आने लगती हैं, अज्ञात से, असीम से झलकें आने लगती हैं। हो सकता है कि तुम उन्हें जान न पाओ, लेकिन तब तुम बहुत अधिक चूक जाओगे।

वास्तव में विज्ञान की सभी महत्वपूर्ण खोजें भी मस्तिष्क के दाहिने हिस्से से आती हैं, न कि बायें हिस्से से।

तुमने मैडम क्यूरी--एकमात्र महिला जिसने नोबेल पुरस्कार पाया, के बारे में अवश्य सुना होगा। वह गणित के एक विशेष प्रश्न को हल करने के लिए तीन साल से अथक प्रयास कर रही थी परंतु उसे हल नहीं कर पा रही थी। वह कठिन श्रम कर रही थी, उसने इस तरफ से और उस तरफ से तर्क किया परंतु कोई हल न निकला। एक रात, पूरी तरह थकी-मांदी निढाल होकर वह सो गई, और जब वह सो रही थी तब भी वह प्रश्न को हल करने का प्रयास कर रही थी। रात में वह उठी, टहली, किसी कागज पर उत्तर लिखा, वापिस विस्तर पर आकर सो गई।

सुबह जब वह उठी, एक मेज पर उसने वह उत्तर लिखा हुआ पाया परन्तु वह विश्वास नहीं कर पा रही थी कि यह किसने किया..यह उत्तर कहां से आया। यह बाएं हिस्से से संभव नहीं था: बायां तो तीन साल से लगातार कठिन श्रम कर रहा था। और कागज पर कोई विधि नहीं अंकित थी, मात्र निष्कर्ष था। यदि यह बाएं से आया होता तो उसमें एक विधि होती, यह क्रमवार होता। लेकिन यह एक झलक की तरह आया... ठीक उस तरह की झलक जो उस बच्चे को घटी थी, जो चेस्ट में था। बायां हिस्सा थक कर , हार कर, असहाय होकर, दाएं हिस्से की मदद लेता है।

जब भी तुम इस स्थिति में हो कि तुम्हारे तर्क काम न कर रहे हों, तुम दुखी न होओ, निराश न होओ। वे क्षण तुम्हारे जीवन के सबसे आशीर्वाद के क्षण हो सकते हैं: वे क्षण हैं जब बायां हिस्सा दाएं को अपनी दिशा में जाने की इजाजत देता है। तब स्त्रैण भाग, सुग्राहक भाग तुम्हें एक दिशा प्रदान करता है। यदि तुम उनका अनुसरण करो, तो अनेक द्वार खुल सकते हैं। लेकिन यह संभव है कि तुम चूक जाओ। तुम कह सकते हो, "क्या बकवास है।'

पूरी कला यह है कि तुम मस्तिष्क के स्त्रैण भाग से कैसे कार्य करते हो, क्योंकि स्त्रैण अस्तित्व से जुड़ा है, और पुरुष अस्तित्व से जुड़ा नहीं है।
पुरुष आक्रामक है, पुरुष सदा एक संघर्ष में है-- स्रैण सदा ही समर्पण की दशा में है, एक गहरे ट्रस्ट में है। इसलिए स्त्री का शरीर इतना सुंदर है, इतना सुडौल है। वह प्रकृति के साथ एक गहरे ट्रस्ट और एक गहरे लय में है।

स्त्री एक गहरी समर्पण की दशा में जीती है - पुरुष सदा संघर्षरत है, क्रोधित, सदा कुछ न कुछ करता रहता है, कुछ साबित करने का प्रयास करता रहता है, कहीं पहुंचने का प्रयास करता रहता है। स्त्री प्रसन्न है, कहीं पहुंचने का प्रयास नहीं है। स्त्री से पूछो कि क्या उसे चांद पर जाना है? वह बहुत आश्चर्य चकित होगी। "किसलिए'? क्या अर्थ है? इतना श्रम क्यों उठाना? घर में होना पूरी तरह ठीक है।" स्त्री को रस नहीं है कि वियतनाम में क्या हो रहा है और कोरिया में क्या हो रहा है और इसराइल में क्या हो रहा है। अगर उसे कुछ रस है तो अधिक से अधिक कि पड़ोस में क्या हो रहा है, अधिक से अधिक कि कौन किसके प्रेम में पड़ गया, कौन किसके साथ भाग गई - उसका रस बस गप-शप में है, राजनीति में नहीं।

तुम जीवन में बहुत कुछ खो देते हो क्योंकि तुम्हारा सिर सदा बात करता रहता है। यह तुम्हें चुप होने नहीं देता। और मस्तिष्क का गुण मात्र इतना है कि यह अधिक तार्किक, धूर्त, खतरनाक और हिंसक है। अपने हिंसक गुण के कारण यह भीतर मालिक बन गया है और भीतर के इस लीडरशिप के कारण आदमी बाहर भी लीडर बन गया है। आदमी ने बाहरी दुनिया में भी स्त्री के ऊपर मालकियत कर रखी है - अनुग्रह के ऊपर हिंसा ने मालकियत जमा ली है।

पुरुष मन एक संघर्ष पैदा करने की घटना हो गया है; इसलिए यह प्रभुत्व जमाता है, यह दूसरे पर मालकियत करता है। लेकिन भीतर गहरे में, यद्यपि तुम बलशाली हो भी जाओ, तुम जीवन को खो देते हो - और भीतर गहरे में, तुम्हारा स्त्रैण चित्त गति करता रहता है।

जब तक तुम वापस स्त्रैणता को नहीं प्राप्त कर लेते और तुम समर्पण नहीं करते, जब तक तुम्हारा प्रतिरोध और संघर्ष समर्पण नही बनते, तब तक तुम वास्तविक जीवन और उसके उत्सव को नहीं जान सकते। "

~ ओशो , एनसिएन्ट म्युज़िक इन दि पाइन्स, # 1 ♥...

Sunday, April 14, 2013

" कोई भी मेरे ऊपर निर्भर नहीं है " ~ ओशो

" तुम चाहो भी निर्भर होना तो मैं तुम्हें होने नहीं दूंगा। तुम्हारी निर्भर होने की इच्छा के कारण ही तुमने संगठित धर्म पैदा किए हैं। तुम्हारी निर्भर होने की इच्छा के कारण ही तुम सब तरह के चर्चों, संप्रदायों और पंथों के गुलाम हो गए हो। मनोविश्लेष्कों के अनुसार यह फादर-फिक्सेशन है, पिता से बंध जाना है क्योंकि बच्चा अपने माता-पिता पर बहुत ज्यादा निर्भर होता है।

यदि वह लड़का है तो वह मां से बंध जाता है, और वह बहुत बड़ी समस्या है। यदि वह लड़की है तो वह पिता से बंध जाती है। हर लड़की उसके पूरे जीवन अपने पति में पिता जैसा व्यक्ति ढूंढती रहेगी-और यह असंभव है। कुछ भी दोहराया नहीं जाता। तुम अपने पिता को पति की तरह नहीं ढूंढ सकते। इसीलिए हर स्त्री हताश है, कोई पति सही नहीं लगता। हर पुरुष निराश है-क्योंकि कोई भी स्त्री तुम्हारी मां नहीं होगी।

अब, यह बड़ी अजीब समस्या है। पति अपनी पत्नी में मां को ढूंढने का प्रयास कर रहा है, पत्नी अपने पति में पिता को ढूंढने का प्रयास कर रही है। वहां सतत संघर्ष है। शादी नरक की आग है। चूंकि वे पति की तरह, पत्नी की तरह दुखी हैं, उन्हें कहीं सांत्वना ढूंढनी होगी-किसी परमात्मा में, किसी पंडित में।

तुम परमात्मा को पिता क्यों कहते हो? और फिर देवियों को मां कहते हैं...ये बचपन के बंधन हैं। तुम उन पर निर्भर थे। कब तक तुम अपने माता-पिता के साथ चिपके रहोगे? पिता और मां चाहते हैं कि तुम आत्मनिर्भर होओ लेकिन उन्हें होश नहीं है कि उन्होंने एक ही बात सिखाई है: निर्भर होओ।

अब तुम दुनिया में जाते हो। तुम्हारा पूरा मनोविज्ञान मांगता है कि कोई तुम्हें बचाने वाला हो। तुम भेड़ बनने को तैयार हो, जरूरत है तो किसी चरवाहे की, कोई जो तुम्हें सांत्वना दे, "डरो मत। सिर्फ मुझ पर भरोसा करो और मैं तुम्हें बचा लूंगा। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा।'

किसी परमात्मा की जरूरत होती है जो सर्व शक्तिमान हो; उसे होना ही होगा, वर्ना वह कैसे अरबों लोगों का ध्यान रखेगा? उसे सर्व शक्तिमान होना ही होगा, संपूर्ण शक्तिशाली; सर्वज्ञ, सब कुछ जानने वाला; सर्वत्र उपस्थित, सब जगह उपलब्ध। यह तुम्हारी इच्छा है। और इस निर्भरता के कारण पुजारी निश्चित ही मानवता का शोषण करता है। कार्ल मार्क्स सही है, जब वह कहता है कि धर्म लोगों के लिए अफीम का नशा है। तथाकथित संगठित धर्म निश्चित ही लोगों के लिए अफीम का नशा है।

मैं नहीं कहूंगा कि धार्मिकता लोगों के लिए अफीम का नशा है। यह पूरी दूसरी ही बात है। परमात्मा नहीं, पिता नहीं, पुजारी नहीं, रबाई नहीं-तुम अपने स्वयं के पैरों पर खड़े हो। तुम्हारी श्रद्धा अस्तित्व में है, किसी बिचोलिए पर नहीं।

मेरा सारा प्रयास यह है कि तुम्हें मेरे ऊपर निर्भर नहीं होना चाहिए, भले ही तुम बुद्ध हो या न हो। यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो तो इसकी अधिक जरूरत है-कोई निर्भरता नहीं-क्योंकि निर्भर व्यक्ति आध्यात्मिक गुलाम होता है, और गुलाम को बुद्धत्व को उपलब्ध होने का कोई अधिकार नहीं है। जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो तब भी तुम्हें अपनी आत्मनिर्भरता की घोषणा करनी है, तुम्हारी स्वतंत्रता की घोषणा करनी है क्योंकि यह आत्मनिर्भरता तुम्हारे बुद्धत्व के मार्ग को निर्मित करेगा।

निश्चित ही बुद्धत्व के बाद किसी तरह की निर्भरता की जरूरत नहीं होती। क्योंकि वहां किसी तरह की निर्भरता की जरूरत नहीं होती, तुम अनुगृहीत हो सकते हो, तुम करुणावान हो सकते हो, और तुम गुरु की करुणा को समझ सकते हो। तुम्हारे अंधेरे में, अचेतन में गुरु की करुणा और प्रेम को समझना कठिन है।

लेकिन इस क्षण में इससे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं होना चाहिए। इस क्षण में, तुम्हारा सारी चिंता ध्यान की होनी चाहिए। ध्यान में गहरे जाओ और वहां तुम करुणा पाओगे और तुम करुणा की समझ पाओगे। तुम स्वतंत्रता पाओगे, और तुम पाओगे कि स्वतंत्रता का मतलब अकृतज्ञता नहीं है, धन्यवाद हीनता नहीं है।

इसको प्रकट करने की जरूरत नहीं है; तुम्हारा हृदय इसके साथ धड़केगा, तुम्हारा हृदय सतत घंटियां बजाएगा आनंद की, आशीष की और गुरु के प्रति परम अनुग"ह की। लेकिन यह निर्भरता नहीं है।

कोई भी गुरु जो प्रामाणिक है वह तुम्हारे से समर्पण की, तुम्हारी प्रतिबद्धता की मांग नहीं करेगा। ये धोखेबाज हैं जो तुम्हारे समर्पण की मांग करते हैं, जो तुम्हारी प्रतिबद्धता की बात करते हैं। यह कोई संप्रदाय नहीं है, यह पूरी तरह से वैयक्तिक लोगों का समूह है। यह कोई समाज नहीं है, न ही क्लब, न चर्च। यह संगठन नहीं है।

मुझे बांटने में आनंद आता है, और तुम प्यासे हो, और मेरे पास तुम्हारे साथ बांटने के लिए पर्याप्त पानी है। क्योंकि मैं रहस्य जानता हूं: जितना मैं बांटूगा उतना ही अधिक मेरे पास होगा, इसलिए मैं खोने वाला नहीं हूं-और तुम अस्तित्व में और उसके रहस्यों के प्रति अधिक से अधिक गहरी अंतर्दृष्टि लेते जाओगे।

लेकिन मेरे ऊपर निर्भर होने का कोई सवाल ही नहीं है। मैं बस तुम्हारा मित्र भर हूं। यदि तुम मुझे अपना गुरु कहते हो तो यह तुम्हारा प्रेम है। मुझे तुम अपना गुरु कहो इसके लिए कोई आदेश नहीं दिया गया है। तुम मुझे अपना मित्र कह सकते हो, तुम मुझसे बिना किसी संबोधन के प्रश्न पूछ सकते हो। संबोधन असली बात नहीं है। तुम मुझसे गहन प्रेम से जुड़े हो, बिना किसी शर्त के-न तो तुम्हारी कोई शर्त है, न मेरी। मैं इसे स्पष्ट करता हूं।

जब कभी तुम किसी को अपने पर निर्भर करते हो, तुम भी उस व्यक्ति पर निर्भर हो जाते हो। तुमने इस बारे में कभी सोचा है कि निर्भरता पारस्परिक घटना है? गुलाम का मालिक भी गुलाम का गुलाम है। लोगों का नेता भी लोगों का अनुसरण करने वाला है। नेता लगातार देखता रहता है कि भीड़ किधर जा रही है; वह आगे कूद पड़ता है ताकि नेता बना रहे। वह सतत वे बातें कहे चलता है जो भीड़ सुनना चाहती है, और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे नुकसानदायक या जहरीली हैं। जो भी भीड़ सुनना चाहती है वह कहे चले जाता है।

कभी भी किसी को अपने ऊपर निर्भर मत करना-तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति, तुम्हारे बच्चे-क्योंकि जितना तुम उन्हें अपने ऊपर निर्भर करोगे उतना ही तुम उन पर निर्भर होते चले जाओगे। अपनी पत्नी को, अपने पति को, अपने बच्चों को स्वतंत्र होने दो। आत्मनिर्भर होने में उनकी मदद करो, और यह तुम्हें उनसे मुक्त होने में मदद करेगा।

और यदि हम लोगों को आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता सिखा सकें तो धर्मों के सारे झूठ विदा हो जाएंगे।"

~ ओशो , क्रिश्चिटिएनिटी: दि डेडलिएस्ट पाय़जन एण्ड झेन: दि एंटीडोट टु ऑल पाय़जन

Thursday, April 11, 2013

" नया मनुष्य: नयी मनुष्यता " ~ ओशो

प्रश्न:- "प्यारे सद्गुरु! आपके विद्रोह का संबंध ‘जोरबा-बुद्ध’ के साथ किस तरह से है?"

ओशो:- " मेरा विद्रोही नया मनुष्य ही ‘जोरबा-बुद्ध’ है। मनुष्यता अभी तक यह विश्वास करते हुए जीती आई है कि या तो आत्मा ही एकमात्र वास्तविकता है तथा संसार और पदार्थ एक भ्रम हैं अथवा पदार्थ ही वास्तविक है और आत्मा मात्र एक भ्रम है।

तुम अतीत की मनुष्यता को, अध्यात्मवादियों और पदार्थवादियों में विभाजित कर सकते हो, लेकिन किसी ने भी मनुष्य की वास्तविकता की ओर देखने की फिक्र ही नहीं की। वे दोनों एक साथ हैं। वे न तो केवल आध्यात्मिक हैं—वे केवल मात्र चेतना ही नहीं है और न वे केवल पदार्थ हैं। वह चेतना और पदार्थ के मध्य एक बहुत बड़ी लयबद्धता है अथवा पदार्थ और चेतना दो अलग चीजें न होकर एक ही वास्तविकता के दो पहलू हैं। पदार्थ चेतना के बाहर का भाग है और पदार्थ का आंतरिक भाग है चेतना। लेकिन अतीत में ऐसा एक भी दार्शनिक, ऋषि अथवा विद्रोही रहस्यदर्शी नहीं हुआ, जिसने इस एकता की घोषणा की हो: वे सभी मनुष्य को विभाजित करन के पक्ष में थे, जो एक भाग को सच्चा और दूसरे भाग को झूठा कहते थे। इसने पूरी पृथ्वी में एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया, जहां मनुष्य के विचारों, भावों और कार्यों में कोई तारतम्य नहीं रह गया।

तुम केवल एक शरीर बनकर ही नहीं जी सकते। जीसस के कहने का भी यही अर्थ है, जब वह कहते हैं-‘मनुष्य अकेला रोटी से ही नहीं जी सकता।’ तुम अकेली चेतना बनकर भी नहीं जी सकते और न ही तुम बिना रोटी के जीवित रह सकते हो। तुम्हारे होने के दो आयाम हैं और दोनों आयामों को विकास का समान अवसर देकर दोनों को परिपूर्ण बनाना है। लेकिन अतीत एक आयाम के पक्ष में और दूसरे के विरोध में अथवा दूसरे के पक्ष में और पहले के विरोध में रहा है।

मनुष्य को उसकी समग्रता में स्वीकार नहीं किया गया है और इसने दुख और वेदना के घने अंधेरे की, हजारों वर्षों से, एक ऐसी रात उत्पन्न कर दी है जिसका लगता है जैसे कोई अंत है ही नहीं। यदि तुम शरीर की बात सुनते हो तो तुम स्वयं अपने को ही बुरा कहते हो और यदि तुम शरीर की बात नहीं सुनते हो तो तुम दुख भोगते हो क्योंकि तुम्हें भूख लगती है, प्यास लगती है और तुम्हें गरीबी के अभाव झेलने होते हैं। यदि तुम केवल चेतना की बात सुनते हो तो तुम्हारे विकास का संतुलन गड़बड़ा जाएगा: तुम्हारी चेतना का तो विकास होगा, लेकिन शरीर सिकुड़ जाएगा और संतुलन खो जाएगा और संतुलन में ही तुम्हारा स्वास्थ्य है, संतुलन में ही तुम्हारी समग्रता है, संतुलन में ही तुम्हारा आनंद, गीत और नृत्य है।

पश्चिम ने शरीर की बात सुनने का चुनाव किया और जहां तक चेतना की वास्तविकता का संबंध है, वह पूरी तरह बहरा बन गया। इसका अंतिम परिणाम है-विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति और तुच्छ सांसारिक वस्तुओं से समृद्ध एक स्वतंत्र और उन्मुक्त समाज। इस प्रचुर समृद्धि के बीच, बिना आत्मा का गरीब मनुष्य पूरी तरह खो गया है-कोई जानता ही नहीं कि वह है कौन, वह है भी या नहीं है और कोई नहीं जानता कि वह है क्यों और किसी दुर्घटनावश कभी यह ख्याल आ जाता है कि ऐसी दुर्लभ किस्म का कोई मनुष्य होता भी है।

जब तक चेतना का विकास भौतिक जगत की समृद्धि के साथ-साथ नहीं होता, शरीर और पदार्थ बहुत अधिक भारयुक्त हो जाते हैं और आत्मा बहुत कमजोर बन जाती है। अपने ही आविष्कारों और खोजों के कारण तुम्हारे ऊपर बहुत अधिक भार है। वस्तुतः तुम्हारे लिए एक सुंदर जीवन निर्मित करने के स्थान पर वे एक ऐसा जीवन निर्मित करते हैं जिसे पश्चिम के सभी बुद्धिजीवियों द्वारा जीवन के अयोग्य अनुभव किया गया है।

पूरब ने चेतना का चुनाव किया है और पदार्थ की निन्दा की है। उनके अनुसार प्रत्येक भौतिक वस्तु जिसमें शरीर भी सम्मिलित है, एक माया है। एक भ्रम है, वह मरुस्थल में एक मृगतृष्णा के समान दिखाई देती है और जिसकी कोई वास्तविकता नहीं है। पूरब ने गौतम बुद्ध, महावीर, पतंजलि, कबीर, फरीद और रैदास जैसे लोग उत्पन्न किए और पूरी तरह होश से भरे हुए इन महान चेतना-पुरुषों की लम्बी शृंखला है। पर इसी ने उत्पन्न किया उन लाखों करोड़ों गरीबों को, जिनके पास न खाने को पर्याप्त अन्न, न पर्याप्त वस्त्र और न सिर छिपाने को छत है और जो कुत्तों की तरह भूखों मर रहे हैं।

बड़ी अजीब स्थिति है-पश्चिम में वे हर छः महीनों बाद अरबों डालर कीमत के दुग्ध उत्पाद और अन्य भोजन सामग्री आवश्कता से अधिक होने के कारण समुद्र में डुबो देते हैं। वे यह नहीं चाहते कि उनके गोदामों पर अतिरिक्त भार हो और वे अपने आर्थिक ढांचे को सुदृढ़ रखने के लिए उनकी कीमतें भी नहीं घटाना चाहते। एक ओर इथोपिया में एक हजार मनुष्य प्रतिदिन की दर से भूखों मर रहे हैं तो दूसरी ओर इसी वक्त यूरोप का साझा बाजार करोड़ों डालर का भोजन नष्ट कर रहा है। यह राशि भी उस भोजन सामग्री का मूल्य नहीं है, यह वह लगता है जो भोजन सामग्री को समुद्र तक ले जाने और उसे डुबोने में खर्च होती है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है?

पश्चिम का सबसे अधिक धनी व्यक्ति आत्मा की खोज कर रहा है और अपने को खाली पा रहा है। क्योंकि उसके पास केवल वासना है जिसमें प्रेम की कहीं कोई सुवास नहीं और उसके पास रविवारीय स्कूल में सीखे गए वे शब्द हैं जिन्हें वह तोते की तरह दोहराता है पर उस प्रार्थना में हृदय की पुकार और श्रद्धा नहीं। उसके पास कोई धार्मिकता नहीं, मनुष्य जाति की भलाई के लिए कोई भावना नहीं; पक्षियों, वृक्षों और पशुओं के प्रति, समस्त जीवन के प्रति कोई श्रद्धा नहीं और तभी विनाश इतना अधिक सरल है।

यदि मनुष्यों को पदार्थ मात्र ही न माना गया होता तो हिरोशिमा और नागासाकी में यह विनाश हुआ ही न होता। यदि ख्याल होता कि प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा ही छिपा है तो इतने अधिक आणविक अस्त्र-शस्त्रों का ढेर इकट्ठा ही न किया गया होता और मनुष्य में छिपी परमात्मा की आभा को नष्ट करके, उसके शरीर को परमात्मा का मंदिर मानते हुए उसे प्रकाश में लाया जाता, लेकिन यदि मनुष्य केवल एक पदार्थ या वस्तु है, केवल भौतिक या रसायन शास्त्र ही है और वह यदि खाल से मढ़ा एक हड्डियों का ढांचा मात्र है, तब मृत्यु के साथ प्रत्येक वस्तु मर जाती है और कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसी वजह से यह संभव हो पाता है कि बिना किसी हिचक के एडोल्फ हिटलर साठ लाख व्यक्तियों की हत्या कर दे। यदि सभी व्यक्ति केवल पदार्थ ही हैं तो इस बारे में दोबारा सोचने का प्रश्न ही कहां उठता है?

पश्चिम ने अपनी आत्मा खो दी है, अपने आंतरिक स्वभाव को खो दिया है। अर्थहीनता, ऊब और वेदना से घिरे हुए वह स्वयं को ही नहीं खोज पा रहा है। विज्ञान की सभी सफलताएं अनुपयोगी सिद्ध हो रही हैं, क्योंकि घर प्रत्येक वस्तु से भरा हुआ है, लेकिन घर का मालिक ही खोया हुआ है। यहां पूरब में मालिक जो जीवित है, लेकिन घर पूरी तरह खाली है। भूखे पेटों और बीमार शरीरों के साथ जहां तुम्हारे चारों ओर मृत्यु घिरी हो, आनंद-उत्सव मनाते हुए ध्यान करना ही असंभव है। अनावश्यक रूप से इसीलिए हम लोगों ने इतना सब कुछ खो दिया है।

हमारे सभी संत, सभी दार्शनिक, अध्यात्मवादी और पदार्थवादी दोनों ही मनुष्य के विरुद्ध किए गए इस अपराध के प्रति उत्तरादायी हैं। जोरबा-बुद्ध होना ही इसका एकमात्र एकमात्र है। यह पदार्थ और आत्मा का संश्लेषण है। यह इस बात की घोषणा है कि अब पदार्थ और चेतना के बीच कोई संघर्ष ही नहीं है और हम दोनों तरह से समृद्ध बन सकते हैं। हमारे पास प्रत्येक वह वस्तु हो सकती है जो संसार हमें उपलब्ध करा सकता है, विज्ञान और तकनीकी ज्ञान से जिसे हम उत्पन्न कर सकते हैं और इसके साथ-साथ हमारे पास वह भी प्रत्येक चीज हो सकती है, जिसे कोई एक बुद्ध, कोई नानक और कोई एक कबीर अपने अंदर अस्तित्व में अनुभव करता है, जिसके अंदर परमानंद की खिलावट होती है, भगवत्ता की सुवास चारों ओर फैल जाती है और सर्वोच्च स्वतंत्रता से उड़ान भरने के लिए जिसे पंख मिलते हैं।

जोरबा-बुद्ध होना ही नया मनुष्य होना है और यही होता है-विद्रोही। उसका विद्रोह नष्ट करता है मनुष्य की वह मानसिकता जिसमें उसके विचारों, भावों और कार्यों मंे तारतम्यता नहीं होती, वह नष्ट करता है उसके अंदर का विभाजन और नष्ट करता है वह आध्यात्मिकता, जो पदार्थवाद के विरुद्ध है और इसके ही साथ उस भौतिकता को भी नष्ट करता है जो आध्यत्मिकता के विरुद्ध है।

उसका घोषणा पत्र है कि शरीर और आत्मा दोनों साथ-साथ हैं और पूरा अस्तित्व आध्यात्मिकता से आपूरित है, यहां तक कि पर्वत भी जीवंत हैं और वृक्ष भी संवेदनशील हैं और पूरे अस्तित्व में पदार्थ और चेतना दोनों एक साथ हैं अथवा केवल एक ऊर्जा ही है, जो दो रूपों में अभिव्यक्त हो रही है। जब ऊर्जा शुद्ध होती है वह अपने आपको चेतना के रूप में अभिव्यक्त करती है और जब वह अशुद्ध कच्चे रूप में सघन हो जाती है वह पदार्थ के रूप में दिखाई देती है, लेकिन पूरा अस्तित्व और कुछ भी नहीं, वरन् बस एक ऊर्जा-क्षेत्र है।

यह कोई तत्वज्ञान न होकर मेरा अपना अनुभव है और अब भौतिकशास्त्र और उसकी खोजों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि अस्तित्व केवल एक ऊर्जा है।

हम मनुष्य को दोनों संसारों में साथ-साथ रहने की अनुमति दे सकते हैं। उसे दूसरा संसार पाने के लिए इस संसार को छोड़ने की जरूरत नहीं है और न उसे इस संसार का आनंद उठाने के लिए दूसरे संसार से इन्कार करना है। वास्तव में जब तुम दोनों संसारों को एक साथ पाने में समर्थ हो तो फिर केवल एक संसार के साथ अनावश्यक रूप से गरीब बनकर क्यों रहा जाए?

जोरबा-बुद्ध होना ही समृद्धतम संभावना है। वह सर्वाधिक अपने स्वभाव के अनुसार जीएगा और वह इस पृथ्वी के गीत भी गाएगा। न तो वह पृथ्वी को धोखा देगा और न आकाश के ही साथ दगा करेगा। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी सुंदर और आनंददायक है, जैसे विविध रंगों के सुवासित फूल, वह उन सभी पर अपने अधिकार की घोषणा करेगा और साथ-ही-साथ आकाश में चमकते सितारे भी उसके ही होंगे। वह दावा करेगा कि यह पूरा अस्तित्व ही उसका अपना घर ही है।

अतीत का मनुष्य बहुत निर्धन था, क्योंकि उसने अस्तित्व को विभाजित कर दिया था। नया मनुष्य, मेरा विद्रोही जोरबा दि बुद्धा पूरे संसार को अपना घर होने का दावा करता है। इसमें जो कुछ भी है वह हमारा है और हमें हर संभव तरीके से इसका उपयोग करना है-बिना किसी अपराध-भाव के, बिना किसी संघर्ष के और बिना किसी चुनाव के। बिना किसी चुनाव के जितनी तुम्हारी शक्ति और सामर्थ्य हो, सभी पदार्थों का उपयोग करो और जितनी तुम्हारी शक्ति और योग्यता हो, उस सभी का जो चेतना में हैं, आनंद लो।
-एक जोरबा बनो लेकिन वहां रुको मत।
-बुद्ध बनने की ओर गतिशील होते रहो।
-जोरबा आधा है और बुद्ध भी आधे हैं। "
ओशो, एक नई मनुष्यता का जन्म ♥...

भौतिकवादी कहता है: खाओ, पीओ, मौज करो। बस, खतम। हसीद फकीर कहता है: खाओ, पीओ, मौज करो। फिर बात शुरू होती है। उसके बाद ही असली बात शुरू होती है। जब तक तुम खाने-पीने में भी मौज न ले सकोगे, तब तक तुम और ऊंची मौज न ले सकोगे।
कल किसी मित्र ने पूछा था न, किसी वाचस्पति ने, कि आपने कह दिया कि यह धर्म-चक्र-प्रवर्तन नहीं है। यहां तो मजा-मौज है। यह तो मयखाना है, मयकदा है। वे बेचारे वे ही पंडितों, और महात्माओं के, और साधुओं के शब्दों से भरे होंगे। उनका कुछ कसूर नहीं। वही निंदा!
निश्चित मैं कहता हूं: खाओ, पीओ, मौज करो। कहता हूं, यह मयकदा है। क्योंकि मयकदा ही मंदिर बन सकता है। जहां पीने वाले न हों, वहां मंदिर नहीं। और जहां पियक्कड़ बैठ जाएं, वहां आ गई काशी, आ गया काबा।
लेकिन पियक्कड़ के दो पहलू हैं। जैसे कि हमारे जीवन की हर चीज के दो पहलू हैं: एक शरीर और एक आत्मा। शरीर को भी मत उपेक्षा करो। उसे भी खाने दो, पीने दो। वह भी तो परमात्मा का ही रूप है, उसकी अभिव्यक्ति है। उसके भी तो कण-कण में परमात्मा ही समाया हुआ है। पदार्थ भी तो परमात्मा है।
शरीर को भी खाने दो, पीने दो, मौज करने दो। यह तो पहला पाठ है मौज का। मगर यहीं रुक जाओ, तो भौतिकवादी। और अगर इससे आगे बढ़ो--तो अध्यात्म। फिर आत्मा की भी मौज है। आत्मा का भी खाना है; आत्मा का भी पीना है, आत्मा की भी मस्ती है, आत्मा की भी मधुशाला है। उसको मैं मंदिर कहता हूं।
पहले शरीर का मयकदा बनने दो। फिर आत्मा का बुतखाना भी बना लेंगे। कुछ अड़चन नहीं है। मगर बात शुरू से शुरू होनी चाहिए, अ ब स से शुरू होनी चाहिए। शरीर से प्रारंभ--आत्मा पर अंत। हसीदों की यही जीवन-दृष्टि है।
मैं हसीदों से पूरी तरह राजी हूं। मैं बिलकुल सरलता से कह सकता हूं कि मैं एक हसीद हूं। और मैं चाहता हूं कि दुनिया में अब उस धर्म की स्थापना हो, जो शरीर और देह का इनकार न करता हो; जो पदार्थ का और बाह्य का अस्वीकार न करता हो। जो जीवन का समग्ररूपेण अंगीकार करता हो--परिधि भी और केंद्र भी। आखिर परिधि भी तो केंद्र की ही है। और केंद्र भी परिधि के बिना कहां?
आत्मा और देह एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं; एक भीतरी--एक बाहरी। शरीर है आत्मा का बहिरंग, और आत्मा है शरीर का अंतरंग। मत करो भेद। भेद के कारण मनुष्य जाति खंडित हो गई। मनुष्य जाति के भीतर प्रत्येक व्यक्ति टुकड़े-टुकड़े हो गया। अब छोड़ो सब भेद। इसको मैं सच्चा अद्वैतवाद कहता हूं।
***ओशो****